याश्का की सन्तानें / गलीना शेर्बअकोवा / अनिल जनविजय
मैं थक चुका हूँ इस याश्का से ! लेकिन मैं बहुत दिनों से ’चेरी के बग़ीचे’ के इस छुटकू की हरकतों को देख रहा हूँ और उन पर गौर कर रहा हूँ, जिसने अपने साथी घरेलू नौकर बूढ़े फ़ीर्स को क़रीब-क़रीब मार ही डाला था। यह याशा भी वैसा ही था, जैसा च्येख़फ़ ने अपने नाटक में याशा को चित्रित किया है।
आन्या : याशा माँ का नौकर है। हम उसे अपने साथ यहाँ ले आए थे।
वार्या : हाँ, मैंने उस बदमाश को देखा है।
वार्या : तेरी माँ गाँव से आई है और कल से ही दालान में बैठी हुई है। वो तुझसे मुलाक़ात करना चाहती है।
याश्का : अरे, ख़ुदा तो उसके पास है ही।
दुन्याशा : सुनो याशा ! अगर तुम मुझे धोखा दोगे तो शायद मेरी तो जान ही निकल जाएगी ... !
याशा (उसे चूमता है) : ... अरे, मेरी ककड़ी ... हाँ, हर लड़की को अपना ख़याल ज़रूर रखना चाहिए। मुझे यह बात बिल्कुल पसन्द नहीं है कि कोई लड़की मनचली हो और उसका चाल-चलन ख़राब हो। ... मेरा मानना है कि अगर लड़की किसी को प्यार करती है तो उसका चाल-चलन अच्छा नहीं है।
याशा (फ़ीर्स से) : बुड्ढे, तूने तो मुझे परेशान कर डाला (जम्हाई लेता है) ... अरे, तू जल्दी से मर जा, तो बला कटे ... ल्युबोफ़ अन्द्रयेइव्ना, आपसे एक अरज है ... अगर आप फिर पेरिस जाएँगी तो दया करके मुझे अपने साथ ले चलिएगा ... यहाँ पर रहना अब मेरे बस की बात नहीं है। अनपढ़ों का देश है यह ... लोग बदचलन हैं ... बड़ी ऊब होती है, ढंग का खाना भी नहीं मिलता यहाँ ... और ऊपर से यह फ़ीर्स भी मेरे आगे-पीछे घूमता रहता है, कुछ न कुछ बुड़बुड़ाता हुआ ...।
आन्या : क्या फ़ीर्स को अस्पताल में दाख़िल करा दिया है?
याशा : सुबह से ही कह रहा था, इसलिए भेज दिया। कुछ तो सोचना चाहिए।
वार्या : याशा कहाँ है? उससे कहो कि उसकी माँ आई हुई है और जाने से पहले उससे मिलना चाहती है।
याशा (हाथ हिलाते हुए) : आपे से बाहर कर देते हैं मुझे ... छह दिन बाद मैं फिर पेरिस में होऊँगा ... फिर देखना हमें ... फ़्रांस की जय हो। यह जगह मेरे रहने लायक नहीं है ... पर क्या किया जा सकता है ... बदहाली बहुत देख ली ... बहुत हुआ – अब छुटकारा चाहता हूँ ...!
याश्का – घरेलू नौकर है। लेकिन कृषिभूदास से आदमी बनने का यही सबसे छोटा रास्ता है। वह नौकर नहीं है – चापलूस है, वह मेहनत नहीं करता, ज़रा भी वफ़ादार नहीं है, उसके भीतर से बेवफ़ाई की बू आती है, दिखावा इतना ज़्यादा करता है कि उबकाई आती है।
और आइए, अब अपनी ज़िन्दगी पर एक नज़र डालते हैं। क्या घरेलू नौकर होना ज़िन्दगी में सुखी होने के लिए एक आकर्षक रास्ता नहीं बन गया है? सफलता, सत्ता और समृद्धि पाने के लिए यह रास्ता दूसरे किसी भी रास्ते से छोटा नहीं है? याश्का के चरित्र की मूल ख़ासियतें हमेशा ही ज़िन्दगी में बनी रही हैं। अपनी माँ और अपने वतन के लिए कुदरती तौर पर दिखाई देने वाली नफ़रत, ख़ुशामद भरा दिखावा और अपने मालिक के लिए मतलब भरी वफ़ादारी और सर्वहारा को, ग़रीबों को नीची नज़र से देखने की भावना !
हे भगवान, कितना घिनौना है यह सब । क्या इसी सबको लेकर ही च्येख़फ़ ने यह नहीं कहा था – ख़ुद को ग़ुलाम महसूस करने का ख़याल हमें अपने मन से पूरी तरह निकाल देना चाहिए। क्या इन शब्दों में जो चुभन भरी हुई है, वो आज ज़रा भी कम हुई है? वह समय कब आएगा, जब याश्का की सन्तानें नौकर नहीं होंगी और हमारे इस घर में ख़ुद सभी फ़ैसले करेंगी?