या वह भी नहीं / योगेश गुप्त
प्रेम आदमी के दिमाग को कुन्द करता है, नफरत से नजर साफ होती है, जुबान खुलती है, फफूंद कटती है।
उसने सोचा है।
यह सूरज डूबते-डूबते रुक क्यों गया? घण्टों से चिमनी के ऊपर आलथी-पालथी मारे बैठा है। छत से उसे दीखा है।
वह फूल जो सूरज की तरफ मंुह किये खड़ा था, गिर गया है। हवा उसे नदी की तरफ ले जा रही है। हमारे यहाँ फूल नदी में बहाये जाते हैं... बच्चे भी... पत्थर बांधकर मरने के बाद भी तैर न सकें... फूल तैरता हुआ जा रहा है...
छत पर सामने पेड़ों की चहारदीवारी में बने हवनकुण्ड और उनसे उठती लपटें दीख रही है... सामने श्मशान है-यह आदमी मरकर कहाँ जाता है?
ओउम पूर्णमिदं-पूर्णमिदं स्वाहा... सर्व वै पूर्णऽम् स्वाहा...
उसके कानों में उसके पिता की आवाज गूंजी है... उसके पिता हवन बहुत करते थे... उसने सोचा है... जो आदमी प्रेम करता है सीधा नरक जाता है, जो नफरत करता है सीधा स्वर्ग जाता है। जो न प्रेम करता है न नफरत, सुष्टि के आरंभ से अंत तक धरती पर ही पड़ा रहता है...
चलो... ठीक हो गया... कम से कम मैं हवनकुण्ड में बैठकर स्वर्ग जाऊंगा...
वह जोर से हंसा है...
सूरज चिमनी पर से गिरकर फूट गया है। "
उसने उस दिन उससे कहा था-
"यह क्या हर समय बदन पर कपड़े चिपकाये रहती हो... तुम्हें घिन नहीं आती?"
"क्या मतलब?"
"कपड़े आदमी को खुद से अपरिचित करते हैं।"
"तुम्हारा मतलब है, मैं बिना कपड़ों के घूमा करूं?"
"यह मेरा मतलब नहीं है।"
"तो? क्या मतलब है तुम्हारा... पागल...?"
"मेरा मतलब था, जो मन से कसक पैदा करे वैसा काम आदमी क्यों करता है?"
"मैं जाती हूँ।" तुम्हारे साथ बैठना खुद को अपमानित करना है। "
"ठीक है। जाओ."
कोई जाने लगता है तो दिमाग कैसे पिघलता है...
पर दिमाग को बर्फ बनाये रखने के लिए, कोई जाना तो टाल नहीं सकता... हां, वह तो है...
फूटे हुए सूरज से धुआं उठ रहा है... खुद सूरज को ही ढंके ले रहा है "साबित सूरज रोशनी फेंकता है... फूटा हुआ सूरज धुआं... सब उसे अँधेरा कहते हैं... जो रोशनी देता है, वहीं अँधेरा देता है... फूल की पंखुड़ी को उंगली की पोर से छूना कितनी गुदगुदी करता है... चुटकियों से नोंच-नोंच कर फेंकने में भी मजा आता है... पर हरी पत्तियों में छुपा फूल, या गमले की कलई की तरह चमकता कागजी फूल आंखों को चुभता है।"
अंधेरा छत की मुण्डेर पर आकर बैठ गया है... कौवे की तरह... बोलेगा... कांव-कांव... पर जमाना बदल गया है... पहले कौवा बोलता था तो मेहमान आता था... अब कौवा बोलता है, तो नींद आती है... पहले नींद आती थी तो सपने आते थे... अब नींद आती है तो हवनकुण्ड में बैठने की रिहर्सल शुरू हो जाती है...
सोना शरीर का धर्म है... नाटक आदमी का धर्म...
तो ठीक है... होने दो रिहर्सल शुरू...
उस दिन उसने पूछा था...
"तुम्हें पता है, तुम कौन हो?।"
"तुम्हें पता है?"
"हाँ मुझे पता है।"
"तो फरमा दीजिए, मैं कौन हूँ?"
उस दिन उसने बताया था-
"तुमने कभी सपना देखा है?"
"बेवकूफ से बेवकूफ आदमी देखता है।"
"हाँ, देखता है। पर बेवकूफ आदमी सपने का 'क्रिस्टल' कभी नहीं देख पाता।"
"वह ता मैंने भी कभी नहीं देखा। सिर्फ़ पागल ही देख पाते होंगे। तुमने देखा होगा। कैसा होता है वह?"
"सच बात है। मैने देखा है। तुम्हें सपने के क्रिस्टल में बदलते देखा है और... तुम्हें ताज्जुब होगा, उस दिन से मैं भी बदल गया हूँ..."
"तुम क्यों बदल गये हो?"
"ठहरो समझाता हूँ, ज़रा साँस ले लूँ। मेरा मन उस अनुभव को याद करके काँप उठता है...मुझे लगा था, तुम भाप बनकर उड़ जाओगी, एक सती की तरह, कुछ ही देर में... तुम जहाँ बैठी थी, बस... तुम्हारी साड़ी पड़़ी रह जायेगी, एक मुठृी-भर ढेरी, कपड़ों की..."
"यह क्या ऊल-जुलूल बक रहे हो, बात बताओ..."
"बताता हूँ, तूमने वह फूल देखा है, जो सूरज की तरफ मुहँ किये खड़ा था-सूरज को फूटते देखते ही गिरकर ढेर हो गया है..."
"तो? उस बात से तुम्हारी पहली बात की क्या तुक है?"
"है...तुम्हें पता है, फूल और आदमी में क्या फर्क होता है?"
"देखो, ये वाहियात बातें छोड़ो, न मुझे पता है, न पता करना चाहती हंू। मैं जाती हंू।"
"चली जाना। जाना तो खैर तुम्हें है ही। मैं जानता हूँ, मेरे सामने बैठने से तुम्हारी पुतलियों की पारदर्शिता धुंधली हो जाती हे... उसमें तुम्हें कष्ट होता होगा... तुम..."
"फूल और आदमी में क्या फर्क होता है?"
"डरो नहीं, अपनी व्यथा की बात नहीं कर रहा... वह सुनकर तुम्हें बोर करना नहीं चाहता... दरअल फूल और आदमी मंे एक छोटा-सा फर्क होता है... फूल अपने प्रिय के अवसान पर गिरकर ढेर हो जाता है और आदमी, बस बैठे-बैठे एक पारदर्शी 'क्रिस्टल' में बदल जाता है" कोई उसे जगा दे तो ठीक है, नहीं तो भाप बनकर... उस दिन..."
"उस दिन की बात मत करो... यह बताओ... तुम क्यों बदल गये हो?"
"मैं? ... भला मैं क्यों बदलूंगा..."
"तुमने कहा था... अब से पहले..."
"अब से पहले कहा होगा... अब नहीं कह रहा... वैसे भी, 'कल' , 'आज' और 'कल' की कतार में कहीं भी जिसकी जगह न हो वह बदलने या न बदलने का नाटक करे भी तो उसके मानी क्या है... तुम उस दिन..."
"चुप क्यों हो गये? मैं उस दिन ...?"
"तुम उस दिन सच के तीनों आयामों का इकट्ठा झेल रही थी, अकेले जी रही थी... एक पारदर्शी 'क्रिस्टल' बनी बैठी थी" "किसी के अवसान की खबर तुम्हें मिली थी... और यह सच है कि मेरे शरीर पर चिपकी सारी उच्छृंखलता उस दिन भुरभुरी होकर झर गयी थी... आरै... अब, बस, जिस दिन मेरा सूरज फूटेगा, मैं गिर कर ढेर हो जाऊंगा, मैंने मान लिया है, 'क्रिस्टल' बनना, मेरे नसीब में नहीं है..."
"तुम..."
" नहीं-ई, मेरे प्रति दया-ममता महसूस करने की ज़रूरत नहीं है... मेरे अंदर सोई घृणा जाग चुकी है... उसकी धार पहले ही बहुत तेज है... आज तक प्राप्त करुणा-दया-ममता ने ही इसे यह धार दी है... मैं तुमसे घृणा करना नहीं चाहता... तुम मुझे...
"रोओ भी मत... मैं किसी भी हालत में तुमसे पहले नहीं मरूंगा... अंदर की सच्चाई को भेद लेना चाहंूगा... तुम्हारे मरने की खबर का मुझ पर क्या असर होता है, जानना चाहूँगा... जानना चाहंूगा, कहीं मैं तुम्हें धोखा तो नहीं दे रहा था... जानना चाहूँगा, तुम्हारा उसके प्रति प्रेम भारी पड़ता है, या मेरा तुम्हारे प्रति... और अब, सुना, जाओ, मैं पिघलना चाहता हूँ।"
हर छत पर एक दो फीट चौड़ी मुण्डेर होती है। आदमी गिर न पड़े इसलिए. वह उस मुण्डेर पर लेटा है। फूटे हुए सूरज ने इतना अँधेरा उगल दिया है कि दुनिया का आधा मुंह काला हो गया है। वह आसमान की तरफ मुंह किये सपाट लेटा है। उसका मन करवट लेने को कर रहा है। बाईं तरफ करवट लेगा तो धरती पर पहुंच जायेगा और दाई तरफ लेगा तो छत के ताबूत में बंद हो जायेगा, काले आकाश में दफन होने के लिए. सपाट लेटने में बड़ी ऊब है। तो करवट ले ले। र्दाइं तरफ, नहीं, र्बाइं तरफ।
नहीं, बाईं तरफ नहीं, उससे पहले नहीं मरना है...
काले आकाश में दफन होने में एक सुख है...
दूसरे की मौत का इन्तजार बड़ी तसल्ली से कर सकता है...
दूसरे की मौत का नहीं, उसकी मौत का, यानी अपना सच जानने का...
नींद आ रही है...
ठीक है, सो जाना चाहिए...
फिर कोई-सी करवट ले लो, पता नहीं चलेगा...
यह फैसला भी अपने हाथ में क्यों लेते हो...' जब आज तक अपने बारे में कोई भी फैसला तुम खुद नहीं कर सके...
ठीक है, सो ही जाते हैं...
पता चलेगा तुम्हारा शरीर तुम्हारे मन की आवाज समझता है या नहीं? तुम्हारे साथ न्याय करता है या नहीं? तुम्हारी मौत की खबर... किसी केा स्तब्ध नहीं होना... कोई-कोई खबर सिर्फ़ हवा होती है...
बस, सिर पर से निकल जाती है...,
या सिर्फ़ बदन छूकर...
या वह भी नहीं।