युग बदल रहा है:सुदर्शन रत्नाकर / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
यह युग इस तरह बदल रहा है कि हर बदलता हुआ रूप कवयित्री सुदर्शन के हृदय को विभिन्न कोणों से कचोटता है। व्यक्ति पीड़ा और निराशा घनीभूत होकर समष्टिगत हो जाती है। न तो वह सुखों के लिए तरस रही है और न व्यथा भार से पलायन कर रही है। वह जीवन की हर विसंगति से जूझने को तत्पर है। निराशा में उपेक्षा का भाव जरूर है, परन्तु घुटने टेक देने का नहीं। विभिन्न स्तरों पर जो संघर्ष उभरकर सामने आता है, वह अस्तित्व के लिए है-
उधार लिये पंखो से / उड़ा तो जाता है/ लेकिन / ऊँचाइयों को छूकर /उन कोमल पंखों की सीढ़ी बनाकर / उतरता नहीं मन । उधार में ली गयी ऊर्जा से कितने दिन चला जा सकता है? अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए तमाम विरोधाभासों को काट फेंकने की क्षमता होनी चाहिए-
मेरा अस्तित्व ही न रहे/नहीं ऐसा नहीं होगा। मैं लोगों के इस जंगल को काट दूँगी / ताकि मैं बौनी न रहूँ। (42)
अस्मिता का यह संघर्ष तरह- तरह के / प्रश्नों से आकुल हो उठता है-
क्यों होता है ऐसा/ हर बार/मेरे साथ / मैं जीना चाहती हूँ/ लोग मुझे परने को कहते हैं।(60)
अस्तित्व के इस संघर्ष में आधुनिक युग की यांत्रिकता और रिश्तों की विडम्बना आग में घी का काम करती है। सहज संबंधों को कुचलकर बनावटी रिश्ते क्षणिक आकर्षण जगाते हैं-
कुछ रिश्ते अनुबंधों से चलते हैं/ कुछ अनुबंधों से टूट जाते हैं।(13)
अनुबंध कभी रिश्तों को प्राणवान नहीं बना सकते; अतः कवयित्री दो टूक बात कहती है-
अब जो बुझ गया है। उसे जलाऊँगी नहीं/ फूल श्रद्धा के और/ चढ़ाऊँगी नहीं।'(53)
मनुष्यता और संबंध एक दूसरे के पूरक हैं। जब मनुष्यता मरती है, तब रिश्ते भी मरते हैं। दुविधाग्रस्त जीवन विडम्बना बनकर रह जाता है। इससे उत्पन होता है, रिश्तों का अजनवीपन ।
हर सुबह एक जिन्दगी जीता है मन
हर शाम एक जिन्दगी से कट जाता है।(22)
यह अजनीबपन और कटु लगने लगता है। अपनापन खोना ही कटुता है-
तुम्हारे आने पर / गली के कुत्ते भौंकने लगते हैं/ शायद तुमसे आती/ उस अजनबीपन महक को / वे भी पहचानने लगे हैं।(4)
स्मृति की कसम एवं एकाकीपन कवयित्री को व्यथित करते रहते हैं। यह एकाकीपन निर्जन का एकाकीपन नहीं वरन् भीड़ में भी अपने को नितान्त एकाकी महसूस करना है-
बादलों की तरह / तुम्हारी याद मेरा पीछा करती रही। (45)
और –
मेरे कल के सपने / मेरी आँखों में/ आज भी तैर जाते हैं।(47)
स्मृति और स्वप्नों की आँख- मिचौनी के खेल में निपट अकेली और एकाकी हो जाती है। सामने होने पर-
स्वप्न-सा लगता है। जब तुम सामने होते हो। (50)
संवेदना की सहजता सुदर्शन जी की अपनी विशिष्टता है। कविता की सहज अभिव्यक्ति के नीचे भावधारा की कई पर्तें हैं, जो उद्वेलन से परिपूर्ण हैं। आदमी अपनों से बहुत कुछ पाता है। यथा-
कुछ दर्द हैं, जो अपने होते हैं/ कुछ ऐसे हैं, /जो अपनों के दिए होते हैं।(23)
मार्मिक बातों को सहज रूप में कहना औरों के लिए कठिन हो सकता है; किन्तु सुदर्शन जी के लिए नहीं-
मैं जानती हूँ/ तुमने देखा होगा मुझे/ दूर तक जाते हुए।(51)
इस देखते रहने का विश्वास पाकर भी वह लौटना जरूरी नहीं समझती। निराशा और वेदना भी जीवन के सत्य हैं। ‘तुमने कहा था’ कविता में इस बात को सहर्ष स्वीकार किया गया है-
जिसके अंचल में काँटे बँधे हों
फूल कैसे पाएँगे उसके पास।(55)
इस कटु यथार्थ से वह मुँह नहीं मोड़ती, वरन् उसे आत्मसात् करने को तत्पर है-
लेकिन जब तक तुम/ आसमान पर हो/ और मैं धरती पर/ मेरे हाथ तुम्हें छू नहीं सकते।(58)
लेकिन ऐसा नहीं कि उसने आसमान को छूने का प्रयास न किया हो। प्रयास किया है, तभी तो अपनी शक्ति का एहसास है। एहसास का यह वामन रूप अपनी आतंरिक ऊर्जा के कारण विराट का बीज बन सकता है-
जब भी मैंने एड़ियाँ उठाकर / आसमान को छूने की कोशिश की है। मैं हर बार औंधे मुँह गिरी हूँ; लेकिन गिरने पर और घायल होने पर भी उसने बहते खून को नहीं पोंछा ; क्योंकि उससे ज्यादा घाव तो हृदय में हुआ है।
अपने दुःख को नीलकण्ठी बनकर पीने वाली सुदर्शन दूसरों का दुःख देखकर व्यग्र हो उठती हैं, तब इनके कोमल शब्द खर शर का रूप धारण कर लेते हैं:-
तुम्हारे नारों की आवाज़, सूखे पत्तों का शोर है।
जो आँधी के एक झोंके से बिखर जाता है।(38)
‘नर कंकालों का नर्तन’ कविता में ‘सुना है बहुत व्यस्त रहते हो’ की व्यंजना बहुत धारदार है-
सुना है तुम बहुत व्यस्त रहते हो
चींटियों और जोकों से घिरे रहते हो।(39)
चींटीं और जोंक के लाक्षणिक प्रयोग से पददलित लोगों की उपेक्षा करने वालों की अच्छी खबर ली गई है।
नए प्रतीक के प्रयोग में सुदर्शन जी काफी सजग भाषा की कोमलता को बनाए रखा है ,तो प्रतीकों में नवीन अर्थ गरिमा भी भर दी है-
तारकोल के रँगे शरीरों की।/ आज भी प्रदर्शनी लगती है। (18)
नवीन उपमानों का प्रयोग भी अत्यन्त सहज है-
कल, दीमक लगे काठ- सा / जो लगते ही/ कुरमुरा जाता है।
लम्बी कविताएँ पाठक को बहुत दूर तक बाँधे रहती हैं। भावों की तीव्रता के कारण पता ही नहीं चल पाता कि कब तक कोई कविता बाँधे हुए चल रही है। अनुभूति और अभिव्यक्ति में कहीं भी जटिलता नहीं है। कवयित्री के भोगे हुए क्षण पाठकों को सराबोर करने में पूर्णतया सक्षम हैं।
सभी कविताएँ अपने विभिन्न आस्वादों के साथ प्रकाश की ओर लिये चलती हैं। कवयित्री के ही शब्दों में-
मुझे प्रतीक्षा है/ उस दिन की जब / फिर उगेगा यह सूर्य / किसी नए सवेरे की आशा में।
पाठकों का विश्वास है कि सुदर्शन जी की कविताएँ नए सवेरे के लिए संघर्षरत रहेंगी।
युग बदल रहा ( काव्य-संग्रह): सुदर्शन रत्नाकर, मूल्य: 22 रु., वर्ष:1984,पृष्ठ: 72, ज्ञान प्रकाशन, 4662/ 21 दरिया गंज नई दिल्ली-110002
(संगम-अगस्त 1988, विश्व मानव-6 मार्च 89)