युग मार्ग / अशोक भाटिया
मौसम करवटें बदल रहा था। इन दिनों ठंडक पर तपिश ने दबिश दे रखी थी। हवा थी, पर चल नहीं रही थी। वृक्षों के पत्ते विवश होकर हलचल बंद कर चुके थे।
यह सुबह का समय था। किरयाने की इस दूकान पर इस समय बड़ी चहल-पहल रहती है। ठीक इसी समय एक साधारण-सा आदमी दूकान पर आया और अपने थैले में दूध के दो पैकेट डालकर खिसकने लगा। दूकानदार ने आवाज़ लगाई – हाँ भाई पैसे ?”
“अभी दिए तो हैं।”
“नहीं दिए।”
पता चला कि वह पिछले दो दिन से पैसे दिए बिना इसी तरह दूध ले जा रहा है। एक ग्राहक के पूछने पर कि कितने पैसे दिए, उसने दूध का दाम गलत बताया। तभी उसका कालर पकड़ लिया गया। कुछ ग्राहक टिप्पणियां छोड़ने लगे, जिनका सार था कि ‘ये लोग ऐसे ही होते हैं।’
हवा में तपिश बढ़ चली थी। एक ग्राहक, जो ध्यान से सब देख रहा था, उस आदमी के पास आया। उसका कालर छुडवाकर एक तरफ ले गया। उस आदमी ने कुछ राहत महसूस की।
“बच्चों के लिए ले जा रहे थे दूध?” यह सवाल पूछने पर उस आदमी का सर झुक गया। अब वहां चेहरे के नाम पर सिर्फ उसकी भद्दी मूंछों की एक पंक्ति दीख रही थी, जिस पर नाक मानो पेपरवेट की तरह रखी लगती थी। उस मरियल सूखे आदमी ने अपना झुका सर बहुत छोटी सी ‘हाँ’ में हिलाया और एक बहुत बड़ा नि:श्वास छोड़ा। नि:श्वास के साथ उसके भीतर से निकली पीड़ा की तपिश को उस ग्राहक ने भी महसूस किया। उसने उस आदमी के कंधे पर हल्का-सा हाथ रखकर कहा – “ठीक है, आप जाओ।” फिर वह भरे मन से दूकानदार की तरफ लौटा। अभी वह साधाण आदमी दुविधा में वहीं खड़ा था।
प्रिय पाठक! कहानी अभी अधूरी है। उस ग्राहक ने दूकानदार से कहा –“उसके दूध के पैसे?” और पर्स से रूपये निकालने लगा। इस सारे घटनाक्रम से ग्राहकों के सब क्रियाकलाप ठहर गए थे।
वह ग्राहक दूध के रूपये निकाले, उससे पहले दूकानदार ने उसके परस पर हाथ रख दिया, फिर उसकी तरफ नर्मी से देखकर मुस्कराने लगा। वहां खड़े ग्राहक कुछ अच्छा, कुछ अजीब महसूस करने लगे थे।
रुकी हुई हवा अब चल निकली थी। सामने वृक्ष पर पत्ते झूमने लगे थे। ठंडक अब तपिश को दबिश देने लगी थी ....