युद्ध व्यापार की एक और फिल्म / जयप्रकाश चौकसे

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युद्ध व्यापार की एक और फिल्म
प्रकाशन तिथि :23 दिसंबर 2017


सलमान खान अभिनीत फिल्म 'टाइगर जिंदा है' में एक संवाद है कि युद्ध एक अंतरराष्ट्रीय व्यापार है, जिसमें सभी देश शामिल हैं। साथ ही यह भी कहा जा सकता है कि युद्ध केन्द्रित फिल्में भी उसी व्यापार का हिस्सा हैं। देशप्रेम की फिल्में हर दशक में बनी हैं और आज भी जारी हैं। एक दौर में 'भारत' मनोज कुमार ने छद्‌म देशप्रेम की फिल्मों में बहुत धन कूटा। ज्ञातव्य है कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने महात्मा गांधी से कहा कि स्वतंत्रता संग्राम में देशप्रेम की अलख जगाना आवश्यक है परंतु यह केंद्रीय विचार हमेशा मनुष्यता और भाईचारे से प्रेरित रहना चाहिए। आज तो मनुष्य जीवन चले हुए कारतूस की तरह हो गया है। हथियार इतने खतरनाक बन जाएंगे कि मानव जीवन ही असंभव हो जाएगा। फिल्म में एक गीत है, 'बारूद के ढेर पर बैठी है दुनिया'। संभव है कि फिल्म के गीतकार ने निदा फाज़ली की नज़्म पढ़ी हो, 'खुली माचिस है पहरेदार सब बारूद ख़ानों में'।

लगभग तीन घंटे की फिल्म में घटनाओं का दोहराव भी है। इस बार मसाले में प्रेम कम है और एक्शन का तड़का गहरा है। लहसुन के बघार की गंध पूरे सिनेमाहॉल में छाई रहती है। फिल्म रचना प्रक्रिया में भोजन वाले सारे मसालों की तरह दृश्य संयोजन भी होता है। हरी मिर्च में बहुत विटामिन है परंतु वह लोगों को शरीर के अलग अंगों में लगती भी है। जुबिन मेहता संगीत की दुनिया में बेन्ड की तरह रहे। उन्हें भोजन प्रेम और संगीत रचना दोनों का ही जुनून था। एक बार वे राज कपूर के घर भोजन के लिए आमंत्रित थे। वे लगभग तीन घंटे तक सभी व्यंजनों को चखते जरूर रहे। जब उन्हें लगता कि कोई अन्य व्यक्ति उनकी ही तरह भोजन-भट्‌ट है तब वे अपनी जेब से स्पेनिश हरी मिर्च अपने प्रतिद्वंद्वी को देते थे और अगर उसे जबान पर रख भी लें तो आंख, कान और नाक से पानी बहने लगता था। इंदौर के कवि सरोज कुमार भी भोजन करते समय एक पाव मिर्च खा जाते हैं, गरीब व्यक्ति तो हथेली से तोड़ी प्याज और हरी मिर्च पर ही जीवित है। लज्जाहीन व्यवस्था को मिर्च कहीं नहीं लगती।

बहरहाल, इसी फिल्म का पहला भाग भारत और पाकिस्तान के दो गुप्तचरों की प्रेम-कथा थी। इस भाग में मतभेदों के कारण वे जुदा हो गए हैं परंतु उनका आठ वर्षीय बालक दोनों के बीच सेतु बन जाता है। प्रेम की सिगड़ी में समय की राख के ढेर के नीचे दबी चिन्गारियां सिगड़ी को दहका देती हैं परंतु फिल्मकार को लगता था कि इससे उत्पन्न लपटों में शत्रु जल जाएं। इसी सोच के कारण मसाले का संतुलन थोड़ा-सा बिगड़ा है परंतु सलमान खान का सितारा करिश्मा इसे सफल फिल्मों की कतार में शामिल कर देगा। आज भी सलमान खान के कमीज उतारने पर उतनी ही तालियां पड़ती हैं, जितनी पिछले दशक की फिल्मों में पड़ती थीं। बावन वर्षीय नायक की मांसपेशियां अपने परिश्रम के कारण आज भी देह की नदी में मछलियों सी तैरती हैं।

फिल्म में खाड़ी देशों में कार्यरत नर्सों का जीवन बचाना मूल उद्‌देश्य है। नर्स की तीमारदारी मनुष्य का जीवन बनाए रखती है। अस्पताल और डॉक्टर बिना नर्स की सेवा के किसी को बचा नहीं सकते। यह दुखद है कि नर्सों का वेतन कम होता है और जान हमेशा जोखिम में रहती है। समाज कितना बीमार है कि वह नर्स व्यवसाय को पूरा सम्मान नहीं देता। हमारे नज़रिये का एक उदाहरण यह है कि बरसों पूर्व एक अमीर व्यक्ति को मधुमेह से बचने के लिए प्रतिदिन इन्सुलिन का इंजेक्शन लेना था। प्रतिदिन के भुगतान से बचने के लिए उस चतुर व्यवसायी ने नर्स को प्रेम जाल में फंसाया और विवाह कर लिया। अब वह बेचारी बिना पारिश्रमिक के इंजेक्शन लगाती है, खाना भी पकाती है।

हम इस समय व्यापार के स्वर्ण युग में जी रहे हैं। यह एक भव्य बजट की फिल्म है और शूटिंग के लिए चलाई गोली से अगर किसी पात्र की मृत्यु दिखाना है तो उसकी कमीज के नीचे लाल रंग का कैप्सूल होता है। पात्र बैटरी चलाता है और कमीज में हल्का सा छेद होता है। कैप्सूल फटता है और सही प्रभाव परदे पर नज़र आता है। इस फिल्म का असली कारतूस सलमान खान की सितारा छवि है।