युधिष्ठिर का कुत्ता / हरिशंकर राढ़ी

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मैं धर्मराज युधिष्ठिर का कुत्ता बोल रहा हूँ। पूरी सृष्टि और पूरे इतिहास का वही एक्सक्लूसिव कुत्ता जो उनके साथ स्वर्ग गया था। अब मैं स्वर्ग में नहीं हूँ। धरती जैसे किसी ग्रह पर वापस आ गया हूँ और समझने का प्रयास कर रहा हूँ कि उसी भारतवर्ष में तो नहीं हूँ जहाँ से युगों पहले स्वर्ग गया था। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि यहाँ के बारे में प्रचार है कि धरती का स्वर्ग भारतवर्ष ही है, देवभूमि है। जब बिना सत्कर्म के ही मैं धरती से स्वर्ग लाया जा सकता हूँ तो वहाँ से अकारण नरक में फेंका नहीं जा सकता। जो भी हो, जब मैं अपने महाभारत काल की पारिवारिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों का मिलान यहाँ की आज की परिस्थितियों से करता हूँ तो लगता है कि मैं उस देश ही नहीं अपितु उसी काल में वापस लौट आया हूँ। कभी-कभी तो भ्रम होने लगता है कि मैं धर्मराज के साथ स्वर्ग गया भी था या नहीं ! कहीं गहरी नींद में सो तो नहीं रहा था ?

मैं धरती का सबसे सफल कुत्ता हूँ। ऐसा कुत्ता जिसके भाग्य से बड़े-बड़े लोग ईष्र्या रखते हैं। वैसे भी ईष्र्या रखना बड़े लोगों का प्रमुख कार्य है। यहाँ तक कि धर्मराज के भाई तक मुझसे जलते हैं क्योंकि वे भी वह पद न पा सके जो मुझे मिला है। अब यह बात अलग है कि यहाँ तक पहुँचने में मुझे कितना कुत्तापन करना पड़ा, यह मैं ही जानता हूँ। इतने युगों बाद जाकर मैं समझ पाया हूँ कि स्वर्ग का सुख पाने के लिए कितना झुकना पड़ता है और आत्मा को कितना मारना पड़ता है ! मुझसे अच्छे तो वे हैं जो सशरीर आने के विषय में नहीं सोचते। दरअसल, बात यह है कि स्वर्ग में आने के लिए जीव को या तो शरीर त्यागना पड़ता है या फिर आत्मा। मेरे बारे में आपको जानकारी है कि मैं कैसे आया, इसलिए आप मेरे त्याग का अंदाजा लगा सकते हैं।

मेरे प्रसंग से आप इतना तो अवश्य जान गए होंगे कि बड़े आदमी का कुत्ता होना एक आम आदमी होने से बेहतर है। पूर्व जन्म के पुण्य और बड़े सौभाग्य से कोई आत्मा किसी रईस के कुत्ते के रूप में अवतरित होती है। जिस वैभव और सुविधा तक बड़े-बड़े ज्ञानी, विद्वान और महात्मा नहीं पहुँच पाते, वहाँ रईस का कुत्ता पहुँच जाता है। उसे अधिकार मिल जाता है कि वह किसी को भी काट सके। वह ऐसा कुछ भी कर सकता है जिससे कि उसका स्वामी ख़ुश हो जाए! और स्वामी का कुत्ता होना अपने आप में एक उपलब्धि है। व्यवस्था चाहे राजतंत्र की हो या लोकतंत्र की, सुखी वही होता है जो स्वामी को ख़ुश कर सके।

हो सकता है कि मेरे स्वर्ग जाने की उपलब्धि से मेरी जाति वाले गौरवान्वित हों। ऐसा आजकल हो रहा है। आप कितने भी पतित और शोषित समाज से हों, आपकी पूरी बिरादरी दाने-दाने को तरस रही हो, किंतु अपनी बिरादरी का कोई इकलौता प्राणी भी सिंहासनारूढ़ हो जाए आप स्वयं को सिंहासनारूढ़ समझने लग जाते हैं। आपको अपनी भुखमरी भूल जाती है। किंतु मेरी बिरादरी में भी ऐसा हो, ज़रूरी नहीं। हम लोग तो अपना सारा जीवन अपनी बिरादरी पर भौंककर ही निकाल देते हैं। मैं अभी भी गलियों में निकलूँ तो मेरे भाई मुझपर तुरंत ही झपट्टा मारेंगे। उन्हें सामाजिक चेतना से कुछ भी लेना-देना नहीं है।

हाँ, हमारे और आदमियों के बीच एक समानता ज़रूर है। हम दोनों ही अपने अधिकार क्षेत्र में किसी की दखलंदाजी पसंद नहीं करते। यदि हम एक बार किसी उच्च पद पर पहुँच जाएँ तो वहाँ किसी और को पहुँचने नहीं देना चाहते। मैं स्वयं किसी कुत्ते को स्वर्ग आते देखना पसंद नहीं करूँगा। उच्च पद की तो बात छोड़िए, हमें यह भी पसंद नहीं कि कोई हमारी गली में आए, भले ही उसकी नीयत हमारा नुक़सान काने की न हो। हम यह भी नहीं पसंद करते कि कोई हमारे शहर में आए। हमें डर है कि वह हमारी राजनीति और वोट बैंक पर असर डालेगा। वैसे हम प्रचारित यही करते हैं कि वह हमारी रोटी खा जाएगा। इससे हमें पूरे शहर के कुत्तों का समर्थन मिलता है और मरियल से मरियल कुत्ता भी भौंकने के लिए आगे आ जाता है। हमारे दक्षिण के एक प्रदेश के कुछ भाइयों ने ऐसा काम अभी बड़े पैमाने पर किया है जब उन्होंने उत्तर के कुत्तों को भौंक-भौंककर अपने शहर से भगा दिया। ऐसा काम आदमी भी करते हैं।

अपनी जाति पर भौंकने में हमें बड़ा मज़ा आता है। कोई भी अपरिचित मिल जाए, हम अपने मुँह का निवाला छोड़कर उस पर भौंकने निकल पड़ते हैं। मुझे लगता है कि अपनी बिरादरी पर भौंकने से हमारी अच्छी छवि बनती है। हम लोग जातिवादियों की श्रेणी में नहीं आते और धर्मनिरपेक्ष होने का लाभ सहज ही प्राप्त कर लेते हैं। लड़ते दूसरी बिरादरी के लोग भी हैं, परंतु अकारण नहीं। कोई न कोई स्वार्थ होने पर ही सींग भिड़ाते हैं। निःस्वार्थ लड़ाई केवल हम लोग यानी कुत्ते ही लड़ते हैं। यह अलग बात है कि हमारी इस अनावश्यक लड़ाई का खामियाजा हमारे हर भाई को भुगतना पड़ता है। लोग कहते हैं कि अगर एक दूसरे पर न भौंकें तो एक दिन में हम चालीस मील जा सकते हैं, परंतु जा पाते हैं केवल चार मील ही! बाक़ी का समय कभी भौंकने, कभी दुम दबाने और कभी दाँत निपोरने में चला जाता है। सच तो यह है कि अपनी गली में आए अपरिचित कुत्ते पर भौंकने से अजीब संतोष की अनुभूति होती है और आत्मविश्वास पैदा होता है।

यह भी एक शाश्वत सत्य है कि अपनी जाति और समाज की चिंता करने वाला कभी भी व्यक्तिगत विकास नहीं कर पाता। यदि अपनी जाति के स्वाभिमान की चिंता मैं ही करता तो आज स्वर्ग पहुँचने वाला इकलौता आदरणीय कुत्ता नहीं बन पाता। मैं भी किसी पुरातन समाजवादी की भाँति इधर-उधर के धक्के ख़ाकर मर चुका होता या अज्ञातनामा ज़िन्दगी जी रहा होता। स्वर्ग का सुख शोषित समाज का साथ देकर नहीं पाया जा सकता और न ही अपनी जाति का अपकार करने वाले से प्रतिशोध की भावना रखकर। स्वर्ग का सुख या तो ऐसे लोगों (शोषकों) की शरण में जाकर पाया जा सकता है या फिर अपनी जाति के लोगों को स्वर्ग का सपना दिखाकर। कम से कम लोकतंत्र में तो ऐसा ही होता है।

इस तथ्य के प्रमाण में आपको मुझसे अच्छा दूसरा उदाहरण नहीं मिल सकता है। मैं युधिष्ठिर का घोर समर्थक रहा, जिन्होंने धर्मराज होने के बावजूद मेरी पूरी जाति को सदैव के लिए नंगा कर दिया। मुझे मालूम था कि धर्मराज ने मेरी जाति को खुले यौन सम्बंध का श्राप दिया था क्योंकि मेरे एक भाई की वजह से उन पति-पत्नी के निजी सम्बंधों में विघ्न पड़ा था। बड़ा आदमी सब कुछ बरदाश्त कर सकता है किंतु यौन सम्बंध में विघ्न बरदाश्त नहीं कर सकता। आपको स्मरण होगा कि मेरे एक भाई ने स्वभाववश उस समय उनका जूता (और यह जूता उनके लिए रतिक्रीड़ा का पोषक हुआ करता था) इधर-उधर कर दिया था। अब कोई शक्तिशाली व्यक्ति अपने प्रति किए गए अपराध का दंड केवल दोषी को तो देता नहीं, उसकी नज़र में तो अपराधी की पूरी जाति ही दोषी होती है और फिर दंड पूरे समाज को मिलता है। लो भाई, श्राप मिल गया कि तुम्हारी जाति का यौन सम्बंध सभी लोग देखें। बिल्कुल लाइव टेलीकास्ट! पता नहीं कुछ लोगों को खुले यौन सम्बंधों से इतना लगाव क्यों होता है? अवसर तलाशते रहेंगे कि कोई रतिक्रीडारत हो और हम नेत्रसुख लें। उन्हें तो अपनी भावी पीढ़ी की भी चिंता नहीं होती कि उनके इस आनंद का बालमन पर क्या प्रभाव पड़ेगा !

खैर, मुझे आज इस बात का संतोष है कि जिस प्रकार का श्राप हमें मिला था, उसी प्रकार का कार्य आज मानवजाति भी करने लग गई है। उनका खुलापन देखकर मन को शांति मिली है। भविष्य में जब ये यौन सम्बंधों में पूरी तरह हमारा अनुसरण करने लगेगें तो हमारे श्राप का परिहार हो जाएगा। अगर विकास ऐसे ही होता रहा तो वह दिन ज़्यादा दूर नहीं है।

मानिए तो मैं किसी भी प्रकार युधिष्ठिर से कम धर्मपरायण नहीं हूँ। किसी भी परिस्थिति में मैंने उनका साथ नहीं छोड़ा और न कभी उनका विरोध किया। यहाँ तक कि उनके भाइयों ने भी समय पड़ने पर उनको भला-बुरा कहने में कसर नहीं छोड़ी। उन पर आरोप भी लगाया। वैसे आरोप तो आप भी लगाते रहते हैं - धर्मराज ने ये किया, धर्मराज ने वह किया। अमुक बात के लिए इतिहास धर्मराज को कभी माफ़ नहीं करेगा और अमुक बात का जवाब नारीवादी माँग रहे हैं। वैसे माँग क्या रहे हैं, अंधेरे में पत्थर मार रहे हैं। उनकी भी अपनी समस्याएँ और आवश्यकताएँ हैं। अगर इतना चीख लेने से कुछ नारियाँ प्रभाव में आ जाएँ तो बुरा ही क्या है ? किसी ने यह प्रश्न नहीं उठाया कि धर्मराज ने अपने सगे भाइयों को भी दाँव पर लगाया था, इसका उन्हें क्या अधिकार था? पर इस प्रश्न से कोई स्वार्थ नहीं सधता, कोई आंदोलन नहीं बनता।

आज तक तो धर्मराज ने ऐसी किसी बात का जवाब नहीं दिया। क्यों दें? स्वर्ग में बैठा हुआ एक महान इंसान धरती पर कीड़े-मकोड़ों की भाँति जीने वाले प्राणी की बात का जवाब क्यों दे? सारे लोकतंत्र और राष्ट्रसंघ के दबाव के बावजूद आप पड़ोसी मुल्क से एक अपराधी का प्रत्यर्पण तो करा नहीं सकते और चाहते हैं कि धर्मराज स्वर्ग से कूदकर आपके बीच उत्तर देने आ जाएँ! अनगिनत द्रौपदियों और बंधु-बाँधवों को दाँव पर लगाने वाले हजारों लोग तुम्हारे बीच में ही हैं। इन्होंने आज तक कोई जवाब दिया है क्या? इन नारीवादियों से पूछो कि साझा संपत्ति की रक्षा वे कितने मन से करते हैं? क्या वे इतना भी नहीं जानते कि साझे की खेती तो गदहा भी नहीं चरता। बिना श्रम किए मिली संपत्ति के लुटने पर कितना दर्द होता है? चले हैं धर्मराज पर आरोप लगाने ! पर वह आदमी ही क्या जो दूसरों पर आरोप न लगाए !

धर्मराज स्वर्ग जाने के अधिकारी थे। उन्होंने कभी झूठ नहीं बोला था। आप कह सकते हैं कि झूठ तो नकुल, सहदेव ने भी नहीं बोला था और भी बहुत से लोग हैं जो झूठ नहीं बोलते। परंतु आप इस बात पर विचार नहीं कर रहे कि वे सम्राट थे। ऐसा पहली बार हो रहा था कि एक सम्राट झूठ नहीं बोल रहा था। राजनीति में तो एक टुच्चा आदमी और एक छोटा मंत्री भी झूठ बोले बिना जीवन निर्वाह नहीं कर सकता। इस प्रकार उन्होंने असंभव को संभव कर दिखाया था। नकुल-सहदेव या किसी सामान्य प्रजाजन के झूठ या सच बोल देने से क्या बिगड़ जाता है? आपको याद होगा कि नरो-कुंजरो वाले मामले में झूठ का एक पुट आ जाने से क्या से क्या हो गया था? आदमी एक सच बोलकर कई बार बड़ी हानि उठा लेता है। अब एक नॉन वीआईपी सच बोलकर क्या नुक़सान करा लेगा? आचरण तो बड़े लोगों का ही देखा जाता है और पुरस्कार भी बड़े लोगों को ही मिलता है। मुझे तो लगता है कि आप पति-पत्नी के बीच लड़ाई शांत कराने वाले को शांति का नोबेल पुरस्कार दिलाना चाहते हैं।

इधर जब से राजतंत्र का पतन होना शुरू हुआ है और प्रजातंत्र का आविर्भाव हुआ है, कुत्तों का बोलबाला हो गया है। हमारी यह विशेषता होती है कि हम एक स्वर में अकारण हंगामा कर सकते हैं और भीड़ जमा कर सकते हैं। अगर हम भौंकने लग जाएँ तो अच्छी से अच्छी बात भी दब जाती है और प्रजातंत्र में सत्ता एवं सफलता का यही राज है। हमारे साथ तो यह भी साख है कि हम जिस पर भी भौंक दें, उसे चोर मान लिया जाता है। दूसरी बात यह कि हमारी घ्राणशक्ति इतनी तेज है कि हम खाद्य पदार्थ की किसी भी संभावना का पता लगा लेते हैं और संभाव्य स्थल पर तत्काल जुट भी जाते हैं। हमारी सफलता में इस शक्ति का बहुत बड़ा हाथ है।

हम एक चीज में आदमियों से बेहतर हैं और वह यह है कि हम देशी-विदेशी में भेद-भाव नहीं करते। कुत्ता देशी हो या विदेशी, हम उस पर बराबर ताकत से भौंकते हैं। हमारे यहाँ का तो पिल्ला भी विदेशी बुलडॉग और हाउंड पर भौंकने से नहीं चूकता। यह बात अलग है कि अपनी औक़ात कम देखता है तो सुरक्षित दूरी बनाकर भौंकता है। पर यहाँ के आदमियों के साथ ऐसी बात नहीं है। वे विदेशी को सदैव ही अपने से बेहतर मानते हैं। कई तो विदेशी भिखमंगों को भी हसरत की निगाह से देखते हैं और उनकी आलोचना के विषय में सोच भी नहीं सकते। उन्हें तो शासन करने तक का मौका प्रदान करते रहते है।

वैसे कई लोग अब तक यही मानते हैं कि स्वर्ग में रहने वाला कुत्ता मैं इकलौता हूँ। पर यह सच नहीं है। यह तो अपना-अपना भाग्य है। आज भी ऐसे कुत्तों की संख्या मनुष्यों से ज़्यादा है जो स्वर्ग में रह रहे हैं, वातानुकूलित वाहनों में पूँछ निकालकर घूम रहे हैं, इन्द्र के नंदन कानन की हवा ले रहे हैं, देशी-विदेशी गायों का दूध पी रहे हैं और न जाने कितनी उर्वशियों, रम्भाओं और मेनकाओं की गोद में खेल रहे हैं!