युवा आक्रोश और रंग दे बसंती / जयप्रकाश चौकसे

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युवा आक्रोश और रंग दे बसंती
प्रकाशन तिथि : 10 दिसम्बर 2021


फिल्मकार राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म ‘रंग दे बसंती’ 2006 में प्रदर्शित हुई थी। फिल्म में आमिर खान, वहीदा रहमान, आर. माधवन, सोहा अली, शरमन जोशी,एलिस पैटन ने मुख्य भूमिकाएं अभिनीत की थीं। इस फिल्म में देश प्रेम की भावनाओं को अपने विराट स्वरूप में प्रस्तुत किया गया और छद्म देश प्रेम को नारेबाजी से मुक्त किया गया। फिल्म इतिहास के हर दौर में देश प्रेम की फिल्में बनी हैं साथ ही सामाजिक कुरीतियों का सशक्त विरोध किया गया है। शांताराम की विधवा विवाह के पक्ष में बनी फिल्म ‘दुनिया ना माने’ जिसे शांताराम ने मराठी भाषा में ‘कुंकू’ के नाम से बनाया था। महबूब खान भी ‘औरत’ नामक फिल्म बना चुके थे। उसी कथा को बड़े स्केल पर नर्गिस के साथ ‘मदर इंडिया’ नाम से बनाया गया।

शांताराम ने गुनाह और सजा के विषय पर गांधीवादी फिल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’ बनाई थी। गुलामी के दौर में माइथोलॉजी की कथाओं के माध्यम से देश प्रेम का अलख जगाने वाली फिल्में भी बनी हैं। द्वारकादास संपत ने महाभारत के विदुर नामक पात्र को महात्मा गांधी की तरह फिल्म में कपड़े पहनाए हैं और विदुर ने चश्मा भी धारण किया था। बांबे टॉकीज ने अशोक कुमार अभिनीत ‘अछूत कन्या’ नामक फिल्म बनाई थी उस दौर में ‘विप्रदास’ फिल्म भी बनाई गई थी।

1948 में रमेश सहगल ने कामिनी कौशल और दिलीप कुमार अभिनीत ‘शहीद’ बनाई। इसी फिल्म में रफी का गीत ‘ वतन की राह में वतन के नौजवां शहीद हो’ ने मोहम्मद रफी को प्रथम श्रेणी के पार्श्व गायकों की जमात में बैठाया। बहरहाल ‘रंग दे बसंती’ में एक अंग्रेज महिला, भगत सिंह चंद्रशेखर आजाद और बिस्मिल के जीवन को डॉक्यूड्रामा शैली में प्रस्तुत करना चाहती है। कुछ लापरवाह युवाओं से किसी तरह उसकी मुलाकात होती है, वे युवा उसका मखौल उड़ाते हैं। यही नहीं इस ड्रामे के लिए जब वह पात्रों का चयन करती है, तो उस दौरान युवा सदस्यों द्वारा कई तरह के विरोध का सामना उसे करना होता है। अंतत: वह परेशान होकर अपना डॉक्यू ड्रामा खारिज कर वापस लंदन जाना चाहती है, लेकिन उस अंग्रेज महिला को आखिरकार युवा दल के सभी सदस्यों द्वारा मनाकर रोक लिया जाता है और सभी उसे वचन देते हैं कि वह अपना काम करे उसके काम में उनके पूर्वाग्रह आड़े नहीं आएंगे। फिल्म में आगे भ्रष्टाचार से जुड़े मुद्दे को उठाया गया है। एक व्यापारी और राजनैतिक ताकतों की सांठ-गांठ से होने वाले भ्रष्टाचार की कहानी है, जिसके चलते एक युवा पायलट को अपनी जान गंवानी पड़ती है। दरअसल उसके विमान में नकली पुर्जों का उपयोग किया गया था, जिसके कारण उसके विमान में आग लग जाती है। फिल्म में वहीदा रहमान इस पात्र की मां के किरदार में हैं, जो अपने बेटे की मौत के विरोध में आवाज उठाती है और न्याय के लिए संघर्ष करती है। उसे युवाओं का सहयोग मिलता है। जब सारे शांतिपूर्ण प्रयास असफल हो जाते हैं, तो ये युवा भ्रष्ट व्यक्ति को क्रांतिकारियों के अंदाज में गोली मारकर खत्म करते हैं। लेकिन उनका संघर्ष यहां खत्म नहीं होता, उन्हें अवाम तक सच्चाई पहुंचाने के कई प्रयास करने होते हैं और वे सत्य सिद्ध करने में अंतत: सफल होते हैं।

इस तरह ‘रंग दे बसंती’ युवा आक्रोश की सच्ची फिल्म है। फिल्म में कोई पात्र व्यक्तिगत लाभ के लिए कुछ नहीं कर रहा होता बल्कि युवा दल सामाजिक क्रांति करना चाहता है। राजकुमार हिरानी की ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ की तरह वे नागरिकों को सतर्क रहने का संदेश दे रहे हैं। किसी भी देश के पहाड़ों और नदियों की अपेक्षा उसका नागरिक बोध देश के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है और देश की स्मिता है। सब जागते रहें तो अन्याय की ताकतें दुबक जाएंगी। जागता हुआ नागरिक ही समस्त समस्याओं का निदान कर सकता है। यह भी सत्य है कि सतत प्रयास के रास्ते में रुकावटें हैं। कोई न कोई जयचंद हर कोने पर मौके की तलाश में ताक लगाए बैठा है।