युवा उपन्यासकार के नाम पत्र 1 / मारियो वार्गास ल्योसा

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काल

प्यारे दोस्त,

मैं खुश हूँ कि उपन्यास की संरचना के संदर्भ में दिए जा रहे ये विचार आपको कथानक की गूढ़ता में जाने का रास्ता कुछ यूँ बताने वाले हैं, मानो आप पहाड़ की कंदरा में छुपे तिलिस्मों में धीरे धीरे घुस रहा कोई उत्सुक खोजी हों। अब, जबकि हम उपन्यास के विस्तार के संदर्भ में कथावाचक की विशिष्ठताओं से दो चार हो चुके हैं; (जिसे कि, अकादमिक, लेकिन असहमतिपूर्ण भाषा में मैंने 'स्थानिक दृष्टिकोण' का नाम दिया है), मैं कथन के शिल्प के लिहाज से एक कतई महत्वपूर्ण पहलू, काल (समय), के मूल्यांकन का प्रस्ताव रखूँगा, जिसका बर्ताव उतना ही अहम है जितना कि कहानी की प्रबोधक क्षमता के लिए उसका विस्तार।

उपन्यास क्या और कैसी चीज है, को समझ पाने के लिए, आगे बढ़ने से पहले हमें अपने कुछ पुराने तथा झूठे पूर्वाग्रहों से बाहर आना होगा।

मैं उस साधारण से समीकरण की बात करना चाहूँगा जो वास्तविक काल (अनावश्यक शब्दों का प्रयोग न करते हुए कहें तो, ऐसा समय जिसकी क्रमिकता में लेखक और पाठक दोनों जी रहे हों।) तथा पढ़े जा रहे कथ्य के काल्पनिक समय, यानी यथार्थ से अलग का ऐसा काल अथवा 'काल वीथि', जिसकी संरचना के मुताबिक कथावाचक और पात्र दोनों ही उसमें कैद से दिखें, के बीच बनता है। उपन्यास में 'स्थानिक दृष्टिकोण' की ही भाँति 'सामयिक दृष्टिकोण' तैयार करते हुए भी कल्पना और रचनात्मकता का उतनी ही बड़ी मात्रा में इस्तेमाल होता है, हालाँकि ज्यादातर दफे लेखक इसे महसूस नहीं कर पाता। उपन्यास के वाचक और उसके विस्तार की ही तरह वह समय भी काल्पनिक ही होता है जिसमें उपन्यास अपना आकार लेता है, यह उन्हीं चीजों में से एक है जिसे उपन्यास के प्रबंध में लेखक यथार्थ की दुनिया से अलगाकर स्वतंत्र कर देता है, और जिस पर कि, मैं पुनः याद दिला दूँ, उपन्यास की प्रबोधक क्षमता निर्भर करती है।

हालाँकि, बहुतेरे विचारकों और रचनाकारों को सम्मोहित किए रहने वाले (जिनमें से एक, बोर्खेस ने अपनी अनेक रचनाओं के लिए इसी का चुनाव किया) 'काल' रूपी कथानक ने अलग अलग तरह के सिद्धांतों को उँचाइयाँ दी हैं, मेरी मानें तो उसके मामले में कम से कम इस साधारण से विभेद को तो माना ही जा सकता है कि काल के दो प्रकार होते हैं, कालक्रमिक तथा मनोवैज्ञानिक। जिनमें से पहले की मौजूदगी उसके वस्तु रूप में होती है, मानवीय आत्मपरकता से निरपेक्ष। समय के जिस प्रकार में हम आकाश में खगोलीय पिंडों की गति तथा एक दूसरे के सापेक्ष ग्रहों की अवस्थिति को मापते हैं वह कालक्रमिक समय ही होता है, वह समय भी जो जन्म के तत्काल बाद से मृत्यु तक हमारा क्षय करता रहता है और सभी चेतन मात्र की जीवन रेखाओं पर सवार हो उनका संचालन भी। लेकिन दूसरी तरफ एक मनोवैज्ञानिक काल भी है, जिसकी वजह से हम अपने क्रिया कलापों के प्रति सजग रहते हैं तथा जो हमारी संवेदना की दुनिया में अलग ही तरीके से अहमियत रखता है। ऐसा वक्त तब ज्यादा ही तेजी से बीत जाता है जब हम आकर्षण अथवा उन्माद के अत्यंत सघन अनुभवों में डूब उतरा रहे हों। जबकि दूसरी तरफ तब यह इतना लंबा और कभी न खत्म होने वाला... सेकंड जैसे मिनटों और मिनट जैसे घंटों की तरह... लगने लगता है। जब हम इंतजार अथवा किसी तरह की वेदना से गुजर रहे हों, और (अकेलेपन, देर तक के रतजगे, किसी बड़ी अनहोनी, किसी ऐसी बात का इंतजार जिसका होना या न होना कुछ भी तय नहीं है, जैसे) हालात लगातार हमें बीत रहे समय की याद दिला रहे हों, तो वह दौर, अपने झट से गुजर जाने की हमारी इच्छा के नाते कुछ अधिक ही भारी, मंद या एकदम ठहरा हुआ सा लगने लगता है।

मैं आपको आश्वस्त करना चाहूँगा कि (कथा साहित्य की उन थोड़ी और अनिवार्य शर्तों में से एक) इस नियम का कोई अपवाद नहीं है कि उपन्यास में दर्शाया वह आत्मपरक समय, जिसे (एक अच्छा) लेखक उपन्यास को यथार्थ की दुनिया से परे की चीज बनाते हुए, वस्तुनिष्ठ रूप देने में सक्षम होता है, कालक्रमिक न होकर मनोवैज्ञानिक होता है (यह ऐसी हरेक कथा रचना के लिए अनिवार्य है जो अपने आप में स्वतंत्र रहना चाहती है)।

एक उदाहरण के साथ यह ज्यादा अच्छे से स्पष्ट हो सकता है। क्या आपने एंबोर्स बिएर्स की शानदार कहानी 'An Occurence at Owl Creek Bridge' पढ़ी है? यह कहानी अमेरिकी गृहयुद्ध के समय में घटित होती दीखती है। दक्षिणी प्रांत का एक माली, पैटन फारकर, जिसने रेल की पटरी को उखाड़ने की कोशिश की थी, को एक पुल से लटका दिया जाने वाला है। कहानी उस बेचारे के गले में कस रही रस्सी के दृश्य से शुरू होती है। वह उसे मार डालने के लिए तैनात सिपाहियों से घिरा हुआ है। लेकिन जैसे ही उसके जीवन के अंत की घोषणा करता आदेश आता है, उसकी रस्सी टूट जाती है और वह नीचे नदी में गिर जाता है। किसी तरह से वह पुल और नदी के किनारे खड़े सिपाहियों की गोलियों से खुद को छुपाते और तैरते हुए बच जाता है। कहानी, अपने कथन के प्रवाह को उस वक्त पैटन फारकर के अंतःकरण के बेहद करीब से गुजारती है जब वह जंगली रास्ते से, अपने अतीत के हिस्सों को याद करता हुआ, अपने सुरक्षित घर तथा अपनी प्रेमिका की ओर बेतहाशा भाग रहा होता है। कहानी फारकर के भागने की ही तर्ज पर खौफनाक होती जाती है। घर अब सामने होता है, बिलकुल करीब, और जब वह अपनी तेज रफ्तार में ही चौखटे को पार कर लेता है, उसे प्रेमिका की देह अपने ठीक सामने दीखती है। यूँ, जैसे ही वह उसे अपनी भुजाओं में कस लेने वाला होता है, चंद लमहे पहले से कस रही रस्सी अचानक उसकी साँसों को रोक देती है। यह सारा प्रक्रम एक तेज से क्षण में खतम हो गया रहता है। यह समूचा दृश्य प्रबंध एक क्षण मात्र का है, जिसे कहानी के द्वारा विस्तार दिया गया है, जो शब्दों से रचा हुआ एक अलग ही 'काल खंड' तैयार कर लेता है, वास्तविक समय (कहानी की घटना का वस्तु समय, जिसमें अधिक से अधिक एक सेकंड भर बीता होता है) से अलग। क्या कहानी के माध्यम में मनोवैज्ञानिक समय के सहारे अपना अलग ही काल रच लिए जाने की प्रक्रिया इस दृष्टांत से स्पष्ट नहीं हो जाती?

इससे कहानी से इतर, एक और उदाहरण बोर्खेस की मशहूर 'The Secret Miracle' का है। चेक कवि जारोमिर ह्लादिक को ठीक तभी भगवान के द्वारा एक साल की आयु दे दी जाती है, जब वह मार दिया जाने वाला है। यह आयु उसे जीवन भर की तैयारियों के बावजूद न लिखे जा सके एक काव्य नाटक 'दुश्मन' को दिमागी तौर पर पूरा करने की खातिर दी गई होती है। यूँ दिए गए समय में वह अपनी उस महत्वाकांक्षी रचना को पूरा करने में सफल होता है, लेकिन इस तरह से बिताए गए पूरे वर्ष का विस्तार बस वक्त के उतने भर का होता है जितने में गोली दागने वालों का मुखिया 'फायर' का ऐलान करता है और गोली अपने लक्ष्य को पा लेती है। मतलब बमुश्किल एक क्षण। पलक का एक बार का झपकना। सभी (अच्छी) कहानियाँ अपने काल का निर्धारण खुद करती हैं, उनका एक निजी काल तंत्र, पाठक के जीवन के वास्तविक समय से कतई इतर।

उपन्यास के काल को मूलगामी तरीके से समझने के लिए, सबसे पहले उपन्यास के 'सामयिक दृष्टिकोण' को पहचानना होगा, जो ध्यान रहे, 'स्थानिक दृष्टिकोण' से अलग की चीज होती है, हालाँकि सामान्य व्यवहार में दोनों ही परस्पर जुड़ी हुई सी लगती हैं।

परिभाषा (जो साहित्य की अप्रत्याशित दुनिया के लिए जरूरी चीज न होते हुए, यकीनन आपको भी उतनी ही सताती होगी जितनी कि मुझे) के अपरिहार्य हो जाने की इस स्थिति में, हम इसे यूँ तैयार करेंगे कि किसी भी उपन्यास का 'सामयिक दृष्टिकोण' वह अंतर्संबंध होता है जो लेखक अथवा वाचक द्वारा जिए जा रहे समय तथा कहानी में दर्शाए गए समय के बीच बनता है। जबकि 'स्थानिक दृष्टिकोण' की स्थिति में उपन्यासकार के पास चुनने के लिए मात्र तीन विकल्प होते हैं (हालाँकि भेद और भी कई हैं), जिनका कि निर्धारण उस समय के आधार पर होता है जिसमें कि कहानी कही जा रही है :

(अ) लेखक अथवा वाचक के द्वारा जिया जा रहा समय तथा कहानी में दर्शाया गया समय, दोनों एक ही हो सकते हैं। ऐसी स्थिति तब होती है जब वाचक कहानी को वर्तमान काल में बढ़ा रहा होता है।

(ब) वाचक खुद को भूतकाल में स्थापित कर वर्तमान अथवा भविष्य में घट रही रही चीजें दर्शा सकता है। तथा तीसरा,

(स) वाचक खुद को वर्तमान में स्थापित कर भविष्य अथवा भूत की घटना का जिक्र कर सकता है।

हालाँकि अपने अमूर्तन रूप में ये वर्गीकरण थोड़े जटिल जान पड़ते हैं, लेकिन व्यवहार में यह ज्यादा स्पष्ट और बोधगम्य हो जाता है यदि हम थोड़ा ठहरकर पहचान लें कि वाचक ने कहानी कहने के लिए किस काल का चुनाव किया है।

उदाहरण के लिए किसी उपन्यास की बजाय एक कहानी को चुनते हैं, शायद दुनिया की सबसे छोटी (और संभवतः सबसे अच्छी कहानियों में से एक)। ग्वाटेमाला के लेखक आगुस्तो मोंतेर्रोसो की 'The Dinosaur', जिसका विस्तार एक पंक्ति भर में है -

'वह जब उठा, डायनासोर तब भी वहीं था।'

एक संपूर्ण कहानी। है कि नहीं? प्रबोधन की अप्रतिम क्षमता, उल्लेखनीय विवेक के प्रदर्शन, नाटकीयता, सांकेतिकता, रंग और स्पष्टता सभी से युक्त। इस मितभाषी कथारत्न के, दूसरे अनेक तरीकों से किए जा सकने वाले पाठ को फिलहाल के लिए खुद तक केंद्रित करते हुए हम इसके 'सामयिक दृष्टिकोण' पर आते हैं। कहानी के कहे जाने का काल क्या है? जाहिर तौर पर सामान्य भूतकाल, 'वो उठा'। मतलब वाचक, यानी लेखक उस वक्त भविष्यत् काल में है और बीते हुए समय की बात कर रहा है। लेकिन कब के बीते समय की बात? लेखक के भविष्यत् काल के सापेक्ष हाल ही के बीते या फिर धुर अतीत की बात? असल में धुर भूत काल की बात। अब यह कैसे पता चला कि लेखक के काल के सापेक्ष कहानी का समय धुर अतीत ही है, न कि हाल ही का बीता समय? क्योंकि दोनों (लेखक के भविष्यत् तथा कहानी के भूत) कालों के दरम्यान एक न भरी जा सकने वाली रिक्ति, एक अवरोध है, जो दोनों के बीच किसी भी तरह के संयोग को नकारता है। यहाँ पर लेखक द्वारा इस्तेमाल किए गए काल को कुछ इस तरह से पहचाना जा सकता है - कहानी का वर्णन एक स्थगित हो चुके अतीत का हैं, वाचक (लेखक) की स्थिति से पूरी तरह कटा अतीत। यूँ, लेखक के समय के सापेक्ष डायनासोर का समय संपूर्ण भूत काल का हुआ, यह स्थिति 'स' का उदाहरण है।

अब हम उपरोक्त तीनों स्थितियों में से (सबसे सरल, लेकिन सबसे अहम) स्थिति 'अ' के उदाहरण के हेतु, एक अलग तरीके से डायनासोर की स्थिति का सहारा लेते हैं; जिसमें कि वाचक के कहने का काल और कहानी में वर्णित काल, दोनों एक ही होते हैं। यहाँ 'सामयिक दृष्टिकोण' की माँग के अनुसार वाचक द्वारा कथा को वर्तमान काल में कहा जाना चाहिए : वह उठता है, और देखता है कि डायनासोर फिर भी वहीं है।

यहाँ वाचक के कहने का काल तथा कही जा रही कथा का काल, दोनों समान हैं। कहानी उसी वक्त में घटित होती जान पड़ती है, जब कि हम उसे वाचक से सुन रहे होते हैं। यह कहानी उस पिछली कहानी से काफी अलग है, जिसमें कि हमने दो विभिन्न काल देखे थे और जिसमें कि, बाद के किसी समय में स्थित होने के नाते वाचक के पास समय के लिहाज से कथा के लिए एक मुक्त दृष्टि आकाश था। स्थिति 'अ' में वाचक के पास कथ्य की जानकारी तथा दृष्टिकोण के लिए गुंजाइश अपेक्षाकृत कम थी क्योंकि कथा के इस रूप में तुरंत की हो रही घटना का चित्रण तुरंत ही हो रहा है। जब वाचक और कथा दोनों का वर्तमान में ही घालमेल हो जाय (जैसा कि सैमुएल बेकेट तथा एलेन रॉब ग्रिलेट के उपन्यासों में अकसर ही होता है), तो वैसी हालत में वाचक की तात्कालिकता सर्वाधिक बढ़ जाती है तथा वाचक द्वारा कहानी कहने के लिए भूतकाल का इस्तेमाल किए जाने की स्थिति में यह न्यूनतम रहती है।

आगे, अब स्थिति 'ब' की पड़ताल करते हैं, उपन्यासों में कभी कभार पाई जाने वाली और तीनों ही स्थितियों में सबसे जटिल। ऐसे में वाचक की अवस्थिति भूत में है और और कहानी तब तक के समय तक घटित नहीं हुई है, तथा हाल के भविष्य अथवा धुर भविष्य में कभी होने वाली है। इस तरह के सामयिक दृष्टिकोण के संभावित रूप कुछ इस प्रकार होंगे।

(अ) तुम उठोगे, और डायनासोर फिर भी वहीं होगा।

(ब) जब तुम उठ रहे होगे, डायनासोर फिर भी वहीं होगा।

(स) जबकि तुम उठ गए होगे, डायनासोर फिर भी वहीं होगा

उपरोक्त सभी स्थितियाँ (जो कि तादाद में और भी संभव हैं) हल्के हेरफेर के साथ वाचक के काल तथा कथा के काल के बीच की विभिन्न दूरियों को दर्शा रही हैं, लेकिन सभी के आधार में यह है कि वाचक द्वारा कथा में कही जा रही चीजें तब तक घटित नहीं हुई हैं तथा उनका घटना वाचक के कथा समाप्त कर लेने के बाद के किसी काल में होगा। परिणामस्वरूप, कथा की घटनाओं पर एक स्थायी अनिश्चितता तारी रहती है, कि आगामी भविष्य में उनका घटना सचमुच का होगा, या फिर नहीं ही होगा। ऐसी अनिश्चितता वाचक द्वारा खुद को भविष्य अथवा वर्तमान में स्थपित करके पहले की घट चुकी, या उस वक्त घट रही चीजों का जिक्र करने की हालत में नहीं होती। इस तरह से खुद को भूत में स्थापित कर कथा में भविष्य की घटनाओं का जिक्र करता हुआ वाचक न सिर्फ एक आपेक्षिकता और अनिश्चिता की बात करता है, बल्कि अपनी बात को ज्यादा ही दम के साथ, कथा संसार में अपनी ईश्वर सदृश्य शक्ति का मुजायरा करते हुए भी करता है। भविष्यत् काल का इस्तेमाल करते हुए उसकी कहानी अनिवार्य चीजों की एक श्रृंखला सी बन जाती है, आदेशों की एक ऐसी श्रृंखला भी, जिनके मुताबिक जो कहा जा रहा है, उसका होना भी तय है। कहानी में वाचक की प्रभुता उस हालत में अपरिहार्य है, जब उसकी कथा का प्रवाह इस तरह के 'सामयिक दृष्टिकोण' के साथ हो रहा है। यूँ एक उपन्यासकार बिना समुचित ध्यान दिए इस तरीके का इस्तेमाल नहीं कर सकता, वह इसका प्रयोग तब तक नहीं कर सकता जब तक कि उसका इरादा अनिश्चितता का नाजायज फायदा उठाने तथा वाचक को इस बात की छूट देने का न हो कि घटित होने की छूट सिर्फ उन्हीं घटनाओं को है, जो यहाँ, इस खास तरीके से, मेरे द्वारा कही जा रही हैं।

सभी मामलों में मान्य थोड़े बहुत विचलनों के साथ, यदि तीनों संभावित 'सामयिक दृष्टिकोण' पहचान लिए जाएँ, तथा यह समझ लिया जाय कि इस्तेमाल किए गए दृष्टिकोण की जाँच दरअसल वाचक द्वारा कहानी कहने के काल तथा कहानी के भीतर चल रहे काल की परख कर लेना है, ऐसा विरले कहानियों में ही देखने को मिलेगा कि वह सिर्फ और सिर्फ एक ही 'सामयिक दृष्टिकोण' के इस्तेमाल से कही गई है। हालाँकि, आमतौर पर एक ही तरह का दृष्टिकोण सबसे ज्यादा प्रभावी रहता है, लेकिन वाचक फिर भी (काल के बदलने के साथ) एक सामयिक दृष्टिकोण से दूसरे सामयिक दृष्टिकोण तक दौड़ लगाता रहता है। तथा यह सर्वाधिक प्रभावी तब होता है जब वाचक के अपने 'स्व' को सबसे कम अहमियत दे। यह प्रभाविता तब ज्यादा आसानी से प्राप्त होती है जब सामयिक प्रबंध (काल परिवर्तन का प्रक्रम भी एक सीमा के अंतर्गत ही हो) तथा एक से दूसरे समय में जाने के बीच एक तार्किक सामंजस्य हो, और जो कथा में मनमौजी तरीके से चमक दमक पैदा करने की बजाय उसमें एक नया आयाम जोड़े - पात्र तथा कहानी के संदर्भ में थोड़ी और सघनता, जटिल स्थितियाँ, वैविध्य अथवा गहराई लाए।

आधुनिक उपन्यासों की बात करते हुए, जैसा कि औपन्यासिक काल के साथ होता है, कि वह कभी फैलता है, कभी सिकुड़ता है, कभी ठहर सा जाता है, तथा कभी कभी बहुत तेजी से भागता है, ज्यादा तकनीकी गहराई में गए बिना हम यह कह सकते हैं कि समय के अंतर्गत कहानी का प्रवाह मुक्त आकाश में कहानी के प्रवाह जैसा होता है। कथा काल में कहानी का विस्तार मानों किसी भौतिक सीमा में होता है, उसी के अंतर्गत एक से दूसरे छोर तक, उछलते, कूदते, फिरते हुए, क्रमिक समय के बड़े बड़े टुकड़ों को बीच बीच में छोड़ते हुए, पुनः वापस जाकर छूटे समय के धागों को पकड़ लेते हुए, अतीत से भविष्य और फिर भविष्य से अतीत तक की छलाँगें लगाते हुए, उस स्वतंत्रता के साथ जो जीवन के लिए अनिवार्य मांस और रक्त तक से मुक्त है। इस तरह से, औपन्यासिक काल भी वाचक के ही तरह की एक रचना है।

अब हम औपन्यासिक समय की चंद मूलगामी संरचनाओं (क्योंकि सारी संरचनाएँ मूलगामी ही हैं, इसलिए 'मूलगामी संरचनाओं' ही) के उदाहरण देखते हैं। भूत से वर्तमान, और फिर वापस भविष्य तक जाने की बजाय, 'आलेखो कारपेंतिएर' की कहानी 'Journey to the Seed' ठीक उल्टी दिशा में जाती है। कहानी की शुरुआत उसके नायक दोन मार्सिएल, जो मरने की कगार पर पहुँच चुका बुजुर्ग है, से होती है, जिसे कि आगे हम उसके प्रौढ़, फिर जवान, फिर बचपन तथा अंत में एक पवित्र अचेतना के एहसास में जाते देखते हैं, जहाँ कि उसका जन्म लेना अभी बाकी होता है और वह तब तक गर्भ के अंदर पड़ा एक भ्रूण होता है। यहाँ कहानी का प्रवाह उल्टा नहीं होता है; बल्कि इस औपन्यासिक काल में समय का प्रवाह उल्टा है। और प्रसव पूर्व की स्थितियों की बात करते हुए हमें लारेंस स्टर्ने की 'Tristram Shandy' का उदाहरण लेना चाहिए, जिसकी शुरुआत के दर्जनों पन्ने वाचक/नायक के जन्मपूर्व की गाथा से भरे हैं, उसके गर्भाधान के व्यंग्यपूर्ण विवरण, माँ के गर्भ में उसके विकास तथा दुनिया में उसके आगमन के जिक्र से भरा हुआ। कहानी के विकास क्रम में आने वाले मोड़, जटिल स्थितियाँ, तथा खिंचाव और संकुचन आदि ने 'Tristram Shandy' के 'सामयिक दृष्टिकोण' को एक बहुत ही विलक्षण तरीके का विस्तार दे दिया है।

कथा में दो अथवा अधिक कालों अथवा 'सामयिक दृष्टिकोणों' का एक साथ समावेश भी एक सामान्य सी चीज है। उदाहरण के लिए गुंटर ग्रास के 'The Tin Drum' में, (कर्कश आवाज तथा बाजे वाले) नायक आस्कर मात्जर्थ, जो समय को खत्म कर देने के लिए बूढ़ा न होने का फैसला किए रहता है, को छोड़कर बाकी हर किसी के लिए समय आगे बढ़ता रहता है। अपने प्रबल आत्मविश्वास के दम पर वह अपनी उम्र को रोक लेता है तथा अनंत आयु का जीवन जीता है। यूँ, जबकि भगवान क्रोनोस की इच्छानुसार दूसरी सारी जीचें पुरानी, क्षरित तथा पुनः नए तरीके से विकसित होती रहती हैं, आस्कर की जीत होती है। आस्कर के सिवाय बाकी हर चीज नष्ट होती जाती है।

समय के ही नष्ट हो जाने, तथा उसके परिणाम (कथा के इतिहास के हवाले से, हर बार ही विनाशकारी) का कथानक गल्प जगत में बार बार दुहराया जाता रहा है। यह सिमोन द बोउवा के अपेक्षाकृत कम चर्चित उपन्यास 'All Men Are Mortal' में भी दिखाई देता है। अपने सर्वाधिक प्रसिद्ध उपन्यास में एक खास तकनीक का इस्तेमाल करते हुए, 'खूलियो कोर्तिसार' ने उस निर्दयी कानून पर गुस्सा जाहिर किया जिसके मुताबिक अंत के कानून का पालन हर किसी को करना है। कोर्तिसार के 'Hopscotch' को पढ़ते हुए, जो पाठक, वाचक द्वारा दिए निर्देशों की सूची का अनुसरण करेगा, वह उपन्यास को कभी भी पूरा नहीं पढ़ पाएगा। क्योंकि आखिर के दो अध्याय लगातार एक दूसरे को उद्धृत करते, उनसे जुड़ते जाते हैं। और सैद्धांतिक रूप से (न कि व्यवहार रूप में) आज्ञाकारी पाठक, एक सामयिक व्यूह में उलझा हुआ, बचने की किसी भी उम्मीद से रहित, बाकी की सारी जिंदगी उन्हीं अध्यायों को पढ़ता, और फिर फिर से पढ़ता रह जाएगा।

बोर्खेस ने एच जी वेल्स की 'The Time Maschine' के उस हिस्से को कोट किया, जिसमें एक इनसान भविष्य की यात्रा करता है और अपने इस साहसिक कृत्य के सबूत के तौर पर वापसी के समय हाथ में एक गुलाब लेकर आता है। गुलाब के इस तरह के असंभव विस्थापन ने बोर्खेस को एक बेहतरीन चीज के नमूने रूप में प्रभावित किया।

समानांतर काल का एक और उदाहरण 'आदोल्फो बिओई कासारेस' की कहानी 'The Celestial Plot' है, जिसमें विमान का एक चालक विमान में ही गायब हो जाता है, तथा बाद में फिर से प्रकट होता है और ऐसी अनोखी कहानी सुनाता है जिस पर किसी को यकीन नहीं होता; विमान के साथ वह जिस काल में उड़ा था, बाद में उससे किसी दूसरे समय में उतर गया। यूँ, उसके कथा संसार में अनेक काल एक दूसरे के समानांतर चल रहे होते हैं, अपने निजी गुण धर्मो, लोगों तथा ताल और लय के साथ। तथा उस विमान चालक के साथ हुई अप्रत्याशित दुर्घटना के सिवाय और कहीं पर भी उनका सम्मिलन नहीं होता। विमान चालक एक ऐसे ब्रह्मांड की कहानी सुनाता है जिसकी संरचना एक दूसरे से कभी न मिलने वाले ऐसे समानांतर कालों से बना एक पिरामिड है।

यूँ, इस तरह के बहुकाल प्रधान ब्रह्मांड से उलट, वाचक द्वारा सशक्त तरीके से रचा एक ऐसा भी काल होता है जहाँ वास्तविकता का क्रमिक समय तथा कथा में चल रहा समय, दोनों ही मंद पड़ते पड़ते रुक से जाते हैंय जैसा कि हम 'जेम्स ज्वायस' के लंबे उपन्यास 'Ulysses' में देख सकते हैं, जो लियोपोल्ड ब्लूम की जिंदगी के मात्र चौबीस घंटों की गाथा सुनाता रह जाता है।

इस लंबे पत्र में, इस मुकाम तक आते आते आप अपनी इस द्विधा को अब और ज्यादा नहीं दबा पा रहे होगे, जो कुछ यूँ है; लेकिन तब से आप जिस सामयिक दृष्टिकोण की बात कर रहे हैं, मुझे वह अलग अलग चीजों की मिलावट जैसा दिखता है; समय एक कथानक के रूप में (आलेखो कारपेंतिएर तथा बिओई कासारेस के उद्धरणों में) तथा समय एक शिल्प या फिर कहानी की एक तरह की संरचना के रूप में, जिसमें कि कथानक धीरे धीरे खुलता जाए (Hipscotch के कभी न बीतने वाले समय के मामले में)। यह द्विधा बिलकुल जायज है। और इसके सामने मेरे पास अपने बचाव के लिए इकलौता तर्क यह है कि चीजों का यह घालमेल मैंने जान-बूझकर किया। लेकिन सवाल यह है कि क्यों किया? इसलिए किया, कि मेरी राय में कहानी में प्रयुक्त 'सामयिक दृष्टिकोण' की पहचान करते हुए ही तुम्हें यह बात अच्छे से मालूम हो सकती है कि शिल्प और कथानक दोनों ही, किस तरीके से एक दूसरे से जुड़ी चीजें हैं। हालाँकि मैंने उपन्यास की संरचना समझाने के मकसद से, दोनों ही को निर्दयता के साथ अलग अलग कर दिया।

किसी कथानक का उद्घाटन जिस तरह एक कहानी या गल्प में होता है, असल जीवन में वैसा कभी नहीं होता, इसलिए मैं पुनः याद दिला दूँ, कि उपन्यास के भीतर का समय सायास रची गई चीज होती है। ठीक वहीं, कहानी में चल रहा समय, अथवा कहानी में चल रहे समय तथा वाचक के समय के बीच का संबंध, इस बात पर निर्भर करता है कि कहानी को किस 'सामयिक दृष्टिकोण' के प्रयोग से लिखा गया है। इसे दूसरे तरीके से यूँ भी कहा जा सकता है कि उपन्यास की कहानी उसके 'सामयिक दृष्टिकोण' पर निर्भर होती है। असल में, अपनी सैद्धांतिक बहसों की इस जहाज को रोककर जब हम मुकम्मल उपन्यासों को देखेंगे, तो हमारे सामने एक ही निष्कर्ष आएगा। हमें पता चलेगा कि उन कहानियों से हटकर किसी 'शिल्प' का अस्तित्व नहीं होता जो अपने कहे जाने के लिए प्रयुक्त शब्दों के माध्यम से उपन्यास को एक आकार देती, तथा जीवंत बनाती (अथवा नहीं बनाती) हैं।

और अब एक ऐसी चीज पर बात करते हैं जो कथा जगत की हरेक रचना में मौजूद हो। ऐसी हरेक रचना में हम ऐसे क्षणों से जरूर गुजरते हैं जब समय काफी अहम होकर पाठक की चेतना पर प्रबलता के साथ गुजरता है, उसका सारा ध्यान खुद पर केंद्रित कर लेते हुए। तथा दूसरी ओर ऐसे दौर भी होते हैं, जब काल की तीव्रता ढीली पड़ जाए तथा कहानी के उस हिस्से (कथांश) की प्रबलता भी कम हो जाए; कहानी के ये दूसरी तरह के हिस्से हमारा ध्यान खींचने में असफल रहते हैं तथा पहले ही से आभास कर ली जाने वाली एक सामान्य चीज लगते हैं। वे सिर्फ कुछ इस तरह की सूचनाएँ या व्याख्यान देते हैं तथा उन घटनाओं अथवा पात्रों को जोड़ने का काम भर करते हैं जो ऐसा न किए जाने पर अप्रासंगिक रूप से, कहानी में इधर उधर भटक जाएँगे। हम पहले तरह के कथांश को जीवंत काल (घटनाओं की सर्वाधिक तीव्रता का काल) कह सकते हैं, तथा दूसरे प्रकार को मृतप्राय अथवा संक्रमण काल। हालाँकि, यह ठीक नहीं है कि किसी उपन्यासकार की आलोचना सिर्फ उसकी रचना में उपस्थित, पात्रों और किरदारों को जोड़ते भर रहने वाले मृतप्राय काल के लिए की जाय। वे भी एक उपयोगी चीज होती हैं, क्योंकि वे कहानी में एक निरंतरता बनाए रखती हैं तथा एक दुनियावी मायाजाल बुनती हैं, जो सामाजिक तंत्र का उद्घाटन कर उपन्यास का जरूरी अंग बन जाती हैं। बिना कुछ भी 'अतिरिक्त' के, सिर्फ जरूरी चीजों के प्रयोग से, एक मुकम्मल कविता रची जा सकती है। लेकिन उपन्यास के साथ ऐसा नहीं हो सकता। उपन्यास एक विस्तीर्ण चीज है, एक लंबे (कृत्रिम) काल में पसरता हुआ, तथा एक निश्चित सामाजिक परिप्रेक्ष्य में, पात्रों के इतिहास की तरह काम करता हुआ। इसके लिए जरूरी है कि उपन्यास सूचनाप्रद, संयोजक, तथा अनिवार्य विषय के साथ अधिक तीव्रता वाले कथांश (जो समय समय पर अपनी प्रकृति को बदलते हुए कभी भविष्य तो कभी अतीत में जाकर, अप्रत्याशित गहराई अथवा पेचीदगी लाते रहें) भी तैयार करता चले, ताकि कहानी सही ढंग से आगे बढ़ती रहे।

जीवंत काल तथा मृतप्राय अथवा संक्रमण काल का मेल किसी उपन्यास के कालविन्यास का निर्धारक होता है जो कि लिखी गई कहानी का खास कालक्रमिक समय होता है, जिसे कि 'सामयिक दृष्टिकोण' के तीन विभाजनों में बाँट सकते हैं। लेकिन मैं यह साफ कर दूँ कि अब तक मैंने उपन्यास के काल के बारे में चाहे जो भी कहा है, उसने कहानी के गुण धर्म परखने की हमारी यात्रा में चाहे जितनी भी मदद की हो, चर्चा करने के लिए अभी इससे आगे भी बहुत कुछ बचता है। जो सारे के सारे तब और अच्छे से स्पष्ट होंगे जब हम औपन्यासिक उद्यम से जुड़े दूसरे पहलुओं पर बात करेंगे। अब तो हम इस न सुलझने वाली गाँठ को खोलते ही जाने वाले हैं। है कि नहीं?

मैं तो इस राह में बढ़ता ही जाने वाला हूँ, और जैसा कि तुमने ही मुझे शुरुआत के लिए उकसाया था, आगे देखते रहो...

अगली मुलाकात तक, सप्रेम,