युवा निर्देशकों की नई लहर / जयप्रकाश चौकसे

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युवा निर्देशकों की नई लहर
प्रकाशन तिथि : 17 मार्च 2011


इस समय कुछ युवा निर्देशकों ने छोटे बजट की फिल्मों से अपनी स्वतंत्र पहचान बनाई है और सुखद आश्चर्य यह है कि उनकी मनोरंजक फिल्मों में सामाजिक प्रतिबद्धता कायम है। यही संगम भारतीय सिनेमा का मूल स्वर रहा है। उनकी फिल्मों को समीक्षकों के साथ दर्शकों की स्वीकृति भी मिली है और उनके प्रयास विगत समानांतर प्रयासों से इस मायने में अलग हैं कि उनमें कोई बौद्धिक दंभ नहीं है और किसी किस्म की भाषणबाजी भी नहीं है। सुखद यह भी है कि उनकी फिल्मों में कथा की पृष्ठभूमि मुंबई या मध्यम श्रेणी के शहर हैं।

भारतीय सिनेमा में अप्रवासी भारतीय दर्शकों की डॉलर शक्ति के साथ जो विशेष किस्म की महानगरीयता आ गई थी, उससे मुक्ति दिलाने का प्रयास भी इन फिल्मकारों ने किया है। अत: हमारे सिनेमा के अखिल भारतीय स्वरूप को पुन: प्राप्त करने की कोशिश की गई है। जो उस हेकड़ी से मुक्त है कि हम बिहार, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के दर्शकों के लिए फिल्म नहीं बनाते। इन युवा निर्देशकों में पहला नाम है हबीब फैजल का, जिनकी 'दो दुनी चार' मध्यम वर्ग के सपनों और डर पर बनाई गई कमाल की फिल्म सिद्ध हुई। उनकी लिखी 'बैंड बाजा बारात' भी मध्यमवर्गीय समाज की महत्वाकांक्षा को प्रस्तुत करती थी। अब हबीब फैजल आदित्य चोपड़ा के लिए फिल्म बना रहे हैं। दूसरा नाम है अभिषेक शर्मा का, जिन्होंने आरती शेट्टी के लिए 'तेरे बिन लादेन' रची। यह अमेरिका के डर और अतिरेक पर करारा व्यंग्य करने वाली फिल्म सिद्ध हुई। अब वे दूसरी फिल्म भी आरती शेट्टी की 'वॉकवाटर मीडिया कंपनी' के लिए बनाने जा रहे हैं।

सुभाष कपूर पहले भारतीय फिल्मकार हैं जिन्होंने आर्थिक मंदी के सामाजिक प्रभाव पर एक अद्भुत हास्य फिल्म रची। उनकी फिल्म 'इसी लाइफ में' अत्यंत मनोरंजक फिल्म थी। इस कस्बे की नायिका का महानगर के कॉलेज में स्वयं को खोजना, वापस कस्बे में लौटना जहां उसके महानगरीय मित्र आकर साबित करते हैं कि युवा की मस्ती की छवि के साथ उनके पास मित्रता निभाने की कूवत भी है। विधि कासलीवाल के पास अपने गुरु सूरज बडज़ात्या के सिनेमाई तत्वों के साथ अपना कुछ स्वतंत्र भी है।

अजीज मिर्जा के साथ अनुभव प्राप्त करने वाले फारुख कबीर ने 'अल्लाह के बंदे' बनाई जिसे दुर्भाग्यवश दर्शक नहीं मिले, परंतु यह एक अच्छी फिल्म थी। इन युवा लोगों के साथ ही राजकुमार हीरानी और 'ए वेडनेसडे' के निर्देशक नीरज पांडे तथा युवा अयान मुखर्जी जिन्होंने 'वेक अप सिड' बनाई थी, स्वस्थ मनोरंजन की आशा जगाते हैं। करण जौहर ने भी अपने गुरु आदित्य चोपड़ा की तरह कुछ युवा लोगों को अवसर दिया है। विधू विनोद चोपड़ा ने भी राजकुमार हीरानी की लिखी, 'फरारी की सवारी' में अपने सहायक को अवसर दिया है। यही भारतीय सिनेमा की विशेषता है कि फॉर्मूला ग्रस्तता के होते हुए नए निर्देशक अपना स्थान बनाते आए हैं।