युवा पीढ़ी के मन मे झांकता सिनेमा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 02 मार्च 2011
आनंद एल.राय की फिल्म 'तनु वेड्स मनु' में एक पिता पुत्र से कहता है कि अच्छा काम तुम नि:स्वार्थ भाव से कर रहे हो। मैं भी अपने जीवन में ऐसा ही कुछ साहसी नि:स्वार्थ काम करना चाहता था, परंतु कर नहीं पाया। यह अच्छा कार्य था उस लड़की का विवाह अपने रकीब से कराने का, जिसे वह खुद जी-जान से चाहता था और जानता है कि लड़की के कई अंतरंग मित्र रहे हैं और वह सिगरेट तथा नशे की आदी भी है।
गुजश्ता पीढिय़ों में भी अनेक युवा मन ही मन पड़ोसन से प्यार करते रहे और उसके विवाह में बारातियों को खाना परोसते रहे। उस दौर में लड़की के दामन की हवा भर मिलने पर प्रेमी धन्य हो जाता था और भूले से कभी कोई अंग छू गया तो वह हफ्तों नशे में गाफिल रहता था। जूड़े में फूल लगाना या चांदनी रात में नौका विहार अन्यतम सपना होता था। कविता की तरह प्रेम में भी छायावाद, रहस्यवाद और प्रगतिवाद के दौर रहे हैं। आर्थिक उदारवाद के बाद बाजार की ताकतों द्वारा तैयार नया वेतनभोगी युवा वर्ग प्रेम में यथार्थवादी है और उसकी अनौपचारिक जीवन शैली में स्थूल का बहुत महत्व है। वह प्लेटोनिक लव (आध्यात्मिक प्रेम) में यकीन नहीं करता। पांचवें दशक में धर्मवीर भारती का उपन्यास 'गुनाहों का देवता', जिस पर शायद वे स्वयं भी पशेमान थे, में प्रेम और दूरी में भी प्रेम बनाम प्रेम, शादी और सेक्स का द्वंद्व था। आज कोई चंदर नहीं और कोई सुधा नहीं।
विगत दशक में ऐसी अनेक फिल्में बनी हैं, जिनमें नायक और नायिका अपने-अपने स्वतंत्र प्रेम प्रकरणों से गुजरते हुए एक-दूसरे से अनेक बार मिलते हैं और केवल अंतिम रील में उन्हें अहसास होता है कि वे एक-दूसरे को ही चाहते हैं। इस श्रेणी की श्रेष्ठतम फिल्म इम्तियाज अली की 'जब वी मेट' है। यह सब हॉलीवुड की सफल फिल्म 'वैन हैरी मेट सैली' के ही अलग रूप हैं, परंतु गौरतलब यह है कि क्या भारत का युवा वर्ग अपनी प्रेमिका के अन्य प्रेम प्रकरण को हृदय से स्वीकार करता है और वर्जीनिटी पहले की तरह हव्वा नहीं है। गोयाकि उसके प्रति आग्रह घट गया है। अगर यह ठीक है तो स्थूल मूल्यों के दौर में यह बात शरीर के परे जाकर सीधे दिल से दिल के प्यार तक जाती है।
दूसरे शब्दों में यथार्थवादी दौर में भी कुछ छायावादी तो हो ही सकता है। दरअसल भारत में एक ही पल में अनेक शताब्दियां अपनी पूरी सज-धज और सड़ांध के साथ मौजूद रहती हैं और यहां वक्त गुजरकर भी पूरी तरह नहीं गुजरता। समाज की तलछट में सभी कुछ मौजूद रहता है। वर्तमान युवा वर्ग के रोजमर्रा के जीवन में प्रयोग में लाई जाने वाली भाषा में 'तनु वेड्स मनु' के संवाद लिखे गए हैं। एक लड़की अपनी सहेली से कहती है कि वह अनेक वर्षों से अपने पिता का विरोध महज विरोध की लोकप्रिय मुद्रा की खातिर कर रही है। यह विरोध यथास्थिति के खिलाफ है और इसमें बदलाव का आग्रह है परंतु उसकी दिशा का ज्ञान नहीं है। इसमें नायक पारंपरिक भद्र पुरुष है और लड़की जिस युवा गुंडे को चाहती है, वह भी भीतर से भला आदमी ही है। नायक के पास नौकरी है और नौकरी के अभाव में दूसरा गुंडागर्दी करता है। वह अंत में नायक से कहता है कि तुम ईमानदार हो, नायिका तुम्हारे प्रेम में ईमानदार हो रही है और वह स्वयं थोड़ा बेईमान है। बहरहाल फिल्म में कानपुर, लखनऊ, दिल्ली और कपूरथला एक अच्छा परिवर्तन है। कब तक मुंबई और स्विट्जरलैंड देखेंगे।