यूं ही नहीं दिल लुभाता कोई / ममता व्यास
अक्सर लोगो को कहते सुना है कि फलां-फलां व्यक्ति से उसका कोई पुराना नाता है, पिछले जनम का, वरना यूं ही, कोई कैसे दिल लुभाने लगा। चंद मुलाकातों में रिश्ता इतना गहरा हो गया कि लगने लगा जैसे सदियों के नाते हों। मजे की बात तो ये की कुछ ही दिनों में ये जन्मों के रिश्ते अदालत में लड़ते दिखते है। इकदूजे के प्रति जहर उगलते नजर आते हैं। इक बार किसी शायर ने पूछा था कि “है जो ये जन्म का रिश्ता तो बदलता क्यों है? “ पिछले दिनों एक मित्र ने बताया कि उसके जीवन में एक नया-नया रिश्ता बना है; लेकिन ऐसा लगता है की जैसे सदियों से वे इकदूजे को जानते हो। पहली मुलाक़ात में रूह का नाता हो गया आपस में... क्या ये संभव है? लोग तर्क देते हैं कि इतनी बड़ी दुनिया में कोई इक चेहरा ही हमें क्यों लुभाता है? ज़रुर उससे हमारा कोई पुराना नाता है। वरना कोई इक खास क्यों लगता है? क्या है उस चेहरे में ऐसा जो किसी और में नहीं दिखता। कोई किसी की मुस्कान को अतुलनीय मुस्कान कहता है। कोई किसी के अंदाज पर फ़िदा है। कोई किसी की आँखों की गहराई में खो गया। तो कोई किसी के गोरे रंग या सुन्दर देह का दीवाना हो गया। किसी को किसी की हंसी में सिक्कों की खनखनाहट सुनाई देती है। कोई किसी की आवाज़ से मदहोश होता है... इस ख़ास किस्म की पसंद के पीछे की प्रक्रिया क्या है? यानी किसी को कोई क्यों लुभाता है? और क्या इस आकर्षण को रूह का सम्बन्ध या कोई रहस्य, जादू या कोई अद्रश्य प्रेरणा माना जाए।
मनोविज्ञान की माने तो व्यक्ति का किसी ख़ास के प्रति व्यवहार का, सक्रियता का, परिवेश के साथ अंतर्गुथन होता है। लम्बे समय तक अनुकूलन भी इसके लिए जिम्मेदार है। हम जिस परिवेश में रह रहे होते हैं हम वैसी ही परिस्थतियों में ही खुद को सहज पाते हैं। अच्छा महसूस करते हैं। हमें हमारे परिवेश की चीजों की खास बुनावट, आकार तथा अन्य गुणधर्मों के प्रति इक ख़ास किस्म का अनुराग पैदा हो जाता है। परिचित, अभ्यस्त बुनावट हमें सहज रखती है; जबकि अपरिचित बुनावट हमें असहज कर देती है।
हम कुछ ख़ास आवाज़ों, चेहरों और रंगों इत्यादि के प्रति आकर्षित होते हैं लेकिन फिर वही बात कि सौ सुन्दर व्यक्तियों के बीच कोई इक ही प्रेमपात्र क्यों?
इस ख़ास लगावट के पीछे बहुत-सी रासायनिक क्रियायें कार्य करती है। यह कोई संयोग या रहस्य नहीं है...
मनोविज्ञान अनुसार आधुनिक चिकित्सा विज्ञान रासायनिक थ्योरी पर आधारित है। इसका अर्थ यह है कि मानसिक अवस्थाओं और विकारों को रासायनिक क्रियाओं व प्रतिक्रियाओं के आधार पर समझा जाता है। जैसे अगर सेरोटोनिन और डोपामाइन जैसे हारमोनों का अल्प या अधिक स्त्राव ही तय करता है कि मनुष्य का व्यवहार कैसा होगा। उसकी मानसिक दशाओं में परिवर्तन भी इन्हीं हारमोनों के कारण होता है।
थोड़ा आगे चले तो मनोविज्ञान कहता है कि यदि कोई व्यक्ति किसी ख़ास व्यक्ति के प्रति घोर उत्साही है या किसी के प्रति एकदम विमुख है तो यहाँ भी ये रसायन जिम्मेदार हैं। किसी वजह से घोर निराशावादी होना या अकारण अवसाद ग्रस्त होना या प्रमादग्रस्त हो जाना भी ये हारमोन ही तय करते हैं।
अब वापस उसी बात पर कि क्यों दुनिया की भीड़ में कोई इक चेहरा ही हमें लुभाता है? क्या कारण; क्या वजह हो सकती है; यानि सौ व्यक्तियों को अपने सामने खड़ा करके किसी एक का चुनाव सांयोगिक रूप से किया जाए तो सवाल उठता है की वही क्यों? इस सांयोगिकता की पीछे क्या रहस्य है?
इस के पीछे चुनने वाले के सौन्दर्यबोध के अपने मानदंड (standards ) और अंतर-संबंधों के बारे में उसकी मान्यताएँ जाने-अनजाने महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। सुन्दरता के अपने-अपने मानदंड बन जाते हैं और वह व्यक्ति उन्हीं से मिलते जुलते रूप को ही पसंद करता है। किसी को मधुबाला लुभाती है तो किसी को मीनाकुमारी। कोई केटरीना की सुन्दरता देख मुग्ध होता है तो किसी को उम्र दराज श्रीदेवी आज भी रोमांचित करती है। यही वजह है कि किसी को किसी की मुस्कान लुभाती है, किसी को किसी का चेहरा, उसके अंगों की एक ख़ास बनावट, आकर्षित करती हैं तो किसी को किसी का सेन्स ऑफ़ हयूमर, कई पुरुष या महिलाएँ गोरे रंग के प्रति आकर्षित होते हैं या सुन्दर देह के प्रति; तो कोई किसी में बुद्धि, विवेक और चतुराई खोजता है।
यानी कि उसका चुनाव इन्हीं बातों पर निर्भर होता है, ना कि एकदम सांयोगिक और किसी दैवीय या रहस्यमयी प्रेरणा पर। अक्सर लोग इस आकर्षण को रूह का नाता, पिछले जनम का सम्बन्ध या कोई रहस्य मान बैठेते है। यह नासमझी के सिवा कुछ भी नहीं।
शुरूआती आकर्षण और चुनाव में शारीरिक गुणों की महती भूमिका होती है पर असली परीक्षा तो आपसी अन्तक्रिर्याओं यानी व्यक्तित्व के आंतरिक व्यवहारिक गुणों के परीक्षण में होती है।
सार ये है कि कोई चेहरा आपको लुभा रहा है, पसंद आ रहा है। आप किसी व्यक्ति विशेष के आकर्षण में बुरी तरह खिंचे चले जा रहे हैं, तो आप इसे कोई नशा या जादू समझने की भूल ना कर बैठे, किसी मनोचिकित्सक के पास जाकर अपने हारमोन टेस्ट करवाएँ। यक़ीनन ये सारा खेल, हारमोन की गड़बड़ी का है। किसी का मिलना, आपके जीवन में उसका आना और छा जाना, आपको विचलित कर देना, ये महज़ कुछ चीजों पर निर्भर संयोग मात्र हो सकता है। आप को कोई यूँ ही नहीं लुभा रहा। उस लुभाने के पीछे कोई सदियों का नाता नहीं; ना कोई रहस्मयी प्रेरणा; ना कोई पूर्व जनम का कोई सम्बन्ध ही है। बल्कि, इसके पीछे आपके सौन्दर्बोध के मानदंड, आपकी अंतर संबंधों के बारे में मान्यता और कुछ जैव रसायन काम कर रहे हैं। हमें निरपेक्ष भाव से इसे देखना होगा और देखते वक्त इसकी गहराई में जाना होगा बजाए इसके कि हम इसे जादू, पूर्व नियत संयोग या कोई पुराना नाता समझे। इसलिए अब अगर कोई आपको लुभाए तो सौ बार सोचे की यूँ ही नहीं दिल लुभाता कोई!