ये कौन-सी जगह, कौन-सा मकाम है / जयप्रकाश चौकसे

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ये कौन-सी जगह, कौन-सा मकाम है

प्रकाशन तिथि : 02 जुलाई 2012

वेदांश कुलकर्णी लिखते हैं कि आजकल फिल्मों में शहर या गांव को पात्र की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है। उन्होंने ‘कहानी’ के कोलकाता और ‘पान सिंह तोमर’ के चंबल इलाके तथा ‘इशकजादे’ के कस्बे का जिक्र किया है। यह सच है कि आजकल फिल्मकार इस मामले में सजग हैं। फिल्म यकीन दिलाने की कला है और फिल्मकार अपने पात्रों और घटनाक्रम के लिए एक स्थान चुनता है तथा विश्वसनीयता लाने का प्रयास करता है।

अनुराग कश्यप की ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में स्थान को विश्वसनीय ढंग से प्रस्तुत किया है, परंतु उन्होंने धनबाद के निकट वासेपुर में एक दिन भी शूटिंग नहीं की है। प्रकाश झा ने अपनी फिल्मों में बिहार का ‘शहर’ हमेशा पुणो के नजदीक वाही गांव में शूट किया है। उसी गांव में ‘दबंग’ भी शूटिंग की गई है। महत्वपूर्ण यह है कि दर्शक को यकीन हो जाए कि यह कथा इस ‘स्थान’ की है।

आमिर खान और करीना कपूर की आगामी फिल्म ‘तलाश’ में कुछ दृश्य मुंबई के हैं, जहां भीड़ के कारण शूटिंग संभव नहीं थी। उन्होंने पुडुचेरी के एक मोहल्ले में सभी दुकानों पर मालिकों की आज्ञा से नामपट्ट बदले और शूटिंग की। आजकल सिनेमा टेक्नोलॉजी इतनी विकसित है कि यह जगह का विश्वसनीय प्रभाव पैदा करती है। मणिरत्नम ने ‘गुरु’ के एक दृश्य के लिए मुंबई की एक गली का सेट चेन्नई के स्टूडियो में लगाया था और उस गली में ट्रॉम भी चलती दिखाई गई थी। दरअसल ‘गुरु’ जिस कालखंड की कथा कहती है, उस कालखंड में मुंबई में ट्रॉम दौड़ती थीं।

दीपा मेहता को सरकार के आज्ञापत्र के बावजूद ‘वॉटर’ की शूटिंग हुल्लड़बाजों ने बनारस में नहीं करने दी। उन्होंने पूरी फिल्म श्रीलंका में फिल्माई और दर्शक को बनारस का यकीन दिला दिया। उन्होंने ‘मिडनाइट चिल्ड्रन’ के लिए ‘कराची’ और ‘दिल्ली’ की रचना भी श्रीलंका में की है। डेविड लीन को ‘डॉ. जिवागो’ की शूटिंग की रूस में आज्ञा नहीं मिली तो उन्होंने स्वीडन में रूस का प्रभाव पैदा करने वाले दृश्य शूट किए थे। यश चोपड़ा की ‘फना’ में भी कश्मीर के दृश्य पोलैंड में फिल्माए थे। अनेक निर्माताओं ने महाबलेश्वर और खंडाला में ‘कश्मीर’ के दृश्य फिल्माए हैं। राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने ‘दिल्ली 6’ के अनेक दृश्य राजस्थान के एक शहर में शूट किए।

पहले सेंसर बोर्ड की सख्ती से बचने के लिए फिल्मकार शहर विशेष का नाम नहीं लेते थे और पात्रों के सरनेम भी नहीं देते थे। आजकल नियम लचीले कर दिए गए हैं। अनुराग कश्यप द्वारा प्रस्तुत वासेपुर उस शहर के साथ न्याय नहीं करता और वहां इस तरह संगठित अपराध के बीच कोई युद्ध नहीं हुआ। दरअसल यह संभव है कि वासेपुर के लोग इस बात से खफा भी हो सकते हैं कि उनके शहर में गैंगवॉर प्रस्तुत किया गया है, जबकि यह यथार्थ नहीं है। शायद उसे केवल मुस्लिम बाहुल्य शहर होने के कारण चुना गया। फिल्में शहरों को बदनाम भी कर सकती हैं।

अगर मिलन लूथरिया की ‘वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई’ इस मायानगरी को अपराध की गंगोत्री बताती है तो ऋषिकेश मुखर्जी ने अपनी ‘आनंद’ मुंबई को समर्पित की थी। दरअसल मनुष्य को समझने की तरह ही किसी शहर को भी समझना आसान नहीं होता, क्योंकि शहर के भीतर 10 शहर बसे होते हैं। ‘सिटी ऑफ जॉय’ कोलकाता में ओमपुरी ने हाथ रिक्शा खींचा तो बलराज साहनी ने भी यही काम बिमल रॉय की ‘दो बीघा जमीन’ में किया था। ‘कहानी’ में प्रस्तुत कोलकाता देखकर हम समझ सकते हैं कि शहर के भीतर कितने शहर होते हैं।

किसी शहर को पूरी तरह कैसे जाना जा सकता है? क्या उसकी इमारतें उसका परिचय हैं? क्या इतिहास की कोई घटना के लिए वह जाना जाता है? क्या कोई उद्योग उसका सच है? क्या किसी शहर को उसकी तवायफों के माध्यम से भी जाना जा सकता है? दरअसल शहर का चरित्र बूझना कठिन है। मुंबई अपने जुझारूपन के लिए जाना जाता है। बड़ी-बड़ी दुर्घटनाओं के बाद भी शहर अपनी निजी रफ्तार पर शीघ्र ही लौट आता है।

हर शहर का अपना मिजाज होता है। तांगेवाले और पानवाले तक अपने स्वभाव से अपने शहर को परिभाषित करते हैं। आज के दौर में विदेशी प्रभाव इतने प्रबल हैं कि सारे शहर न्यूयॉर्क बनने का हास्यास्पद प्रयास करते नजर आ रहे हैं। सारे एयरपोर्ट एक जैसे लगते हैं। दरअसल आज हम शहर या कस्बे का चरित्र खोजने निकले हैं, जबकि पूरा देश ही चरित्रहीन हो गया है। हर जगह आदमी बदहवासी में दौड़ता नजर आ रहा है। सब जगह एक-सी गति और लक्ष्यहीनता है। सभी माथों पर शिकन, सभी शिराओं में थकन। सभी चेहरों पर चिंताएं, सभी आंखों में यकसी जलन। दिल ढूंढ़ता है..।