ये दास्तां कहां शुरू कहां खत्म / जयप्रकाश चौकसे

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ये दास्तां कहां शुरू कहां खत्म
प्रकाशन तिथि : 25 मई 2013


पच्चीस मई यानी आज करण जौहर का ४१वां जन्मदिन है। उनका जन्म फिल्म परिवार में हुआ, परंतु फिल्मों से वे पंद्रह सालों से ही जुड़े हैं, जब पारिवारिक मित्र आदित्य चोपड़ा ने उन्हें 'दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे' के समय अपना सहायक चुना। गुजरे दशक में वे अनेक फिल्में बना चुके हैं, परंतु उनकी फिल्म 'कल हो ना हो' में पहली बार समलैंगिकता का प्रसंग हास्य के ढंग से आया, जब परिवार की सेविका कांता बहन सैफ और शाहरुख के बीच इस तरह के संबंध की शंका करती है। इसके बाद उनकी 'दोस्ताना' में दो सामान्य मित्र समलैंगिकता का स्वांग करके मकान किराए पर लेते हैं। यह भी एक हास्य फिल्म थी, जिसमें जॉन अब्राहम और अभिषेक बच्चन मकान मालकिन की बेटी से इश्क करना चाहते हैं और वह उनकी घोषित समलैंगिकता के कारण बिना हिचक उनसे मित्रता कर लेती है। इस फिल्म में अभिषेक की मां की भूमिका में किरण खेर ने बढिय़ा अभिनय किया था। उन्हें यह समझ नहीं आता कि अपने समलैंगिक बेटे के अंतरंग मित्र को अपनी 'बहू' मानें या अपना 'दामाद'। फिल्म के अंत में दोनों मित्रों को मालूम होता है कि उनकी प्रेमिका तो पहले से ही किसी और से प्यार करती है और नैराश्य में दोनों मित्र सरेआम एक-दूसरे का लंबा चुंबन लेते हैं। हमारे सिनेमा में इस तरह का यह पहला ही प्रयोग था।

करण जौहर की 'स्टूडेंट ऑफ द ईयर' में अविश्वसनीय अजीबो-गरीब कॉलेज के प्राचार्य का रुझान भी समलैंगिकता की ओर है और वह अपने अधीन काम करने वाले खेलकूद विशेषज्ञ से प्यार करता है। अपने दफ्तर की मेज के एक खाने में खुले बदन पुरुषों की तस्वीरों को वह औरों की निगाह से बचाकर देखता रहता है। इस फिल्म में नारी पात्र न्यूनतम वस्त्र पहनकर परिसर में विचरण करती हैं और छात्र बात-बेबात कमीज उतार फेंकते हैं और मजबूरी में पहनते भी हैं तो बटन नहीं लगाते। पूरी फिल्म में मनुष्य मांस की लहरें चलती रहती हैं। यह एकमात्र कॉलेज परिसर फिल्म है, जिसमें कभी कोई छात्र कक्षा में नहीं जाता, किसी के हाथ में किताब नहीं होती। बहरहाल, इस फिल्म में प्राचार्य सेवानिवृत्त होकर तन्हा जीवन गुजारता है और मृत्यु-शैया पर अपने सपनों के राजकुमार खेलकूद शिक्षक से कुछ इस आशय की बात करता है कि इस जन्म में न सही अगले जन्म में मिलने का वादा करो। मृत्यु-शैया के आगोश में जाने के महत्वपूर्ण क्षण में समलैंगिकता की बात अटपटी लगती है। इसे हास्य दृश्य तो माना ही नहीं जा सकता। एक शिक्षा संस्था के प्राचार्य का चरित्र-चित्रण इस तरह का करके करण जौहर समलैंगिकता की सशक्त हिमायत कर रहे हैं।

सेक्स का मामला नितांत व्यक्तिगत मामला है और अपने-अपने चुनाव के लिए सब स्वतंत्र हैं। विदेशों में समलैंगिकता नैतिक रूप से सही मानी जाती है और इसकी कानूनी स्वतंत्रता भी है। भारत में इसे सामाजिक मान्यता प्राप्त नहीं है। हमारी फिल्मों ने कभी इस प्रतिबंधित क्षेत्र में जाने का प्रयास नहीं किया और दर्शक भी पूरी फिल्म में 'कांता बहननुमा' कुछ हास्य दृश्य पसंद कर सकता है, गोया कि उसकी मनोरंजन थाली में कोई चटनी पड़ी हो, परंतु पूरा भोजन चटनी ही हो तो रुचिकर नहीं होगा।

सिने शताब्दी के अवसर पर चार निर्देशकों द्वारा बनाई गई फिल्मों में से एक फिल्म करण जौहर की भी है और उसका विषय भी समलैंगिकता ही है। एक पात्र अपनी रुचि की घोषणा करता रहता है और एक विवाहित पुरुष ने अपनी समलैंगिकता छुपाकर रखी थी। इस लघु फिल्म के एक दृश्य में दो पुरुष पात्रों के बीच चुंबन का दृश्य है। 'दोस्ताना' में इस तरह के दृश्य को भी थोड़े संकोच के साथ हास्य माना जा सकता है, परंतु इस आधे घंटे की फिल्म में वह गंभीरता और भावना की तीव्रता के साथ प्रस्तुत किया गया है। करण जौहर व्यावहारिक व्यापारी भी हैं, वे जानते हैं कि आधे घंटे की फिल्म का यह विषय दो घंटे की पूरी फिल्म में असफल हो जाता, क्योंकि भारत के दर्शक पारंपरिक दर्शक हैं और समलैंगिकता की बात सरेआम उन्हें पसद नहीं है। करण जौहर कभी हॉलीवुड की 'माऊंटेन बैक' की तरह इस विषय पर फिल्म नहीं बनाएंगे। बहुत कम लोग अपनी भिन्न रुचि को उजागर करते हैं। समाज के भय से गोपनीयता बनाए रखनी होती है।

मुंबई के कुछ घोषित रूप से 'गे' लोगों का कहना है कि करण जौहर की फिल्मों में यह मामला सतही ढंग से ही प्रस्तुत किया जाता है। यहां तक कि उस आधे घंटे की फिल्म का अंत तो नारी स्वतंत्रता की बात पर होता है, जब पत्नी अपने समलैंगिक पति द्वारा किए गए स्पर्श को अपने शरीर से गंदगी की तरह साफ करती है और घोषित करती है कि अब वह अपनी जिंदगी अपने ढंग से जिएगी। अत: पुरुष और पुरुष के बीच के प्रेम की कहानी नारी स्वतंत्रता पर समाप्त होती है।

करण जौहर की अपनी दुविधा और संदेह उनकी फिल्मों में आ जाते हैं। वे खुलकर रुचि-विशेष के पक्ष की फिल्म नहीं बना पाते, परंतु उसके संकेत देते चलते हैं। दरअसल, भारतीय समाज को इस मामले में कोई दुविधा नहीं है। वे रिश्तों को पारंपरिक दायरे में ही रखना चाहते हैं। इतना ही नहीं, कोई बड़ा सितारा इस तरह की भूमिका भी स्वीकार नहीं करेगा। उनकी आधे घंटे की साहसी कथा अन्य तीन फिल्मों के साथ जोड़कर प्रदर्शित की गई है। करण जौहर इसके साथ ही विविध फिल्में भी बनाते हैं। एक जमाने में उनका कथन था कि वे शाहरुखविहीन किसी फिल्म की कल्पना भी नहीं कर सकते, परंतु वे इस बचपन से उबरे और उन्होंने अनेक सितारों के साथ फिल्में बनाईं। यह सिलसिला जारी है। दरअसल, फिल्म के माध्यम से कोई आंदोलन नहीं चलाया जा सकता।