ये दुनिया अगर मिल भी जाए... / जयप्रकाश चौकसे
परदे के पीछे - ये दुनिया अगर मिल भी जाए...
प्रकाशन तिथि : 23 अगस्त 2012
अमेरिका के अत्यंत सफल, समृद्ध अड़सठ वर्षीय फिल्मकार टोनी स्कॉट ने विंसेंट थॉमस पुल पर से छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली। उनकी पत्नी का कहना है कि उन्हें कोई जानलेवा बीमारी नहीं थी और न ही कोई आर्थिक संकट था। वे इतने सफल फिल्मकार थे कि शिखर सितारे उनके साथ काम करने के लिए हमेशा लालायित रहते थे। उनका कोई प्रेम-प्रकरण भी नहीं था। सारांश यह कि आत्महत्या का कोई कारण नहीं था। भारत के सफल-समृद्ध फिल्मकार मनमोहन देसाई ने लाइलाज कमर दर्द से त्रस्त होकर इमारत से छलांग लगाई थी। अभिनेता राधाकिशन ने अपनी फिल्म की असफलता के कारण छलांग लगाई। टोनी स्कॉट और गुरुदत्त की आत्महत्या में यह समानता है कि दोनों ही सफल लोग थे, परंतु टोनी स्कॉट से अलग गुरुदत्त का दांपत्य जीवन संकट भरा था। सच तो यह है कि गुरुदत्त अपनी आत्महत्या के बहुत पहले ही अपनी आत्महत्या का संकेत अपनी फिल्म 'प्यासा' के गीत में दे गए थे कि 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?' यह कहना है कि वे जिंदा रहते तो समृद्धि, ख्याति के साथ अपना प्रेम भी पा जाते, परंतु अपने लोगों के स्वार्थ और संवेदनहीनता से वे आहत हो गए थे। ज्ञातव्य है कि उदयशंकर के अल्मोड़ा स्थित स्कूल में नृत्य सीखते समय उन्होंने एक सर्प नृत्य प्रस्तुत किया था, जिसमें सांप ने नृत्य करने वाले शरीर को पकड़ा है, परंतु नाचने वाला उसका फन पकड़कर मृत्यु-नृत्य प्रस्तुत कर रहा है। आत्महत्या वाले दिन शायद जीवन के नाग के फन पर उनकी पकड़ ढीली हो गई। जीवन में परफेक्शन की तलाश से नाखुश गुरुदत्त ने मृत्यु में उसे खोजा।
बहरहाल, टोनी स्कॉट का मानस गुरुदत्त जैसा नहीं था और उनकी आत्महत्या का कारण कुछ और हो सकता है। सुपरस्टार टॉम क्रूज के साथ 'टॉपगन' जैसी सफल फिल्म बनाने वाले स्कॉट पुल की रेलिंग पर खड़े होकर एक पल भी ठिठके नहीं। स्पष्ट है कि उनका इरादा पक्का था और उनके मन में कोई संशय या मोह नहीं था। क्या वे अमेरिकी जीवनशैली से आहत थे? उनके देश में तो भारत की तरह सांस्कृतिक शून्य व जीवन-मूल्यों का संकट भी नहीं है कि नैराश्य में संवेदनशील व्यक्ति आत्महत्या कर ले। बादल सरकार के नाटक 'बाकी इतिहास' के नायक की तरह उनके मन में ऐसा प्रश्न भी नहीं था कि जीने का भी कोई ठोस कारण नहीं है, क्योंकि दिशाहीन समाज का दंश भी गहरा होता है।
नोबेल पुरस्कार जीतने वाले महान अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने आत्महत्या इसलिए की थी कि वे अपने तीन प्रिय कार्यों (लेखन, शराबनोशी और शिकार) की क्षमता खो चुके थे। बहरहाल, जीने के कई कारण हो सकते हैं और मरने के लिए चंद बहाने काफी हैं। आज के युग में यह संवेदनहीनता ही है कि लोग शर्म से भी नहीं मरते और सम्मान से भी नहीं जीते, केवल जीने का स्वांग करते हैं। हम सब लाइफ-लाइफ खेल रहे हैं।
स्विट्जरलैंड की तरह कुछ देश लाइलाज रोग होने पर इच्छा-मृत्यु के अधिकार का सम्मान करते हैं और दर्दहीन मृत्यु का इंजेक्शन लगाते हैं, परंतु अधिकांश देशों में इस तरह की मौत अर्थात यूथेनेशिया को कानूनी आज्ञा नहीं है। यह अजीब बात है कि जो सरकारें जीवन की सुविधा नहीं दे सकतीं, वे मौत को प्रतिबंधित करती हैं। बतर्ज 'मुगल-ए-आजम' कि अनारकली, सलीम तुझे मरने नहीं देगा और हम तुझे जीने नहीं देंगे। आज संवेदनशील व्यक्ति घरों में चुनवा दिए गए हैं, सड़कों पर जड़ कर दिए गए हैं।
दरअसल आत्महत्या, डेथ विश से अलग इस मायने में है कि डेथ विश वाला व्यक्ति दुस्साहस करता है। वह वहां जा घुसता है, जहां परिंदे भी पर नहीं मार सकते। 'डेथ विश' नामक फिल्म शृंखला भी बनी है। आत्महत्या जीवन को त्यागपत्र देने की तरह है, या कहें कि जीवन से निकाले जाने वाले सरकारी ऑर्डर से बचना है। कुछ निजी संस्थाएं नौकरी से निकालने के बदले व्यक्ति को काम देना बंद कर देती हैं। सुबह ९ बजे आइए, शाम ५ बजे चले जाइए। कोई काम नहीं, इसलिए कोई आपसे बात भी नहीं करता। यह ऊब के कारण मृत्यु के समान है।
देवव्रत अर्थात भीष्म को 'इच्छा-मृत्यु' का वरदान प्राप्त था। उनके पास अनेक अवसर थे, जब वे इसका इस्तेमाल कर सकते थे। मसलन द्रोपदी के चीरहरण के समय कर सकते थे या दुर्योधन द्वारा एक गांव भी नहीं देने के निर्णय पर कर सकते थे, परंतु वे तीरों की शैया पर भी वेदना सहते रहे कि सूर्य उत्तरायण होंगे, तब प्राण तजेंगे। भीष्म के अनिर्णय के कारण बहुत से अन्याय हुए हैं और शायद निर्णय नहीं लेने की आदत के कारण ही उन्होंने इच्छा-मृत्यु के वरदान का पहले उपयोग नहीं किया। भारत के अनेक ेता भीष्म की तरह प्राय: अनिर्णय की स्थिति में रहते हैं। दरअसल भीष्म ने नंदिनी चुराई थी, अत: वे शापग्रस्त वसु थे। शाप और वरदान के दायरे से परे है जीने का साहस। शाप और वरदान तो मिथ हैं।