ये दुनिया अगर मिल भी जाए / जयप्रकाश चौकसे

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ये दुनिया अगर मिल भी जाए...
प्रकाशन तिथि : 13 दिसम्बर 2012


पवन वर्मा की पद्य में लिखी किताब के एक प्रसंग 'युधिष्ठिर और द्रोपदी' में कुछ लोक-कथाओं का स्पर्श देकर तथा नाटक के लिए कोरस लिखकर गुलजार ने सलीम आरिफ के लिए एक नाटक लिख दिया। कोई पंद्रह वर्ष पूर्व भी गुलजार 'खौफ' नामक नाटक लिख चुके हैं और विभाजन के साठ वर्ष बाद के हालात पर 'लकीरें' नामक नाटक भी लिखा है। उनका कहना है कि अब वे फिल्मों के लिए केवल गीत लिखेंगे तथा अपना समय और ऊर्जा किताबें और नाटक लिखने में लगाएंगे, जिनसे ज्यादा पैसा नहीं मिलता और आत्म-संतोष के लिए करते हैं। गीत-लेखन धनोपार्जन के लिए चलता रहेगा। उम्र के इस मोड़ पर उनका निर्णय स्वागतयोग्य है।

ज्ञातव्य है कि गुलजार ने पांचवें दशक मेें बिमल रॉय के सहायक निर्देशक के तौर पर अपनी फिल्म यात्रा प्रारंभ की थी और उन्हें 'बंदिनी' में एक गीत लिखने का अवसर मिला। बिमल रॉय की फिल्मों का संपादन ऋषिकेश मुखर्जी करते थे और गुलजार ने उनकी फिल्मों के लिए संवाद लिखे। 'आनंद' में जानी वॉकर का पात्र उनकी मौलिक रचना है। ऋषिकेश मुखर्जी और एनसी सिप्पी की भागीदारी की कंपनी ने ही उन्हें तपन सिन्हा की 'अपनजन' पर आधारित 'मेरे अपने' निर्देशित करने का अवसर दिया। उन्होंने जापानी फिल्म 'हैप्पीनेस ऑफ अस अलोन' से प्रेरित संजीव कुमार अभिनीत 'कोशिश' बनाई और निर्देशन के साथ गीत लेखन का काम वे करते रहे। आरवी पंडित के लिए बनाई 'माचिस' उनकी सफलतम फिल्म है और इसी के साथ विशाल भारद्वाज से उनका इतना गहरा रिश्ता जुड़ा कि वे उसे अपना 'मानस पुत्र' मानने लगे। 'माचिस' के बाद 'हु-तु-तु' की असफलता से उनका निर्देशन कॅरियर समाप्त हो गया, परंतु मणिरत्नम की शाहरुख अभिनीत फिल्म 'दिल से' के 'छैंया छैंया' और 'बंटी और बबली' के गीत 'कजरारे' से वे सबसे अधिक लोकप्रिय फिल्म गीतकार हो गए। इसके साथ ही वे 'कोशिश' नामक मूक-बधिर संस्था के लिए काम करते हैं।

दरअसल गुलजार ने अपने जीवन के हर पल का सार्थक उपयोग किया है। फिल्म के गीतों के लिए कहानी और पात्र के साथ न्याय करने के लिए उन्होंने कभी-कभी महान शायरों और लोकगीतों से भी पे्ररणा ली है, परंतु उन पर नकल के आरोप भी लगते रहे हैं, जैसे 'इब्न बतूता...' नामक गीत के लिए लगा, परंतु गुलजार ने अपनी शक्ति विवाद में नष्ट नहीं की। अपना बचाव प्रस्तुत करना भी उन्हें नागवार गुजरा।

विचार संसार में क्या तेरा, क्या मेरा, सभी चीजें ईश्वर की हैं और उन पर सबका अधिकार है। इसीलिए हमारे महान ग्रंथों के लेखक भी अपनी भूमिका में यह लिखते हैं कि मेरे इस विचार पर पहले भी लिखा गया है और बाद में भी लिखा जाएगा, मैं मात्र अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत कर रहा हूं। गुलजार की एक कविता है-'मैं नीचे चलकर रहता हूं, जमीं के पास रहने दो मुझे, घर से उठाने में आसानी होगी, बहुत तंग है ये सीढिय़ां और ११वीं मंजिल... परिंदे बीट करते हैं कि जीते-जी तो जो भी हो, मरे को पाक रखते हैं।'

इसके बारे में एक पत्रकार का कहना है कि नाजिम हिकमत ने मॉस्को में १९६३ में एक कविता लिखी, जो १९९४ में ज्ञानरंजन की 'पहल' में प्रकाशित हुई। कवि वीरेन डंगवाल ने अनुवाद किया था। गुलजार की कविता 'शेष' जनवरी-मार्च २०१२ में प्रकाशित हुई है।

नाजिम हिकमत की कविता 'मेरा जनाजा' की कुछ पंक्तियां इस तरह हैं -

'मेरा जनाजा क्या मेरे आंगन से उठेगा, तीसरी मंजिल से कैसे उतारोगे, ताबूत अड़ेगा नहीं लिफ्ट में, और सीढिय़ां निहायत संकरी हैं... हो सकता है कोई कबूतर बीट कर दे मेरे माथे पर।'

दोनों कविताओं में कुछ समानता है, परंतु गुलजार की कविता में 'मरे को पाक रखने' की बात है और नाजिम बीट को शुभ संकेत कहते हैं। यह भी संभव है कि गुलजार ने अपनी कविता नाजिम साहब की आदरांजलि के रूप में लिखी हो। दरअसल दो महान लोग, भले ही दोनों के बीच सदियों का फासला हो, एक-सा सोच सकते हैं। विचार संसार में क्या मेरा, क्या तेरा, परंतु कुछ पत्रकार ख्याति पर 'बीट' कर ही देते हैं।

अब पवन वर्मा की रचना में कुछ व्यक्तिगत स्पर्श देकर यह नाटक प्रस्तुत हो रहा है और गुलजार का नाम होने से नाटक देखने लोग आएंगे। आज के बाजारीकरण के दौर में यह महत्वपूर्ण है कि भीड़ कौन जुटा सकता है। गुलजार एक सफल ब्रांड हैं, जो नाजिम हिकमत कभी नहीं हो पाए, ्योंकि कुछ लोगों का नजरिया 'प्यासा' में साहिर साहब की रचना के निकट होता है - 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?'

नाजिम साहब और गुलजार की ये नज्में मुझे पत्रकार उमाशंकर सिंह ने दी हैं, जो आजकल फिल्में लिख रहे हैं।