ये दुनिया है...मित्र! / नीरजा हेमेन्द्र
फरवरी माह समाप्त होने वाला है। अगले माह से बोर्ड की परीक्षायें प्रारम्भ हो जायेंगी। परीक्षा की तैयारियों के कारण काॅलेज में मेरी व्यस्तता कुछ अधिक ही बढ़ गयी है। अचानक फोन की घण्टी बज उठती है। दूसरी तरफ से एक अपरिचित स्वर ने अपना परिचय बताया। परिचय सुन कर मेरी आँखें प्रसन्नता सेे चमक उठीं। मेरी इस प्रसन्नता का कारण यह था कि यह फोन किसी अपरिचित का नहीं, बल्कि मेरी अंतरंग मित्र कुसुम का था। एक लम्बे अन्तराल के पश्चात् आज अकस्मात् कुसुम का फोन आया था, अतः मुझे कुछ क्षण अवश्य लगे कुसुम को पहचानने में। किन्तु जब पहचान गयी तो कुसुम से ऐसे अपनत्व से बातंे होने लगीं जैसे हमारे बीच पन्द्रह वर्षों का अन्तराल ही न आया हो। मंै कुसुम से अब भी उसी बेफि़क्री व बेपरवाही व मस्ती के अन्दाज में बातें करना चाह रही थी जैसे हम वही पहले वाली युवा दिनों की स्कूल की सहेलियाँ हों तथा बातें करते समय फिर से वही बेसिरपैर की-सी बेवकूफियों वाली बातें करेंगी जिनका यर्थाथ से कुछ लेना-देना न हो तथा अपनी ही बातों पर उन्मुक्त हो कर, खिलखिला कर हँस पड़ेंगी। कुसुम से बातें कर के मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे इन पन्द्रह वर्षों में या तो कुसुम बदल गयी है या मैं। हमारे बीच कहीं कुछ तो परिवर्तित हो गया था। हमारी बातों में से छात्र जीवन का वह बेबाक, बेलौस-सा अन्दाज नदारद था या यह मात्र मेरा भ्रम था। कारण मैं समझ न सकी। मैं तो कुसुम से उसी प्रकार की बातें करना चाह रही थी। अपने युवा दिनों को पुनः जीना चाह रही थी। किन्तु...बातें हमारे बीच यथार्थ की हुईं...घर, परिवार, व बच्चों की हुईं...नौकरी व अपने-अपने शहर की हुईं। दूरभाष पर मैं उसे समझ पाने में असमर्थ हो रही थी।
औपचारिक बातों के पश्चात् मेरे द्वारा उससे मिलने की इच्छा प्रकट करने पर कुसुम ने बताया कि अगले सप्ताह किसी कार्यवश वह लखनऊ आ रही है। मुझसे मिलने की उसकी भी तीव्र इच्छा है। उसने यह भी बताया कि लखनऊ में वह मेरे घर ही रूकेगी। इतनी शीघ्र वह मुझसे मिलने चली आयेगी इस बात का मुझे विश्वास नहीं हो रहा था। अर्थात कुसुम अगले सप्ताह लखनऊ आ रही है। यह पूछने पर कि मेरा दूरभाष नम्बर उसे कहाँ मिला? उसने बताया कि पत्रिकाओं में मेरी रचनायें वह पढ़ती रहती है। एक दिन किसी पत्रिका में मेरी रचना के साथ मेरा पता व दूरभाष नम्बर मिल गया। तथा मुझसे बातें करने व मिलने का अवसर उसे मिल गया। अगले सप्ताह कुसुम लखनऊ आ रही है, यह सोच कर मुझे हार्दिक प्रसन्नता हो रही थी।
कुसुम मुझसे मिलने आ रही है...कुसुम खेतान मुझसे मिलने आ रही है। मेरा मन कल्पनाओं के पंख लगा कर उड़ने लगा किसी अल्हड़ नवयुवती की भाँति और सोचने लगा कि मैं और कुसुम मिलकर क्या-क्या बातें करेंगे? पन्द्रह वर्षों के अन्तराल में हमारे जीवन में क्या-क्या परिवर्तन आया...क्या-क्या घटित हुआ? यह सब हम मिल कर एक-दूसरे को बतायेंगे। मेरे पास कुसुम को बताने के लिये बहुत सारी बाते हैं। मैं उससे भी सुनना चाहती हूँ उसका हाल...विगत् पन्द्रह वर्षों की सारी बातें।
मन अधीर हो उठा कुसुम से मिलने के लिए. आखिर क्यों न हों? कुसुम हमारी अच्छी मित्र जो थी। स्कूल के दिनों से काॅलेज तक हम साथ-साथ पढ़ते थे। हमारी काॅलेज की शिक्षा अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि कुसुम का विवाह हो गया। मैं आगे की शिक्षा पूरी करती रही। कुसुम की कमी महसूस करती रही। काॅलेज में किसी से भी पुनः कुसुम जैसी मित्रता न हो सकी। न कुसुम से पुनः मुलाकात। इतने वर्षों के पश्चात् आज फोन पर कुसुम के स्वर सुनाई दिये।
काॅलेज से घर आ कर सर्वप्रथम मैने अपने पति नितिन से कुसुम के आने की बात बताई. मुझसे कुसुम का जिक्र सुन-सुन कर नितिन कुसुम के बारे में अच्छी-खासी जानकारी रखते थे। बस! उसे देखा नहीं था। यह सुन कर कि अगले सप्ताह कुसुम यहाँ आ रही है, मेरी प्रसन्नता में सम्मिलित होते हुए मेरी तरफ देख कर नितिन ने कहा कि "बड़ी अच्छी बात है। इतने वर्षों से तुम उसको स्मरण करती रही। अब तुम्हारी उससे मुलाकात भी हो जाएगी। उसकी इतनी बातें तो तुमने बता ही दी हैं मुझको कि लगता है मैं उसे पूरी तरह से जानता हूँ, उसको देखना भर शेष है।" नितिन की बातें सुन कर मैं मुस्करा पड़ी।
हाँ, कुसुम थी ही ऐसी कि उसकी बातें की जायें, उसको याद किया जाये, उसकी चर्चा की जाये। मेरी स्मृतियों में विद्यार्थी जीवन के वे दिन सजीव होने लगे..." वह विद्यालय की सबसे अलग, विशिष्ट व सबसे सम्पन्न घर की लड़की थी। पूरा नाम था कुसुम खेतान। उस छोटे-से शहर में जहाँ हम रह़ते थे वहाँ लड़कियों की शिक्षा के लिये अलग से कोई कन्या विद्यालय नहीं था। उस शहर की सभी बालिकायें सहशिक्षा वाले इन्टर काॅलेज में पढ़ती थीं। जहाँ लड़के-लड़कियाँ सभी एक साथ पढ़ते थे। उसी काॅलेज के दूसरे हिस्से में निर्मित एक बड़े-से भवन में डिग्री काॅलेज भी था जहाँ उच्च शिक्षा की कक्षायें संचालित होती थी। वहाँ भी सहशिक्षा पद्धति लागू थी। मैं तो प्रारम्भ से ही वहीं पढ़ रही थी। किन्तु मुझे भली-भाँति स्मरण है कि कुसुम ने नौवीं कक्षा में वहाँ प्रवेश लिया था। जिस दिन कुसुम ने विद्यालय में प्रवेश लिया उसी दिन से वह सबके आकर्षण का केन्द्र बन गयी थी। पहला कारण... उसके नाम के आगे लगा खेतान शब्द उसे विशिष्ट बना देता, क्योंकि खेतान वहाँ का एक अति सम्पन्न व्यवसायिक परिवार था। दूसरा कारण यह था कि सभी शिक्षक उससे पूर्व परिचित थे तथा उससे विशेष स्नेह रखते थे। इस विशेष स्नेह का कारण भी उसका सम्पन्न व ख्यातिलब्ध परिवार से होना था। जहाँ तक मुझे स्मरण है पढ़ने-लिखने में कुसुम औसत दर्जे की छात्रा थी। जब कुसुम को बड़ी-सी गाड़ी से ड्राईवर काॅलेज के गेट से अन्दर आ कर कार्यालय के सामने के पोर्टिको तक छोड़ जाता था तो सभी उसकी विशिष्टता पर मुग्ध हो जाते तथा उसके भाग्य पर ईष्या करते। सबकी दृष्टि कुसुम को देखने के लिए उसकी ओर मुड़ जाती। उस समय किसी के पास गाड़ी का होना ही विशिष्ट बात थी। कुसुम गाड़ी तो लक्जरी, कीमती व एक बड़ी कम्पनी की थी। दूसरे जिनके पास गाडि़या थीं भी तो वह गेट के बाहर खड़ी होती थीं। मात्र कुसुम की गाड़ी ही गेट के अन्दर तक आती थी। कुसुम विशिष्ट थी तो विशिष्ट ही थी। उसके इर्द-गिर्द प्रत्येक वस्तु विशिष्ट थी।
कुसुम देखने में बहुत आर्कषक न थी। उसका व्यक्तित्व सामान्य था। मध्यम कद, गौर वर्ण, सामान्य नाक-नक्श वाली कुसुम के ऊपर के दाँतो की पंक्तियों के सामने के दो दाँत हल्के से बाहर की तरफ निकले हुए थे। जिनके कारण उसकी हँसी आर्कषक लगती थी। कुल मिला की कुसुम अपने महंगे व स्टाईलिस्ट कपड़ों के साथ अच्छी लगती थी। सामान्य बातचीत से प्रारम्भ हमारा परिचय धीरे-धीरे प्रगाढ़ मित्रता में परिवर्तित हो गया। जिस कुसुम से मित्रता करने व उससे बातचीत करने को लड़के-लडकियाँ इच्छुक रहते किन्तु उसके मित्र न बन पाते, उसके चन्द प्रगाढ़ मित्रो में मैं सम्मिलित थी।
छात्र जीवन के दिन शीघ्रता से व्यतीत होते जा रहे थे। जि़न्दगी के खूबसूरत दिन। बेफिक्र, बेलौस, रंगीन, सुन्दर सपने जैसे दिन। प्रातः होती तो दिन जैसे हवाओं पर उड़ते हुए आते, रात्रि होती हम सुन्दर सपनों में विचरण करते हुए निद्रा की गोद में सिमट जाते। दिन भी रात्रि के सानिंध्य में सोने चले जाते। प्रातः पुनः हँसते-खेलते दिन उपस्थित हो जाते। दिन पर दिन व्यतीत होते जा रहे थे। साथ ही काॅलेज के सत्र भी एक-एक करके व्यतीत होते जा रहे थे।
बी0ए0 द्वितीय वर्ष की परीक्षाएँ समाप्त होने वाली थीं। फरवरी माह के दिन थे। फागुनी हवाओं से सराबोर वासन्ती दिन। वसंत ऋतु ने मानों चारों दिशाओं को रंग बिखेर दिया हो। वृक्षों ने नव पल्लव धारण करने प्रारम्भ कर दिए थे। रंग-बिरंगे पुष्पों से प्रकृति ने अपना ऋंगार करना प्रारम्भ कर दिया था। उस दिन मैं किसी कार्यवश दीदी के साथ कुसुम के घर के सामने से गुजर रही थी कि मेरी दीदी ने एक बड़े-से घर की ओर संकेत करते हुए कहा कि ' वो देखो! वह तुम्हारी मित्र कुसुम का घर। " मैंने पहली बार कुसुम के घर को देखा था। कितना बड़ा...कितना भव्य... किसी काल्पनिक महल के सदृश्य। बड़े-से लोहे के गेट की दरारों से दिखाई देता कुसुम के घर के अन्दर का कुछ हिस्सा। जैसे कि बड़ा-सा लाॅन, जिसकी हरी घास किसी मखमली कालीन-सी प्रतीत होती। फूलों से सुसज्जिम क्यारियाँ जिनमें रंग बिरंगे गुलाबों के पौधे करीने से लगे थे। फूलों की कुछ किस्में ऐसी थीं जो प्रथम बार मैं कुसुम के लाॅन में देख रही थी। बहुमूल्य पत्थरों से बने काॅरीडोर व झाड़-फनूस। गेट की दरारों से दिखते कुछ हिस्से को उत्सुकतापूर्वक देख कर मैं उसके पूरे घर की भव्यता का अनुमान लगा रही थी। इतना भव्य व आर्कषक घर उस छोटे-से शहर मंे कम ही थे। ये तो खेतानों का घर था। मैंने लोगों से चर्चा करते सुना था कि इनकी अन्य शहरों में भी बंगले, फैक्ट्रियाँ व मिलें हैं। उस दिन के पश्चात् मैं जब भी कुसुम के घर के सामने से निकलती एक दृष्टि कुसुम के घर की तरफ अवश्य डाल लेती। कुसुम का घर बहुत आर्कषक लगता था मुझे।
कुसुम से मेरी मित्रता प्रगाढ़ होती जा रही थी। मेरे पिता उस शहर के प्रतिष्ठित चिकित्सक थे। मेरे परिवार के अन्य लोग भी उच्च शिक्षित थे व अच्छे पदों पर नौकरी करते थे। सम्पन्नपता में तो नहीं किन्तु मुझे लगता था कि शिक्षा की दृष्टि से मेरा परिवार कुसुम के परिवार से आगे था। इस बात पर मैं स्वंय को कुसुम से भी सर्वोपरि समझती थी। कुसुम को भी मेरे परिवार की यह विशिष्टता पसन्द थी तभी तो वह काॅलेज की किसी लड़की के घर नहीं जाती थी। मेरे घर उसे आने की इजाजत थी और वह अवकाश के दिनों में कभी-कभार मेरे घर आती थी। जब भी वह मेरे घर आती, मेरे घर के छोटे-से लाॅन में लगे एक मात्र अमरूद के पेड़ पर से कच्चे-पक्के अमरूद तोड़ कर हम बड़े चाव से खाते। बैडमिण्टन व सिकड़ी खेलते। कुसुम को इन सबमें बड़ा आनन्द आता। सारा दिन खेल-कूद व गप्पे हांकने में व्यतीत हो जाता। मेरे छह भाई बहनों के साथ कुसुम की खूब मित्रता हो गई थी। कुसुम अपने माता-पिता की इकलौती पुत्री थी। उसको देखने से आसानी से समझा जा सकता था कि अपने परिवार की अत्यन्त दुलारी बेटी है वह। नौकरों चाकरों व सुख-सुविधाओं के बीच रहती थी वह। उसके दो भाई थे जो उससे बड़े थे।
इधर कई दिनों से आते-जाते मैं देखती कि कुसुम के घर की साज-सज्जा हो रही है। बहुत ही भव्य तरीके से उसके बड़े से घर को सजाया जा रहा है। मैं आते-जाते उसके घर की भव्य साज-सज्जा को अपलक देखती। कुसुम कई दिनों से काॅलेज नहीं आ रही थी। वैसे भी वह पढ़ने में औसत दर्जे की छात्रा थी। नियमित रूप से काॅलेज भी नहीं आती। एक दिन कुसुम के घर की साज-सज्जा का रहस्य पता चल ही गया। अगले माह कुसुम का व्याह था। लगभग एक माह पूर्व से की जा रही कुसुम के घर की साज-सज्जा से कुसुम के विवाह की भव्यता का अनुमान लगाया जा सकता था। बहुत ही भव्य तरीके से कुसुम का व्याह हो गया।
हमारे बीच ही नहीं बल्कि पूरे शहर में खेतान परिवार के इस विवाह की भव्यता की चर्चा कई दिनों तक होती रही। कुसुम ने काॅलेज में आना बन्द ही कर दिया था। विवाह के पश्चात् वह मुझे वार्षिक परीक्षाओं में ही दिखाई दी थी। बड़े ही अपनत्व के साथ मिली थी वह मुझसे। उस समय उसकी सामान्य-सी सुन्दरता निखर कर विशिष्ट सुन्दरता में परिवर्तित हो गयी थी। उसके सौन्दर्य को उसके कीमती वस्त्र, स्वर्ण आभूषण और भी दीप्त बना रहे थे। उसने बताया कि उसका विवाह मुम्बई में एक बड़े व्यवसायिक घराने के इकलौते वारिस के साथ हुआ है। वह मुम्बई से परीक्षा देने आई थी।
परीक्षा दे कर कुसुम ससुराल चली गयी। पुनः वह मुझे कभी नहीं मिली। उसका काई दूरभाष नम्बर, पता इत्यादि भी मेरे पास नहीं था। अतः मिलने जुलने या संपर्क करने का प्रश्न ही नहीं था। "
आज अकस्मात् उसका फोन आया और वह आ रही थी। न जाने क्यों मेरा हृदय उससे मिलने को अधीर हो रहा था। कदाचित् इसी अधीरता को छात्र जीवन या बचपन की मित्रता कहते हैं। उस निश्चित् तिथि को वह लखनऊ मंे थी। उसने ट्रेन के पहुँचने का समय बता दिया था। मैं नियत समय पर अपने पति के साथ गाड़ी ले कर रेलवे स्टेशन पहुँच गयी थी। मेरा अनुमान था कि कुसुम अपने पति व बच्चों के साथ होगी तदनुसार मैंने घर में उनके रहने का प्रबन्ध कर दिया था। स्टेशन पहुँच कर मैंने देखा कि कुसुम अकेली ही आयी है। उसके साथ उसके परिवार का कोई भी नहीं है।
इन पन्द्रह वर्षों के समय ने कुसुम के व्यक्तित्व पर पूरा प्रभाव डाल दिया था। धूमिल पड़ता चेहरे का सौन्दर्य, कुछ-कुछ निस्तेज होती आँखें व अधपके-से बाल। विगत् दिनों के एक-एक पल उसके चेहरे पर अपनी उपस्थिति दर्ज करते चले गये थे। कुल मिला कर काफी बदली हुई-सी थी कुसुम! मुझे देखते ही उसने प्रगाढ़ता से मेरे दोनांे हाथों को पकड़ लिया। मेरे पति को देख कर अभिवादन में हाथ जोड़ लिए.
पूरे रास्ते भर कुसुम मुझे देख कर मुस्कुराती रही मैं उसे। उसने अपनी तरफ से वार्तालाप का प्रयास नहीं किया। चुपचाप बैठी रही। गाड़ी में पसरते जा रहे सन्नाटे को तोड़ते हुए मैंने ही पूछ लिया कि-"यहाँ कितने दिनो का काम है।" प्रत्युत्र में उसने बताया कि-"दो दिनों का।"
मैंने पुनः कहा कि-"उसके बाद भी एक-दो दिन मेंरे पास रूकना।" उसने मुस्कुराते हुए सहमति में सिर हिलाया। मैं और वह पूरे रास्ते भर निःशब्द रहे। मैंने अनुभव किया कि कुसुम अभी बातें करना या अधिक कुछ भी बताना नहीं चाह रही है। इसका कारण यात्रा की थकान भी हो सकता है। नितिन भी चुपचाप गाड़ी डाªइव करते रहे। यूँ भी हम दो मित्रो के मध्य उनके कुछ बोलने की गुंजाइश कम थी।
घर आ कर कुसुम कमरे में चली गई. कुछ समय बाद फ्रेश हो कर मेरे पास रसोई में आ कर खड़ी हो गई. मेरे मना करने के बाद भी रसोई के कार्यों में हाथ बटाँने लगी। मुझे बुरा लग रहा था। इतने घनाढ्य, नौकारों-सेवकों से भरे परिवार की लड़की मेरे साथ रसोई में क्यों खड़ी है। किन्तु कुसुम के कार्य करने के हठ के समक्ष मैं विवश थी। बहुत अधिक कार्य भी नहीं था। मेरे परिवार में मैं, मेरे पति, मेरे दो बच्चे जिनमें नौ वर्षीय मेरी बेटी तरणी व सात वर्षीय बेटा सार्थक था। अतः कार्य की अधिकता न थी। किन्तु कुसुम रसोई में मेरे साथ ही खड़ी रही।
अब, जब कि कुसुम यात्रा की थकान से तरोताजा हो कर मेरे साथ थी, मैंने भी कुछ दिनों का अवकाश ले रख था। मेरी व्यस्तता कुछ कम थी, मैं कुसुम के जीवन...विशेषकर वैवाहिक जीवन के बारे में सब कुछ जान लेना चाह रही थी। न जाने पुनः कुसुम से कब मुलाकात हो सके. अतः बात मैंने ही प्रारम्भ की। कुसुम ने तो जैसे खामोशी की चादर ओढ़ ली थी। "बच्चे कहाँ हैं?" मैंने उसकी तरफ देखते हुए पूछा।
कुसुम के आँखों की चमक यूँ कम हो गई मानोे कोई जलता हुआ दिया तीव्र वायु के झोंकों से अचानक बुझ गया हों। क्षण भर को मुझे ऐसा लगा कि जैसे मैंने कुसुम के परिवार व बच्चों के बारे में पूछ कर अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर दिया हो। कुसुम के चेहरे पर फैले दुःख के भावों को देख कर मैंने उससे कोई दूसरा प्रश्न नहीं पूछा। कुछ क्षणों पश्चात् कुसुम ने स्वयं ही बोलना प्रारम्भ किया। जैसे उसने इस बीच स्वयं को संयत कर लिया हो।
"नही मीनाक्षी, मेरे बच्चे नहीं हैं।" एक फीकी-सी मुस्कान के साथ वह मेरी तरफ देखती रही। उसके बाद कुसुम ने अपने विवाह के पश्चात् की स्थितियों व परिस्थितियों के विषय में जो बताया वह यह था कि " विवाह के पश्चात् कुसुम मुम्बई चली गई थी। उस समय मुम्बई को बम्बई कहा जाता था। उसकी ससुराल मुम्बई में थी। उसकी ससुराल भी अत्यन्त सम्पन्न और उस सम्पन्न परिवार की वह एकलौती बहू। यहाँ भी वह अपने सास-श्वसुर की प्यारी बहू व पति की प्रयसी थी। उसके विवाह के सात माह यूँ देखते-देखते व्यतीत हो गये जैसे सात पल।
वह एक शाम कुसुम अपनी स्मृतियों से कैसे विस्मृत कर सकती है। वह अपने पति के साथ घूमने निकली थी। उसका पति गाड़ी ड्राइब कर रहा था और वह उसके बगल की सीट पर बैठ कर उसके प्रेम की अंतरंगता को अपने हृदय में आत्मसात् करते हुए प्रेम के अन्तरीक्ष में विचरण कर रही थी। सहसा एक बड़े अत्याधुनिक माॅल के समक्ष आ कर उसकी गाड़ी रूक गयी। गाड़ी से वह भी उतरा उसके साथ कुसुम भी। माॅल के अन्दर आ कर वह एक महिला से बातें करने लगा जो पहले से ही वहाँ खड़ी थी। कदाचित् उसके पति की प्रतीक्षा कर रही थी। महिला का व्यक्तित्व आर्कषक था। उसके पति ने कुसुम को वहीं रूकने के लिए कहा व स्वंय उस महिला के साथ दूसरी तरफ चला गया। कुसुम कुछ भी समझ पाने में असमर्थ हो रही थी। शीघ्र ही वह लौट आया। वह महिला वहाँ नहीं दिखी। कुसुम के हृदय में अनेक प्रश्न उठ रहे थे। वह उन प्रश्नों को उससे पूछना चाह रही थी, किन्तु वह गाड़़ी ड्राइव करने में मग्न था। अतः कोई बात नहीं हो पाई.
रात्रि में सोने से पूर्व कुसुम ने पूछा "वह महिला कौन थी?।"
बड़े सहज भाव से मुस्कुराते हुए वह बोला था "जैसे तुम हो वैसे ही वह भी है मेरे लिए."
कुसुम का हृदय धक् से हो कर रह गया। किसी प्रकार वह बस इतना ही बोल पाई कि "मेरी तरह? वह कैसे?"
वह मुस्कुराते हुए बातो में मृदुता लाते हुए पुनः अपने शब्दों की पुनरावृत्ति की "तुम्हारी तरह वह भी है मेरे लिए." उसकी बातों से अजीब से खोखलेपन व लिजलिजेपन की बू आ रही थी।
बातांे को आगे बढ़ते उसने कहा कि "तुम्हारे साथ वह भी यहाँ रहेगी।" अपनी जान पर खेल कर इस सदमें को बर्दाश्त किया था कुसुम ने। वहाँ से वह अपने पीहर चली आयी थी सब कुछ छोड़ कर। लाड़-प्यार में पली, स्वाभिमानी लड़की कुसुम कैसे समझौता कर पाती इन परिस्थितियों से। उसके सास-श्वसुर अपने बेटे के इस सम्बनध से अनभिज्ञ थे। उन्हांेने जब यह सब सुना तो उन्होंने कुसुम का पक्ष लिया। अपने घर की सम्मानित बहू बना कर व समस्त सम्पत्ति भी कुसुम के नाम पर कर के उसे अपने साथ रखने के लिए सहमत थे वे। किन्तु कुसुम को वह सब कुछ नहीं चाहिए था। उसके आत्मसम्मान को वह सब कुछ स्वाकार नहीं था। वह वहाँ से चली आई व अपने पिता के घर में रहने लगी।
कुसुम ने बताया कि प्रारम्भ में यह रिश्ता टूट जाने के दुःख की अनुभूति उसे नहीं हुई. क्योंकि वह तो एक विजेता की भाँति वहाँ से आई थी। अपने पति का सामंजस्य करने का व सास-श्वसुर का सभी अकूत सम्पत्ति उसके नाम कर देने का प्रस्ताव, सब कुछ वह ठोकरों में मार कर यहाँ आयी थी। उस समय उसके पास था युवावस्था का जोश व उसकी मुट्ठी में बन्द था जि़न्दगी में मनचाहा सब कुछ कर लेने का जज्बा। वह दुगने उत्साह से सुन्दर भविष्य के सपने देखने लगी। मात्र सुन्दर सपने। सपने व यर्थाथ को चिन्हित व अन्तर किए बिना।
समय गति के पंख लगा कर उड़ता चला जा रहा था। कुसुम के दोनों भाई जो पहले कभी अपने प्रत्येक कार्य चाहे वह व्यवसाय हो या घर कुसुम से चर्चा व सलाह किए बिना नहीं करते थे वह अब कुसुम से दूरी बनाने लगे। अब उनके कार्यों की भनक तक कुसुम को नहीं होती थी। धीरे-धीरे परिवर्तन आते-आते परिस्थितियाँ ये हो गयी कि दो-दो सप्ताह व्यतीत हो जाते कुसुम की अपने भाईयों से बात नहीं होती थी। भाई अपनी-अपनी गृहस्थी जिनमें थी उनकी पत्नी व बच्चे, व्यस्त थे। खालीपन कुसुम को काटने लगा। वह खालीपन या कहें कि समय को नहीं काट पाती। धीरे-धीरे मस्तिष्क अतीत में जा कर झाँकने व सोचने लगा। पुरानी व भूली बातें उसकी सोच में घर बनाने लगीं। इन समस्याओं का समाधान उसे इस संसार में कहीं नहीं दिखाई देता। परिणाम स्वरूप वह अवसाद का शिकार हो गई. अस्पताल में भर्ती होने की स्थिति आ गई. किसी प्रकार स्वस्थ तो हुई किन्तु शारीरिक आर्कषण धूमिल होता गया। उसके माता-पिता ने उसे व्यस्त रखने के लिए उसी शहर के मिशनरी स्कूल में शिक्षिका का काम दिला दिया। शिक्षिका के पद हेतु वह अर्ह नहीं थी, किन्तु उसके पिता के परिचय के कारण उसे छोटे बच्चों को पढ़ाने का कार्य मिल गया। वह व्यस्त होने लगी, किन्तु नारी हृदय भावुक होता है। उसे मात्र वस्तुएँ नही, भावनात्मक सम्बल की भी उतनी ही आवश्यकता होती है। भावनात्मक सम्बल की तलाश कुसुम को व्याकुल करने लगी। इस बीच उसी मिशनरी स्कूल के व्यवस्थापक भारतीय अंग्रेज जो अकेले रहते थे उनसे कुसुम का सम्पर्क भी बढ़ने लगा। घर में कुसुम पराई हाने लगी थी। जिस घर में अनेक नौकर काम करके जीवन यापन कर रहे थे उस घर में कुसुम की आवश्यकतायें बमुश्किल पूरी होतीं। वृद्ध माता-पिता कुसुम की आवश्यकताएँ समझाने में असमर्थ थे। कुसुम उन्हे समझाने में।
एक दिन कुसुम मात्र अपने कुछ कपड़े ले कर उस अंग्रेज के पास चली आई. उसके जीवन में संगीतमय स्वर लहरियाँ झंकृत होने लगीं। इस रिश्ते को कुसुम ने कोई नाम नहीं दिया, न देना चाहा। समय अपनी गति से आगे बढ़ता रहा। ऋतुएँ आती रहीं, जाती रहीं। अब ऋतुएँ भी कुसुम को खूबसूरत लगने लगी थीं। ये खूबसूरत ऋतुएँ उस अनजान किन्तु चिर-परिचित साथी के साथ अपनी छाप हृदय पर छोड़ती चली जा रही थीं। देखते-दखते सात वर्ष व्यतीत हो गये।
एक दिन वह अंग्रेज कुसुम का हाथ छुड़ा कर चला गया...कहीं सुदूर, वहाँ जहाँ व्यक्ति अकेला जाता है। कुसुम को उसके साथ नहीं जाना था। कुसुम पुनः अकेली रहने लगी। दिन किसी प्रकार व्यतीत हो जाता, किन्तु चैबीस घंटों में मात्र दिन ही नहीं होता शेष समय भी होते हैं जिन्हे व्यतीत करने के लिये संघर्ष करना पड़ता है। इस बीच सम्पन्न-धनाढ्य घर की कुसुम अपने सीमित संसाधनों के कारण एक छोटा-सा घर किराए पर ले कर जीने लगी। भावनात्मक सहारे की तलाश कुसुम को एक विधुर के सम्मुख ले कर आयी। अब वह कुछ वर्षों से उसके साथ रह रही है। इस रिश्ते को कोई भी नाम दिये बिना।
कुसुम आपबीती बता रही थी। मेरे और उसके बीच निस्तब्धता फैल चुकी थी। मैं निःशब्द हो कर सुन रही थी। मर्माहत थी मैं। कुसुम विगत् दिनों की स्मृतियों में पूरी तरह डूब चुकी थी। उन दिनों की पीड़ा की अनुभूति में उसे यह तक ज्ञात नहीं था कि उसका चेहरा आँसुओं में भीग चुका है। मैंने उसके काँपते, शिथिल पड़ते हाथें को पकड़ लिया। मेरे हाथ भी आँसुओं से भीगने लगे। मेरे व कुसुम के आँसुओं से।
मैं हत्प्रभ थी, कुसुम के जि़न्दगी के इस रूप को देख कर। क्या जि़न्दगी इस प्रकार करवटें बदलती है, रूप बदलती है? यह सब मेरे लिए-लिए कल्पनातीत था। भोजन का समय हो रहा था। पीड़ा की अनुभूतियों में डूबे मेरे चेहरे को देख कर मेरे हाथों से अपने हाथें को अलग करते हुए कुसुम मुझसे पूछ बैठी, "बताओ मीनाक्षी! मुझसे कहाँ पर ग़लती हुई? मैं कहाँ पर ग़लत थी?" मैं जानती थी अनुभूति, अभिव्यक्ति से बड़ी होती है, निःशब्द होती है, महान होती है।
खाने की मेज पर कुसुम को देख कर मुझे अच्छा लग रहा था। हम सब सहज, सामान्य बातें करते हुए हास-परिहास कर रहे थे। कुसुम भी इन सब में सम्मिलित होने का प्रयास कर रही थी। मेरा शरीर उन सबके साथ था किन्तु मन कुसुम के अतीत में भटक रहा था तथा निष्कर्ष भी सुना रहा था "कि कुसुम की सरलता व सहजता ने ही उसे दुरूहताओं की तरफ अग्रसित् किया। यदि कुसुम इतनी सरल न होती तो कदाचित् ये दिन उसके जीवन में न आते। पुनः मन ये भी कहता कि" यदि कुसुम इतनी सरल व सहज न होती तो कदाचित् स्त्री भी न होती। "मैं जानती हूँ कि कुसुम एक-दो दिन मेरे पास रह कर वापस अपनी दुनिया में चली जायेगी। मैं उसकी मित्र होने के कारण उससे ये अवश्य कहूँगी कि" घबराना नहीं मेरी मित्र! ये ही दुनिया है, मित्र!