ये बकमाल बेमिसाल औरतें! / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
ये बकमाल बेमिसाल औरतें!
प्रकाशन तिथि :04 अप्रैल 2017


श्रीजीत मुखर्जी की 11 अप्रैल को प्रदर्शित होने वाली फिल्म 'बेगमजान' देश के विभाजन के समय के एक कोठे की कहानी है, जिसके बीच से गुजरती है विभाजन की रेखा गोयाकि आधा कोठा पाकिस्तान में और आधा कोठा हिंदुस्तान की सरहद के भीतर आता है। तवायफ एक मुल्क में हमबिस्तर होती है और दूसरे मुल्क में भोजन करती है। कोठे की मालिकन बेगमजान को दोनों मुल्क अपने व्यवसाय के लिए जी चाही जमीन और सुविधाएं देने का प्रस्ताव रखते हैं परंतु बेगमजान अपना जन्म स्थान और कर्मस्थान छोड़ने को तैयार नहीं है। क्या डिज़ायर और ड्रीम बांटे जाएंगे? क्या बाईं आंख में एक मुल्क व दूसरी आंख में दूसरा मुल्क रहेगा? क्या तराजू के दो पलड़े दो भवें हैं? महात्मा गांधी देश विभाजन के विरुद्ध थे और उन्होंने यह भी कहा था कि विभाजन उनकी मृत देह पर ही संभव होगा। क्या हम यह मान लें कि वह कोठा गांधीजी के विभाजन विरोध का प्रतीक है या इसका यह अर्थ भी है कि घृणित प्रचार के अंधड़ में बेगमजान ने तर्क और विश्वास पर डटे रहकर आमरण संघर्ष करने का निश्चय किया था।

इसके साथ ही दीपा मेहता की 'वाइसराय हाऊस' भी बन चुकी है, जिसका एक बावर्ची विभाजन के खिलाफ है। विभाजन के लगभग एक दशक पूर्व होम रूल के चुनाव में कुछ इस आशय का प्रचार किया गया था कि गणतंत्र में एक व्यक्ति को एक वोट देने का अधिकार है, जिसका अर्थ है कि बहुसंख्यक धर्म के अनुयायी ही राज करेंगे। इस प्रचार ने अल्पसंख्यकों के मन में खौफ पैदा किया। इस तरह विभाजन के बीज पड़े। इंग्लैंड में रहने वाली प्रोफेसर आयशा जलाल ने इस विषय पर शोध किया है। बहरहाल, 'बेगमजान' फिल्म में किसी तरह के राजनीतिक विचार नहीं अभिव्यक्त किए गए हैं। वह केवल एक महिला के जीवन की कहानी मात्र है। भारत में अमेरिका की तरह राजनीतिक फिल्में नहीं बन सकती। वहां 'जेएफके' कैनेडी हत्या का अभियोग प्रस्तुत करती है और एक शिखर नेता को दोषी बताती है।

यह गौरतलब है कि 'बेगमजान' के जारी प्रथम पोस्टर में नायिका विद्या बालन उस तरह बैठी नज़र आ रही है जैसे विनय शुक्ला की फिल्म 'गॉडमदर' में शबाना आज़मी बैठी नज़र आती थीं। 'गॉडमदर' भी सत्य घटना से प्रेरित फिल्म थी। शबाना आज़मी झुग्गी-झोपड़ी रहवासियों को न्याय दिलाने के लिए आमरण अनशन पर बैठ चुकी हैं। कैफी आज़मी की यह सुपुत्री अपने पिता के आदर्श पर चलते हुए स्वयं आंदोलन का समानार्थी शब्द बन चुकी हैं।

विभाजन के बाद भारत में फिल्म उद्योग ने विकास किया परंतु पाकिस्तान में पढ़े-लिखे सृजनशील लोग टेलीविजन से जुड़े। हसीना मोइन ने अत्यंत मनोरंजक सीरियल लिखे। पाकिस्तान में सिनेमाघरों की कमी के कारण आय सीमित होती है अत: भव्य बजट की फिल्म संभव नहीं थी और आज भी वहां एकल सिनेमा का हाल खस्ता है। जो उधर हो रहा है, वह इधर भी हो रहा है, क्योंकि एक ही मांस के दो लोथड़ों में यही तो होना था कि अगर एक में कीड़े बिलबिलाएंगे तो दूसरे से दुर्गंध आएगी। पाकिस्तान से भी कम सिनेमाघर ईरान में है परंतु वहां कुछ विलक्षण फिल्में बनी हैं और वे सामाजिक अन्याय के खिलाफ विरोध का सिनेमा है। एक अजीब इत्तेफाक देखिए कि ईरान में बनी 'लिजर्ड' फिल्म का नायक दीवार पर छिपकली की तरह दौड़ सकता है, इसलिए उसका पुकारने का नाम 'लिजर्ड' पड़ा। वह जेल से भागकर एक रेलगाड़ी में दूरदराज निकल आता है। अंतिम स्टेशन पर गाड़ी रुकती है तो फूल-हार से उसका स्वागत होता है, क्योंकि उसी ट्रेन से उस कस्बे की मस्जिद के लिए एक मौलाना आने वाले थे, जो किसी कारण नहीं आ पाए। अब उस पर एक मस्जिद का भार सौंप दिया जाता है। वह रात में चोरी करके प्राप्त धन गरीबों के घर छोड़ आता है। कस्बे के लोग किसी अनजान चोर के इस शुभ कार्य का श्रेय भी नए मौलवी के आगमन को देते हैं। धीरे-धीरे उसकी ख्याति फैलने लगती है तो वह तय करता है कि अब ताउम्र ऐसे ही काम करना है और वह अपने लिए जीने का मकसद पा जाता है। क्या यह कथा हमें अपनी देव आनंद अभिनीत 'गाइड' की याद नहीं दिलाती? 'गाइड' में जब जल वर्षा के लिए नायक पर आमरण उपवास लाद दिया जाता है तो वह इसे जीवन का उद्‌देश्य बनाकर निष्ठा से उपवास निभाता है। मीडिया इसे खूब प्रचारित करता है। नायिका रोज़ी यह नहीं जानती कि उपवास करने वाला संत उसका अपना राजू गाइड है, जिसे उसके जीवन में परिवर्तन किया परंतु बाद में सफलता और समृद्धि ने उसे अहंकारी व खुदगर्ज बना दिया तो रोज़ी ने उसे अपने से अलग कर दिया। फिल्म के क्लाइमैक्स में कामयाब सितारा रोज़ी उपवास कर रहे व्यक्ति की ओर जाते हुए अपने सोने व हीरे के आभूषण उतारकर फेंकती जाती हैं। स्पष्ट है कि इस कार्य के द्वारा उसे राजू गाइड के पहले ही ज्ञान व अध्यात्मिकता प्राप्त हो गई है। राजू गाइड दम तोड़ देता है और मृत्यु के क्षण में उसे ज्ञान व मुक्ति की प्राप्ति होती है परंतु रोजी को यही चीजें जीवित रहते हुए मिल गई हैं। मरने में मुक्ति नहीं है वरन जीवन-काल में एक बेहतर इंसान बनना मुक्ति है।

विजय आनंद की ही 'गाइड' के पहले निर्देशित 'काला बाजार' में शैलेंद्र की लिखी पंक्तियां हैं- 'मोहे मन मोहे, लोभ ललचाए, कैसे कैसे ये नाग लहराए, मेरे दिल ने ही जाल फैलाए, अब किधर जाऊं, अब किधर जाऊं, तेरे चरणों की धूल मिल जाए तो मैं तर जाऊं…। मदर इंडिया की राधा, गाइड की रोज़ी, 'साहब' की बीबी और बेगमजान और श्रीदेवी अभिनीत 'मॉम' शबी एक ही मिट्‌टी से बनी हैं।