ये सिर्फ़ व्यंग्य-कवि नहीं हैं (विष्णु नागर) / नागार्जुन

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मुझसे नागार्जुन की व्यंग्य कविताओं पर लिखने के लिए कहा गया है। जब मुझसे कहा गया था, तब मैंने ज़्यादा कुछ नहीं सोचा था और इस प्रस्ताव को मुरली मनोहर प्रसाद सिंह का आदेश मानकर स्वीकार कर लिया। यह मानकर कि शायद इसलिए भी मुझसे कहा गया होगा कि मै व्यंग्य-फ्यंग्य कविताओं जैसा ही कुछ लिखता हूं। लेकिन जब नागार्जुन पर लिखने बैठा तो लगा कि मुझे अपना विषय बात करके तय करना चाहिए था क्योंकि नागार्जुन या किसी भी बड़े कवि की कविता का कोई बना-बनाया एक सांचा-ढांचा नहीं होता। उनकी बाक़ी कविताओं को उनकी व्यंग्य कविताओं से अलग करके, उनसे स्वायत्त करके नहीं देखा जा सकता। ये दो स्वायत्त व्यक्तित्व नहीं हैं। यह एक ही कवि है जो कालिदास, अकाल और उसके बाद, घिन तो नहीं आती है, चंदू मैंने सपना देखा, उनको प्रणाम जैसी अनेकानेक अद्भुत कविताएं लिखता है और वही शासन की बंदूक, तीनों बंदर बापू के, मंत्रा कविता, आये दिन बहार के आदि-आदि व्यंग्य कविताएं भी लिखता है। क्या आप कवि से उम्मीद रखते हैं कि वह एक जैसी कविताएं उत्पादित करे या वह समग्र जीवन को जैसे वह देखता है, अपनी कविताओं में व्यक्त करे? फिर आप नहीं कह सकते कि नागार्जुन के कवि का व्यंग्य रूप ही महत्वपूर्ण है, अन्य रूप नहीं। एक कवि जो बाक़ी कविताएं खराब लिखेगा, माफ कीजिए, वह व्यंग्य कविताएं अच्छी नहीं लिख सकता। इसलिए मैं किसी कवि को हाथ-पैर-गर्दन-पेट के रूप में नही देखता, एक संपूर्ण व्यक्तित्व की तरह देखता हूं। हां उसकी अच्छी रचनाओं की तरह बुरी और सामान्य रचनाएं भी हो सकती हैं और सबके पास ऐसी रचनाएं होती हैं। नागार्जुन के साथ यह ख़तरा ज़्यादा था क्योंकि उन्होंने विपुल लिखा और तरह-तरह की चुनौतियों का जवाब देने के लिए लिखा, जो साहित्यिक से ज़्यादा हमारे सामाजिक, राजनीतिक जीवन से जुड़ी थीं। एक तरह से उन्होंने कविता में अपने समय को रिकार्ड करने की कोशिश की, इसलिए जाहिर है कि उनकी साधारण कविताओं की संख्या भी कम नहीं है। लेकिन यह स्थिति तो अपनी कविताएं कम छपवानेवाले, इस मामले में बेहद सावधानी बरतने वाले कवियों के साथ भी है। बहरहाल महत्वपूर्ण उनकी असफलताएं नहीं हैं, महत्वपूर्ण उनकी उपलब्धियां हैं जो दरअसल अब हिंदी कविता की उपलब्धियां हैं। उन जैसा भाषाई, शैलीगत, अनुभवगत, भावगत वैविध्य और अप्रत्याशितता कितने कवियों में मिलेगी? जीवन का ऐसा राग, ऐसा उत्सव, ऐसी ऐंद्रिकता, ऐसी बैचेनी, ऐसी ललकार, ऐसा भदेसपन, ऐसा खिलंदड़ापन और कहां है? और यह हमारी-आपकी तरह घर बैठेनेलाले या आफिस जानेवाले, मात्रा मध्यवर्गियों की दुनिया में घुलने-मिलने से नहीं आया है। यह आया है जीवन को सचमुच एक घुमक्कड़ नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 281 की तरह जीने के कारण। अपना सबकुछ कविता को देने की वजह से। अपने परिवार की यथासंभव चिंता को बिसराते हुए। यह आया है जन आंदोलनों से जुड़ने के कारण, यह आया है अपनी संवेदनात्मक धार को लगातार तेज़ करते रहने से, अपने को भूलने से, लोगों के बीच घुलने-मिलने से, उन जैसा हो जाने से। यह कविता के लिए जीवन की बहुत कुछ कीमत चुकाने से आया है। यह कहने के लिए मुझे माफ किया जाये कि कुछ मायनों में वे निराला से बड़े कवि लगते हैं, हालांकि कुछ व्यापक सहमतियां कवियों-लेखकों के समाज में ऐसी बन जाती हैं, जो जड़ हो जाती हैं, उनमें कोई दरार नहीं डाली जा सकती। उन सहमतियों से अलग हटकर सोचना-कहना एक किस्म का दुस्साहस-अहम्मन्यता तक माना जाता है। हालांकि नागार्जुन के पक्ष में ऐसी बात अगर आप कहीं कह दें, तो आपसे जो असहमत हैं, वे भी सामान्यतः इसका खंडन करना पसंद नहीं करेंगे, चुप रह जायेंगे। यह भी नागार्जुन की कविता के हक़ में बहुत कुछ कह जाता है। बहरहाल मैं निराला बनाम नागार्जुन जैसी किसी बहस के पक्ष में नहीं हूं। हम यहां नागार्जुन के महत्व को रेखांकित करना चाहते हैं जिसका अर्थ यह नहीं है कि हम उन्हें निराला से कुछ मायनों में बड़ा या छोटा कवि सिद्ध करने पर तुले हैं। ऐसी तुलनाओं का कोई ख़ास महत्व भी नहीं होता। मगर मुझे फिर भी लगता है कि जो महसूस होता है, उसे थोड़े संकोच के साथ कह भी देना चाहिए। हां यह सही है कि नागार्जुन के पास शायद किसी भी और कवि से ज़्यादा व्यंग्य कविताएं हैं। शायद इसीलिए उन्हें व्यंग्य कवि के खाते में अक्सर डाल दिया जाता है, कई बार बिना यह सोचे कि हम अनजाने ही उन्हें छोटा कर रहे हैं। नागार्जुन की कविता पूरे जीवन की कविता शायद इसलिए भी है कि वे ख़तरे उठाने से डरनेवाले कवि नहीं हैं बल्कि वे ऐसे कवि हैं जो जानबूझकर इस हद तक जाने को तैयार रहता है कि उन्हें कवि और उनकी कविता को कविता मानने से भी आप इनकार कर सकते हैं। ऐसा उनके जीवन में भी हुआ और उनके शताब्दी वर्ष में भी होता दिखायी दे रहा है। कम से कम उन्हें कमतर कवि की तरह तो पेश किया ही जा रहा है जबकि वे ऐसे कवि थे, जो किसी भी विषय को कहीं से भी उठाने की क्षमता रखता था, जैसे एक सिद्धहस्त कलाकार या गायक करता है। इसे दरअसल विषय को उठाना कहना भी शायद इसलिए ठीक नहीं होगा क्योंकि नागार्जुन के बाद की पीढ़ियों के तमाम कवियों में नये-नये विषयों को उठाने की एक होड़ सी लगी है और किसी नये विषय को उठाना ही जैसे कविकर्म का पर्याय बना दिया गया है, जबकि यह बहुत अहमकाना कोशिश है। कविता न नये विषयों के ज्ञान का प्रदर्शन है, न पुराने-नये छंदों के ज्ञान का। वह प्रदर्शन तो किसी भी चीज़ का हो नहीं सकती। कविता प्रदर्शनीय लगने लगी तो समझो कि गयी। इसलिए नागार्जुन के यहां कुछ भी प्रदर्शनीय नहीं है। वे ढेर सारे मरणशील विषयों का कविता में सहज प्रवेश इसीलिए करा सके क्योंकि मरणशीलता से उन्हें डर नहीं था। जैसे कि कबीर को भी नहीं था। भूख, अकाल, हड़ताल, कालाबाजारी, प्लेग, नौ-नौ महीने तनख्वाह न मिलना, फटी बिवाइयां, सिंके हुए भुट्टे यानी कुछ भी जो इस दुनिया में है, सड़क पर, घर में, बाजार-हाट में है, इलाहाबाद-चेन्नई में है, वह सब उनके यहां है और किसी स्टैंडर्ड तरीक़े से, पूर्वकल्पित तरीके से कविता में नहीं आता है। जो उनकी नज़रों के सामने हो रहा है, उनके अंदर-बाहर घट रहा है, वह सब उन्हें कविता लिखने के लिए उत्तेजित करता है, बाध्य करता है। इतने मरणशील विषयों पर पता नहीं कितने कवियों ने इतनी स्मरणीय कविताएं लिखी होंगी, जितनी नागार्जुन ने लिखी हैं। मरणशील विषयों को लेकर कविताएं लिखने का बड़ा ख़तरा यह है कि ऐसे विषयों पर कविताएं 282 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 भी मरणशील हो सकती हैं, हालांकि अमर विषयों पर कविताएं लिखने पर यह ख़तरा कुछ ज़्यादा बढ़ जाता है, बल्कि स्थायी हो जाता है। बहरहाल नागार्जुन पहले विषय तय करके कविता नहीं लिखते, जैसाकि आजकल हम लोग अक्सर करने लगे हैं। मेज़, कुर्सी, पलंग, मच्छर, सांप, मां, बच्चा, कबूतर कोई भी विषय उठाया और एक निबंधात्मक सी कविता बुनकर, पेश कर, पाठकों के सिर पर मार दी कि लीजिए, यह रहा मेरा नया माल। इसके विपरीत नागार्जुन की एक लोकप्रिय कविता देखिए-तीनों बंदर बापू के। जरा इसकी पहली पंक्ति पर गौर कीजिए-बापू के भी ताऊ निकले तीनों बंदर बापू के। कविता ऐसे अनौपचारिक, ऐसे अप्रत्याशित तरीक़े से शुरू होती है और तीनों बंदर बापू के जैसी अर्द्धपंक्ति के तीस बार दोहराव के साथ ही यह कविता दो छंदों में, एकसाथ चलती है और कहीं भी बनावटी दोहराव दोष नहीं दिखायी देता, कहीं भी छंद लड़खड़ाता नज़र नहीं आता, न यह लगता है कि इसे साधने की कोशिश हो रही है। ऐसा लगता है कि जैसे झरने से पानी की धार अविचल-अविकल बह रही हो, बिना सोचे, बिना थमे, बिना यांत्रिक हुए। हालांकि पूरी कविता में वह इतना ही अलग-अलग तरह से कहते हुए दीखते हैं कि ये तीनों बंदर बापू के भी ताऊ निकले हैं। गांधी का नाम लेकर गांधीवाद की ही ऐसीतैसी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। इस कविता में कथनभंगिमाओं का इतना अकृत्रिम वैविध्य है कि आप 54 पंक्तियों की इस कविता को पढ़ते चले जाते हैं और जब कभी इस कविता तक फिर पहुंचते हैं। इसे फिर-फिर पढ़ने का, इसे कंठस्थ करने का आपका मन होता है। मंत्रा कविता लें। वह इससे बहुत अलग है। यह कविता अराजकता का सा टाठ लिये, शब्द बहुलता का बाना पहने पूंजीवादी राजनीति की हंसी उड़ाती है मगर किसी पूर्वकल्पित एजेंडे के तहत नहीं, बल्कि सहज भाव से, अपने शिल्प में पूरी तरह रमकर, उसके तर्क को निभाते हुए चलती है। यह कविता कविताई भद्रता की तथाकथित सीमाएं लांघती है, जिसको लांघने की हिम्मत में बाद में भी बहुत कम दीखती है। यज्ञ के समय उच्चारे जानेवाले मंत्रा की शैली में लिखी यह कविता सबसे पहले मंत्रा का ही मजाक बनाती है और उसमें मंत्रा की भाषा से तिरस्कृत तमाम सड़कछाप कहे जानेवाले, रोजमर्रा की भाषा के शब्दों को ले आती है। पुनः इस कविता में कुछ ऐसा आकर्षण है कि इसकी अराजक सी लगनेवाली टोन में ही आपको कविता दीखने लगती है। उनकी कविताओं में व्यंग्य की कई सतहें हैं। कहीं आक्रोश है, कहीं आक्रोश के साथ सत्ताधारियों को चिढ़ाने जैसा भाव है, कहीं खुद इसमें आनंद लेने जैसा भाव है, कहीं खिलंदड़ापन है। उधर घिन तो नहीं आती है कविता देखिये। यह कविता कलकत्ता की चौरंगी की हवा खाने निकले बाबूवर्ग के आदमी पर व्यंग्य है जो ट्राम में कुली या मजदूरों के पास बैठने को मजबूर है। ये मजदूर ठहाके लगा रहे हैं, सुरती फांक रहे हैं, खूब बातें कर रहे हैं, जिनके कपड़े पसीने से लथपथ हैं। लेकिन यह कविता इस सबसे परेशान नज़र आ रहे उस आदमी का मजाक नहीं उड़ाती बल्कि उसे इतनी आत्मीयता से इस सच को, इस आनंद को स्वीकार करने का आग्रह करती है। फिर वह अपना मजाक भी बनाते हैं कविताओं में तमाम जगहों पर-खुद को वनमानुष-उजबक कहकर। बहरहाल अपने को रचनात्मक रूप से ताजा करने के लिए नागार्जुन को पढ़ने का अपना सुख है। दरअसल शमशेर-नागार्जुन हमारे बीच अब नहीं हैं, यह तो स्वीकार होता है मगर सौ बरस के हो चुके हैं, यह पता नहीं क्यों गले नहीं उतरता। मो.: 09810892198