योगदर्शन एवं मनश्चिकित्सा के दृष्टिकोण से प्रत्याहार का महत्त्व / कविता भट्ट

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मनुष्य जीवन के समस्त लक्ष्यों का आधार स्वस्थ एवं संतुलित व्यक्तित्व है। यह मन एवं शरीर को स्वस्थता प्रदान करने हेतु किये जा रहे प्रयासों का उच्चतम लक्ष्य भी है। आधुनिक काल में अभूतपूर्व वैज्ञानिक प्रगति ने भौतिक रूप से सुख-सुविधाएँ तो भरपूर प्रदान की; किन्तु मनोकायिक स्वास्थ्य को जटिल प्रश्न बना दिया। परिणामतः प्रत्येक व्यक्ति इसी को समुचित रूप से स्वयं के उपचार में उलझा हुआ है। अनेक मानसिक समस्याओं ने जटिल होकर मानसिक व्याधियों का रूप धारण कर लिया है। मानसिक व्याधियाँ शारीरिक क्षमताओं को नष्ट करते हुए शरीर की व्याधिग्रस्तता हेतु भी उत्तरदायी हैं। आधुनिक वैज्ञानिक युग में अनेक मनश्चिकित्सीय विधियों को विकसित करने का अथक प्रयास किया गया; जो निरन्तर गतिशील है। अथक प्रयासों के होते हुए भी मानव समाज वास्तविक मानसिक स्वास्थ्य को प्राप्त नहीं कर पा रहा है। परिणामस्वरूप मशीनीकरण के इस युग में मानव समाज यथार्थ सुख-शान्ति खोजने हेतु निरन्तर प्रयासरत है।

भारतवर्ष में पौराणिक समय से ही; वैज्ञानिक आधारों से युक्त योगाभ्यासों को मात्र मनोशारीरिक स्वस्थता के दृष्टिकोण से ही नहीं; अपितु एक अनुशासित जीवनशैली के अंग के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है। आजकल यह विश्व के अधिकांश राष्ट्रों द्वारा वैकल्पिक चिकित्सा के रूप में अपनाया जा रहा है। उदाहणार्थ अनेक एलोपैथिक चिकित्सक एवं मनश्चिकित्सक स्वस्थ रहने हेतु; स्वयं भी योगाभ्यासों को अपना रहे हैं तथा रोगियों को भी योगाभ्यासों को प्रयोग में लाने का परामर्श देते हैं। सुखद एवं आश्चर्यजनक रूप से अनेक बार आधुनिक चिकित्सा विज्ञान अनेक रोगों के उपचार में जब असफल हो जाता है; तब योगाभ्यास के निरन्तर व यथोचित प्रयोग द्वारा चिकित्सा में सफलता प्राप्त हो जाती है। आवश्यकता मात्र विभिन्न योगाभ्यासों को मनोकायिक दृष्टिकोण से व्याख्यायित करते हुए समझने एवं अपनाने की है। योग के प्रत्याहार जैसे कुछ सर्वाधिक उपयोगी एवं केन्द्रीय अभ्यास; जो विभिन्न मनश्चिकित्सीय तकनीकियों में रूपान्तरित करके प्रयोग तो किये जा रहे हैं; किन्तु उनका न तो यथोचित प्रतिष्ठापन ही हो पाया; ना ही वे यौगिक मनश्चिकित्साकी मुख्यधारा से ही जुड़ पाये। इस प्रकार के अभ्यासों के यथोचित विवेचन व प्रतिष्ठापन की आवश्यकता है।

उल्लेखनीय है कि योगदर्शन भारतीय दर्शन की एक व्यावहारिक शाखा है। प्रारम्भ में यह भ्रान्ति व्याप्त थी कि योग मात्र आध्यात्मिक लक्ष्य हेतु ही किया जाता है; किन्तु कालान्तर में जैसे-जैसे वैज्ञानिक अनुसंधान होते गये; सर्वसम्मति से यह स्वीकार किया जाने लगा कि योग के अभ्यास पूर्णरूप से चिकित्सीय निहितार्थों से युक्त हैं। इन सभी अभ्यासों का आधार पूर्णरूप से वैज्ञानिक है। वास्तव में प्राचीन ऋषि-मुनि वैज्ञानिक ही थे; जिन्होंने निस्वार्थ रूप से मानव दुःखनिवृत्ति हेतु योग के विभिन्न अभ्यासों को खोजा। योग वैदिक काल से ही हमारी परम्परा का अभिन्न अंग था; यह उपनिषदों आदि में भी यत्र-तत्र निर्देशित किया गया; किन्तु इस बिखरे हुए ज्ञान को महर्षि पतंजलि ने सूत्रकाल में योगसूत्र के नाम से संकलित व सुव्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया। यही पातंजलयोगसूत्र के नाम से योग के सर्वाधिक व्यवस्थित ग्रन्थ के रूप में प्रतिष्ठित है। इस ग्रन्थ में समाधि (राजयोग) का विशिष्ट विवेचन है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि के रूप में आठ अंगों का अभ्यास समाहित होने के कारण इसे अष्टांग योग कहा जाता है।

ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि योग के आसन, प्राणायाम व ध्यान जैसे अभ्यास ही तुलनात्मक रूप में अधिकांशतः प्रचलित हैं; वह भी मात्र शारीरिक व मानसिक लाभ जैसे लक्ष्यों को केन्द्र में रखकर ही किये जाते हैं। विभिन्न योगाभ्यास शारीरिक एवं मनश्चिकित्सीय निहितार्थों के साथ आध्यात्मिक एवं नैतिक उन्नति के भी हेतु हैं। परिणामस्वरूप, ये तकनीकियाँ विश्व-स्तर पर मनोशारीरिक चिकित्सा अथवा उपचार (Cure) के दृष्टिकोण से ही नहीं अपितु प्रतिरोध/पूर्व-सुरक्षा (Prevention) के लिए भी अपनायी जा रही हैं। प्रचलित कहावत है ‘Prevention is better than cure' अर्थात् प्रतिरोध/बचाव/पूर्व-सुरक्षा उपचार से अधिक श्रेष्ठ है। इस दृष्टिकोण से मनोकायिक व्याधियों के निवारण के साथ ही प्रतिरोध/बचाव/पूर्व-सुरक्षा के रूप में योग की विभिन्न तकनीकियाँ प्रसिद्ध हैं। मनोरोगों के कारणों का विस्तृत विवेचन तो हम अपने ग्रन्थ में करेंगें ही; किन्तु भूमिका प्रस्तुत करने हेतु हम इससे सम्बन्धित भारतीय व पाश्चात्य मतों की तुलना संक्षेप में करेंगे; जिससे इस सम्बन्ध में योग के दृष्टिकोण एवं मनश्चिकित्सीय आधारों को अधिक स्पष्ट किया जा सके।

प्रत्याहार के बहुपक्षीय विवेचन को ध्यान में रखते हुए, मनश्चिकित्साके सन्दर्भ में इसको दो प्रकार से समझना आवश्यक है। प्रथम, योग के आठों अंगों के मध्य इसका महत्त्व एवं द्वितीय, मनश्चिकित्सा हेतु प्रत्याहार सिद्धि में प्रयोग की जाने वाली तकनीकियों का प्रतिष्ठापन। प्रथम उद्देश्य से ‘‘योग परम्परा में प्रत्याहार: आध्यात्मिक, दार्शनिक एवं व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य‘‘ नामक अपने पूर्वग्रन्थ में हम प्रत्याहार को बहिरंगता एवं अंतरंगता के श्रृंखला चरण के रूप में विश्लेषित व विवेचित कर चुके हैं। अब द्वितीय उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए इस ग्रन्थ में प्रत्याहार हेतु किये जाने वाले अभ्यासों की तकनीकियों द्वारा मनश्चिकित्साके पक्षों को प्रतिष्ठापित करना हमारा प्रमुख उद्देश्य है। अतः प्रस्तुत ग्रन्थ में हम मनोरोगों, आधुनिक मनश्चिकित्साव प्रत्याहार सिद्धि हेतु किये जाने वाले अभ्यासों के तकनिकीय एवं मनश्चिकित्सीय पक्ष को विवेचित करेंगे। साथ ही प्रत्याहार को मनोरोगों से पूर्व-सुरक्षा एवं मनश्चिकित्साकी स्वतन्त्र प्रविधि के रूप में प्रतिष्ठापित करने का विनम्र प्रयास करेंगे।

उल्लेखनीय है कि पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक एवं मनश्चिकित्सक मनश्चिकित्सीय विधियों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रतिस्थापित करने हेतु पिछले कुछ समय से प्रयासरत हैं। उन्होंने अनेक रोचक एवं सक्षम तकनीकियाँ मनश्चिकित्साहेतु दी हैं; किन्तु वे तकनीकियाँ समग्रता के दृष्टिकोण से अपूर्ण ही हैं। परिणामस्वरूप आज विभिन्न योगाभ्यासों को मनश्चिकित्साके सन्दर्भ में अपनाया जा रहा है। यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि मनश्चिकित्साकी जो अन्य विधियाँ भी हैं वे यथार्थ ज्ञान की ओर उन्मुखता एवं चैतन्य के साक्षात्कार के जो तथ्य आधारस्वरूप लेकर चलती हैं; वे विधाएँ भी किसी न किसी प्रकार से योगपद्धति से ही अभिप्रेरित एवं व्युत्पन्न हैं। योग से अभिप्रेरित होते हुए भी इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया जाता व आधुनिक विश्व उन्हें अपनी वैज्ञानिक बुद्धि से प्रसूत मानता है। इसलिए आधुनिक परिप्रेक्ष्य में योग की विभिन्न तकनीकियों का मनश्चिकित्सीय दृष्टिकोण से विवेचन एवं प्रतिष्ठापन किया जाना नितांत आवश्यक है। समकालीन सन्दर्भों में इसके अनेक निहितार्थ निश्चित हैं।

प्रथम, तो हम मनोरोगों की सफल चिकित्सा हेतु समृद्ध योग परम्परा के अभ्यासों का प्रायोगिक पक्ष समझ सकेंगें। द्वितीय, आधुनिक मनश्चिकित्साके कुछ नकारात्मक पक्षों (जो हम पुस्तक में आगे विवेचित करेंगे) से बच सकेंगें। तृतीय, एक बार योग प्रशिक्षक से अभ्यास को सीखकर उसको पुनः-पुनः स्वयं ही कर सकेंगें, अतः मनोचिकित्सकों पर निर्भरता समाप्त हो जायेगी। चतुर्थ, नितांत वैयक्तिक समस्याओं को हमें सार्वजनिक नहीं करना होगा; सभी समस्याओं के गोपनीय रहते हुए भी आत्म-नियंत्रण, विवेक एवं व्यक्तित्व के समग्र विकास द्वारा सभी मनोरोगों का निदान सम्भव हो सकेगा। पंचम, हम स्वयं को लाभान्वित करते हुए समाज के अन्य व्यक्तियों को इन अभ्यासों का ज्ञान करवाकर मानवमात्र के कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर सकेंगे। षष्ठ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि योग के विभिन्न अभ्यास जो हमारी वैदिक सभ्यता की विरासत हैं; उनसे आधुनिक मनश्चिकित्साकैसे अभिप्रेरित है; यह भी जान सकेंगे।

उपर्युक्त उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए मनोरोगों के कारणों का यथोचित ज्ञान भी आवश्यक है; इसलिए हम उन्हें भी विवेचित करेंगे। आधुनिक मनश्चिकित्साके नकारात्मक पक्षों को जानने के साथ ही योग द्वारा मनश्चिकित्साके लाभों को विवेचित करना भी हमारा उद्देश्य होगा। योग के विभिन्न अभ्यास यथा- आसन, प्राणायाम एवं ध्यान जैसी विधियों का प्रयोग मनश्चिकित्साके क्षेत्र में निरन्तर किया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि प्रत्याहार जैसा केन्द्रीय योगाभ्यास विभिन्न तकनीकियों यथा- भावातीत ध्यान, योगनिद्रा एवं त्राटक आदि के रूप में प्रयोग तो किया जा रहा है; किन्तु इसका प्रत्याहार के रूप में स्वतन्त्र मनश्चिकित्सीय तकनीकि के रूप में प्रतिष्ठापन अभी भी नहीं किया गया। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि प्राचीन समय से ही प्रत्याहार योग मनोविज्ञान का केन्द्रीय बिन्दु है तथा योगनिद्रा एवं त्राटक आदि अभ्यास वास्तव में प्रत्याहार हेतु ही किये जाते हैं। इसलिए मनश्चिकित्साकी इन प्रमुख तकनीकियों को प्रत्याहार के अभिन्न अंग के रूप में विवेचित किया जाना आवश्यक है। इसके लिए दो तथ्यों का विवेचन आवश्यक है; प्रथम, सम्पूर्ण योगचरणों में प्रत्याहार का विवेचन एवं द्वितीय, प्रत्याहार का मनश्चिकित्साकी स्वतन्त्र विधा के रूप में विवेचन। इससे ‘मनोरोगों के उपचार एवं प्रतिरोध/पूर्व-सुरक्षा’ जैसे मार्ग प्रशस्त हो सकेंगे। इस सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन से पूर्व योग के सम्बन्ध में कुछ तथ्यों का स्पष्टीकरण आवश्यक है; इसलिए पहले हम इस सम्बन्ध में प्रमुख तथ्यों का उल्लेख करेंगे।

पाश्चात्य दृष्टिकोण से मानसिक समस्याएँ एवं मनोरोग अपूर्ण कामनाओं का क्लिष्ट रूपान्तरण हैं; किन्तु भारतीय मत है कि ये कामनाएँ अविवेक, अधूरे ज्ञान, भ्रम, संदेह अथवा बाह्य व्यवधानों की गतिविधियों से उत्पन्न होते हैं। स्पष्ट है कि पाश्चात्य मत मनोरोगों के रूप व सतही कारण पर अधिक केन्द्रित है; किन्तु भारतीय मत मनोरोगों के मूल कारणों को स्पष्ट करता है। रूपान्तरण यद्यपि किसी भी मनोरोग में हो; तथापि मनोरोगों के मूल में अतृप्त कामनाएँ ही होती हैं; इसीलिए मनश्चिकित्साकी तकनीकियाँ मुख्य रूप से अनुपयुक्त इच्छाओं तथा परस्थितियों को समझते हुए पहचानने एवं क्षमताओं का वातावरण से सामंजस्य करने पर ही केन्द्रित हैं। हम अनियन्त्रित भौतिक कामनाओं व सुविधाओं के कारण ही अतृप्तता का सामना कर रहे हैं। इन्द्रिय-सुख को वास्तविक अर्थ में ग्रहण करने व समझने की स्थिति में हैं ही नहीं। परिणामस्वरूप हम अधिकाधिक तृष्णा व कामनापूर्ति की ओर भाग रहे हैं, किन्तु हम तब भी संतुष्ट होने के स्थान पर अधिकाधिक मनोरोगों के शिकार हो रहे हैं। इसी के सन्दर्भ में इन्द्रियसुख-केन्द्रित आधुनिक जीवनशैली की आलोचना करते हुए डॉ0 सुरेन्द्र प्रताप सिंह लिखते हैं, ‘‘यहीं एक तथ्य पर विचार करना अत्यन्त प्रासंगिक है। यदि फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद को सत्य मान लिया जाय- काम ही जीवन है, तो एक प्रश्न उठता प्रतीत होता है। बीसवीं सदी में उन्मुक्त कामुकता के जितने विविध प्रयोग हुए उतना संभवतः कभी न हुआ हो। आरोप और तर्क दोनों आते हैं कि हर काल में कामुक विकृतियाँ देखने को मिलती हैं। ...भोग में इन्द्रिय-तुष्टि छिपी है, संभोग में सामाजिक आकर्षण-विकर्षण छिपा है। फ्रायड का मानना है कि यदि व्यक्ति को काम-संतुष्टि का भरपूर उचित अवसर मिले तो मानसिक रोगों के होने की प्रवृत्ति कम होगी परन्तु इसमें कोई विवाद नहीं है- बीसवीं सदी में मात्र चिंता का स्तर ही नहीं बढा है अपितु मानसिक रोगों में निरन्तर अभिवृद्धि हुई है। अर्थात् फ्रायड की परिकल्पना असत्य पायी जा रही है। जीवन का आधार मात्र काम संतुष्टि नहीं अपितु और भी कुछ है।

भारतीय चिंतकों ने जीवन के संचालन में वासनाओं तथा वासना या कारण शरीर को महत्त्व दिया है। यह चिंतन जुंग के सामूहिक अचेतन के अधिक पास है; परन्तु यह ध्यान में रखना चाहिए कि अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन भारत से वापस होने के पश्चात् किया मानसशास्त्र की एक अत्यन्त नवीन शाखा हिस्टॉरिका साइकॉलॉजी है जो अतीत (इतिहास) की घटनाओं के आधार पर जीवन की व्याख्या करती है। चिंतन और व्यवहार की गति का अत्यन्त समग्र प्रभाव पड़ता है। इतिहास के नरसंहार के काल में अवचेतन पशु प्रतिनिधि प्रभावी रहा है। हिस्टॉरिका साइकॉलॉजी से जुड़े मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि समूचे इतिहास की घटनाएँ कुछ व्यक्तियों के प्रभावी अवचेतन का ही परिणाम रहीं। परन्तु इतिहास के स्वर्णिम युग की व्याख्या का भिन्न मानसशास्त्रीय आधार है। ध्यान रहे कि यदि उद्दीपन व्यक्ति के अचेतन को उद्दीप्त करे तो मानव जीवन की उच्चतर प्रक्रियाओं यथा धर्म , कला व साहित्य आदि के रूप में व्यवहार की अभिव्यक्ति होती है। स्वार्थपरता के चलते व्यक्ति में अधिकांश ऐसे भौतिक पक्षों यथा- धन, सत्ता आदि के केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति बढ़ी है जो कि उपयुक्त है ही नहीं। केन्द्रीयकरण यदि आत्म तत्त्वों का हो तो संतुलन होगा जबकि हुओं इसके विपरीत है। परिणाम हिंसा, मनोरोग, अपराध तथा आतंक आदि हैं। अतः आवश्यकता है कि अचेतन की फिर से समीक्षा करें और अतिचेतन में रूके प्रवाह को प्रवाहित करने की दिशा में चलने को प्राथमिकता दें।”1

उपर्युक्त विवेचन से सिद्ध होता है कि यद्यपि आधुनिक काल में मनोविज्ञान के दृष्टिकोण से व्यक्तित्व की नवीनतम परिभाषाएँ दी हैं; किन्तु अभी भी वह उस व्यक्तित्व की वास्तविक मीमांसा तक पहुंचने व परिमार्जन की क्षमताओं हेतु आत्म-नियन्त्रण की युक्तियाँ प्रदान करने में असमर्थ है। इसके स्थान पर इच्छाओं को तृप्त करने के नाम पर वासनाओं के मोहपाश का प्रलोभन अत्यंत निन्दनीय है। हमें ऐसी मनश्चिकित्सीय तकनीकि की आवश्यकता है जो हममें उपयुक्त व अनुपयुक्त इच्छाओं के भेद-विश्लेषण की क्षमता का विकास करे। यह पाश्चात्य मनश्चिकित्साके लिए थोड़ा कठिन है, क्योंकि पाश्चात्य मनश्चिकित्सामानसिक रोगों का एकपक्षीय अध्ययन ही प्रस्तुत कर पायी है। शरीर के सन्दर्भ में ही वह मनोरोगों का विश्लेषण करती है, मनोरोगों को वह शरीर के एक अंग के रोग के रूप में समझती है, समग्र व्यक्तित्व का नहीं। इसके लिए पाश्चात्य मनश्चिकित्सामार्ग सुझाती तो हैं; किन्तु जैसा कि हमने पूर्व में भी उल्लेख किया है कि उसके कुछ नकारात्मक पक्ष भी हैं। इनमें ‘‘पाश्चात्य मनश्चिकित्साके नकारात्मक पक्ष‘‘2 हैं; जीवन के नितांत व्यक्तिगत पक्षों का सार्वजनिक होना व उसमें दूसरे व्यक्तियों का हस्तक्षेप होना। ऐलोपैथिक औषधियों के प्रयोग होने के कारण समस्याओं का मात्र सतही निवारण होता है, स्तरीय नहीं। व्यक्ति को आत्म-विश्लेषण का अवसर तो मिलता है किंतु उसमें मनश्चिकित्सक का हस्तक्षेप रहने के कारण आत्म-विश्लेषण दूसरे पर ही निर्भर रहता है, स्वतः-प्रेरण का अवसर नहीं मिलता। मनश्चिकित्सायथार्थता से साक्षात्कार का प्रयास तो करती है, किंतु यह समस्या के मूल में उपस्थित कामनाओं के नियन्त्रण हेतु मनोशारीरिक अभ्यासों को प्रस्तुत नहीं करती। मनश्चिकित्सानवीन शोधों पर आधारित तो हैं किन्तु इसके उतने सुदृढ़ शास्त्रीय आधार नहीं है। मनश्चिकित्सालक्षणों के आधार पर चिकित्सा करती है, व्यापक वैयक्तिक एवं सामाजिक अनुशासन को विकसित नहीं करती। मनश्चिकित्साव्यवहार-परिमार्जन मात्र बाह्य रूप से करने का प्रयास करती है; यह मनोरोगी के अन्तर्मन की गहनताओं में बसी कामनाओं के निर्मूलन का प्रयास नहीं करती। मनश्चिकित्साकी विभिन्न तकनीकियों में ऐसी कोई भी तकनीकि नहीं जिसमें व्यक्ति अपनी मानसिक समस्याओं को स्वयं ही समझते हुए उनके निवारण हेतु स्वयं ही प्रयास कर सके।


उल्लेखनीय है कि पौराणिक काल में व्याधियों का मूल मानसिक विकृति को माना जाता था। इस सम्बन्ध में कुछ भारतीय विद्वानों के मत को समझना उपयुक्त होगा। इस सम्बन्ध में डॉ0 शिवनन्दन प्रसाद का मत - "आधुनिक काल में रोगों व रोगियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। विशेषज्ञ अनेक प्रकार की औषधियों का अनुसंधान करते हुए रोगोत्पत्ति के कारण भी दूढ़ रहे हैं। साथ ही यह भी प्रचारित किया जा रहा है कि रोगों का मूल कारण अनेक प्रकार के कीटाणु हैं; पूर्णतः स्वस्थता की प्राप्ति के लिए वे उन कीटाणुओं को मारने में ही संलग्न हैं, परन्तु रोगों के मूल कारण पर किसी का भी ध्यान नहीं जाता। परिणाम स्वरूप यह कहावत चरितार्थ हो रही है कि ’’मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की’’। वास्तव में रोगों के मूल कारण मनुष्य के मानसिक विकार होते हैं। अन्तःकरण के कलुषित विचार एवं असत्य व असंतुलित आचार-व्यवहार रोगों के जन्मदाता हैं; परन्तु आधुनिक वैज्ञानिक इस तथ्य से सहमत नहीं है। जिसके कारण व्यक्ति औषधियों से स्वस्थ रहने का सतही प्रयास ही करता जा रहा है। मानव समाज मानसिक प्रदूषण के कारण रोगों की गर्त में डूबता ही जा रहा है। सर्वविदित है कि हमारे पूर्वज अधिक दूरदर्शी और विद्वान थे, वे शरीर की बनावट, स्नायु-संचालन व नाड़ी विज्ञान द्वारा व्याधि मूल में उपस्थित विकार व उसके निदान को नाड़ी देखने मात्र से ही बता दिया करते थे। जबकि आधुनिक विज्ञान सैकड़ों मशीनों के आविष्कार द्वारा यह नहीं कर पा रहा है।’’3

मनश्चिकित्सा हेतु आधुनिक तकनीकियाँ यथोचित निद्रा को आवश्यक मानती हैं। आधुनिक मनश्चिकित्सामें मानसिक विश्रांति के लिए निद्रा को आवश्यक बताते हुए अनेक ऐलोपैथिक औषधियों का सेवन करवाया जाता है, जिनके अनेक नकारात्मक प्रभाव होते हैं। आचार्य श्रीराम शर्मा इसकी आलोचना करते हुए इसें अत्यंत घातक परिणामों से युक्त बताते हैं, ‘‘आज इस प्रकार के मनोरोगों के लिए जो उपचार काम में लाये जाते हैं, उनमें बिजली के शॉक और निद्रालु औषधियाँ प्रमुख हैं। लेकिन इस प्रकार किये गये उपचारों के परिणाम अच्छे नहीं निकले हैं कुछ रोगियों की तो स्मरण शक्ति तक समाप्त हो जाती है। शरीर के अन्दर पाये जाने वाले रासायनिक असन्तुलन खिन्नता का प्रमुख कारण हैं। इन असन्तुलनों का स्वरूप एवं उपचार अभी भी मनोचिकित्सकों की समझ में नही आ पाया है। मात्र यह सकझा जा सका है कि यह असन्तुलन दैनिक जीवन के तनावों का परिणाम है। यह सब मस्तिष्क के दो हार्मोन्स नार एड्रिनेलिन तथासेराटॉनिन के बीच असंतुलन से होता है। जब सेराटॉनिन की अधिकता होती है तो मनःस्थिति खराब हो जाती है। जब नार एड्रिनेलिन अधिक हो जाता है तो आवश्यकता से अधिक सक्रियता हो जाती है। कभी-कभी रोगी को निराशा के स्थान पर सुख की अनुभूति होती है यह उन्माद की स्थिति है। मानसिक खिन्नता का प्रमुख कारण उसकी मनःस्थिति का परिवर्तित होना है। स्वास्थ्यहीनता, दुःख तथा निराशा की स्थिति में अधिकांश रोगियों का दृष्टिकोण निराशावादी हो जाता है।”4

इन मनोरोगों के निदान स्वरूप जो एलोपैथिक दवाएँ एवं इलैक्ट्रिक शॉक आदि व्यक्ति को दिये जाते हैं वे अप्राकृतिक व अस्वाभाविक हैं। प्रत्याहार के अन्तर्गत किये जाने वाले अभ्यास स्वाभाविक एवं प्राकृतिक रूप से व्यक्ति को निद्रा से प्राप्त होने वाले विश्रांति जैसे लाभ प्रदान करते हैं। इन प्रत्याहारीय अभ्यासों के नकारात्मक प्रभाव नहीं होते हैं; अपितु ये अभ्यास अत्यंत सकारात्मक प्रभाव उत्पन्न करते हैं। यह सकारात्मकता व्यक्तित्व परिष्कार के दृष्टिकोण से अत्यंत उपयोगी है। आधुनिक युग में अधिकांश लोग तनाव एवं अवसाद से ग्रस्त होकर व्यक्तिगत कुंठाओं से ग्रस्त हो जाते हैं। ये कुंठाएँ व्यक्तिगत रूप से चारित्रिक अवनयन एवं सामाजिक रूप से अनेक विसंगतियों व अपराध में परिणामित होती हैं।

भारतीय चिंतन परम्परा मानसिक एवं कायिक सभी रोगों का मूल कारण सदियों पूर्व ही स्पष्ट कर चुकी है। भारतीय दर्शन की विविध शाखाएँ विकृत एवं अस्थिर अंतःकरण को ही समस्त रोगों का मूल कारण मानती हैं। उल्लेखनीय है कि योगदर्शन ‘‘मन, बुद्धि एवं अहंकार‘‘ को सम्मिलित रूप से अंतःकरण की संज्ञा देता है। योग की समस्त साधना अंतःकरण के परिशोधन एवं अनुशासन पर ही आधारित है। इन तथ्यों का हम विस्तृत विवेचन करेंगें; किन्तु उससे पूर्व हम बुद्धि या मन के विकारों को मनोरोगों के मूल कारण के रूप में विवेचित करेंगें।

योग, आयुर्वेद, वेदान्त जैसे दार्शनिक शाखाओं के प्रसिद्ध विद्वान श्री गुलाबराव महाराज अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ मानसायुर्वेद में स्पष्ट रूप से मानसिक विकारों को दुःखों का कारण मानते हैं। वे कीटाणुओं को विभिन्न शारीरिक रोगों का वाहक नहीं मानते, अपितु मनोविकारों से कीटाणुओं का प्रादुर्भाव मानते हैं। कीटाणु रोगों का कारण नहीं; अपितु लक्षण हैं। मुख्यतया पहले विभिन्न सूक्ष्म मनोविकारों के कारण इन कीटाणुओं का निर्माण होता है और वे रोग के सहकारी बनकर व्याधि को प्रकट और वृद्धिंगत करते हैं। सभी रोगों का मूल कारण तो अशुद्ध चित्त ही है। इसलिए व्याधि चिकित्सा में सर्वप्रथम व्याधि का निर्माण ही न हो इसके लिए चित्त को शुद्ध रखना अनिवार्य है। महाराज अपनी पुस्तक में कहते हैं- ’’सर्वेषामेव रोगाणामधर्मं कारणं महत्, आरोग्यकारको धर्मो वैद्यशास्त्रेऽपि बोधितः।’’5 इसके साथ ही वे आगे लिखते हैं- ’’प्रसन्नचेतसः सौख्यमारोग्यं च भवेत् सदा, अप्रसन्नस्य चित्तस्य रोगाः सर्वे भवन्ति हि।”6 इन पंक्तियों में स्पष्ट रूप से अशुद्ध व विकृत बुद्धि को रोगों का कारण बताया गया है। इसके साथ ही प्रसन्न चित्त को सुख व आरोग्य तथा अप्रसन्न चित्त को रोगों का मूल बताया गया है।

अत्यंत लोकप्रिय एवं सारगर्भित श्रीमद्भगवत्गीता इस सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से मानता है कि बुद्धि ही व्यक्ति के शुभाशुभ संकल्पों की जन्मदात्री है। इस कारण वह व्यक्ति के नैतिक व चारित्रिक पक्ष का निर्धारण करने का भी कार्य करती है। इसी के विभ्रमित या दिग्दर्शित होने पर क्रमशः व्यक्ति के पतित अथवा उन्नत मानसिक धर्मों का निर्धारण होता है। महाभारत का युद्ध नैतिक मूल्यों के पुर्नस्थापन हेतु हुआ था और उसमें भगवान कृष्ण ने धर्म का साथ देने के उद्देश्य से पाण्डवों का साथ दिया था। इसके प्रारम्भ में ही जब श्रीकृष्ण अर्जुन के रथ को हांकते हुए कुरूक्षेत्र के बीच ले जाते हैं, तो अर्जुन कौरवों को धर्मविरोधी न समझकर विभ्रमित होने के कारण उन्हें अपने बन्धु-बान्धवों के रूप देखते हैं। अर्जुन ’’भ्रमतीव च मे मनः’’ कहकर युद्ध करने का या ना करने का निर्णय करने में असक्षम हो जाते हैं। फिर कृष्ण उन्हें गीता के उपदेश देकर उनका यह विभ्रम दूर करके धर्म व नैतिकता के मूल्यों की रक्षा हेतु युद्ध करने को प्रेरित करते हैं। वे कहते हैं;

‘‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरूनन्दन।

बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।”7

अर्थात् हे अर्जुन! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है; किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं। यदि गहनता से विचार किया जाय तो यह विभ्रम की स्थिति आधुनिक काल में प्रायः सभी व्यक्तियों के साथ है। हमेशा व्यक्ति किसी न किसी अन्तर्द्वन्द्व में उलझा रहता है। यही उलझन विकृत होकर अनेक नैतिक समस्याओं का कारण बन जाती है। यदि व्यक्ति इस विभ्रम की स्थिति से उबरकर अन्तर्ज्ञान को विकसित करने का कार्य कर सके तो अनेक नैतिक समस्याओं का समाधान हो पायेगा। प्रत्याहार की विकसित अवस्था इसमें अत्यंत सहयोगी प्रक्रिया है। इसके द्वारा अन्तर्ज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् अज्ञान व विभ्रम पर नियंत्रण प्राप्त कर सकेगा।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मन एवं बुद्धि के अनुशासन तथा संयमन द्वारा अधिकांश मनोविकारों को निश्चित रूप से नियन्त्रित किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में रामनाथ शर्मा का मत उचित प्रतीत होता है। उनके अनुसार, ‘‘पाश्चात्य मनोविज्ञान में मानसिक तनावों से मुक्ति का कोई समुचित साधन परिलख्ज्ञित नहीं होता, जो उसके व्यक्तित्व में निहित निषेधात्मक परिवेशों को स्थायी निदन प्रस्तुत कर सके। इसके विपरीत भारतीय मनोविज्ञान में मानसिक तनावों से मुक्ति के विभिन्न उपाय बताये गये हैं, यथा- योगमार्ग........अभ्यास तथा वैराग्य आदि। इन साधनों के सम्यक् एवं नियमित अभ्यास से संगठित एवं समायोजित व्यक्तित्व का निर्माण सम्भव है।”8 यहाँ पुनः उल्लेख आवश्यक प्रतीत होता है कि आधुनिक पाश्चात्य मनश्चिकित्सासतही उपचारों तक ही पहुँच पाया है; जबकि योगदर्शन के द्वारा निर्देशित किये गये अनेक अभ्यासों के द्वारा अनेक मानसिक समस्याओं द्वारा निर्मित जटिल मनोरोगों का समूल उपचार तो निश्चित है ही; इसके साथ ही यदि इन अभ्यासों को मनोरोगों से पूर्व ही नियमित रूप से किया जाय तो वे मनोरोगों से पूर्व-सुरक्षा के अचूक साधन सिद्ध होते हैं। योग का प्रत्याहार जैसा अभ्यास ऐसे ही परिणामों का साधन है। आवश्यकता इसे मनश्चिकित्साके रूप में प्रतिष्ठापित करते हुए अपनाने की है। इस दृष्टिकोण से इस ग्रन्थ में योगाभ्यासों के केन्द्रीय अभ्यास- प्रत्याहार को आत्म-प्रेरण एवं अन्तर्वीक्षण के मनश्चिकित्सीय साधन के रूप में प्रतिष्ठापित करना हमारा प्रयास है। अनेक अध्यायों में विभाजित इस ग्रन्थ में प्रत्याहार का मनश्चिकित्सीय दृष्टिकोण से गहन विवेचन करेंगे; किन्तु उससे पूर्व हमें मनश्चिकित्सीय साधनस्वरूप एवं योगाभ्यास में केन्द्रीय अभ्यास के रूप में प्रत्याहार का सामान्य परिचय एवं महत्त्व जानना आवश्यक है; इसलिए हम इन पर अपना ध्यान एकाग्र करेंगे। इसके साथ योगदर्शन में मनश्चिकित्साके शास्त्रीय आधारों की उपस्थिति का विवेचन भी हम करेंगे। इन सबसे पूर्व हमें योगदर्शन के मनोवैज्ञानिक तथ्यों को विवेचित करना होगा; जिससे प्रत्याहार द्वारा मनश्चिकित्साके दार्शनिक औचित्य का स्पष्टीकरण हो सके। अतः अब हम इन मनोवैज्ञानिक तथ्यों को विवेचित करेंगे।

योगदर्शन में दुःख-निवृत्ति के उद्देश्य से आठ अभ्यासों यथा- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि जैसे श्रेष्ठ साधनों का प्रतिपादन किया गया है। योग का उच्चतम् आध्यात्मिक लक्ष्य दुःख-निवृत्ति हेतु कैवल्य है। इसके लिए महर्षि पतंजलि ने चित्तवृत्तिनिरोध, क्लेश निवारण, विभूति एवं सिद्धि-प्राप्ति तथा समाधि व कैवल्य आदि को प्रमुख रूप योग-सिद्धान्तों के रूप में निर्देशित किया है। समाधि एवं कैवल्य तो योग के आध्यात्मिक पक्ष हैं, किन्तु व्यावहारिक दृष्टिकोण से चित्तवृत्तिनिरोध अत्यंत प्रासंगिक है। साथ ही मनश्चिकित्साके दृष्टिकोण से तो यह आधुनिक काल में और भी अधिक प्रासंगिक हो जाता है। चित्तवृत्तिनिरोध ही योग के रूप में परिभाषित किया गया है। चित्तवृत्तिनिरोध एवं क्लेश-निवृत्ति को ही हम योग के मनोवैज्ञानिक व मनश्चिकित्सीय पक्षों के रूप में शास्त्रीय आधारभूत सिद्धान्त कह सकते हैं। इन्हें अग्रांकित विवेचन द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।


योग द्वारा मनश्चिकित्साके शास्त्रीय आधार

चित्तवृत्तिनिरोध एवं क्लेश-निवृत्ति

पातंजलयोगसूत्र में योग के वृहत्तर लक्ष्य का उल्लेख करते हुए महर्षि पतंजलि लिखते हैं, ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः।”9 चित्त की वृत्तियों के पूर्णतः नियंत्रण या निरोध को ही योग के रूप में परिभाषित किया गया है। अतः साधन स्वरूप महर्षि ने जिन आठ अभ्यासों को योग के लिए बताया है वे सभी चित्त की वृत्तियों का पूर्णतः निरोध करने हेतु ही बताये गये हैं। चित्त की वृत्तियों के निरोध के फलस्वरूप द्रष्टा अपने विशुद्ध चैतन्य स्वरूप में अवस्थित होकर समस्त दुःखों से निवृत्त होकर कैवल्यावस्था को प्राप्त करता है। इस प्रकार समस्त योगाभ्यास प्रक्रिया इन वृत्तियों के नियंत्रण से ही योग के लक्ष्य की ओर अग्रसर होती है। चित्तवृत्तिनिरोध हेतु उपाय बताते हुए महर्षि पतंजलि लिखते हैं, ‘‘अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।”10 अर्थात् अष्टांग योग के अभ्यास तथा वैराग्य के द्वारा उन चित्तवृत्तियों का निरोध करना चाहिए। अभ्यास के अन्तर्गत यम से लेकर समाधि तक के आठों साधनों का समावेश है; जिनमें से प्रत्याहार अत्यंत महत्त्वपूर्ण साधन है। इसके पश्चात् यदि वैराग्य की बात की जाय तो यह भी प्रत्याहार के अभाव में असम्भव है। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए महर्षि पतंजलि लिखते हैं, ‘‘दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्।”11 अभिप्राय यह है कि अन्तःकरण एवं इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष अनुभवों में आने वाले समस्त भोग दृष्ट के अन्तर्गत हैं। अनुश्रविक विषय वे हैं जिनके भोगों के सम्बन्ध में वेदों, शास्त्रों आदि में वर्णन है व हम उन्हें भोगना चाहते हैं। इस प्रकार जब दोनों ही प्रकार के विषयों से चित्त तृष्णारहित हो जाय व भोगों से विराग हो जाय; तो वैराग्य नामक वशीकार संज्ञा होती है। इस प्रकार इन्द्रियों को भोगों से विरक्त करना अभ्यास तथा वैराग्य दोनों ही दृष्टिकोणों से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाता है; जो प्रत्याहार के अभाव में हो ही नहीं सकता। प्रत्याहार का इस दृष्टिकोण से महŸव हम आगे विवेचित करेंगे; उससे पूर्व हमें योग के दूसरे प्रमुख मनश्चिकित्सीय आधार क्लेश-निवृत्ति को संक्षेप में समझ लेना चाहिए। चित्तवृत्तिनिरोध के पश्चात् क्लेशों की निवृत्ति योग का दूसरा प्रमुख व्यावहारिक लक्ष्य है, इसलिए अब हम इसके सम्बन्ध में कुछ तथ्यों को स्पष्ट करेंगे।

चित्त की वृत्तियों का वर्गीकरण करते हुए महर्षि पतंजलि लिखते हैं, ‘‘वृत्तयः पंचतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।”12 अर्थात् वृत्तियों के दो मुख्य प्रकार क्लेशदायक व अक्लेशदायक हैं। इन दोनों ही प्रकार की वृत्तियों में से प्रत्येक के पांच भेद हैं। अक्लेशदायक वृत्तियाँ क्लेशदायक वृत्तियों का क्षय करने में सहायक हैं इसलिए ये कुछ सीमा तक योगसाधना में सहायक हैं, किन्तु उसके उपरान्त इन्हें भी त्यागना आवश्यक है। साधक को चाहिए कि पहले अक्लेशदायक वृत्तियों से क्लेशदायक वृत्तियों को समाप्त करे तथा उसके पश्चात् अक्लेशदायक वृत्तियों का भी निरोध करे। क्लेशदायक वृत्तियों को ही मूल रूप से दुःख के कारणस्वरूप योगसूत्र में उल्लेखित किया गया है। क्लेशदायक वृत्तियों का उल्लेख करते हुए महर्षि पतंजलि लिखते हैं, ‘‘अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः।”13 अर्थात् अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष व अभिनिवेश ये पांचों क्लेशदायक वृत्तियाँ हैं। अविद्या का अर्थ है- अनित्य, अपवित्र, दुःख व अनात्म को क्रमशः नित्य, पवित्र, सुख व आत्म समझना। अस्मिता का अर्थ है दृक् शक्ति व दर्शन शक्ति को एक ही समझना। राग का अर्थ है- सुख-साधनों से प्रेम करना। द्वेष का अर्थ है दुःख के कारणों से घृणा करना। अभिनिवेश का अर्थ है- मृत्यु का भय। ये पांचों क्लेशदायक वृत्तियाँ हैं। यद्यपि साधक को क्लेशों से निवृत्त करके कैवल्यावस्था तक पहुंचाना योग का आध्यात्मिक लक्ष्य है; तथापि क्लेश-निवृत्ति व्यावहारिक दृष्टि से भी व्यक्ति को मानसिक शान्ति व सुख की ओर अग्रसर करती है। मनश्चिकित्सीय दृष्टि से यही सिद्धान्त मनोरोगों के मूल को समझते हुए उनके निवारण के प्रयास को सही दिशा देता है।


मनोवैज्ञानिक दृष्टि से योगदर्शन में अविद्या को समस्त क्लेशों का मूल कारण माना गया है। महर्षि पतंजलि का मानना है कि प्रतिप्रसव के द्वारा अविद्यासहित अन्य क्लेशों को भी सूक्ष्म किया जाना चाहिए। इसके लिए वे ध्यान का महत्त्व बताते हुए लिखते हैं, ‘‘ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः।”14 अर्थात् ध्यान के द्वारा इन वृत्तियों का नाश करना चाहिए। ध्यान प्रत्याहार का अग्रिम चरण है। यदि प्रत्याहार के द्वारा बाहर से आने वाली इन्द्रिय संवेदनाओं से तटस्थता नहीं हो सकेगी, तो ध्यान का अभ्यास भी सम्भव नहीं। इस तथ्य का हम यहाँ संक्षेप में उल्लेख कर रहे है; आगे के अध्यायों में हम इसका विस्तृत विवेचन करेंगे।


साररूप में यहाँ इतना मात्र समझ लेना चाहिए कि क्लेशों को सूक्ष्म करते हुए निवृत्ति हेतु प्रत्याहार योग का अत्यंत महत्त्वपूर्ण अभ्यास है। जैसा कि हम पूर्व में ही उल्लेख कर चुके हैं कि मनोरोगों यथा- तनाव एवं अवसाद आदि के मूल में अतृप्त इच्छाएँ होती हैं। प्रत्याहार के अन्तर्गत किये जाने वाले योगनिद्रा, योनिमुद्रा, भावातीत ध्यान तथा त्राटक कर्म जैसे अभ्यास व्यक्ति को मानसिक दृष्टि से अंतर्वीक्षण एवं यथार्थ बोध का अवसर प्रदान करते हैं। अंतर्वीक्षण के माध्यम से नकारात्मक विचारों की तिलांजलि हो जाती है। व्यक्ति में एक अनोखी अंतर्ज्ञानात्मक प्रवृत्ति प्रस्फुटित होती है। यह अंतर्ज्ञान दो प्रकार से प्रभावी है; एक तो अपनी इच्छाओं के प्रति यथार्थता की अनुभूति से इच्छा नियन्त्रण करने में यह उपयोगी है। दूसरे मानवीय सद्गुणों का विकास होने से दूसरे की इच्छाओं का सम्मान करने हेतु अर्न्तदृष्टि विकसित करने में यह उपयोगी है। इस प्रकार तनाव एवं अवसाद निवारण तो इन इन प्रत्याहारीय अभ्यासों का मनश्चिकित्सीय एवं उपचारात्मक पक्ष है। इनका दूसरा पक्ष संवर्धनात्मक या परिष्कारात्मक है जो व्यक्तिगत रूप से उपयोगी होने के साथ ही प्रत्याहार की समकालीन सामाजिक एवं वैश्विक उपयोगिता को प्रकाशित करता है। प्रत्याहार की इन विशेषताओं को समझने हेतु हमें प्रत्याहार की मनश्चिकित्सीय उपयोगिता को विवेचित करना होगा। इसके लिए योगपद्धति में प्रत्याहार के महŸव को समझना आवश्यक है। इसके साथ ही मनुष्य के व्यक्तित्व की योगशास्त्रीय अवधारणा एवं उसमें मन की भूमिका का संक्षिप्त विवेचन भी आवश्यक है। तत्पश्चात् प्रत्याहार की मनश्चिकित्सीय उपयोगिता अधिक स्पष्ट हो सकेगी। वैसे तो हम इसे आगे के अध्यायों में विस्तृत रूप से विवेचित करेंगे, किन्तु भूमिका के अन्तर्गत हम इसका संक्षिप्त विवेचन आवश्यक समझते हैं। इस दृष्टिकोण से अब हम क्रमशः इन्हीं बिन्दुओं को व्याख्यायित करेंगे।


योग एवं मनश्चिकित्सा के दृष्टिकोण से प्रत्याहार का महत्त्व

योग प्रणाली के बहिरंग साधनों (यम, नियम, आसन, प्राणायाम व प्रत्याहार) तथा अंतरंग साधनों (धारणा, ध्यान व समाधि) जैसे योगाभ्यासों में से प्रत्याहार अल्प-विख्यात किंतु सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण श्रृंखला है। यद्यपि पातंजलयोगसूत्र ने धारणा, ध्यान व समाधि की तुलना में पूर्व के पांचों अभ्यासों को बहिरंग कहा है; किन्तु यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि लक्ष्य एवं प्रक्रिया के दृष्टिकोण से यह पूर्णतः बहिरंग भी नहीं कहा जा सकता व अंतरंग भी नहीं। इस दृष्टिकोण से प्रत्याहार बहिरंग व अंतरंग साधनों के मध्य सेतु का कार्य करता है। यह बाह्य विषयों से विमुख करते हुए साधक को धारणा जैसे अंतरंग साधन में स्थायित्व हेतु पात्रता प्रदान करता है। इसलिए यह बहिरंग एवं अंतरंग योगसाधनों के मध्य एक श्रृंखला का कार्य करता है। साधक को बहिर्मुखता से अर्न्तमुखता की ओर प्रवृत्त करने की उत्कृष्ट तकनीकि के रूप में प्रत्याहार योगसाधना का केन्द्रबिन्दु सिद्ध होता है।

प्रक्रियात्मक एवं लक्ष्यात्मक दोनों ही दृष्टिकोणों से अन्तर्मुखता में चिरस्थायित्व ही योगसाधना का सर्वाधिक महत्त्पपूर्ण एवं आवश्यक मनश्चिकित्सीय अभ्यास है; क्योंकि इसके अभाव में न तो योग के समाधि व कैवल्य आदि आध्यात्मिक निहितार्थों की कल्पना की जा सकती है ना ही तनाव-अवसाद आदि के निवारण जैसे व्यावहारिक निहितार्थों की प्राप्ति सम्भव है। इस दृष्टि से योग लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु प्रत्याहार केन्द्रीय अभ्यास है। योग के समस्त चरणों का समान रूप से एवं अपेक्षित प्रचार-प्रसार न हो पाना या एकपक्षीय प्रचार ही हो पाना इस दिशा में निराशाजनक पक्ष है। अब तक अधिकांशतः प्रचार-प्रसार योग के आसन, प्राणायाम एवं ध्यान जैसे साधनों का ही हुआ; जबकि मनश्चिकित्सीय दृष्टिकोण से योग के प्रत्याहार जैसे उत्कृष्ट मनश्चिकित्सीय अभ्यास का यथोचित विवेचन एवं प्रचार-प्रसार नहीं हो पाया। योग के अपेक्षित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रत्याहार को पूर्ण रूप से जानना एवं समझना आवश्यक है। इस दृष्टिकोण से सर्वप्रथम प्रत्याहार का अर्थ एवं योगसाधना में अंतरंगता की नींव सुदृढ़ करने वाले इस अभ्यास का महŸव जानना अपेक्षित है। इसलिए प्रत्याहार के शाब्दिक अर्थ को विवेचित करते हुए हम इसके महत्त्व का संक्षेप में विवेचित करेंगे।

प्रत्याहार का अर्थ-15

प्रति व आहार दो पदों से मिलकर बने प्रत्याहार शब्द में प्रति का अर्थ विपरीत है तथा आहार के दो अर्थ हैं पहला संज्ञात्मक है व दूसरा क्रियात्मक। संज्ञात्मक रूप से इसका तात्पर्य उन विषयों से है जिनमें पांचों ज्ञानेन्द्रियाँ स्वाभाविक रूप से संलग्न रहती हैं। आंख, जिह्वा, नाक, कान व त्वचा इन्द्रियाँ क्रमशः रूप, रस, गन्ध, शब्द एवं स्पर्श जैसे पांच विषयों से निरन्तर संलग्न रहती हैं। क्रियात्मक रूप से आहार का तात्पर्य है- आहरण, पीछे मोड़ना, खींचना, वापस लाना। उल्लेखनीय है कि इन्द्रियों का स्वभाव ही बहिर्मुखी है, जो योगमार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। इन इन्द्रियों को इनके विषयों से आहरित करके अंतर्मुखी करने का अभ्यास प्रत्याहार कहलाता है। प्रत्याहार के मनश्चिकित्सीय प्रभावों के यथोचित विवेचन हेतु योगसाधना के केन्द्रीय बिन्दु के रूप में इसका महŸव जानना आवश्यक है। अब हम इसी पर अपना ध्यान एकाग्र करेंगे।

योग-साधना में प्रत्याहार का महत्त्व-16

साधक को बहिर्मुखता से अर्न्तमुखता की ओर अग्रसर करना ही प्रत्याहार का आध्यात्मिक लक्ष्य है। साधना में अन्तर्मुखी होने हेतु इन्द्रियों का विषयों से अलगाव सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। जब तक साधक बाह्य विषयों व भौतिक लिप्साओं में भटकता रहेगा; उसका योग के अभ्यास एवं लक्ष्यों में सफलता प्राप्ति असंभव है। साथ ही तुलनात्मक दृष्टि से अधिक प्रसिद्ध बहिरंग योगसाधनों यथा- आसन व प्राणायाम का अभ्यास करने मात्र से योग के वृहत् लक्ष्यों का प्राप्त होना संभव ही नहीं है। योग के विभिन्न मनश्चिकित्सीय प्रभावांे के दृष्टिकोण से भी मात्र अन्य बहिरंग साधनों का अभ्यास व्यक्ति को वांछित परिणाम देने में अक्षम होगा।

प्रत्याहार के अभ्यास के बिना योगाभ्यास में अंतरंग साधनों का अभ्यास असम्भव है। महर्षि पतंजलि ने योग के आठ अभ्यासों की शृंखला का उल्लेख करते हुए इसे इस प्रकार स्पष्ट किया है- ‘यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमधयोऽष्टावगांनि।।”17 अर्थात् यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि योग के आठ अंग (अभ्यास) हैं। हम पूर्व में ही स्पष्ट कर चुके हैं कि यम से प्रत्याहार तक बहिरंग योग एवं धारणा से समाधि तक अंतरंग योग कहा जाता है। बहिरंग साधनों में प्रत्याहार अन्तिम अभ्यास है।

सूत्रात्मकता व शब्दावली के दृष्टिकोण से महर्षि पतंजलि द्वारा स्पष्ट किये गये एक अन्य तथ्य को स्पष्ट करना यहाँ अनिवार्य हैं ‘‘त्रयमन्तरंग पूर्वेभ्यः।”18 अर्थात् धारणा, ध्यान व समाधि तीनों ही पूर्व के अभ्यासों की अपेक्षा अंतरंग हैं। यद्यपि महर्षि पतंजलि ने अन्तिम तीन अभ्यासों को अंतरंग कहा है किन्तु आगे वे स्पष्ट करते हैं ‘‘तदपि बहिरंग निर्बीजस्य।”19 अर्थात् अंतरंगता के स्तरों के दृष्टिकोण से अंतरंग होते हुए भी ये तीनांे साधन निर्बीज समाधि की तुलना में बहिरंग ही हैं। ‘‘इस प्रकार अंतरंगता के परिप्रेक्ष्य में ‘‘अपेक्षया‘‘ शब्द अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो जाता है। अंतरंगता के स्तर को ध्यान में रखते हुए यह भी कहा जा सकता है कि योगाभ्यासों को करते हुए अंतरंगता में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है। इस प्रकार अंतरंगता के स्तरों के दृष्टिकोण से प्रत्याहार पूर्व के चारों अभ्यासों की तुलना में अंतरंग है। अंतरंगता में प्रविष्टि का प्रवेशद्वार होने के कारण‘‘20 एवं इन्द्रियों की विषयों से विमुखीकरण की प्रक्रिया के यहीं से प्रारम्भ होने के कारण अंतरंगता का स्वभाव का यहीं से विकसित होता है; इसलिए यह प्रत्याहार बहिरंगता व अंतरंगता के मध्य एक श्रृंखला के समान है। इस प्रकार प्रत्याहार बहिरंग व अंतरंग साधनों के मध्य का अत्यंत महत्त्वपूर्ण साधन है जो साधक को बहिर्मुखता से अन्तर्मुखता की ओर ले जाता है।

पातंजलयोगसूत्र राजयोग के सैद्धान्तिक पक्ष को प्रस्तुत करता है; किन्तु प्रायोगिकता के अभाव में सिद्धान्तों का कोई औचित्य नहीं। इस ग्रन्थ में निर्देशित अभ्यासों के तकनीकि पक्ष का यथोचित विवेचन हठयोग में किया गया है। हठयोग एवं राजयोग के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध को शिवसंहिता में इस प्रकार रेखांकित किया गया है-

‘‘हठं बिना राजयोगो, राजयोगं बिना हठः।

न सिध्यति ततो युग्मा निष्पत्तेः समभ्यसेत्।

तस्तात् प्रवर्तते योगी हठे सद्गुरू मार्गतः।।”21

उपर्युक्त श्लोक से स्पष्ट होता है कि हठयोग ही राजयोग की अनिवार्यता है। इससे पूर्व ही हम विवेचित कर चुके हैं कि गुरु गोरखनाथ यम के अन्तर्गत प्रत्याहार को ही हठयोग का प्रारम्भिक चरण मानते हैं। यदि राजयोग की नींव हठयोग है और हठयोग का प्रारम्भ प्रत्याहार से हो रहा है तो इस दृष्टिकोण से प्रत्याहार हठयोग एवं राजयोग दोनों के आधार के रूप में प्रतिष्ठापित होता है। अतः कहा जा सकता है कि अभ्यास के दृष्टिकोण से योगसाधना मूल रूप से प्रत्याहार पर ही आधारित है।

उल्लेखनीय है कि राजयोग की जिस प्रणाली का तकनीकि व प्रायोगिक पक्ष हठयोग के माध्यम से ही अभ्यास के लिए सुलभ है उसमें हठयोग के विविध आचार्यों द्वारा भी प्रत्याहार को सम्पूर्ण योग साधना में सर्वाधिक आवश्यक माना है। सिद्ध हठयोगी गुरू गोरक्षनाथ के अनुसार भी योग के उपरोक्त आठ चरण ही माने गये हैं। वे भी योग को यम से ही प्रारम्भ करते हैं, किंतु वे यम को कुछ इस प्रकार बताते हैं, ‘‘यम इति उपशमः, सर्वेन्द्रिय जयः, आहार-निद्रा-शीत-वाता-तपजयश्च। एवं शनैः शनैः साधयेत्।”22 अर्थात् यम उपशम है; इसके अन्तर्गत सभी इन्द्रियों को वश में करके शान्त करना आवश्यक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में साधक को शनैः शनैः अपनी समग्र इन्द्रियों को यथाक्रम उनके विषयों से दूर हटाते हुए आत्मचिंतन में लगाना चाहिए। इन्द्रियों को अपने वश में कर आहार, निद्रा, शीत, वात व आतप आदि द्वन्द्वों (दुःखयुगलों) को नियन्त्रित करना चाहिए। स्पष्ट है कि हठयोग के दृष्टिकोण से साधना का प्रारम्भ ही उपयुक्त आहार-विहार करते हुए अपनी इन्द्रियों को नियन्त्रित करने से होता है। उपर्युक्त विवेचन से योगदर्शन में प्रत्याहार के महत्त्व के स्पष्ट होने के उपरान्त स्वाभाविक रूप से इसके लक्षण एवं लक्ष्य को जानने की जिज्ञासा होती है।


मनश्चिकित्साके दृष्टिकोण से प्रत्याहार के लक्षण एवं लक्ष्य-

पातंजलयोगसूत्र में प्रत्याहार की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए लिखा गया है, ‘‘स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः।”23 अर्थात् प्राणायाम का अभ्यास करते-करते मन और इन्द्रियों का शुद्धिकरण हो जाता है। तत्पश्चात् इन्द्रियों की बाह्यवृत्ति को सब ओर से समेटकर मन में विलीन करने के अभ्यास को प्रत्याहार कहते हैं। साधनाकाल में साधक द्वारा बाह्य विषयों का पूर्णरूपेण त्याग एवं चित्त का अपने ध्येय में विलीन सा हो जाना ही प्रत्याहार सिद्ध हो जाने की पहचान है। अतः इन्द्रियों के बाह्य विषयों से पूर्णतः विमुख हो जाना ही प्रत्याहार कहलाता है। प्रत्याहार के लक्षणों का उल्लेख करते हुए गुरू गोरक्षनाथ लिखते हैं, ‘‘प्रत्याहार इति चैतन्यतुरअंगाणां प्रत्याहरणम्। विकारग्रसने उत्पन्नविकारस्यापि निवृत्तिर्भवतीति प्रत्याहारलक्षणम्।”24 अर्थात् चैतन्य की वाहक आत्मा के इन्द्रियादि अश्वों के रूप, रस, शब्द, गन्ध व स्पर्श आदि विषयों से प्रत्याहरण (लौटाना)। उन इन्द्रियों के विकारग्रस्त होने से उत्पन्न विकारों की समाप्ति होना ही प्रत्याहार है।

जब तक साधक का चित्त बाह्य विषयों में संलग्न रहेगा तब तक वह अंतरंगता में प्रविष्ट नहीं कर सकता तथा ऐसा न हो सकने पर योग के कैवल्य जैसे आध्यात्मिक एवं मानसिक स्वस्थता जैसे व्यावहारिक निहितार्थों का प्राप्त होना सम्भव ही नहीं है। इन दोनों ही दृष्टिकोणों से बाह्य विषयों से विमुखीकरण जैसे प्रत्याहार के लक्षणों को अनिवार्य रूप से विकसित करना योगसाधना में आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है। अब प्रश्न उठता है कि प्रत्याहार को करने से योगसाधना में किस लक्ष्य की प्राप्ति होती है। इसका समाधान महर्षि पतंजलि ने पातंजलयोगसूत्र में इस प्रकार किया है। पातंजलयोगसूत्र में प्रत्याहार के लक्ष्य को इस प्रकार उल्लेखित किया गया है, ‘‘ततः परमावश्यतेन्द्रियाणाम्।”25 अर्थात् प्रत्याहार सिद्ध हो जाने पर योगी की इन्द्रियाँ उसके सर्वथा वश में हो जाती हैं; उनकी स्वतन्त्रता का सर्वथा अभाव हो जाता है। प्रत्याहार की सिद्धि हो जाने के बाद इन्द्रिय विजय के लिए अन्य किसी भी साधन की आवश्यकता नहीं रहती है।

लक्षण एवं लक्ष्य दोनों ही दृष्टिकोणों से प्रत्याहार योग साधना की आध्यात्मिक यात्रा का महŸवपूर्ण चरण सिद्ध होता है। योग के आध्यात्मिक लक्ष्यों के साथ ही मानसिक स्वस्थता जैसे व्यावहारिक लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु भी प्रत्याहार अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। आधुनिक मनश्चिकित्सामें जो यथोचित ज्ञान द्वारा व्यवहार परिवर्तन चिकित्सा अपनायी जा रही है; उसमें भी उचित व अनुचित इच्छाओं के चयन एवं तटस्थता की जो प्रक्रिया अपनायी जाती है; वह प्रत्याहार के लक्षणों एवं लक्ष्यों से मेल खाती है। यह भी कहा जा सकता है कि तकनीकि दृष्टिकोण से यथोचित ज्ञान एवं वातावरण से अनुकूलन की जो तकनीकि आधुनिक मनश्चिकित्सामें मानसिक स्वस्थता हेतु प्रयोग की जा रही है वह प्रत्याहार की तकनीक से ही अभिप्रेरित है। आधुनिक मनश्चिकित्सामें अपनायी जा रही शारीरिक एवं मानसिक शिथिलीकरण, मानसिक नियन्त्रण, ध्यान एवं मन की पीड़ा से विकेन्द्रीकरण की जो भी तकनीकियाँ पाश्चात्य देशों द्वारा अपनायी गयी हैं; कहना अतिशयोक्ति नहीं कि उनमें से कुछ तकनीकियाँ योग की प्रत्याहार तकनीकि से ही अभिप्रेरित हैं। स्पष्ट करना अनिवार्य है कि प्रत्याहार के अन्तर्गत योगनिद्रा आदि तकनीकियाँ शिथिलीकरण के द्वारा मानसिक उद्वेगों की विश्रान्ति हेतु प्रयोग में लायी जाती हैं। इस तथ्य का समर्थन डेविड सी0 रिम्म एवं जॉन सी0 मास्टर्स जैसे मनश्चिकित्सीय क्षेत्र के पाश्चात्य विद्वान भी इस प्रकार करते हैं, ‘‘यह सत्य है कि मानव जाति आदिम युग से ही औषधीय व अनौषधीय ढंगों से विश्रांति एवं शिथिलीकरण के उपायों की खोज करती रही है। कुछ अभ्यास जो शिथिलीकरण या विश्रांति के लिए अत्यंत प्रभावी हैं उनका पूर्वी देशों के धर्मों/दर्शनों (उदाहण के लिए योग एवं ध्यान आदि की विधियाँ) में सदियों से उपयोग किया जाता रहा है।..............व्यवहार परिवर्तन चिकित्सा के चिकित्सकों ने हमेशा से ही परिशोधित एवं परिष्कृत नई शिथिलीकरण तकनीकियों के अनुसंधानों द्वारा मनश्चिकित्सामें समग्र भूमिका का निर्वहन किया है।”26 इस प्रकार व्यवहार परिवर्तन मनश्चिकित्साकी शिथिलीकरण एवं विश्रांति तकनीकियाँ प्रत्याहार की योगनिद्रा आदि तकनीकियों से प्रेरित है। दोनों में पर्याप्त साम्यताएँ हैं। प्रत्याहार एवं व्यवहार परिर्वन आदि मनश्चिकित्सीय विधियों में अन्तर मात्र यह है कि प्रत्याहार को बचाव व चिकित्सा दोनों ही दृष्टिकोणों से अपना सकते हैं; किन्तु मनश्चिकित्साको मात्र चिकित्सा के दृष्टिकोण से ही अपनाते हैं। प्रत्याहार की तकनीकियों का यदि मनोरोगों से पूर्व भी अभ्यास किया जाता रहे तो मनोरोगों के अवसर अत्यंत अल्प हो जाते हैं। भौतिक इन्द्रिय-विषयों/इच्छाओं के सम्बन्ध में स्पष्ट चिंतन प्रक्रिया के विकसित होने के फलस्वरूप व्यक्ति मानसिक रूप से स्वस्थ ही होगा। यह भी उल्लेखनीय है कि प्रत्याहार की तकनीकियाँ एक बार योग गुरु से सीखकर तत्पश्चात् स्वयं ही की जा सकती हैं; किन्तु मनश्चिकित्सामें मनश्चिकित्सक पर निर्भरता निरन्तर बनी रहती है। साथ ही मनश्चिकित्सामें नितान्त वैयक्तिक मानसिक समस्याओं के सार्वजनिक होने का भय हमेशा बना रहता है; जबकि योगाभ्यास के अन्तर्गत प्रत्याहार की तकनीकियों के अभ्यास में ऐसा कोई भय नहीं रहता। इस प्रकार से देखा जाय तो प्रत्याहार तब भी मनश्चिकित्साके सन्दर्भों में अत्यंत उपयोगी है। इसका व्यवस्थित व विस्तृत विवेचन हम अपने इस ग्रन्थ में करेंगे। भूमिका के अन्तर्गत अब हम संक्षेप में योग में व्यक्तित्व की अवधारणा एवं प्रत्याहार की मनश्चिकित्सीय उपयोगिता को स्पष्ट करेंगे।

योग में व्यक्तित्व की अवधारणा एवं प्रत्याहार की मनश्चिकित्सीय उपयोगिता

योगदर्शन सांख्यदर्शन की तŸवमीमांसा को ही आधार मानकर व्यक्तित्व की अवधारणा को प्रस्तुत करता है। साथ ही यह व्यक्तित्व को संतुलित करते हुए दुःखनिवृŸिा के प्रायोगिक स्वरूप को विस्तृत रूप से विवेचित करता है। योगदर्शन के अनुसार व्यक्तित्व की अवधारणा को हम आगे के अध्यायों में विस्तार से विवेचित करेंगें, किन्तु प्रत्याहार के मनश्चिकित्सीय उपयोगिता के विवेचन हेतु सांख्यदर्शन की तत्त्वमीमांसा27 को समझते हुए व्यक्तित्व परिकल्पना एवं उसमें मन की स्थिति को यहाँ संक्षेप में जानना अपेक्षित है। इसे हम निम्न चार्ट के माध्यम से स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं।

प्रकृति + पुरुष=महत्=अहंकार 1- सत्त्व गुण- पंच ज्ञानेन्द्रिय (आंख, नाक, कान, जीभ व त्वचा) पंच कर्मेन्द्रिय (हाथ, पैर, मुंह, गुदा, जननेन्द्रिय तथा एक मन)

2-रज गुण

3-तम गुण- पंच तन्तात्र (रूप, रस, गन्ध, शब्द व स्पर्श), पंच महाभूत(अग्नि, जल, पृथ्वी, नभ व वायु)

मनुष्य के व्यक्तित्व को सूत्ररूप में इस प्रकार समझा जा सकता है। व्यक्तित्व में प्रथम तत्त्व विशुद्ध चेतन स्वरूप आत्मा है; जिसे सांख्य-योग में पुरुष विशुद्ध चेतन तत्त्व- आत्मा, निष्क्रिय, द्रष्टा, निर्विकार, नित्य व इन्द्रियातीत कहा गया है। प्रकृति द्वितीय प्रमुख तत्त्व है; जो जड़, दृश्य, अनित्य, अचेतन, त्रिगुणात्मिका व क्रियाशील है। यों तो ये दोनों ही तत्त्व विपरीत गुणों से युक्त हैं, किन्तु सृष्टि के प्रारम्भ होने के उद्देश्य से जब ये एक दूसरे के सम्पर्क में आते हैं तो सर्ग प्रारम्भ होता है। इन दोनों के संयोग से महत् (बुद्धि) नामक तत्त्व व उससे तीन अहंकार सत्त्व, रज व तम उत्पन्न होते है। सत्त्व अहंकार से प्रथमतः पंच ज्ञानेन्द्रिय- आँख, नाक, कान, जीभ व त्वचा तथा द्वितीयतः पंच कर्मेन्द्रिय का अविर्भाव होता है। तम अहंकार से प्रथमतः पंच तन्मात्राओं- रूप, रस, गन्ध, शब्द, व स्पर्श तथा द्वितीयतः पंच महाभूत- अग्नि, जल, पृथ्वी, आकाश, वायु का अविर्भाव होता है। इस प्रकार ये जब प्रकृति व पुरूष दोंनों संयुक्त हो जाते हैं तो पुरूष शरीर धारण करके अविवेकग्रस्त होकर प्रकृतिसंयोग स्वरूप उत्पन्न शरीर व सम्पूर्ण प्रकृति विकारों को अपना स्वरूप मान लेता है। इस प्रकार कारण रूप प्रकृति कार्य रूप में परिणत हो जाती है, इससे ही सृष्टि रूप देखने को मिलता है। प्रकृति से पुरुष के संयोग के दो कारण हैं- एक तो विवेकज्ञान द्वारा कैवल्यार्थ व दूसरा- भोगार्थ। यदि शरीर को भोगार्थ ही प्रयोग किया जाता है तो त्रिदुःखों से जीव संतप्त रहता है।

व्यक्तित्व में मन, बुद्धि एवं अहंकार को संयुक्त रूप से अन्तःकरण की संज्ञा दी गयी है। मन को चित्त का ही एक करण माना गया है। इस सम्बन्ध में चित्त एवं मन की अवधारणा को स्पष्ट रूप से जानना चाहिए। इसलिए यहाँ पर चित्त का तात्पर्य एवं मन के उससे सम्बन्ध का ज्ञान आवश्यक है। यहाँ पर हम इसका संक्षिप्त विवेचन करेंगे।

चित्त शब्द संस्कृत की चित् धातु से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ चेतना है, यह प्रकृति से पुरुष के संयोग के पश्चात् उत्पन्न होता है, पुरुष की चैतन्य गुण से यही युक्त है। ‘‘सांख्य जिसे महत् कहता है, योग उसे ही चित्त कहता है। इसके अन्तर्गत बुद्धि, आत्मचैतन्य तथा मन भी सम्मिलित हैं। तात्त्विकरूप में यह अचेतन है, यद्यपि यह निकट-स्थित आत्मा के प्रतिबिम्ब से सचेतन हो जाता है। जब यह इन्द्रियों द्वारा प्रमेय पदार्थों से प्रभावित होता है तो परिवर्तनों में आ जाता है। इसके अन्दर प्रतिबिम्बित पुरुषों के चैतन्य से ऐसा आभास होने लगता है कि यही अनुभव का कर्त्ता है। यथार्थ में चित्त दृश्य है जिसके प्रतिबिम्ब के कारण आत्मा द्रष्टा है। पुरुष के मनुष्यदेह धारण करने पर यह अपेक्षाकृत प्रसारित प्रतीत होता है। इस प्रकार का सुकुचित अथवा प्रसारित चित्त कार्यचित्त है, जो चैतन्य की दशाओं में अपने को व्यक्त करता है।”28 चित्त संसार में शुद्धचैतन्यस्वरूप पुरुष की अभिव्यक्ति का माध्यम है। चेतन पुरुष के सम्मिलन से ही अचेतन चित्त चैतन्ययुक्त प्रतीत होता है। जीव के चैतन्य प्रतीत होने का कारण यही है। इसी में प्रकृति के विकारों के प्रतिबिम्ब को अपना स्वरूप समझने से बन्धन होता है। ‘‘जब पुरुष सम्यक् ज्ञान द्वारा चित्त में अपने प्रतिबिम्ब से अपना तादात्म्य हटा लेता है और चित्त को प्रकृतिजन्य अचेतन एवं अपने से सर्वथा विपरीत जान लेता है, तब पुरुष-चैतन्य का प्रकाश चित्त से हट जाता है। उस दशा में चित्तवृत्तियों का आत्यन्तिक निरोध हो जाता है।”29 यह निरोध ही योगदर्शन के अभ्यासों का आध्यात्मिक परमलक्ष्य है तथा समस्त व्यावहारिक लाभ यथा मानसिक स्वस्थता को यह साथ लेकर चलता है। इस हेतु ही योगदर्शन यम से लेकर समाधि तक को निर्देशित करता है।

इस प्रकार योगदर्शन में सांख्यसम्मत मन, बुद्धि व अहंकार को ही सम्मिलित रूप से चित्त की संज्ञा दी जाती है। वास्तव में मन ही जीवात्मा के व्यक्तित्व में चैतन्य का संचार करता है। मन सत्त्व अहंकार से उत्पन्न होने वाला उभयेन्द्रिय है तथा ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों को उनके कार्यों में भी यही प्रवृत्त करता है। आचार्य चरक मन का तात्पर्य स्पष्ट करते हुए लिखते हैं, ‘‘चिमन्यते बुध्यते अनेन इति मनः। अर्थात् जिसके द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है वह मन है। मन् ज्ञाने धातु से मन शब्द निष्पन्न हुआ है। मन् धातु में असुन् प्रत्यय द्वारा मन या मनस् शब्द निर्मित होता है। इससे स्पष्ट है कि ज्ञान या बोधन क्रिया के लिए प्रयुक्त होने वाली धातु मन् से मन शब्द निर्मित हुआ है। मन की यह निरुक्ति उसके एकान्तिक कार्य ज्ञानोपलब्धि को रेखांकित करती है।”30 मन को विस्तार से समझाते हुए आचार्य चरक ने स्पष्ट किया है, ‘‘अतीन्द्रियं पुनर्मनः सत्त्वसंज्ञकं चेत इत्याहुरेके।”31 इस प्रकार आचार्य चरक द्वारा अतीन्द्रिय, मन, सत्त्व, चेत आदि शब्द पर्याय रूप में बताये हैं। चरक शारीरस्थान में वर्णन मिलता है कि, ‘‘मन निश्चय शरीरान्तर के साथ सम्बन्ध करने वाला है अर्थात् जीव के शरीरन्तर ग्रहण में मन ही साधकतम् है; जो जीवात्मा के साथ नित्य रहते हुए शरीर के साथ सम्बन्ध कराता है; जो इन्द्रियों को विषयांे की ओर प्रेरित करने वाला मन है वह मन ही शरीरान्तर से जीवात्मा का सम्बन्ध कराता है।”32

सामान्य अवस्था में मन समस्त सुखयुक्त विषयों के पीछे भागता है व दुःखयुक्त विषयों से पीछे हटता है। यह सुख व दुःख वह इन्द्रियों के विषयों से संलिप्तता के कारण करता है। इसी के कारण समग्र चित्त विषयाकार होता हुआ पुरुष पर प्रकृति के त्रिगुणों का आत्मारोपण करके बन्धनयुक्त हो जाता है। चित्त से ही वृत्तियों का व्यापार चलता है। वृत्तियाँ विषयों से सम्बद्ध होकर उनका आकार ग्रहण कर लेती है। इस प्रकार चित्त इस तादात्म्य के कारण ही सुखदायी विषयों से सुखी व दुःखदायी विषयों से दुःखी होकर विचलित व उद्वेलित होता रहता है। ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से चित्त जब बाहरी विषयांे के सम्पर्क में आता है अथवा स्वयं मानसिक विषयों के सम्पर्क में आता है, तब यह विषय का आकार ग्रहण कर लेता है। चित्त की इसी आकृति को वृत्ति कहते हैं। जब पुरुष चैतन्य के प्रकाश से यह चित्तवृत्ति प्रकाशित होती है, तब हमें उस उपस्थित विषय का ज्ञान होता है। ऐसी अनित्य वृत्तियांे का प्रवाह अनवरत चलता रहता है। ये वृत्तियाँ क्षीण होकर चित्त में अपने संस्कारों का स्थापन करती हैं ये संस्कार परिपक्व होकर भी पुनः अन्य वृत्तियों का रूप धारण कर लेते हैं। इस प्रकार वृत्तियों से संस्कारों की और संस्कारों से वृत्तियाँ की उत्पत्ति का चक्र अनवरत चलता रहता है।33

चित्त के अभिन्न अंग- मन के माध्यम से ही इन्द्रियों का विषयों से सम्पर्क व बाह्य संवेदनात्मक व्यापार चलता रहता है। यह व्यापार ही वृत्ति रूप में चित्त में प्रतिबिम्बित होकर विपर्यय का कारण बनता है। व्यक्तित्व में मानसिक सुख-दुःख की अनुभूति में मन के स्थान को और भी अधिक स्पष्ट करते हुए आचार्य चरक लिखते हैं, ‘‘सुखाद्युपलब्धिसाध्नमिन्द्रियं मनः। अर्थात् सुख-दुःख आदि की उपलब्धि का साधनभूत तत्त्व है - मन। दूसरे शब्दों में मन वह इन्द्रिय है जिससे सुख, दुःख आदि की प्रतीति मन द्वारा ही होती है, और जो सुख, दुःख आदि की उपलब्धि का साधन है वह मन है। आचार्य चरक ने सुख, दुःख की बात न कर सम्पूर्ण ज्ञान की उपलब्धि का साधन मन को माना है। ज्ञानोत्पत्ति प्रक्रिया के सम्पूर्ण साधन आत्मा, इन्द्रिय, अर्थ आदि की विद्यमानता रहते हुए भी मन का संयोग नहीं होने पर ज्ञान नहीं होता है और संयोग होने पर ज्ञान होता है। वह मन तीन प्रकार का है, शुद्ध या शुद्ध (सत्त्वप्रधान), राजस (रजप्रधान) एवं तामस (तमप्रधान)।”34

यहाँ यह स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है कि योग दर्शन सांख्यदर्शन के ही समान समग्र व्यक्तित्व को त्रिगुणयुक्त मानता है। समस्त मनोस्थितियों का इन त्रिगुणों की ही लीला कहा गया है। ‘‘त्रिगुणों यथा सत्त्व, की सामान्य प्रवृत्तियाँ दया, दान, क्षमा, शील, धर्म, सत्य, आस्तिकता, बुद्धि, मेधा, स्मृति, धृति, अनाशक्ति एवं वचन-पालन हैं। रज की सामान्य प्रवृत्तियाँ- दुःखाधिक्य, भ्रमणशीलता, अधीरता, अहंकार, असत्यभाषण, क्रूरता, दम्भ, मान, हर्ष, काम और क्रोध हैं। तम की सामान्य प्रवृत्तियाँ- मानसिक उद्विग्नता, नास्तिकता, अधर्म की ओर प्रवृत्ति, बुद्धि का विरोध, अज्ञान, मूढता, आलस्य और निष्ठा हैं।”35 गुणों के उपरोक्त स्वभावों को जानने के पश्चात् यह सिद्ध होता है कि रज एवं तम उपाधिसंयुक्त या व्यावहारिक पुरुष को सांसारिक व्यापार में ही संलिप्त रखते हैं। इससे अनन्त दुःखों का उदय होता है। यह एक ऐसी श्रृंखला है जो टूटती ही नहीं। यह श्रृंखला विवेकोत्पत्ति से ही सम्भव है। यह विवेकोत्पत्ति सत्त्वगुण में प्रतिष्ठापित होने के पश्चात् योगसाधना में प्रवृत्त होते हुए ही सम्भव है। चूंकि ‘‘योगसाधन का यह उद्देश्य है कि रजोगुण तथा तमोगुण का दमन करके चित्त को उसके मूल स्वरूप, अर्थात् सर्वव्यापी कारणचित्त में लौटा दे।”36 व्यावहारिक रूप से चित्त का वृत्तियों में निमग्न रहना ही विचलन का कारण है। यह अनेक मानसिक व्याधियों को जन्म देता है।

उपर्युक्त व्यक्तित्व सम्बन्धी विवेचना से यह स्पष्ट होता है कि ‘‘जीव वह आत्मा है जिसे इन्द्रियों के संयोग तथा शरीर द्वारा सीमित होने से पृथक् रूप में पहचाना जाता है। विज्ञानभिक्षु का कहना है कि अहंकारसहित पुरुष जीव है, पुरुष अपने आप में जीव नहीं है। जबकि विशुद्ध आत्मा बुद्धि से परे रहती है, बुद्धि के अन्दर पुरुष का प्रतिबिम्ब अहंभाव के रूप में प्रतीत होता है, जो हमारी सब अवस्थाओं का, जिनमें सुख और दुःख भी सम्मिलित हैं, बोध प्राप्त करने वाला है। जब हम यह नहीं जानते कि आत्मा बुद्धि से परे है और लक्षण तथा ज्ञान में इससे भिन्न है तब बुद्धि को ही आत्मा समझ लेते हैं। प्रत्येक बुद्धि, इन्द्रियों आदि के साथ लिए हुए, अपने पूर्वकर्म के अनुकूल निर्मित एक पृथक् संस्थान है और उसके साथ विशिष्ट रूप से लगी हुई उसकी अपनी अविद्या रहती है।”37 यदि चैतन्य की बात की जाय तो मन ही चित्त के एक अंश के रूप में शरीर में इसका संवाहक है। इस प्रकार स्पष्ट है कि चित्तवृत्तियों का मूल कारण मन का बाह्य व्यापारों में अविद्या के कारण संलिप्तता है।

अविद्या के कारण ही प्रकृति के क्रियाकलापों का बुद्धि पर प्रतिबिम्बित होना तथा इस प्रतिबिम्ब को स्वयं पर आरोपित करने के कारण पुरुष प्रकृतिजन्य विकारों को ही अपना स्वरूप मान लेता है। व्यावहारिक मनुष्य इन विकारों से उत्पन्न दुःखों को अपना दुःख मानने लगता है। यदि इन दुःखों से निवृत्ति की बात की जाय तो यह विवेकज्ञान के द्वारा अविद्या को समाप्त करने के पश्चात् ही सम्भव है। व्यावहारिक मनुष्य में अविद्या या अविवेक से ही समस्त मानसिक विकृतियों का जन्म होता है; जो मनोरोगों का कारण बनते हैं।

योगदर्शन आध्यात्मिक रूप से विवेकज्ञान के द्वारा अविद्यासमाप्ति के फलस्वरूप कैवल्य प्राप्ति को जीवन का परमलक्ष्य मानता है। कैवल्य दुःखनिवृत्ति का ही पर्याय है। कैवल्यावस्था में जीवात्मा पुरुष व प्रकृति का भेद करता हुआ सुख-दुःखों की संवेदनाओं से मुक्तावस्था में पहुंच जाता है। ऐसा नहीं है कि यह कैवल्य मृत्यु के पश्चात् ही सम्भव है। यदि व्यावहारिक रूप से समझा जाय तो यह मनोविकारों से मुक्ति की चिर अवस्था है। यह व्यावहारिक जीवन में विवेकयुक्त बनकर असंतुलित वासनाओं से विरक्त रहते हुए एवं सुख एवं दुःख को मात्र प्रकृतिजन्य शरीर हेतु मानते हुए उनसे तटस्थता से सम्भव है। वास्तव में योगदर्शन इस तटस्थता को ही समस्त मनोरोगों से मुक्ति का हेतु मानता है। आध्यात्मिक लक्ष्य कैवल्य हेतु अभ्यास किये जाने वाले योगसाधनों का व्यावहारिक पक्ष मानसिक विकृतियों को दूर करते हुए साधक को मानसिक रूप से स्वस्थ एवं प्रसन्न बनाना है।

अब यदि योगसाधनों मानसिक विकृतियों को दूर करना है तो योग के ऐसे अंग का अभ्यास आवश्यक हो जाता है जो कि मन को नियन्त्रित एवं अनुशासित करे। यों तो मन के नियन्त्रण की यह अभ्यास प्रक्रिया यम से प्रारम्भ होकर समाधि तक सभी योगांगों में समाहित है; किन्तु यदि सूक्ष्मता के साथ विचार किया जाय तो यह स्पष्ट होता है कि यम, नियम, आसन एवं प्राणायाम क्रमशः नैतिक, व्यक्तिगत, शारीरिक एवं प्राणिक दृष्टिकोण से साधक को दृढ़ एवं शक्तिशाली बनाते हैं। जैसा कि हम पूर्व में ही स्पष्ट कर चुके हैं कि यद्यपि मन को अनुशासित करना इन अंगों में एक आवश्यकता है; किन्तु प्राणायाम के उपरान्त भी मन बाह्य विषयों में संलिप्त एवं व्यापाररत रहते हुए यत्र-तत्र भटकता रहता है। अतः यहाँ मन को बाह्य विषयों से विमुख करते हुए अंतरंग साधना की ओर प्रवृत्ति करना आवश्यक है। यहीं से मन के अंतरंग होने एवं बाह्य वृत्तियों से विमुखता की वास्तविक प्रक्रिया आरम्भ होती है; जो समाधि के उपरान्त कैवल्य में फलीभूत होती है। इस प्रकार प्रत्याहार अंतर्मुखता के प्रवेश-द्वार के रूप में समग्र योग पद्धति (राजयोग एवं हठयोग) में अत्यंत महŸवपूर्ण स्थान रखता है। विषय-वस्तु के दृष्टिकोण से प्रत्याहार के मनश्चिकित्सीय महत्त्व को जानना अत्यंत आवश्यक है। अतः अब हम इसी पर अपना ध्यान एकाग्र करेंगे।

यहाँ पर यह स्पष्ट करना अनिवार्य है कि यदि मनोवैज्ञानिक रूप से योग के समस्त अंगों के अनुष्ठान पर विचार किया जाय तो यह चित्तवृत्तियों के नियन्त्रण को ही केन्द्र में रखकर समस्त मानसिक समस्याओं व उनसे निवृत्ति को विवेचित करता है। चित्त की वृत्तियों के निरोध से ही योग समस्त दुःखों की निवृत्ति को स्वीकार करता है।

अतः यदि साररूप में कहा जाय तो योग द्वारा मनश्चिकित्साका मूलमंत्र भी चित्ति की वृत्तियों का निरोध ही है। उल्लेखनीय है कि राजयोग को परिभाषित करते हुए भी महर्षि पतंजलि चित्त्वृत्तिनिरोध को ही योग कहते हैं। पातंजलयोगसूत्र प्रथम पाद में उन्होंने स्पष्ट किया है, ‘‘योगश्चित्त्वृत्तिनिरोधः।”39 अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है। वृत्ति निरोध हेतु प्रत्याहार द्वारा अंतर्मुखी स्वभाव के विकास के विवेचन से पूर्व वृत्तियों के स्वरूप को अत्यंत संक्षेप में समझना आवश्यक होगा। ‘‘वृत्तियाँ मुख्य रूप से दो विभागों में विवेचित की गयी हैं- क्लेशदायक एवं अक्लेशदायक‘‘40 ‘‘अक्लेशदायक वृत्तियाँ- प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा एवं स्मृति हैं।”41 अक्लेशदायक वृत्तियाँ भी योग के आध्यात्मिक लक्ष्य के दृष्टिकोण से निरोध्य हैं; किंतु सामान्य जीवन में ये वृत्तियाँ उतनी दुःखदायी नहीं हैं जितनी कि क्लेशदायक वृत्तियाँ। व्यावहारिक दृष्टिकोण से मनश्चिकित्साके लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए क्लेशदायक वृत्तियों का निदान अत्यंत आवश्यक है। इसलिए यहाँ पर हम इनका संक्षिप्त विवेचन करेंगे।

‘‘क्लेशदायक वृत्तियाँ पांच प्रकार की हैं। पहली अविद्या है; नित्य को अनित्य व दुःख को सुख समझना ही अविद्या कहलाती है। दूसरी अस्मिता है; द्रष्टा या आत्मा एवं दृश्य या शरीर व अन्य भौतिक जगत् के एकीभाव से उत्पन्न अहंकारभाव ही अस्मिता है। तीसरी वृत्ति राग है; सुख के साधनों से प्रेम ही राग कहलाता है। चौथी वृत्ति द्वेष है; दुःख के साधनों से घृणा ही द्वेष कहलाता है। पांचवीं वृत्ति अभिनिवेश है; विद्वान एवं मूर्ख सभी मनुष्यों में समान रूप से व्याप्त मृत्यु का भय ही अभिनिवेश कहलाता है।”42 पतंजलि ने यह भी माना है कि अविद्या ही अन्य सभी चित्तवृत्तियों का मूल है।

यदि मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार किया जाय तो समस्त व्यावहारिक समस्याएँ यथा ‘‘तनाव (Tension), अवसाद (Depression), भ्रम (Delusion), दुश्चिंता (Anxiety), स्नायु दौर्बल्य (Neurasthenia), मनोदौर्बल्य (Psychasthenia), असामान्य भय (Phobia), मनोविकलता (Schizonphrenia), व्यामोह (Delusion), योषास्मर (Hystearia)‘‘43

आदि सभी मनोवैज्ञानिक रूप से योगदर्शन में विवेचित की गयी क्लेशदायक वृत्तियोंयों से ही निःसृत हैं या यह भी कह सकते हैं कि इन्हीं का व्यावहारिक रूपान्तरण हैं। यदि हम मनश्चिकित्सीय सिद्धान्तों के आधार पर विचार करें तो यदि हम मात्र व्यावहारिक समस्याआंे का समाधान करते हैं तो वे समस्याएँ समग्र रूप से निर्मूल नहीं हो पातीं। योग के अनुष्ठान द्वारा सभी व्यावहारिक मनोरोगों का निदान निश्चित रूप से सम्भव है। मनश्चिकित्सीय दृष्टिकोण से चित्तवृत्तियों को निरोध हेतु किये जाने वाले योग साधन मनोरोगों से मुक्ति प्रदान करने में निश्चित रूप से सक्षम हैं। महर्षि पतंजलि चित्त की जिन वृत्तियों के निरोध की बात करते हैं वे मनोवृत्तियाँ ही हैं। प्रत्याहार ही चित्त को उसकी वृत्तियों से लौटाकर अपने स्वरूप में ही समाहित करता है। वृत्तियाँ रजोगुण व तमोगुण के आधिक्य होने पर अस्तित्व में रहती है; किन्तु जब प्रत्याहार के माध्यम से इन्द्रियों का विषयों से अलगाव हो जाता है। ऐसा होने पर सत्त्वगुण के प्रभावी होने से विवेकोत्पत्ति होती है जो आध्यात्मिक रूप से तत्त्वज्ञान के पश्चात् कैवल्य में सहायक होती है एवं व्यावहारिक रूप से मानसिक स्वस्थता में फलीभूत होती है। इस प्रकार प्रत्याहार का वृत्तियों को समाप्त करते हुए सात्त्विकता के उदय में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके पश्चात् आध्यात्मिक रूप से तत्त्वज्ञान/कैवल्य एवं व्यावहारिक रूप से मानसिक स्वस्थता प्राप्ति निश्चित है।

इसलिए मनश्चिकित्सामें प्रत्याहार की शिथिलीकरण एवं विश्रांति की तकनीकियों यथा योगनिद्रा आदि को बाह्य विषयों से विमुखीकरण, असंवेदीकरण एवं चरणबद्ध तटस्थता हेतु अपनाना एवं अभ्यास करना चाहिए। यह मनश्चिकित्साके दृष्टिकोण से अत्यंत उपयोगी है, इस तथ्य को आधुनिक मनश्चिकित्सक भी स्वीकार करते हैं। यही नहीं अपितु जैसा कि हम पूर्व में भी उल्लेख कर चुके हैं कि आधुनिक मनश्चिकित्सक भी किसी न किसी प्रकार भारतवर्ष की योग परम्परा में सदियों से अपनाये जा रहे प्रत्याहार की शिथिलीकरण तकनीकियों से प्रेरित होकर व्यवहार परिवर्तन चिकित्सा में अनेक शिथिलीकरण अभ्यासों को अपना कर अनेक मनोरोगों की सफल चिकित्सा कर रहे हैं।

प्रत्याहार के तकनीकी पक्ष के ज्ञान एवं इसके द्वारा सफल मनश्चिकित्साहेतु हम इस ग्रन्थ में योगनिद्रा तथा त्राटक आदि जैसे योगाभ्यासों का गूढ़ विवेचन करेंगे। मनश्चिकित्सीय प्रविधि के रूप में प्रत्याहार के प्रतिष्ठापन हेतु हमें योगशास्त्र की व्यक्तित्व सम्बन्धी अवधारणा, मनोरोग एवं इनके कारणों, विकृति हेतु उत्तरदायी मानसिक कारकों तथा मनश्चिकित्साकी आधुनिक प्रविधियों आदि का ज्ञान होना भी आवश्यक है। अतः प्रत्याहार सिद्धि हेतु किये जाने वाले योगाभ्यासों के तकनीकीय विवेचन से पूर्व हम इन सभी तथ्यों को विवेचित करेंगे।

सन्दर्भ सूची-

1. अमित, डॉ0 सुरेन्द्र प्रताप सिंह, भारतीय मानसशास्त्र: प्राच्य संकल्पनाएँ-पाश्चात्य प्रमाण, हिमालया पब्लिशिंग हाउस, मुम्बई, 2001, पृष्ठ 182-83

2. भट्ट, डॉ0 कविता, योग परम्परा में प्रत्याहार (आध्यात्मिक, दार्शनिक एवं व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य) , किताब महल प्रकाशन, दिल्ली, 2013, पृष्ठ

3. राधेश्याम खेमका, कल्याण: आरोग्यांक, गोविन्द भवन कार्यालय, गीता प्रेस गोरखपुर, 1975, पृष्ठ 344

4. शर्मा, आचार्य श्रीराम, साधना पद्धतियों का ज्ञान और विज्ञान, अखण्ड ज्योति संस्थान, मथुरा, 1998, पृष्ठ 120-121

5. खेमका, राधेश्याम, कल्याण: आरोग्यांक, गोविन्द भवन कार्यालय, गीता प्रेस गोरखपुर संवत् 2060, पृष्ठ 128

6. उपर्युक्त

7. श्रीमद्भगवद्गीता, 2 / 41

8. शर्मा, रामनाथ एवं रचना शर्मा, भारतीय मनोविज्ञान, एटलांटिक पब्लिशर्स एवं डिस्ट्रीब्यूटर्स, अंसारी रोड, नई दिल्ली, 2005, पृष्ठ 20

9. पतंजलि, महर्षि, पातंजलयोगसूत्र, 1 / 2

10. उपर्युक्त, 1 / 12

11. उपर्युक्त, 1 / 15

12. उपर्युक्त, 1 / 5

13. उपर्युक्त, 2 / 3

14. उपर्युक्त, 2 / 11

15. भट्ट, डॉ0 कविता, योग परम्परा में प्रत्याहार: आध्यात्मिक, दार्शनिक एवं व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य, किताब महल प्रकाशन, दिल्ली, 2013, पृष्ठ

16. उपर्युक्त, पृष्ठ

17. पतंजलि, महर्षि, पातंजलयोगसूत्र, 2 / 29

18. उपर्युक्त, 3 / 7

19. उपर्युक्त, 3 / 8

20. भट्ट, डॉ0 कविता, योग परम्परा में प्रत्याहार: आध्यात्मिक, दार्शनिक एवं व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य, किताब महल प्रकाशन, दिल्ली, 2013, विषय-प्रवेश, पृष्ठ

21. शिव, भगवान उपदिष्ट शिव संहिता, 5 / 222

22. गोरक्षनाथ, गुरु, सिद्धसिद्धान्तपद्धति, 2 / 32

23. पतंजलि, महर्षि, पातंजलयोगसूत्र, 2 / 54

24. गोरक्षनाथ, गुरु, सिद्धसिद्धान्तपद्धति 2 / 32

25. पतंजलि, महर्षि, पातंजलयोगसूत्र 2 / 55

26. Rimm, C David and John C. Masters, Behaviour Therapy, Techniques and Empirical Findings, Harcourt Brace, Jobnovich Publisher, Academic Press, New York, 1979, pg 40

27. कपिल, महर्षि, भाष्यकार उदयवीर शास्त्री, सांख्यदर्शनम्, विजयकुमार, गोविन्दराम, हासानन्द, 4408, नई सड़क, नई दिल्ली, 2003, पृष्ठ 114

28. राधाकृष्णन्, डॉ0 सर्वपल्ली, अनुवादक नन्दकिशोर गोभिल, भारतीय दर्शन, भाग 2, राजपाल एण्ड सन्स, कश्मीरी गेट, दिल्ली, 2004, पृष्ठ 296

29. शर्मा, चन्द्रधर, भारतीय दर्शन-आलोचन और अनुशीलन, मोतीलाल बनारसीदास प्राइवेट लिमिटेड, बंगलो रोड, जवाहर नगर, दिल्ली, 1994, पृष्ठ 159

30. उपाध्याय, डॉ गोविन्द प्रसाद, आयुर्वेदीय मानसरोग चिकित्सा, आचार्य चरक, चरक सूत्रस्थान, 8 / 4, मानसरोग चिकित्सा, पृष्ठ 13

31. उपर्युक्त

32. उपरोक्त, पृष्ठ 14, 15

33. मिश्र, डॉ0 जगदीश चन्द्र, भारतीय दर्शन-भाग 2, चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, 37 / 117, गोपाल मन्दिर लेन, वाराणसी, 1999, पृष्ठ 465

34. उपाध्याय, डॉ गोविन्द प्रसाद, आयुर्वेदीय मानसरोग चिकित्सा, चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, 2009, पृष्ठ 22

35. राधाकृष्णन्, डॉ0 सर्वपल्ली, अनुवादक नन्दकिशोर गोभिल, भारतीय दर्शन, भाग 2, राजपाल एण्ड सन्स, कश्मीरी गेट, दिल्ली, 2004, पृष्ठ 296

36. उपर्युक्त, पृष्ठ 296

37. उपर्युक्त, पृष्ठ 253

38. भट्ट, डॉ0 कविता, योग परम्परा में प्रत्याहार (आध्यात्मिक, दार्शनिक एवं व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य) , किताब महल प्रकाशन, दिल्ली, 2013, पृष्ठ

39. उपर्युक्त, 1 / 2

40. उपर्युक्त, 1 / 5

41. उपर्युक्त, 1 / 6

42. उपर्युक्त, 2 / 3-9

43. दूबे, डॉ0 चन्द्रदेव, मानस रोग, मनीष प्रकाशन, वाराणसी, उ0प्र0, 2008, पृष्ठ 71-86