योगदर्शन की सामाजिक प्रासंगिकता/ कविता भट्ट

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(मूल्य संवर्धन, नैतिक उत्थान व समरस वातावरण का निर्माण)

मानव समाज वैज्ञानिक आविष्कारों द्वारा भौतिक सुविधा-सम्पन्नता के चरम पर है; किन्तु सबसे बड़ी विसंगति है- प्रतिस्पर्धा के इस संक्रमणकाल में नैतिकता का अवमूल्यन। सभी सामाजिक समस्याएँ अनैतिकता के ही कारण उत्पन्न होती हैं। नीतिशास्त्र भारतीय दर्शन का अभिन्न अंग है; इसके द्वारा व्यक्ति को नैतिक नियमों के अनुपालन का निर्देश दिया गया है। भारतीय दर्शन की शाखा होने के नाते योगदर्शन में भी नीतिशास्त्रीय नियम निर्धारित किये गये हैं। आधुनिक काल में योग को वैज्ञानिक मापदंडों पर स्थापित करते हुए इसके स्वास्थ्य सम्बन्धी लाभों का वैश्विक प्रचार किया गया। विसंगति यह है कि शारीरिक लाभों की चर्चा तथा आसन आदि तक ही योग को सीमित कर दिया गया; जबकि ये लाभ नितान्त व्यक्तिगत हैं। यह सच है कि भारतवर्ष प्राचीन काल में विश्वगुरु था; किन्तु आज यह भ्रष्टाचार में अग्रिम पंक्ति में खड़ा है। नैतिक आदर्श मात्र धर्मग्रन्थों, मंचों, व्याख्यानों तथा परिचर्चाओं में सिमट कर रह गये हैं। बातें तो नैतिकता की बड़ी-बड़ी की जाती हैं; किन्तु व्यवहार में अनैतिकता की सभी सीमाएँ पार की जा चुकी हैं। हत्या, चोरी, डाका, बलात्कार, रिश्वत, घोटाले, प्रदूषित राजनीति तथा ऐसे ही न जाने कितने असीम अपराधों में अधिकांश भारतीय जनमानस संलिप्त हैं। ऐसा नहीं है कि सभी घोर अपराधी हों; आज भी कुछ नैतिक व्यक्ति मिलते हैं; किन्तु यह भी सच है कि किसी न किसी रूप में अधिकांश भारतीय नैतिकता का उल्लंघन करते ही हैं। इसका सबसे अच्छा ढंग है कि योग शिक्षा को राजकीय एवं निजी संस्थानों द्वारा प्राथमिक शिक्षा में अनिवार्य करते हुए यम के अनुपालन का प्रशिक्षण करवाया जाए ; इनकी उपयोगिता को छात्र-छात्राओं में प्रसारित किया जाए ।

जैसा कि विदित है; व्यक्ति एवं समाज का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है; व्यक्ति एक इकाई है तथा समाज उसका सामूहिक रूप है; अतः समाज की नैतिकता व्यक्ति की नैतिकता पर ही निर्भर है। योगदर्शन वैयक्तिक उत्थान पर बल देता है। यद्यपि योगदर्शन में यम का निर्देश व्यक्तिगत साधना की दृष्टि से दिया गया है; तथापि ये सामाजिक उद्देश्यों से भी परिपूर्ण हैं। समाज शास्त्र के सिद्धान्त यह मानते हैं कि यदि समूह का प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को अनुशासित कर ले तो समूह तो स्वयं ही अनुशासित हो जायेगा। इस सिद्धान्त के अनुसार यम व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों ही दृष्टिकोणों से उपयोगी है। यम के सभी अभ्यासों के पालन द्वारा मानव समाज की चरित्रगत बुराइयों दूर होनी सुनिश्चित हैं। ऐसा होने से समाज से अनैतिकता को समाप्त किया जा सकता है। इस प्रकार नैतिक एवं स्वस्थ समाज का निर्माण सम्भव है।

योग के प्रणेता महर्षि पतंजलि का मानना था कि आध्यात्मिक लाभों की दृष्टि से की जाने वाली योगसाधना हेतु नैतिक सुदृढ़ता एवं उत्तम चरित्र प्राथमिक आवश्यकता है। अतः महर्षि योगसाधना को यम अर्थात् सार्मभौम चारित्रिक-सामाजिक निर्देशों से प्रारम्भ करते हैं। इसके अनुपालन के बिना व्यक्ति योग कर ही नहीं सकता; योग का अभूतपूर्व प्रचार किया गया किन्तु; आसन, प्राणायाम तथा ध्यान पर ही केन्द्रित किया गया। जबकि महर्षि के अनुसार अष्टांग (आठ अंगों से युक्त) योग है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि। महर्षि के अनुसार सामाजिक दृष्टि से यम आवश्यक सार्वभौम महाव्रत हैं। सार्वभौम का अर्थ है कि देश, जाति, धर्म तथा भूत-वर्तमान-भविष्य आदि की परिधि से ऊपर उठकर यम का पालन करते हुए योगाभ्यास किया जाना चाहिए। व्यक्ति चाहे किसी भी जाति, धर्म व देश का हो और किसी भी काल में योग का अभ्यास करे; यम आवश्यक रूप से पालनीय हैं। इससे स्पष्ट होता है कि यम सम्पूर्ण मानव समाज द्वारा किसी भी परिस्थिति में अनुशासन के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। जिन सामाजिक समस्याओं के निवारण की दृष्टि से इन पांच नियमों का प्रतिपादन किया गया था, वे समस्याएं तत्कालीन युग में इतनी विकट न होने पर भी इनको प्रतिस्थापित करना आवश्यक समझा गया, अब तो स्थिति इस सम्बन्ध में अत्यंत विकट है मानव समाज नैतिक मूल्यों के अवमूल्यन के कारण अनेक सामाजिक समस्याओं से ग्रस्त है। यदि उपरोक्त यमों का प्रत्येक व्यक्ति द्वारा मन, वचन व कर्म से पालन किया जाए ,तो, मानव समाज में अनुशासनात्मक, स्वस्थ व सुमधुर वातावरण का निर्माण होना निश्चित है। इस आलेख में यम का संक्षिप्त विवेचन करेंगे। जनसामान्य को भी इसे व्यक्तिगत तथा सामाजिक कल्याण हेतु जानना चाहिए।

महर्षि पतंजलि के अनुसार यम के पाँच अभ्यास हैं-

1-अहिंसा (किसी को किसी भी प्रकार की पीड़ा न पहुँचाना)

2-सत्य (सदैव सच बोलना) 3-अस्तेय (चोरी न करना)

4-ब्रह्मचर्य (कामेच्छा का इन्द्रिय निग्रह व अनुशासन के द्वारा नियंत्रण)

5-अपरिग्रह (भौतिक वस्तुओं का त्याग)

अहिंसा पालन द्वारा वैयक्तिक एवं सामाजिक प्रेम, आत्मभाव, भाईचारा एवं समरसता -अहिंसा के पालन से व्यक्ति का समस्त प्राणियों में प्रेम भाव जागृत होता है। ऐसा होने से समस्त प्राणियों को वह आत्मवत् देखना प्रारम्भ करता है। मानव समाज के प्रति भाईचारे का भाव होने आपसी वैमनस्यता व वैरभाव समाप्त होता है। आतंकवाद, अशान्ति, अराजकता तथा वर्ग संघर्ष आदि जैसी ज्वलंत समस्याओं को अहिंसा के सामूहिक पालन द्वारा समाप्त किया जा सकता है। इस प्रकार समाज में समरसता अर्थात् पारस्परिक प्रेम, संतुलन एवं सामंजस्य का वातावरण निर्मित होता है।

सत्य पालन द्वारा वैयक्तिक एवं सामाजिक निष्ठा, विश्वास तथा सौहार्द-अहिंसा एवं सत्य के संयुक्त पालन से असुरक्षा एवं भय दोनों ही समाप्त हो जाते हैं। एक व्यक्ति की दूसरे व्यक्ति में निष्ठा भी उत्पन्न होती है। ऐसा होने से आपसी विश्वास का वातावरण बनता है और आपसी सौहार्द का भाव बढ़ता है।

अस्तेय पालन द्वारा सुरक्षा-भाव तथा अभय-प्रत्येक व्यक्ति यदि अस्तेय का पालन करे ,तो इससे समाज में कोई भी स्वयं को असुरक्षित अनुभव नहीं करेगा। अपने से सम्बन्धित किसी भी द्रव्य (सम्पत्ति)की चोरी को लेकर की जाने वाली चिंता समाप्त हो जाएगी तथा भय समाप्त हो जाएगा।

ब्रह्मचर्य द्वारा कामेच्छा नियमन तथा स्वस्थ समाज की स्थापना-मानव की अनियन्त्रित कामेच्छा ने सम्पूर्ण समाज को शारीरिक एवं मानसिक रोगों के गर्त में धकेल दिया है। आजकल एड्स जैसा घातक रोग भी अनियन्त्रित कामेच्छा का ही परिणाम है। साथ ही कामेच्छा के पूर्ण न होने से व्यक्ति अवसाद आदि मानसिक रोगों से भी घिर जाता है। इसके अतिरिक्त अनेक अपराध जैसे- बलात्कार, हत्या, बाल-महिला शोषण तथा वेश्यावृत्ति आदि भी इन अनियन्त्रित योनेच्छाओं का ही परिणाम हैं। यम का तीसरा अभ्यास ब्रह्मचर्य इन सब सामाजिक विकृतियों को समाप्त करने का श्रेष्ठ साधन है। इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। यदि व्यक्ति गृहस्थ है, तो वह केवल अपने ही जीवन-साथी से सम्बन्ध रखे अन्य किसी से नहीं। वे सम्बन्ध भी अनुशासित होने चाहिए।

अपरिग्रह द्वारा अनुशासित जीवनचर्या तथा व्यक्तिगत-सामाजिक उत्थान-अपरिग्रह यम का ऐसा अभ्यास है , जिसमें अनावश्यक संग्रह को निषेध किया गया है। आज मानव समाज विभिन्न वर्गां में विभाजित है। इसका कारण यह है कि सम्पत्ति के अनुसार वर्ग निर्धारण होता है। साथ ही अत्यधिक लालसा के कारण उच्च वर्ग को धन-सम्पत्ति संचय का अत्यंत मोह है। यदि व्यक्ति अनावश्यक संग्रह के स्थान पर कुछ उदार हो जाए , तो समाज से वर्ग-संघर्ष भी समाप्त हो जायेगा। धनाढ्य वर्ग अपनी आय का कुछ भाग निज स्वार्थ हेतु संचय करने के स्थान पर परोपकार हेतु उपयोग में लाये तो समाज कितना आदर्श हो जाए । एक ओर अनावश्यक संग्रह न होने से व्यक्ति आवश्यकता और लालच में भेद करके संयमित रहेगा और धन कमाने के अनैतिक ढंगों से बचेगा। साथ ही समाज में अनुशासन एवं प्रेरणा भी बनी रहेगी।

सर्वाधिक आवश्यकता इस बात कि है कि योग को राजकीय तथा व्यक्तिगत संस्थानों द्वारा प्राथमिक शिक्षा का अभिन्न अंग बनाया जाम तथा इसमें भी यम के अन्तर्गत विवेचित अभ्यासों का प्रशिक्षण दिया जाए, जिससे कि छात्र-छात्राओं में नैतिक नियमों का प्रसार हो। वे समाज के आदर्श नागरिक बन सकें तथा भारतवर्ष को पुनः विश्वगुरु की उपाधि प्राप्त हो। .0.