योगदर्शन में दुःख की अवधारणा / कविता भट्ट
दुःख को हेय कहा गया है। समस्त चिकित्साशास्त्र एवं अन्य लौकिक उपायों के द्वारा हेय के निवारण के लिए समस्त अध्येताओं ने अपनी पूरी सामर्थ्य उपयोग में लाने का प्रयास किया है। इन प्रयासों के मूल में मानव मात्र के लिए दुःख-निवृत्ति का मार्ग प्रशस्त करने का ध्येय रहा है। केवल सांख्य और योग दर्शन के व्याख्याकार ही नहीं, अपितु आयुर्वेद के आचार्य भी यह मानते हैं कि बाह्य वस्तुएँ एवं सुख-साधन परिवर्तनशील हैं; उत्पत्ति और विनाश से युक्त हैं। उनको हम सदा ही अपने अनुकूल और स्थिर नहीं बनाए रख सकते; परन्तु परिवर्तन के द्वारा हम अपनी वृत्तियों को बदल सकते हैं अथवा उनसे लाभ प्राप्त कर सकते हैं। उनके प्रति अपना दृष्टिकोण परिवर्तित कर सकते हैं।
सांसारिक दुःख की सर्वांगीण व्याख्या चार शब्दों की पारस्परिक शब्दावली के आस-पास आवर्तित होती हैं-हेय, हेतु, हान और हानोपाय। इन चारों शब्दों को समझने हेतु इनका शाब्दिक अर्थ तथा भावार्थ क्रमशः समझना आवश्यक है। हेय शब्द हा धातु में यत् प्रत्यय के मिलन से बना है; जिसका अर्थ है-त्याग करने योग्य। इसी त्याग करने योग्य भाव अर्थात् दुःख-निवृत्ति के मार्ग को प्रशस्त करने हेतु उपाय सुझाना ही योगशास्त्र का वास्तविक लक्ष्य है। इसके अधिक स्पष्टीकरण के लिए हमें 'हेय' शब्द का भावार्थ समझना होगा। व्यतीत दुःख तो उपभोग द्वारा समाप्त हो जाता है और वर्तमान दुःख विद्यमान क्षण में भोगारूढ़ अर्थात् भोगा ही जा रहा है। अतः वह अग्रिम क्षण मंे हेयता के लिए अवशिष्ट नहीं रह सकता है। इसलिए जो अनागत दुःख, जिसका अभी भोग आरम्भ नहीं हुआ है, वही व्यक्ति को क्लेश पहुँचाता है, अन्य सामान्य भोक्ताओं को नहीं। इस प्रकार वही अनागत दुःख हेयता का विषय बनता है।
'हेय' के पश्चात् हेतु दूसरा शब्द है 'हेतु' अर्थात् दुःख का कारण; हेतु का भावार्थ स्पष्ट करने से पूर्व हमें इसकी शाब्दिक व्युत्पत्ति को जानना चाहिए. 'हि' धातु और 'तुन' प्रत्यय से निर्मित हेतु शब्द का अर्थ है-निमित्त, कारण उद्देश्य, प्रयोजन। यहाँ यह दुःख के कारण के निमित्त या कारण के अर्थ में प्रयुक्त है। पातंजलयोगसूत्र के अनुसार भविष्यत्कालिक दुःख ही 'हेय' हैं; क्योंकि बीता हुआ दुःख भोगा जा चुका है; इसलिए वह 'हेय' की कोटि में नहीं आता। वर्त्तमान दुःख अपने इस क्षण में भोगा ही जा रहा है; इसलिए वह दूसरे क्षण में 'हेय' नहीं बन सकता; इसीलिए जो दुःख अभी तक नहीं आया है (भविष्यत्कालिक है) , वही हेय है।
हेय का मूल कारण अविद्या है; अविद्या के अतिरिक्त चार अन्य क्लेश अस्मिता, राग, द्वेष एवं अभिनिवेश हैं। अन्य सभी क्लेशों की प्रसवभूमि या मूल हेतु अविद्या ही है। अनित्य, अपवित्र, दुःखमय और अनात्म पदार्थों को क्रमशः नित्य, पवित्र, सुखमय और आत्म समझना ही अविद्या है। अविद्या की चार अवस्थाएँ (प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार) हैं। दृग् शक्ति या शरीर एवं दर्शन शक्ति या आत्मा को एक ही समझ लेना अस्मिता है। सुख के पीछे-पीछे चलने वाला क्लेश राग कहलाता है। दुःख के पीछे चलने वाला क्लेश द्वेष है। मृत्यु का भय; जो विद्वानों में भी मूर्खों के समान संस्काररूप में स्थिर रहता है। क्लेशमूलक कर्माशयों से दृष्ट एवं अदृष्ट दोनों प्रकार के वेदनीय (वेदन=सुख-दुःख आदि का अनुभव) जन्म होते हैं। क्लेश रूपी मूल के रहने पर जन्म, आयु और भोग रूपी कर्माशय (कर्म-संस्कार) अर्थात् कर्मों के प्रभाव या कर्मों फल प्राप्त होते हैं। पुण्य और पाप रूपी कर्माशय से उत्पन्न होने के कारण वे क्रमशः आनन्द एवं दुःख रूपी फल देने वाले होते हैं।
परिणाम, ताप और संस्कार दुःखों के कारण एवं गुणों की शान्त, मूढ़ तथा घोर रूप प्रवृत्तियों के आपसी विरोध के कारण विवेकी के लिए जन्म एवं आयु आदि भोग रूपी सभी फल दुःखरूप ही हैं। वस्तुतः ये तीनों प्रकार के दुःख योगियों हेतु बताए गए हैं; जो सामान्य अवस्था वाले व्यक्ति को भी होते हैं; किन्तु वह समझ नहीं पाता कि जिसे वह सुख समझकर उपभोग कर रहा है; वास्तव में वह दुःख है। तीनों प्रकार के दुःखों का तात्पर्य इस प्रकार है।
परिणाम-भोग काल में सुख की अनुभूति से इन्द्रियों की जो उपशान्ति होती है; उसे सुख कहते हैं। बार-बार विषयों के सेवन से इन्द्रियों को तृष्णारहित नहीं किया जा सकता; क्योंकि भोग की आवृत्ति से रागात्मक प्रवृत्ति और इन्द्रियों की विषयभोग विषयक पटुता बढ़ती रहती है। अतः प्रत्येक सुख का परिणाम भी दुःख ही है। उदाहरणार्थ-आज किसी के पास बहुत मोटा गद्दा है, सोने में सुख मिल रहा है। कल किसी कारणवश न रहे, तो वह सुख, दुःख में परिवर्तित हो जाएगा।
चेतन-अचेतन सभी प्रकार के साधनों से प्राप्त होने वाला सभी प्रकार के सुखों का अनुभव रागात्मक प्रवृत्ति से पूर्ण रहता है; इसीलिए सुखानुभव-काल में रागजन्य कर्माशय बनता है। ऐसे में व्यक्ति दुःख के कारणों से द्वेष करता है। इस प्रकार यह राग और द्वेष से युक्त कर्माशय (कर्म-संस्कार यानी कर्मों का फल) बनाता है। यही परिणाम दुःख है। सामान्य व्यक्ति इसे समझने में असमर्थ होता है कि सुख के साधन भी दुःख में ही परिवर्तित होने वाले हैं।
ताप-सभी प्राणियों को चेतन और अचेतन उपकरणों से प्राप्त होने वाली द्वेषयुक्त ताप की अनुभूति होती है, अर्थात् ताप / कष्ट / दुःख के समय; दुःख के कारणों के प्रति जो द्वेष का भाव होता है; वही द्वेषजन्य कर्माशय में परिवर्तित हो जाता है। इसी को ताप-दुःख कहते हैं। इसे सामान्य व्यक्ति भी समझते है; क्योंकि तात्कालिक दुःखों से तो उसे भी घृणा ही होती है।
ताप-दुःखः-इंद्रियों द्वारा वर्त्तमान काल में मिलने वाला ताप-दुःख; यह भी तीन प्रकार का है-
अ-आध्यात्मिक-त्रिदोष एवं त्रिगुण असंतुलन से उत्त्पन्न शारीरिक एवं मानसिक रोग;
ब-आधिदैविक-प्राकृतिक प्रकोप से उत्पन्न दुःख जैसे-बाढ़-भूकंप आदि।
स-आधिभौतिक-अन्य प्राणियों द्वारा प्रदत्त दुःख, जैसे-साँप बिच्छू आदि।
संस्कार-सुख के साधनों से सुख के संस्कार की वासना और दुःख की अनुभूति से दुःख के संस्कार की वासना बनती है। इस प्रकार कर्मजन्य फलों के अनुभूत किए जाने पर; सुख और दुःख होने पर फिर कर्मसंस्कार-समूह बनता है। यही संस्कारदुःख हैं। पुरानी यादों के मन पर पड़े हुए बुरे प्रभावों का संस्कार के रूप में चित्त पर जमा होने से उत्पन्न दुःख। संस्कार-जैसे बचपन में अनाथ होने वाले बच्चे के युवा या वृद्ध होने पर भी उसके मन पर जमे हुए उस समय के बुरे प्रभाव जीवन भर बने रहते हैं।
वस्तुतः उपर्युक्त तीनों प्रकार के दुःखों के मूल में सत्, रज एवं तम (त्रिगुणों) के आपसी विरोध के कारण उत्पन्न चित्तवृत्तियाँ ही हैं। हान 'हा' धातु में 'क्त' प्रत्यय से निर्मित है; जिसका अर्थ है-छोड़ना, त्यागना, बच निकलना तथा पराक्रम आदि। यहाँ इसका अर्थ है-दुःख को त्यागना, उससे बच निकलना या बच निकलने का पराक्रम (प्रयास) । हानोपाय 'हान' एवं 'उपाय' के मेल से बना है, जिसका अर्थ है साधन या युक्ति। उस अविद्या के मिट जाने से संयोग का नाश हो जाना 'हान' है। अबाधित मिथ्या ज्ञानशून्य विवेकख्याति ही 'हान' का उपाय है। योग के अंगों का अनुष्ठान करने से, अशुद्धि का क्षय हो जाने पर विवेकख्याति (मन को एकाग्र काने की सबसे ऊँची अवस्था) के उदय तक ज्ञान का प्रकाश होता है।
दुःख-निवृत्ति (हानोपाय) के लिए अष्टांग मार्ग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि) के क्रियात्मक पक्ष से भी युक्त है। योगदर्शन की अथाह लोकप्रियता के होते हुए भी; सामान्यतः, योगदर्शन की दुःख अवधारणा को अलग से रेखांकित नहीं किया गया तथा अनेक विद्वज्जन भी इस बारे में भ्रान्त प्रतीत होते हैं। अनेक व्याख्याओं में योगदर्शन की दुःख-अवधारणा को बिल्कुल सांख्य के समान माना गया है। योगदर्शन दुःख एवं दुःखनिवृत्ति की पूर्णतः मनोवैज्ञानिक विवेचना करता है। पतंजलि ने दुःख के तीन प्रकार अर्थात् परिणाम, ताप एवं संस्कार बताए हैं। इसके अन्तर्गत बताए गए तापदुःख को स्पष्ट करते हुए लिखा है; तापदुःख समस्त चेतन एवं अचेतन कारणों से होने वाला वह दुःख है; जिसके अन्तर्गत कोई भी मानव दुःख के समय उसके कारणों से द्वेष का भाव रखता है।
योग के अनुसार दुःख के पक्ष-
परिणाम------ ताप -------------- संस्कार
।
आध्यात्मिक - --------------------आधिभौतिक ----आधिदैविक
।
शारीर------ मानस
दुःख के प्रकारों के पश्चात् दूसरा ध्यातव्य बिंदु है दुःख की प्रकृति; इसे निम्न प्रकार समझा जा सकता है। सांख्यदर्शन दुःखों की प्रकृति बाह्य कारणों के सहगामी मानता है; जैसे अन्य प्राणि एवं दैविक प्रकोप आदि।
केवल आध्यात्मिक दुःखों को वह व्यक्ति के मनोशारीरिक असंतुलन तथा विकारों से उत्पन्न मानता है; जिसके लिए व्यक्ति स्वयं ही उत्तरदायी होता है; जबकि योगदर्शन के अनुसार समस्त दुःखों की प्रकृति मानसिक परिवर्तनों या वृत्तियों की प्रकृति के सहगामी है। योग मानता है कि परिणाम, ताप एवं संस्कार सभी दुःखों के लिए व्यक्ति के स्वयं का दृष्टिकोण ही उत्तरदायी होता है; इसके लिए वह गुणवृत्तिविरोध अर्थात् त्रिगुण (सत्त्व, रजस् एवं तमस्) के आपसी विरोध को मूल कारण मानता है; जिससे अविद्या आदि वृत्तियाँ होती हैं। सत्त्व गुण, सात्त्विक प्रवृत्ति का कारक हैं। सत्त्व गुण के लक्षण हैं-ज्ञान, शील, प्रकाश, सद्गुण, धर्म, वैराग्य तथा सद्वृत्ति आदि। यह श्वेत वर्ण से युक्त होता है। रजस्-राजसिक प्रवृत्ति का कारक है। रजोगुण के लक्षण हैं-दुःख, साहस, क्रोध, काम, लोभ तथा मोह आदि। यह रक्तवर्ण है। तमस् तामसिक प्रवृत्ति का कारक है। तमोगुण के लक्षण हैं-आलस्य, भारीपन, अंधकार, अज्ञान एवं मूढ़ता आदि। यह कृष्णवर्ण है।
ये गुण प्रत्येक व्यक्ति में समाहित हैं और जिस प्रकार प्रकाश के घटकों-यथा-दीपक, तेल एवं बाती के आपसी सामंजस्य से ही प्रकाश होता है उसी प्रकार त्रिगुण व्यक्तित्व के आवश्यक घटक हैं। आवश्यक घटक होते हुए भी विरोधी प्रवृत्ति के कारण ये त्रिगुण वृत्तियों का कारण बनते हैं; जो दो प्रकार की होती हैं-क्लिष्ट अर्थात् क्लेशदायक वृत्तियाँ और अक्लिष्ट अर्थात् अक्लेशदायक वृत्तियाँ। क्लेश को हम पहले ही व्याख्यायित कर चुके हैं। क्लेश से उबरने के लिए अक्लिष्ट वृत्तियाँ प्राथमिक अभ्यास तक सहयोगी के रूप में कार्य करती हैं; किन्तु आगे चलकर यदि दुःख से पूर्णरूपेण मुक्ति चाहिए; तो ये भी त्याज्य हैं। अक्लिष्ट वृत्तियाँ भी पाँच हैं-प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा तथा स्मृति। प्रमाण अर्थात् सच्चा ज्ञान, विपर्यय अर्थात् (उल्टा) सच प्रतीत होने वाला झूठा ज्ञान, विकल्प अर्थात् काल्पनिक ज्ञान, निद्रा अर्थात् नींद एवं स्मृति अर्थात् याद रहना। सामान्य जीवन में ये अक्लिष्ट वृत्तियाँ सम्मिलित रहती हैं; योग की दृष्टि से ये पाँचों आध्यात्मिक उन्नति के प्रारम्भिक स्तर पर योगसाधना में सहयोगी हैं; किन्तु जब साधक नितान्त आध्यात्मिक स्तर की उन्नति प्राप्त करना चाहे और दुःख से पूर्ण रूप से मुक्त होना चाहे; उस स्थिति में ये सभी वृत्तियाँ त्याज्य हैं। .0.