योग और योगशास्त्र / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती
गीता के योग शब्द को लेके कुछ लोगों ने जानें क्या-क्या उड़ानें मारी हैं और गीता का अर्थ ही संन्यास-विरोधी योग उसी के बल पर कर लिया है। इतना ही नहीं। ज्ञानमार्ग के टीकाकारों और शंकर वगैरह पर उनने काफी ताने-तिश्ने भी कसे हैं और खंडन-मंडन भी किया है। उनने इस योग, हर अध्या य के अंत के समाप्ति सूचक 'इतिश्री' आदि वचनों में 'योगशास्त्रे' तथा 'भगवद्गीतासु' शब्दों को बार-बार देख के यही निश्चय किया है कि एक तो गीता में केवल प्रवृत्ति रूप योग या संन्यास-विरोधी कर्म का ही निरूपण है - यह उसी का शास्त्र है; दूसरे यह योग भागवत या महाभारत वाला भागवत धर्म या नारायणीय धर्म ही है। उन्होंने उसे ही गीता का प्रतिपाद्य विषय माना है। इसीलिए जरूरत हो जाती है कि इन बातों पर भी चलते-चलाते थोड़ा प्रकाश डाल दिया जाए।
हम कुछ भी कहने के पहले साफ कह देना चाहते हैं कि गीता का विषय न तो भागवत धर्म है और न कुछ दूसरा ही। उसका तो अपना ही गीताधर्म है जो और कहीं नहीं पाया जाता है। यही तो गीता की खूबी है और इसीलिए उसकी सर्वमान्यता है। दूसरों की नकल करने में उसकी इतनी कदर, इतनी प्रतिष्ठा कभी हो नहीं सकती थी। तब उसकी अपनी विशेषता होती ही क्या कि लोग उस पर टूट पड़ते? यह बात तो हमने अब तक अच्छी तरह सिद्ध कर दी है। यह भी तो कही चुके हैं कि गीता ने यदि प्रसंगवश या जरूरत समझ के दूसरों की बातें भी ली है तो उन पर अपना ही रंग चढ़ा दिया है। मगर भागवत धर्म पर कौन-सा अपना रंग उसने चढ़ाया है यह तो किसी ने नहीं कहा। अगर रंग चढ़े भी तो जब गीता का मुख्य विषय दूसरों का ही ठहरा, न कि अपना खास, तब तो उसकी विशेषता जाती ही रही। शास्त्रों और ग्रंथों की विशेषता होती है मौलिकता में। उनकी जरूरत होती है किसी नए विषय के प्रतिपादन में। यही दुनिया का नियम एवं सर्वमान्य सिद्धांत है। लेकिन और भी सुनिए।
सबसे पहले सभी अध्यायों के अंत में लिखे 'योगशास्त्रे' और 'भगवद्गीतासु' को ही लें। जब इस बार-बार लिखे योग शब्द से कोई खास अभिप्राय लेने या इसे खास मानी पिन्हाने का यत्न किया जाता है तो हमें आश्चर्य होता है। गीता का योग शब्द तो इतने अर्थों में आया है कि कुछ कहिए मत। अमरकोष के 'योग: संहननोपायध्यातनसंगतिषुक्तिषु' (3। 3। 22) में जितने अर्थ इस शब्द के लिखे गए हैं और उनके विवरण के रूप में जो बीसियों प्रकार के अर्थ पातंजलदर्शन, महाभारत या ज्योतिष ग्रंथों में आते हैं प्राय: सभी अर्थों में गीता ने योग शब्द को लिख के ऊपर से कुछ नए मानी भी जोड़े हैं। उसने अपना खास अर्थ भी इस शब्द को पिन्हाया है। यदि गीता के अठारहवें अध्या य के अंत के 74-76 श्लोकों को गौर से देखा जाए तो पता चलेगा कि गीता के समूचे संवाद को भी योग ही कहा है। यह तो हम पहले बता चुके हैं कि गीता का अपना योग क्या है। और भी देखिए कि पहले अध्यायय में जिस अर्जुन के विषाद की ही बात मानी जाती है उसे भी 'विषादयोगोनाम प्रथमोऽध्यायय:' शब्दों में साफ ही योग कह दिया है। भला इसका क्या संबंध है भागवत धर्म के साथ? अध्यायों के अंत में जो योग शब्द आए हैं। वह तो अलग-अलग प्रत्येक अध्या्य में प्रतिपादित बातों के ही मानी में हैं। जब तक यह सिद्ध न हो जाए कि सभी प्रतिपादित बातें भागवत धर्म ही हैं तब तक उन योग शब्दों से यह कैसे माना जाए कि वे भागवत धर्म के ही प्रतिपादक हैं? ऐसा मानने में तो अन्योन्याश्रय दोष हो जाएगा। यही कारण है कि हर अध्यारय में लिखी बातों को ही अंत में लिख के आगे योग शब्द जोड़ दिया गया है। इसलिए उन शब्दों से ऐसा अर्थ निकालना सिर्फ बाल की खाल खींचना है।
रह गई बात 'भगवद्गीतासु' या 'श्रीमद्भगवद्गीतासु' शब्द की। हम तो इसमें भी कोई खास बात नहीं देखते। इससे यदि भागवत धर्म को सिद्ध करने की कोशिश की जाती है तो फिर वही बाल की खाल वाली बात आ जाती है। यह तो सभी मानते हैं कि गीता तो उपनिषदों का ही रूपांतर है - उपनिषद ही है। फर्क सिर्फ़ यही है कि उपनिषदों को भगवान ने खुद अपने शब्दों में जब पुनरपि कह दिया तभी उसका नाम भगवद्गीतोपनिषद् पड़ गया। गीता शब्द जिस गै धातु से बनता है तथा उसका अर्थ जो गान लिखा है उसके मानी वर्णन या कथन हैं। फिर वह कथन चाहे तान-स्वर के साथ हो या साधारण शब्दों में ही हो। गान भी तो केवल सामवेद में ही होता है। मगर 'वेदै: सांगपदक्रमोपनिषदैर्गायंति यं सामगा:' में तो सभी वेदों में और उपनिषदों में भी गान की बात ही लिखी है। यहाँ तक कि वेद के अंग व्याकरणादि में भी गान ही कहा गया है। मगर वहाँ तो गान - ताल-स्वर के साथ - असंभव है। हम आपका गुण गाते रहते हैं, ऐसा कहने का अर्थ केवल बयान ही होता है, न कि राग और ताल के साथ गाना। यही बात गीता या भगवद्गीता में भी है। उपनिषद स्त्रीैलिंग तथा अनेक हैं। इसीलिए 'गीतासु' में स्त्रीउलिंग और बहुवचन प्रयोग है, जैसा कि बहुवचन 'उपनिषत्सु' में है। आमतौर से गीता शब्द भी इसीलिए स्त्रीवलिंग हो गया। नहीं तो 'गीत' होता। यदि गौर से देखा जाए तो गीता में मौके-मौके से कुल 28 बार 'श्रीभगवानुवाच' शब्द आए हैं। इनमें केवल ग्यारहवें अध्या य में चार बार, दूसरे और छठे में तीन-तीन बार, तीसरे, चौथे, दसवें और चौदहवें में दो-दो बार तथा शेष अध्यायों में एक-एक बार आए हैं। इनका अर्थ है कि 'श्रीभगवान बोले।' चाहे श्रीभगवान कहें या श्रीमद्भगवान कहें, दोनों का अर्थ एक ही है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि गीता में जो कुछ उपदेश दिया है या वर्णन किया है वह श्रीमद्भगवान ने ही। बस, इसीलिए इसका नाम श्रीमद्भगवद्गीता हो गया; न कि किसी और कारण से। इतने से ही जानें कहाँ से नारायणीयधर्म को यहाँ उठा लाना और गीता के माथे उसे पटकना बहुत दूर की कौड़ी लाना है।
योग शब्द के बारे में जरा और भी कुछ जान लेना अच्छा होगा। गीता में केवल योग शब्द प्राय: 135 बार आया है। प्राय: उसी के मानी में उसी युज धातु से बने युंजन, युत्त्का, युक्त आदि शब्द भी कई बार आए हैं। मगर उन्हें छोड़ के सीधे योग शब्द हर अध्यााय के अंत के समाप्ति सूचक संकल्प वाक्य में दो-दो बार आए हैं। इस प्रकार यदि इन 36 को निकाल बाहर करें तो प्राय: सौ बार गीता के भीतर के श्लोकों में यह शब्द पाया जाएगा। इनमें चौथे, पाँचवें, छठे तथा आठवें आदि में कुछ बार पातंजल योग के अर्थ में ही यह शब्द आया है, या ऐसे अर्थ में ही जिसमें पातंजल योग भी समाविष्ट है। तीसरे अध्यारय के 'कर्मयोग' (3। 1) में और 'योगिन: कर्म' (5। 11) में भी योग शब्द साधारण कर्म के ही मानी में आया है। इसीलिए वहाँ कर्मयोग शब्द का वह विशेष अर्थ नहीं है जो उस पर कर्मयोग-शास्त्र के नाम से लादा जाता है। इसी तरह 'यत्रकाले त्वनावृत्तिम्' आदि (8। 13-27) श्लोकों में कई बार योग और योगी शब्द साधारण कर्म करने वालों के भी अर्थ - व्यापक अर्थ - में आया है। 'योगक्षेमं' (9। 22) और 'योगमाया समावृत:' (7। 25) का योग शब्द भी अप्राप्त की प्राप्ति आदि दूसरे ही अर्थों में है। दसवें अध्या य में कई बार योग शब्द विभूति शब्द के साथ आया है और वह भगवान की शक्ति का ही वाचक है। बारहवें में भी कितनी ही बार यह शब्द अभ्यास वगैरह दूसरे अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। तेरहवें के 'अन्ये सांख्येन योगेन' (13। 24) में तो साफ ही योग का अर्थ ज्ञान है।
इस प्रकार यदि ध्याेन से देखा जाए तो दस ही बीस बार योग शब्द उस अर्थ में मुश्किल से आया है, जिसका निरूपण 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' (2। 47-48) में किया गया है; हालाँकि उस योग का भी जो निरूपण हमने किया है और जिसे गीताधर्म माना है वह ऐसा है कि उसके भीतर कर्म का करना और उसका संन्यास दोनों ही आ जाते हैं। मगर यदि यह भी न मानें और योग का अर्थ वहाँ वही मानें जो गीतारहस्य में माना गया है, तो भी आखिर इससे क्या मतलब निकलता है? गीता के श्लोकों में जो सैकड़ों बार से ज्यादा योग शब्द आया है उसमें यदि दस या बीस ही बार असंदिग्ध रूप से उस अर्थ में आया है और बाकी दूसरे-दूसरे अर्थों में, तो योग शब्द के बारे में यह दावा कैसे किया जा सकता है कि वह प्रधानतया गीता में उसी भागवत धर्म का ही प्रतिपादक है? चाहे आवेश में आ के औरों को भले ही कह दिया जाए कि वे तो शब्दों का अर्थ जबर्दस्ती करके अपने संप्रदाय की पुष्टि करना चाहते हैं। मगर यह इलजाम तो उलटे इलजाम लगानेवालों पर ही पड़ जाता है। यों तो चाहे जो भी दूसरों पर दोष मढ़ दे सकता है। मगर हम तो ईमानदारी की बात चाहते हैं, न कि खींचतान।