योग और योगाभ्यास के वृहत्तर लक्ष्य / कविता भट्ट

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योगदर्शन एक सैद्धान्तिक व प्रायोगिक विषय है। योगदर्शन में दो पद हैं-योग तथा दर्शन। पहले दर्शन का अर्थ जानना आवश्यक है। दर्शन अर्थात् देखने की प्रक्रिया; यह देखना सामान्य रूप से देखना नहीं है। यहाँ देखने का अर्थ है-सत्य को जानने हेतु सूक्ष्मता के साथ चिंतन / मनन / विश्लेषण की प्रक्रिया। अब योग पद का अर्थ जान लेना चाहिए। योग शब्द का अर्थ है-जुड़ना, मिलना या संयोग होना। शरीर और आत्मा दोनों पृथक् हैं तथा आत्मा ही व्यक्ति का वास्तविक स्वरुप है; ऐसा ज्ञान होना ही योग की अनिवार्यता है। आत्म तत्त्व (व्यक्तिपरक चेतन तत्त्व) का साक्षात्कार होकर; उसका परमात्मा (परम चेतन तत्त्व) में सम्मिलन होना ही योग है। ऐसा होने पर ही त्रिविध दुःख की निवृत्ति होती है। योग दर्शन के अनुसार त्रिविध दुःख हैं-परिणाम, ताप और संस्कार। आध्यात्मिक (शारीरिक और मानसिक दुःख) , आधिभौतिक (अन्य प्राणियों द्वारा मिलने वाले दुःख) और आधिदैविक (दैवीय / प्राकृतिक आपदा: बाढ़ व भूकंप आदि से मिलने वाला दुःख) को योग दर्शन ताप दुःख की श्रेणी में रखता है। योग ऐसी प्रक्रिया है जो इन दु: खों की निवृत्ति का साधन है। योगदर्शन भारतीय आस्तिक दर्शन की वह शाखा है जो अष्टांग योगाभ्यास (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि) द्वारा त्रिविध दुःख कि निवृत्ति का पथ प्रशस्त करता है और व्यक्ति को स्वस्थ जीवन प्रदान करने के साथ ही कैवल्य / मुक्ति / अपवर्ग / मोक्ष का अधिकारी भी बनाता है।

चिंतनीय है कि आज के भागदौड़ वाले युग में जन सामान्य योग को स्वस्थ रहने हेतु उपयोग में ला रहा है; किन्तु सामान्यीकरण करने की पराकाष्ठा घातक है और जनसामान्य आसन मात्र को योग मानने लगे। ध्यातव्य है कि स्वस्थ रहने का अभिप्राय केवल नीरोग होना नहीं है। स्वस्थ होने के अत्यंत गूढ़ निहितार्थ हैं। इस दृष्टिकोण से योग के दो प्रकार के लक्ष्य हैं-लौकिक व पारलौकिक। इनमें भी व्यक्तिगत व सामाजिक विभेदों वाले अत्यंत वृहत्तर उद्देश्य हैं। इसलिए इसके लक्ष्यों को व्यक्तिगत लक्ष्यों की दृष्टि से शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक लक्ष्यों के रूप में विवेचित किया जा सकता है तथा सामाजिक दृष्टि से मूल्यों के संवर्धन, नैतिक उत्थान व समरसता युक्त वातावरण के निर्माण की दृष्टि से जाना जा सकता है। इस आलेख में योग के लक्ष्यों को संक्षेप में विवेचित करेंगे।

योग के व्यक्तिगत लक्ष्य: मनोशारीरिक स्वास्थ्य एवं आध्यात्मिक उन्नति

श्वेताश्वतर उपनिषद् में योग के शारीरिक लाभों को विवेचित करते हुए लिखा गया है-लघुत्वमारोग्यमलोलुपत्वं वर्णप्रसादं स्वरसौष्ठवं च। गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्पं योगप्रवृत्तिं प्रथमां वदन्ति। अर्थात् शरीर में हल्कापन, किसी प्रकार के रोग का न होना, विषयासक्ति की निवृत्ति, शारीरिक वर्ण की उज्ज्वलता, स्वर की सुमधुरता, शरीर में अच्छी गन्ध और मल-मूत्र का कम हो जाना ये सभी योग के प्राथमिक लक्ष्य है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि योगाभ्यास के माध्यम से समग्र शारीरिक स्वास्थ्य के साथ ही विषयासक्ति की निवृत्ति जैसे व्यावहारिक व आध्यात्मिक लाभ भी प्राप्त होते हैं।

योगाभ्यास व्यक्ति के समस्त शरीर तन्त्रों व मानसिक सत्ताओं में अनुशासनात्मक व्यवस्था का निर्वहन करने का एकमात्र साधन है। विश्वस्तर पर योगदर्शन के लोकप्रिय होने का प्रमुख कारण, उसके माध्यम से प्राप्त होने वाला सम्पूर्ण स्वास्थ्य ही है। स्वस्थ शब्द मात्र व्याधिरहितता नहीं है; अपितु प्राचीन भारतीय दर्शन के अनुसार स्वस्थ का अर्थ है-अपने आप में या अपनी आत्मा में स्थापित होना। जब व्यक्ति योगाभ्यास करता है तो उसकी चित्तवृत्तियों का निरोध होने के पश्चात् वह अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाता है। पातंजलयोगदर्शन के प्रथम पाद में इस तथ्य को स्पष्टतः स्वीकार किया गया है-तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्। अर्थात् योग के अभ्यास के पश्चात् द्रष्टा (पुरुष) अपने वास्तविक स्वरूप में अवस्थित होता है। यही कैवल्य बोध भी है व शारीरिक रूप से स्वस्थता का भी साधनस्वरूप है। इसी प्रकार यदि व्यक्तिगत अनुशासन की बात की जाय तो महर्षि इसके लिए पाँच नियमों को इस प्रकार निर्देशित करते हैं-शौचसन्तोषतपस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः। अर्थात् शौच (मानसिक एवं शारीरिक शुद्धि) , सन्तोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर-प्रणिधान ये पाँच नियम हैं। व्यक्तिगत रूप से अनुशासन व चारित्रिक संयमन की दृष्टि से ये नियम व्यक्ति को शारीरिक व मानसिक दोनों ही प्रकार के लाभों के साधन हैं। शौच से शारीरिक स्वच्छता व स्वस्थता प्राप्त होते हैं तथा सन्तोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वरप्रणिधान से मानसिक स्वस्थता, दृढ़ता, अनुशासन व नियंत्रण आदि प्राप्त होते हैं। जब व्यक्ति शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ व अनुशासित होगा तो स्वयं ही वह भौतिक व आध्यात्मिक दोनों प्रकार की उन्नति को प्राप्त करने में सक्षम होगा।

योग का सबसे अधिक योगदान मन के नियंत्रण और असको सुदृढ बनाने के उपायों में है। योग के अभ्यास से संकल्पशक्ति बढती है; जिससे व्यक्ति में आनन्द और संतुलन बढना स्वाभाविक है। योग शास्त्र में यह माना गया है कि आनन्द और आत्मसाक्षात्कार के लिए मन का नियंत्रण आवश्यक है। योग में बतलाये गये नियमों को आधार पर व्यक्ति न केवल संकलित व्यक्तित्व प्राप्त कर सकता है बल्कि व्यक्तित्व के असाधारण गुणों को भी प्राप्त कर सकता है। योग के अभ्यास से उसे मने के गतिशास्त्र में गहरह अर्न्तदृष्टि प्राप्त होती है। वह अपने व्यक्तित्व की रचना को समझ लेता है। संकल्पशक्ति के बलवान होने से वह अनेक असाधारण शक्तियाँ प्राप्त कर लेता है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि योग अनेक शारीरिक लाभों के साथ ही अनेक मानसिक लक्ष्यों का भी प्रदाता है। योग के शारीरिक व मानसिक लक्ष्यों को जानने के पश्चात् अब हम इसके आध्यात्मिक लक्ष्य को जानने का प्रयास करेंगे।

श्वेताश्वतर उपनिषद् में योग के आध्यात्मिक लक्ष्य कैवल्य को इस प्रकार विवेचित किया गया है। यथैव बिम्बं मृद्योपलिप्तं तेजोमयं भ्राजते तत्सुधन्तम्। तद्यात्मतत्त्वं प्रसमीक्ष्य देही एकः कृतार्थो भवते वीतशोकः। अर्थात् जिस प्रकार से मिट्टी से ढकने के कारण मैला हुआ जो प्रकाशयुक्त रत्न है वह भली प्रकार से धुल जाने पर चमकने लगता है, उसी प्रकार यह जीवात्मा (योगाभ्यास के माध्यम से) आत्म-तत्त्व को-को भली प्रकार प्रत्यक्ष करके अकेला कैवल्य अवस्था को प्राप्त, सब प्रकार के दुःखों से रहित तथा कृतकृत्य हो जाता है। योग के व्यक्तिगत लक्ष्यों को विवेचित करने के पश्चात् अब हम इसके सामाजिक लक्ष्यों पर दृष्टिपात करेंगे।

सामाजिक लक्ष्य: नैतिक मूल्य संवर्धन-उत्थान व समरसता युक्त वातावरण का निर्माण

योग दर्शन के सन्दर्भ में जब हम पातंजल योग सूत्र का (इस दर्शन के सर्वप्रमुख ग्रन्थ के रूप में) अध्ययन करते हैं, तो हम पाते हैं कि योग का आरम्भ ही व्यक्तिगत व सामाजिक अनुशासन की स्थापना की प्राथमिकता को महत्त्व देते हुए यम व नियम जैसे साधनों से होता है नियम व्यक्तिगत अनुशासन व यम व्यक्तिगत व सामाजिक दोनों ही प्रकार के अनुशासन के विशिष्ट चरण हैं। यम के पांच साधनों का निर्देश देते हुए महर्षि लिखते हैं-अहिंसासत्यअस्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहायमाः। जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्। अर्थात् अहिंसा (किसी को किसी भी प्रकार की पीड़ा न पहुँचाना) , सत्य (सदैव सच बोलना) , अस्तेय (चोरी न करना) , ब्रह्मचर्य (कामेच्छा का इन्द्रिय निग्रह व अनुशासन के द्वारा नियंत्रण) , अपरिग्रह (भौतिक वस्तुओं का त्याग) करना पाँच यम हैं, जो जाति, देश, काल (युग) व समय आदि की परिधि से अविच्छिन्न हैं अर्थात् प्रत्येक जाति द्वारा प्रत्येक देश व समय में आवश्यक रूप से पालनीय हैं। इससे स्पष्ट होता है कि यम सम्पूर्ण मानव समाज द्वारा किसी भी परिस्थिति में अनुशासन के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। जिन सामाजिक समस्याओं के निवारण की दृष्टि से इन पाँच नियमों का प्रतिपादन किया गया था। वे समस्याएँ तत्कालीन युग में इतनी विकट न होने पर भी इनको प्रतिस्थापित करना आवश्यक समझा गया, अब तो स्थिति इस सम्बन्ध में अत्यंत विकट है मानव समाज नैतिक मूल्यों के अवमूल्यन के कारण अनेक सामाजिक समस्याओं से ग्रस्त है। यदि उपर्युक्त यमों का प्रत्येक व्यक्ति द्वारा मन, वचन व कर्म से पालन किया जाय तो, मानव समाज में अनुशासनात्मक, स्वस्थ व सुमधुर वातावरण का निर्माण होना निश्चित है।