योग का सार सूत्र / ओशो

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प्रवचनमाला

नई सुबह। नया सूरज। नयी धूप। नये फूल। सोकर उठा हूं। सब नया-नया है। जगत में कुछ भी पुराना नहीं है।

कई सौ वर्ष पहले यूनान में हेराक्लतु ने कहा था, 'एक ही नदी में दो बार उतरना असंभव है।'

सब नया है, पर मनुष्य पुराना पड़ जाता है। मनुष्य नये में जीता ही नहीं, इसलिए पुराना पड़ जाता है। मनुष्य जीता है : स्मृति में, अतीत में, मृत में। यह जीना ही है, जीवन नहीं है। यह अर्ध मृत्यु है और इस अर्ध मृत्यु को ही हम जीवन मानकर समाप्त हो जाते हैं। जीवन न अतीत में है, न भविष्य में है। जीवन तो नित्य वर्तमान में है।

वह जीवन योग से मिलता है, क्योंकि योग चिर-नवीन में जगा देता है। योग चिर-वर्तमान में जगा देता है। उसमें जागना है - 'जो है'। 'जो था' वह भी नहीं है। 'जो होगा', वह भी नहीं है और 'जो है', वह प्रकट तब होता है, जब मानव-चित्त स्मृति और कल्पना के भार से मुक्त होता है।

स्मृति मृत का संकलन है, उसमें जीवन को नहीं पाया जा सकता है। और कल्पना भी स्मृति की ही पुत्री है। वह उसकी ही प्रतिध्वनि और प्रक्षेप है। वह सब ज्ञात में भटकना है। उससे जो अज्ञात है, उसके द्वार नहीं खुलते हैं।

ज्ञात को जाने दो, ताकि अज्ञात प्रकट हो सके। मृत को जाने दो, ताकि जीवित प्रकट हो सके। योग का सार सूत्र यही है।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)