योजनाओं का शहर / संजय कुंदन / ओम निश्चल

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कविता बातचीत का सहज प्रवाह भी है
--ओम निश्‍चल

पुस्तक: योजनाओं का शहर
रचनाकार: संजय कुंदन
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन,21 ए, दरियागंज, नई दिल्‍ली
मूल्‍य: 200 रुपये


गत सदी के आखिरी दशक में जिन कुछ युवा कवियों ने हिंदी कविता में चुपचाप अपनी जगह बनाई उनमें संजय कुंदन का  नाम जाना-पहचाना है। इस बीच उन्‍होंने करवट बदली, कुछ कहानियॉं और एक उपन्‍यास भी लिखा पर कविताओं में उनकी मस्‍ती और व्‍यंजनाओं का आलम बरकरार रहा। ' कागज़ के प्रदेश में '  और ' चुप्‍पी का शोर' के बाद अब वाणी प्रकाशन से आया उनका ताज़ा संग्रह 'योजनाओं का शहर' फिर एक बार इस बात की मुनादी करता प्रतीत होता है कि अपने समकालीनों में संजय कुंदन का अंदाजेबयॉं कुछ अलग-सा है। ‘कागज़ के प्रदेश में ’ में और ‘चुप्‍पी का शोर’ में जो श्‍लेष विद्यमान है उससे हम उनकी कविता में व्‍याप्‍त विट और विदग्‍धता की संयमित जुगलबंदी देख सकते हैं। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि संजय का कवि योजनाओं,  बैठकों,  नौकरियों,  ज्ञानियों,  अधिकारियों,  समझौतापरस्‍तों, अर्जियों,  अपराधियों और कार्यकर्ताओं --यानी आज के तल्‍ख हकीकत से गहरे वाबस्‍ता है। वह जानता है कि इन विडंबनाओं का मायाजाल समूचे तंत्र में व्‍याधियों की तरह फूला-फला है। योजनाऍं बनाने में हुनरमंद लोग योजनाऍं बनाते रहे लेकिन वे हकीकत से हमेशा दूर रही आईं। संजय कुंदन ने अपने समय को एक आम आदमी के रूप में, एक द्रष्‍टा (आनलुकर) के रूप में देखा है---एक ऐसा शख्‍स जो योजनाओं के शहर में अपना वजूद खो बैठा है।

यह आम आदमी क्‍या है और इसका कविता के फलसफे से क्‍या रिश्‍ता है। शायद किसी भव्‍य जीवनचर्या पर उतनी अच्‍छी कविता नहीं लिखी जा सकती, जितना उसकी कुरूपताओं पर। कविता तो आम आदमियों के हृदय में निवास करती है। कविता की जरूरत भी आम आदमी को ही है क्‍योंकि इसी में उसकी आत्‍मा की सबसे निरीह और कातर आवाज़ सुनी जा सकती है। संजय कुंदन का कवि भी इसी आम आदमी के बीच विश्रांति पाता है। कवि शक्‍ति और ऐश्‍वर्य के कदमों में नहीं, इसी आम आदमी के कदमों में झुकता है। इसीलिए संजय के यहॉं भी ज्‍यादातर यही मामूली आदमी अपनी तमाम छवियों में दिखता है। वही है जो सुबह सुबह नल में पानी न आने से परेशान होता है,  पानी का आना उसके लिए सबसे बड़ी खबर होती है। वही है जो अचानक एक दिन अपराधियों के गिरोह में शामिल दिखता है, वही है जो अपने आदमी होने को लेकर हर वक्‍त सचेत रहता है, वही है जो परदेस में ‘हर नदी धड़कती है दूसरी नदी में’ के भाव से अभिभूत होकर छठ मनाता है, वही है मेले ठेले को देख खुशी से जिसकी आँखें भर उठती हैं, वही है जिसे कहीं भी पॉंव रखते ही  'हटो हटो’  की दुरदुराहट सुनायी पड़ती है, वही है जिसके लिए मामूली समोसा भी खास चीज है, वही है जो चाहे तो रातोरात सरकार गिरा सकता है पर जो अक्‍सर मन ही मन बुदबुदाता हुआ पाया जाता है, वही है जिसकी अर्जियों पर कभी सुनवाई नहीं होती। वही है जिसकी छँटनी का खतरा हर वक्‍त बना रहता है, वही है जिसकी नौकरी चले जाने पर धूमिल जैसा कवि भी एक कारुणिक कविता लिखने पर विवश होता है। वही है जिस पर ज्ञानियों के ज्ञान, योजनाकारों की योजनाऍं, वैज्ञानिकों के प्रयोग आजमाए जा रहे हैं। कुंदन को यहॉं इसी आम आदमी के पक्ष में खड़ा देखा जा सकता है।

जीवन से आक्‍सीजन के सभी स्रोत खींच लेने वाले इस माहौल में भी संजय कुंदन मामूली लोगों के लिए फिक्रमंद हैं। 'एक शब्‍द तिनका'--लिख कर जिस तरह लीलाधर जगूड़ी ने हिंदी कविता में आम आदमी के मामूलीपन को चिह्नित किया था,  संजय कुंदन उसी तरह वर्तमान में गहरे धँस कर जगह ब जगह आम आदमी का आखेट करती व्‍यवस्‍था की त्‍वचा को उधेड़ते नजर आते हैं तो मटमैली त्‍वचा वाली यमुना के तट पर छठ मनाती औरतों के भावुक संसार को भी यह कह कर निहारते हैं कि :

गांव की छुटकी नदी नहीं है तो क्‍या हुआ
यमुना तो है
हर नदी धड़कती है दूसरी नदी में
जैसे एक शहर प्रवाहित होता है
दूसरे शहर में। 

'योजनाओं का शहर' --तो अकेली ऐसी कविता है जो योजनाओं के जजमानों-वास्‍तुकारों की बारीक टोह लेती है। इस कविता का यह अंश यह जताने के लिए पर्याप्‍त है कि योजनाओं और प्‍यास से तड़पते आदमी में आज कोई तालमेल नहीं है और यह भी कि इस बात को कटाक्ष के कवच में कितने मर्यादित ढंग से व्‍यक्‍त किया जा सकता है:

योजनाओं में हरियाली थी
धूप खिली थी बह रहे थे मीठे झरने
एक दिन योजनाकार को
रास्‍ते में प्‍यास से तड़पता एक आदमी मिला
योजनाकार को दया आ गयी
उसने झट उसके मुँह में एक योजना डाल दी।

हद तो यह कि हमारी विनम्रता-मुस्‍कराहट-अभिवादन में कितनी योजनाबद्धता है, इसकी खोज-खबर भी यह कविता पुरलुत्‍फ अंदाज में लेती है: 

'जब उसने बताया
वह एक योजना के मुताबिक
विनम्र बन रहा है
तो मैं चकराया
उसके मुस्‍कराने के अंदाज और
हाथ मिलाने के ढंग पर संदेह हुआ।'

अपने समय की मुश्‍किलों का बयान करने वाली संजय कुंदन की कविता किसी कातर की आर्त पुकार में अपना स्‍वर नहीं मिलाती, निरीहता की हद तक नीचे उतर कर प्रार्थना की भाषा में तब्‍दील नहीं हो जाना चाहती, बल्‍कि यह आहिस्‍ता आहिस्‍ता अपने प्रभावक स्‍वर में किसी भी सु-व्‍यवस्‍था के चरमराते हुए ढांचे को देख कर खिलखिला कर हँस पड़ती है जैसे कभी कभी समझौते के तहत लोगों की 'हॉं' में 'हॉं' मिलाते देख कवि की आत्‍मा खिलखिला उठती है। अशोक वाजपेयी ने कभी प्‍यार के लिए 'थोड़ी सी जगह' की ख्‍वाहिश जताई थी, संजय कुंदन 'थोड़ी सी जगह' की ख्‍वाहिश में जहॉं-जहॉं हाथ रखते हैं, 'हटो हटो' की दुत्‍कार सुनाई देती है। दो पीढ़ियों के कवियों में इस ‘थोड़ी सी जगह’ को लेकर जो अंतराल और वैपरीत्‍य है, वही आज के कवियों की अंतर्दृष्‍टि को पिछली पीढ़ियों के कवियों की अंतर्दृष्‍टि से अलग करता है:

एक कागज भी नहीं देता जगह
उस पर हाथ रखो तो कहता है
उसे अभी अभी बनना है एक पोस्‍टर
एक ईंट की ओर देखो तो कहती है
उसे अभी अभी बदल जाना है एक बहुमंजिले मकान में
मैने सोचा इतिहास में जरूर बची होगी थोड़ी जगह
वहॉं पहुँचते ही प्रकट हुए एक देवता
बोले---यहॉं बैठेगी सिर्फ मेरी जनता।

अचरज नहीं कि यह कविता अपने स्‍थापत्‍य और सादगी में अरुण कमल की सुपरिचित कविता  ‘मैं किसकी ओर से बोल रहा हूँ ‘ की याद दिलाती है। यानी कवि को अपनी ओर से बोलने तक का हक नही रहा क्‍योंकि आज के राजनीतिक समय में सब कुछ जैसे राजनीति ही जैसे तय करती है। पर विष्‍णु नागर ने सटीक लक्ष्‍य किया है कि अपने समय की मुश्‍किलों का बयान करते हुए कविताऍं जिस तरह अक्‍सर दुरूह हो जाया करती हैं, वैसा सौभाग्‍य से यहॉं नहीं हुआ है। ये बातचीत के प्रवाह में रची गयी हैं इसलिए यहॉं चरम से चरम अपराध और अमानवीय कृत्‍यों के लिए कवि ने किसी दुर्वासा या ’बालू में गाड़ दो आततायी सरकार को’ वाला वीर-भाव नहीं अपनाया है। वह हमेशा की तरह हँसता-खिलखिलाता दोषों-व्‍याधियों की तरफ बस जरा-सी निगाह डालता हुआ-सा लगता है, उतना ही जितना आम आदमी को राह चलते दिखायी देता है। पर उतने में ही संजय कुंदन की ये कविताऍं कहर ढा देती हैं, जैसे उनकी सुविख्‍यात मुस्‍कराहट होठों के बीच फँसी भाषा का निहितार्थ उजागर कर देती है।

संजय कुंदन की कविता आसानी से अपराधी को अपराधी नही मानती। वह मानती है कि उसके अपराधी होने के पीछे की वजहें जवाबदेह हैं। इसलिए कवि की नज़र में ‘अपराध कथाऍं’ भी साधारण लोगों के पराजयों की कहानियॉं हैं। जहॉं घर, समाज का माहौल तानों से भरा हो, बाप शराबी और दारोगा से भी हिंसक हो, जहॉं न्‍याय ढुलमुल और बिकाऊ हो, जहॉं अपनी आत्‍मा को बचा कर भागी स्‍त्रियों को बदचलन मान कर छोड़ दिए जाने का रिवाज हो, जहॉ अपराधियों का सांस्‍थानिक संरक्षण और पल्‍लवन होता हो, जहॉं कागजी उछाल मारती अर्थव्‍यस्‍था के चलते किसान आत्‍महत्‍याओं पर विवश हों, जहॉं सलवा जूडूम के नाम पर शम्‍बूक वध होते हों, वहॉं अपराध उन्‍मूलन के सारे पौरुषेय हथकंडे शर्मनाक हो चुके हैं। ‘नौकरी तंत्र’ इतना भयावह हो चुका है कि यह कविता पढ़ते हुए अभिधा की ताकत का पुख्‍ता अहसास होता है। सहज बातचीत के प्रवाह में भी कविता इतनी वेधक हो सकती है, कुंदन की कविताऍं इसका उदाहरण हैं। कवि डूबती हुई नदी और समाधि लेते सच के साथ जैसे किसी विस्‍थापित की खोई हुई हवाई चप्‍पल और एक मैली सी इच्‍छा का साक्षी-भर होकर रह गया है। वह तो महज इस बात से आशंकित है कि कहीं एक मनुष्‍य की तरह बचे हुए होने के कारण ही उसे अपमानित न कर दिया जाए। आखिर वह क्‍या करे जब हर जगह ‘हॉं’ कहने का चलन हो और ‘नहीं’ कहने पर उस पर भृकुटियॉं तन जाऍं। संजय का काम यथार्थ से बखूबी चल जाता है, इसीलिए वे अपनी कविता को अतियथार्थ के हारमोन से बचाने वाले उन कुछ विश्‍वासी कवियों में हैं जिनके लिए यथार्थ केवल यथास्‍थिति नहीं है।