रंगभूमि के बहाने / प्रताप सहगल
हमारे देश में लोगों की भावनाएँ बड़ी जल्दी और ज़रा-ज़रा-सी बात पर आहत हो जाती हैं। ताज़ा मिसाल है रंगभूमि में आए कुछ प्रसंगों एवं सम्बोधनों से आहत होना। रंगभूमि का प्रकाशन 1924-25 में हुआ था यानी लगभग 80 वर्ष पहले। 80 वर्षों के बाद अचानक कुछ दलितों की भावनाओं को ठेस लगी है। स्पष्ट है कि इसके पीछे राजनीति और सस्ती लोकप्रियता या कहें कि प्रचार पाने की मंशा ही झलकती है।
यह कोई पहली बार ऐसा नहीं हुआ और न केवल साहित्य में ही, बल्कि अन्य कलाओं के प्रति भी ऐसा दुर्भावनापूर्ण व्यवहार सामने आता रहता है। एम॰ एफ॰ हुसैन तो बार-बार इस मनोवृत्ति का शिकार होते रहे हैं। वे केवल हिंदुओं के ही नहीं, बल्कि रूढ़िवादी मुसलमानों का भी कोपभाजन बने हैं। एक सामान्य महिला के रूप का बखान करने के लिए 'नूर' शब्द का इस्तेमाल करना कुफ्र हो गया। हम यह भी देखते हैं कि रूढ़िवादी हिंदू ताकतों ने लाख कोशिशों के बावजूद 'वाटर' फ़िल्म का मुहूर्त ही नहीं होने दिया। अमृता प्रीतम को अपनी कुछ टिप्पणियों के लिए सार्वजनिक रूप से क्षमा मांगनी पड़ी। संभव है कि कुछ लेखकों, कलाकारों की मानसिकता ऐसी हो कि वे जानबूझकर ऐसी अयाचित टिप्पणियाँ करते हों, जिनके बिना भी सृजनात्मक कर्म हो सकता है। फिर भी रचना को जलाकर, गिराकर, तोड़-फोड़कर उसका प्रतिकार करना कहाँ तक उचित है! रचना का धर्म ही संवेदनशील बनाना है। रचना के मर्म में छिपी इंसानी शक्ल की पहचान होनी चाहिए नाकि रचना के ढाँचे या तरीक़े को अपने अनुरूप न पाकर उसका विरोध किया जाए। न सिर्फ़ इतना ही बल्कि रचनाकार और कलाकार को जान से मार देने तक की धमकियाँ दी जाएँ।
जो उदाहरण ऊपर दिए गए हैं, उनके अतिरिक्त भी अनेक उदाहरण जुटाए जा सकते हैं। वस्तुतः प्रश्न यह है कि लेखक या कलाकार को अपनी बात को अपनी तरह से रखने का हक़ है या नहीं। एक गोष्ठी में महीपसिंह की एक कहानी पर चर्चा हो रही थी। कहानी के केंद्र में 1984 के दंगों से पीड़ित एक सिख चरित्र था। उनसे एक लेखक ने यह पूछा कि आप केवल सिख चरित्रों को ही सामने क्यों लाते हैं? हमेशा उनकी पीड़ा का बखान ही क्यों रकते हैं? पंजाब में लगातार चलते रहे आतंकवाद के शिकार बेगुनाह हिंदू आपकी कहानियों के पात्र क्यों नहीं बनते? यही प्रश्न दलित लेखकों से भी किया जाता है कि उनकी रचनाओं के पात्र दलित ही क्यों होते हैं? पर सवर्ण हिंदू लेखकों से यह सवाल कम ही पूछा जाता है कि उनकी रचनाओं के पात्र प्रायः हिंदू ही क्यों होते हैं! यह एक समाजशास्त्रीय प्रश्न है और मनोवैज्ञानिक भी। वस्तुतः जिस रचनाकार को बचपन से जो परिवेश मिला है, जो लोग मिले हैं, वे ही उनके संस्कारों का हिस्सा होते हैं और वह उसी परिवेश से जुड़े पात्रों को अधिक जुड़ाव एवं संलग्नता के साथ अपनी रचनाओं में उकेर पाता है। किसी भी लेखक के हाथ में यह नहीं है कि वह होश सँभालने से पहले ही स्वयं अपने परिवेश का चुनाव कर सके। होश सँभालने तक उसकी मानसिकता जिस भी रंग की बननी हो बन चुकी होती है। वस्तुतः उसकी यात्रा तो यहीं से शुरू होती है। वह लेखक कहलाने का अधिकारी भी तभी बनता है, जब वह अर्जित संस्कारों को परख-पहचान कर छोड़ना, तोड़ना और बदलना शुरू करता है। जो उसे मिला वह सब ठीक है तो वह कथा-वाचक बन सकता है या किसी कीर्तन-मंडली का अध्यक्ष-लेकिन लेखक नहीं। मूर्तिभंजन की इस प्रक्रिया में ही यह सब ख़तरे उसके सामने आते हैं। मूर्तिभंजन करना भर ही रचनात्मक कर्म नहीं है, बल्कि लेखक को अपने और समाज के लिए एक प्रति-संसार या कहें कि एक वैकल्पिक संसार भी खड़ा करना होता है-इतना ग़र न हो तो वह कम से कम वैकल्पिक संसारों की खोज तो ज़रूर करता है।
खोज की इसी प्रक्रिया में वह धार्मिक एवं सांस्कृतिक प्रतीकों की पहचान करने लगता है। उन प्रतीकों को नए अर्थ देने लगता है। जब प्रतीकों के चुनाव का प्रश्न आता है तो उसके सामने वही धार्मिक एवं सांस्कृतिक प्रतीत आते हैं, जो बालपन से ही उनकी मानकिसता का हिस्सा बन चुके हैं। किसी लेखक ने एक जगह प्रतीकों के चुनाव को लेकर टिप्पणी करते हुए कहा था कि हिंदू लेखक अपने रचना-कर्म में हिंदू प्रतीकों को नहीं चुनेगा तो क्या मुस्लिम प्रतीकों को चुनेगा? यह बात आंशिक रूप से सत्य मानी जा सकती है। तब यह भी मानना होगा कि मुस्लिम लेखक मुस्लिम प्रतीकों और सिख लेखक सिख प्रतीकों तथा ईसाई लेखक ईसाई प्रतीकों को चुनेगा और उन्हीं के माध्यम से अपना रचना लोक खड़ा करेगा।
प्रतीकों को चुनने का अधिकार लेखक के पास है। होना ही चाहिए, लेकिन इतने भर से सृजनात्मक कर्म संभव नहीं है। देखना यह होता है कि उन धार्मिक या सांस्कृतिक प्रतीकों का प्रयोग लेखक किस तरह से करता है। वह उन्हें कुछ नए अर्थ देता है या नहीं? उसका कोई नया आयाम खोलता है या नहीं? उसे अपने परिवेश से जोड़कर उसमें कोई नया रंग भरता है या नहीं? इन सवालों का जवाब ढूँढ़ने के लिए हमें प्रतीकों के जैनेसिसस में जाना होगा। यह भी देखना होगा कि यह बहस शुरू कब हुई।
वस्तुतः पिछले 10 वर्षों में एक राजनीतिक दल द्वारा 'हिंदुत्व' पर छेड़ी गई बहस के ज़रिए इन सवालों के संभावित जवाब खोजे जा सकते हैं। 'हिंदुत्व' का नारा जब उछाला गया तो प्रायः लोगों को लगा कि यह कोई नया शिगूफा छोड़ा जा रहा है, जिसके रथ पर सवार होकर सत्ता प्राप्त की जा सकती है। ऐसा हुआ भी लेकिन यहाँ सत्ता विमर्श को खोलना या उसके रास्तों की परख करना हमारा मंतव्य नहीं है। उस पर टनों की तादाद में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। यहाँ खोज इस बात की है कि राजनीतिक शिगूफा और उस शिगूफे के रथ पर सवार हो सत्ता के गलियारों तक पहुँचने वाले राजनेता लेखन एवं अन्य कलाओं को किस तरह से एक दायरे में बंद कर देना चाहते हैं। इतना ही नहीं, वे रचनाकार की सृजनात्मकता को भी अपने पक्ष में खड़ा हुआ देखना चाहते हैं।
'हिंदुत्व' शब्द का पहली बार इस्तेमाल दामोदर विनायक सावरकर की किताब 'हिंदुत्व' में हुआ है। यह किताब पहली बार 1923 में प्रकाशित हुई, जिसमें सावरकर ने अपनी तरह से ऐतिहासिक, वैदिक, पैराणिक एवं प्राकृत, अपभ्रंश साहित्य के हवालों से यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि 'हिंदुत्व' 'हिदुइज़्म' से अलग अवधारणा है। वे 'हिंदू' शब्द की व्युत्पत्ति खोजते हुए अपने तर्क जुटाते हैं और प्रामाणित करते हैं कि वस्तुतः 'हिंदू' शब्द 'सिंधु' , आर्य, भारत आदि से भी पहले का है, इसके लिए उनके पास ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं है। केवल भाषावैज्ञानिक तर्क है कि जैसे फ़ारसी से 'स' का उच्चारण 'ह' होता है ऐसे ही प्राकृत साहित्य में है और यह संभव है कि हमारे 'ह' को फ़ारसी में 'स' में बदल दिया गया हो। सावरकर की पूरी किताब में दिलचस्प तरीक़े से बातें स्थापित की गई हैं। जब उनके पास साक्ष्यों की कमी होती है तो वे बड़ी सुविधा से यह कहकर आगे बढ़ जाते हैं कि प्रमाण तो बहुत हैं, लेकिन यहाँ उन्हें जुटाना संभव नहीं है, कुछ साक्ष्यों एवं अवसर, कुछ अनुमानों तथा अटकलबाज़ियों के आधार पर वे 'हिंदुत्व' की अवधारणा खड़ी करते हैं। यह अवधारणा हिंदुओं (शैव-वैष्णव यानी सनातनी हिंदू) , सिखों, जैनियों, बौद्धों तथा आर्य समाजियों आदि को भी 'हिंदुत्व' के दायरे में लाने की कोशिश करती है। मुसलमानों का ज़िक्र आते ही यह अवधारणा वर्णवादी, जातिवादी और नस्लवादी चिंतन में प्रवेश कर जाती है।
असल में जब 'हिंदू-राष्ट्र' की अवधारणा धर्म निरपेक्ष राष्ट्र की अवधारणा के सामने ध्वस्त हो गई तो 'हिंदुत्व' का नारा उठाकर उसे एक लिबरल रूप देने की कोशिश की गई, जो ऊपरी तौर पर आकर्षित करती है, लेकिन अंततोगत्वा हमें संकीर्ण हिंदूवादी सोच के गह्वर में ही ले जाती है।
यह तो बात थी राजनीति की। हैरानी तब होती है, जब कुछ लेखक एवं कलाकार भी उस संकीर्ण, रूढ़िवादी एवं कट्टरपंथी सोच से प्रेरित होकर लेखन कर्म करते हैं और उसी सोच के तहत वे दूसरों के लेखन पर अयाचित टिप्पणियाँ करते हुए उन ताकतों का सक्रिय साथ देते हैं। वस्तुतः असली चुनौती यहाँ है। कहा जाता है कि खुरचकर देखो तो हर हिंदू अंततः हिंदू, हर मुस्लिम अंततः मुसलमान और ईसाई अंततः ईसाई ही मिलेगा। इस तर्क को आगे बढ़ाएँ तो वह शैव, वैष्णव या आर्य समाजी, मुसलमान अंततः शिया या सुन्नी या ईसाई अंततः कैथालिक या प्रोटैस्टैंट ही मिलेगा। सवाल यह है कि एक रचनाकार इस 'खुरच बिजनैस' से आगे जाता है कि नहीं। पहले भी कहा गया है कि बहस का मुद्दा यह नहीं है कि हिंदू, मुस्लिम या ईसाई लेखक अपने-अपने धार्मिक सांस्कृतिक प्रतीकों का इस्तेमाल क्यों न करे। यह भी सत्य है कि भारत के धर्मनिरपेक्ष सोच या स्वतंत्रचेता लेखक न केवल अपने बल्कि अन्य मतों के भी धार्मिक एवं सांस्कृतिक प्रतीकों का प्रयोग करते दिखते हैं। वस्तुतः सवाल यह है कि उन प्रतीकों को कोई नया अर्थ मिलता है या नहीं-यानी उनका सृजनात्मक उपयोग होता है या नहीं! एक मिसाल देकर बात को यों रखा जा सकता है। पिछले दिनों एक नाटककार ने गणेश को एक प्रतीक के रूप में रखा। सब जानते हैं कि मौजूदा दौर में कुछ नौजवान काम-काज के न मिलने की वज़ह से कट्टरपंथी शक्तियों के हाथों खेल रहे हैं। कट्टरवादिता के चलते वे किसी तथाकथित मिशन के मोहरे बनते हैं और आतंकवादी या जन-विरोधी गतिविधियों में शामिल होकर सार्थकता का अनुभव करते हैं। इनके साथ राजनीतिक सवाल भी जुड़े हैं। धार्मिक आस्था और जातीय पहचान के प्रश्न भी हैं। अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए तत्पर इन नौजवानों के लिए एक रचनाकार गणेश को प्रतीक रूप में इस्तेमाल करता है। पारंपरिक अर्थों में गणेश के हाथ में पिस्तौल पकड़ाकर उसकी नई व्याख्या पेश करना चाहता है तो इससे रूढ़िवादी लोगों की भावनाओं को ठेस लगने लगती है। यह ग़लत है। रचनाकार को यह अधिकार होना चाहिए कि वह इन प्रतीकों का रचनात्मक उपयोग अपनी सोच के मुताबिक कर सके। वह तो इन प्रतीकों को नए अर्थ देकर अपने समकालीन समाज की जन-विरोधी शक्तियों पर एक टिप्पणी करना चाहता है। कृष्ण को आधुनिक रूप देकर एक राजनेता कि टोपी में मोर पंख लगा दिया जाए तो राजनेता के अस्तित्व का अर्थ ही बदल जाता है। अगर ज़रा-ज़रा-सी बात पर कहीं न कहीं, किसी न किसी वर्ग या व्यक्ति की भावनाएँ आहत होने लगेंगी तो रचना-कर्म संभव ही नहीं। रामकथा को आज भी वाल्मीकि, तुलसी या मैथिलीशरण गुप्त की तर्ज़ पर लिखने का कोई अर्थ नहीं है। राम के चरित्र पर अगर प्रश्न-चिह्न लगता है तो इसमें बुराई क्या है? आस्था जब तर्क से परे हो जाती है, तो वह विवेक से भी दूर हो जाती है। उस आस्था को अंधविश्वास में बदल जाने में ज़्यादा देर नहीं लगती। कतिपय राजनेता तो चाहते ही यही है कि भारतीय समाज चाहे वे हिंदू हों, मुसलमान हों या कोई और इन्हीं अंधविश्वासों में पड़ा रहे। रूढ़िवादी होकर जीता रहे। इसी में वोट की राजनीति फलती-फूलती है-लेकिन जब कला-समाज भी उनके स्वर में स्वर मिलाने लगता है तो गंभीर रूप से चिंतन-मनन की ज़रूरत पैदा होती है।
प्रेमचंद की रंगभूमि 1924-25 में प्रकाशित होती है और सावरकर की 'एसैंशल्व ऑफ हिंदुत्व' 1923 में। क्या यह मात्र संयोग है। संभवतः नहीं। इससे प्रमाणित यह होता है कि जन-पक्षीय विचारधारा और सांप्रदायिक विचारधारा कोई आज की उपज नहीं है। इन दोनों के बीच द्वंद्वात्मक रिश्ते पहले से ही मौजूद थे। हुआ यह है कि 'हिंदुत्व' की उछाल के बाद इन दोनों के बीच संघर्ष पहले से कहीं तेज हुआ है और कई बार रचनात्मक कोशिशों की भावनाओं के आहत होने का बहाना बनाकर किया गया विरोध बहुत सस्ती लोकप्रियता दिलवा देता है। एक वर्ग को यह लोकप्रियता मिलती है तो उसी के जैसा सोचने वाला दूसरा वर्ग पीछे क्यों रहे और इस तरह से समाज अंध और विवेकहीन विरोध के दुश्चक्र में फँस जाता है। इसी दुश्चक्र से निकालने के लिए लेखकों / कलाकारों की भूमिका महत्तवपूर्ण हो जाती है। उन्हें न केवल एक रचनाकार बल्कि एक चिंतक की भूमिका में भी उतरना होगा और आवश्यक हो तो एक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी।