रंगभूमि / अध्याय 42 / प्रेमचन्द
अदालत ने अगर दोनों युवकों को कठिन दंड दिया, तो जनता ने भी सूरदास को उससे कम कठिन दंड न दिया। चारों ओर थुड़ी-थुड़ी होने लगी। मुहल्लेवालों का तो कहना ही क्या, आस-पास के गाँववाले भी दो-चार खोटी-खरी सुना जाते थे-माँगता तो है भीख, पर अपने को कितना लगाता है? जरा चार भले आदमियों ने मुँह लगा लिया, तो घमंड के मारे पाँव धारती पर नहीं रखता। सूरदास को मारे शर्म के घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया। इसका एक अच्छा फल यह हुआ कि बजरंगी और जगधार का क्रोधा शांत हो गया। बजरंगी ने सोचा, अब क्या मारूँ-पीटूँ, उसके मुँह में तो यों ही कालिख लग गई; जगधार की अकेले इतनी हिम्मत कहाँ! दूसरा फल यह हुआ कि सुभागी फिर भैरों के घर जाने को राजी हो गई। उसे ज्ञात हो गया कि बिना किसी आड़ के मैं इन झोंकों से नहीं बच सकती। सूरदास की आड़ केवल टट्टी की आड़ थी।
एक दिन सूरदास बैठा हुआ दुनिया की हठधार्मी और अनीति का दुखड़ा रो रहा था कि सुभागी बोली-भैया, तुम्हारे ऊपर मेरे कारन चारों ओर से बौछार पड़ रही है, बजरंगी और जगधार दोनों मारने पर उतारू हैं, न हो तो मुझे भी अब मेरे घर पहुँचा दो। यही न होगा, मारे-पीटेगा, क्या करूँगी, सह लूँगी, इस बेआबरुई से तो बचूँगी?
भैरों तो पहले ही से मुँह फैलाए हुए था, बहुत खुश हुआ, आकर सुभागी को बड़े आदर से ले गया। सुभागी जाकर बुढ़िया के पैरों पर गिर पड़ी और खूब रोई। बुढ़िया ने उठाकर छाती से लगा लिया। बेचारी अब ऑंखों से माजूर हो गई थी। भैरों जब कहीं चला जाता, तो दूकान पर कोई बैठनेवाला न रहता, लोग ऍंधोरे में लकड़ी उठा ले जाते थे। खाना तो खैर किसी तरह बना लेती थी, किंतु इस नोच-खसोट का नुकसान न सहा जाता था। सुभागी घर की देखभाल तो करेगी! रहा भैरों, उसके हृदय में अब छल-कपट का लेश भी न रहा था। सूरदास पर उसे इतनी श्रध्दा हो गई कि कदाचित् किसी देवता पर भी न होगी अब वह अपनी पिछली बातों पर पछताता और मुक्त कंठ से सूरदास के गुण गाता था।
इतने दिनों तक सूरदास घर-बार की चिंताओं से मुक्त था, पकी-पकाई रोटियाँ मिल जाती थीं, बरतन धाुल जाते थे; घर में झाड़ई लग जाती थी। अब फिर वही पुरानी विपत्तिा सिर पर सवार हुई। मिठुआ अब स्टेशन ही पर रहता था। घीसू और विद्याधार के दंड से उसकी ऑंखें खुल गई थीं। कान पकड़े, अब कभी जुआ और चरस के नगीच न जाऊँगा। बाजार से चबेना लेकर खाता और स्टेशन के बरामदे में पड़ा रहता था। कौन नित्य तीन-चार मील चले! जरा भी चिंता न थी कि सूरदास की कैसे निभती है, अब मेरे हाथ-पाँव हुए, कुछ मेरा धार्म भी उसके प्रति है या नहीं, आखिर किस दिन के लिए उसने मुझे अपने लड़के की भाँति पाला था। सूरदास कई बार खुद स्टेशन पर गया, और उससे कहा कि साँझ को घर चला आया कर, क्या अब भी भीख माँगूँ? मगर उसकी बला सुनती थी। एक बार उसने साफ कह दिया, यहाँ मेरा गुजारा तो होता नहीं, तुम्हारे लिए कहाँ से लाऊँ? मेरे लिए तुमने कौन-सी बड़ी तपस्या की थी, एक टुकड़ा रोटी दे देते थे, कुत्तो को न दिया,मुझी को दे दिया। तुमसे मैं कहने गया था कि मुझे खिलाओ-पिलाओ, छोड़ क्यों न दिया? जिन लड़कों के माँ-बाप नहीं होते, वे सब क्या मर जाते हैं? जैसे तुम एक टुकड़ा दे देते थे, वैसे बहुत टुकड़े मिल जाते। इन बातों से सूरदास का दिल ऐसा टूटा कि फिर उससे घर आने को न कहा।
इधार सोफिया कई बार सूरदास से मिल चुकी थी। वह और तो कहीं न जाती, पर समय निकालकर सूरदास से अवश्य मिल जाती। ऐसे मौके से आती कि सेवकजी से सामना न होने पाए। जब आती, सूरदास के लिए कोई-न-कोई सौगात जरूर लाती। उसने इंद्रदत्ता से उसका सारा वृत्ताांत सुना था। उसका अदालत में जनता से अपील करना, चंदे के रुपये स्वयं न लेकर दूसरे को दे देना, जमीन के रुपये, जो सरकार से मिले थे, दान दे देना-तब से उसे उससे और भी भक्ति हो गई थी। गँवारों की धार्मपिपासा ईंट-पत्थर पूजने से शांत हो जाती है, भद्रजनों की भक्ति सिध्द पुरुषों की सेवा से। उन्हें प्रत्येक दीवाना पूर्वजन्म का कोई ऋषि मालूम होता है। उसकी गालियाँ सुनते हैं, उसके जूठे बरतन धाोते हैं, यहाँ तक कि उसके धाुल-धाूसरित पैरों को धाोकर चरणामृत लेते हैं। उन्हें उसकी काया में कोई देवात्मा बैठी हुई मालूम होती है। सोफिया को सूरदास से कुछ ऐसी ही भक्ति हो गई थी। एक बार उसके लिए संतरे और सेब ले गई। सूरदास घर लाया, पर आप न खाया,मिठुआ की याद आई, उसकी कठोर बातें विस्मृत हो गईं, सबेरे उन्हें लिए स्टेशन गया और उसे दे आया। एक बार सोफी के साथ इंदु भी आई थी। सरदी के दिन थे। सूरदास खड़ा काँप रहा था। इंदु ने वह कम्बल, जो वह अपने पैरों पर डाले हुए थे, सूरदास को दे दिया। सूरदास को वह कम्बल ऐसा अच्छा मालूम हुआ कि खुद न ओढ़ सका। मैं बुङ्ढा भिखारी, यह कम्बल ओढ़कर कहाँ जाऊँगा? कौन भीख देगा? रात को जमीन पर लेटूँ, दिन-भर सड़क के किनारे खड़ा रहूँ, मुझे यह कम्बल लेकर क्या करना? जाकर मिठुआ को दे आया। इधार तो अब भी इतना प्रेम था, उधार मिठुआ इतना स्वार्थी था कि खाने को भी न पूछता। सूरदास समझता कि लड़का है, यही इसके खाने-पहनने के दिन हैं। मेरी खबर नहीं लेता, खुद तो आराम से खाता-पहनता है। अपना है, तो कब न काम आएगा।
फागुन का महीना था, संधया का समय। एक स्त्राी घास बेचकर जा रही थी। मजदूरों ने अभी-अभी काम से छुट्टी पाई थी। दिन भर चुपचाप चरखियों के सामने खड़े-खड़े उकता गए थे, विनोद के लिए उत्सुक हो रहे थे। घसियारिन को देखते ही उस पर अश्लील कबीरों की बौछार शुरू कर दी। सूरदास को यह बुरा मालूम हुआ।
बोला-यारो, क्यों अपनी जबान खराब करते हो? वह बेचारी तो अपनी राह चली जाती है, और तुम लोग उसका पीछा नहीं छोड़ते। वह भी तो किसी की बहू-बेटी होगी।
एक मजदूर बोला-भीख माँगो भीख, जो तुम्हारे करम में लिखा है। हम गाते हैं, तो तुम्हारी नानी क्यों मरती है?
सूरदास-गाने को थोड़े ही कोई मने करता है।
मजदूर-तो हम क्या लाठी चलाते हैं?
सूरदास-उस औरत को छेड़ते क्यों हो?
मजदूर-तो तुम्हें क्या बुरा लगता है? तुम्हारी बहन है कि बेटी?
सूरदास-बेटी भी है, बहन भी है। हमारी हुई तो, किसी दूसरे भाई की हुई तो?
उसके मुँह से वाक्य का अंतिम शब्द निकलने भी न पाया था कि मजदूर ने चुपके से जाकर उसकी टाँग पकड़कर खींच ली। बेचारा बेखबर खड़ा था। कंकड़ पर इतनी जोर से मुँह के बल गिरा कि सामने के दो दाँत टूट गए, छाती में बड़ी चोट आई, ओठ कट गए, मर्ूच्छा-सी आ गई। पंद्रह-बीस मिनट तक वहीं अचेत पड़ा रहा। कोई मजदूर निकट भी न आया, सब अपनी राह चले गए। संयोग से नायकराम उसी समय शहर से आ रहे थे। सूरदास को सड़क पर पड़े देखा, तो चकराए कि माजरा क्या है, किसी ने मारा-पीटा तो नहीं? बजरंगी के सिवा और किसमें इतना दम है। बुरा किया। कितना ही हो, अपने धार्म का सच्चा है। दया आ गई। समीप आकर हिलाया, तो सूरदास को होश आया, उठकर नायकराम का एक हाथ पकड़ लिया और दूसरे हाथ से लाठी टेकता हुआ चला।
नायकराम ने पूछा-किसी ने मारा है क्या सूरे, मुँह से लहू बह रहा है?
सूरदास-नहीं भैया, ठोकर खाकर गिर पड़ा था।
नायकराम-छिपाओ मत, अगर बजरंगी या जगधार ने मारा हो, तो बता दो। दोनों को साल-साल भर के लिए भिजवा न दूँ, तो ब्राह्मण नहीं।
सूरदास-नहीं भैया, किसी ने नहीं मारा, झूठ किसे लगा दूँ?
नायकराम-मिलवालों में से तो किसी ने नहीं मारा? ये सब राह-चलते आदमियों को बहुत छेड़ा करते हैं। कहता हूँ, लुटवा दूँगा, इन झोंपड़ों में आग न लगा दूँ, तो कहना। बताओ, किसने यह काम किया? तुम तो आज तक कभी ठोकर खाकर नहीं गिरे। सारी देह लहू से लथपथ हो गई हैं
सूरदास ने किसी का नाम न बतलाया। जानता था कि नायकराम क्रोधा में आ जाएगा, तो मरने-मारने को न डरेगा। घर पहुँचा, तो सारा मुहल्ला दौड़ा। हाय! हाय! किस मुद्दई ने बेचारे अंधो को मारा! देखो तो, मुँह कितना सूज आया है! लोगों ने सूरदास को बिछावन पर लिटा दिया। भैरों दौड़ा, बजरंगी ने आग जलाई, अफीम और तेल की मालिश होने लगी। सभी के दिल उसकी तरफ से नम पड़ गए। अकेला जगधार खुश था, जमुनी से बोला-भगवान ने हमारा बदला लिया है। हम सबर कर गए, पर भगवान् तो न्याय करनेवाले हैं।
जमुनी चिढ़कर बोली-चुप भी रहो, आए हो बड़े न्याय की पूँछ बनके! बिपत में बैरी पर भी न हँसना चाहिए, वह हमारा बैरी नहीं है। सच बात के पीछे जान दे देगा, चाहे किसी को अच्छा लगे या बुरा। आज हममे से कोई बीमार पड़ जाए, तो देखो, रात-की-रात बैठा रहता है कि नहीं। ऐसे आदमी से क्या बैर!
जगधार लज्जित हो गया।
पंद्रह दिन तक सूरदास घर से निकलने लायक न हुआ। कई दिन मुँह से खून आता रहा। सुभागी दिन-भर उसके पास बैठी रहती। भैरों रात को उसके पास सोता। जमुनी नूर के तड़के गरम दूधा लेकर आती और उसे अपने हाथों से पिला जाती। बजरंगी बाजार से दवाएँ लाता। अगर कोई उसे देखने न आया, तो वह मिठुआ था। उसके पास तीन बार आदमी गया, पर उसकी इतनी हिम्मत भी न हुई कि सेवा-शुश्रूषा के लिए नहीं, तो कुशल-समाचार पूछने ही के लिए चला आता। डरता था कि जाऊँगा तो लोगों के कहने-सुनने से कुछ-न-कुछ देना ही पड़ेगा। उसे अब रुपये का चस्का लग गया था। सूरदास के मुँह से भी इतना निकल ही गया-दुनिया अपने मतलब की है। बाप नन्हा-सा छोड़कर मर गया। माँ-बेटे की परवस्ती की, माँ मर गई, तो अपने लड़के की तरह पाला-पोसा, आप लड़कोरी बन गया, उसकी नींद सोता था, उसकी नींद जागता था, आज चार पैसे कमाने लगा, तो बात भी नहीं पूछता। खैर, हमारे भी भगवान् हैं। जहाँ रहे, सुखी रहे। उसकी नीयत उसके साथ, मेरी नीयत मेरे साथ। उसे मेरी कलक न हो, मुझे तो उसकी कलक है। मैं कैसे भूल जाऊँ कि मैंने लड़के की तरह उसको पाला है!
इधार तो सूरदास रोग-शय्या पर पड़ा हुआ था, उधार पाँड़ेपुर का भाग्य-निर्णय हो रहा था। एक दिन प्रात:काल राजा महेंद्रकुमार, मि. जॉन सेवक, जाएदाद के तखमीने का अफसर, पुलिस के कुछ सिपाही और एक दारोगा पाँड़ेपुर आ पहुँचे। राजा साहब ने निवासियों को जमा करके समझाया-सरकार को एक खास सरकारी काम के लिए इस मुहल्ले की जरूरत है। उसने फैसला किया है कि तुम लोगों को उचित दाम देकर यह जमीन ले ली जाए, लाट साहब का हुक्म आ गया है। तखमीने के अफसर साहब इसी काम के लिए तैनात किए गए हैं। कल से उनका इजलास यहीं हुआ करेगा। आप सब मकानों की कीमत का तखमीना करेंगे ओर उसी के मुताबिक तुम्हें मुआवजा मिल जाएगा। तुम्हें जो कुछ अर्ज-मारूज करना हो, आप ही से करना। आज से तीन महीने के अंदर तुम्हें अपने-अपने मकान खाली कर देने पड़ेंगे, मुआवजा पीछे मिलता रहेगा। जो आदमी इतने दिनों के अंदर मकान न खाली करेगा, उसके मुआवजे के रुपये जब्त कर लिए जाएँगे और वह जबरदस्ती घर से निकाल दिया जाएगा। अगर कोई रोक-टोक करेगा, तो पुलिस उसका चालान करेगी, उसको सजा हो जाएगी। सरकार तुम लोगों को बेवजह तकलीफ नहीं दे रही है, उसको इस जमीन की सख्त जरूरत है। मैं सिर्फ सरकारी हुक्म की तामील कर रहा हूँ।
गाँववालों को पहले ही इसकी टोह मिल चुकी थी। किंतु इस ख्याल से मन को बोधा दे रहे थे कि कौन जाने, खबर ठीक है या नहीं। ज्यों-ज्यों विलम्ब होता था, उनकी आलस्य-प्रिय आत्माएँ निश्चिंत होती जाती थीं। किसी को आशा थी कि हाकिमों से कह-सुनकर अपना घर बचा लूँगा, कोई कुछ दे-दिलाकर अपनी रक्षा करने की फिक्र कर रहा था, कोई उज्रदारी करने का निश्चय किए हुए था, कोई यह सोचकर शांत बैठा हुआ था कि न जाने क्या होगा, पहले से क्यों अपनी जान हलकान करें, जब सिर पर पड़ेगी, तब देखी जाएगी। तिस पर भी आज जो लोगों ने सहसा यह हुक्म सुना, तो मानो वज्राघात हो गया। सब-के-सब साथ हाथ बाँधाकर राजा साहब के सामने खड़े हो गए और कहने लगे-सरकार, यहाँ रहते हमारी कितनी पीढ़ियाँ गुजर गईं, अब सरकार हमको निकाल देगी, तो कहाँ जाएँगे? दो-चार आदमी हों, तो कहीं घुस पड़ें,मुहल्ले-का-मुहल्ला उजड़कर कहाँ जाएगा? सरकार जैसे हमें निकालती है, वैसे कहीं ठिकाना भी बता दे।
राजा साहब बोले-मुझे स्वयं इस बात का बड़ा दु:ख है और मैंने तुम्हारी ओर से सरकार की सेवा में उज्र भी किया था; मगर सरकार कहती है, इस जमीन के बगैर हमारा काम नहीं चल सकता। मुझे तुम्हारे साथ सच्ची सहानुभूति है, पर मजबूर हूँ, कुछ नहीं कर सकता, सरकार का हुक्म है, मानना पड़ेगा।
इसका जवाब देने की किसी को हिम्मत न पड़ती थी। लोग एक दूसरे को कुहनियों से ठेलते थे कि आगे बढ़कर पूछो, मुआवजा किस हिसाब से मिलेगा; पर किसी के कदम न बढ़ते थे। नायकराम यों तो बहुत चलते हुए आदमी थे, पर इस अवसर पर वह भी मौन साधो हुए खड़े थे। वह राजा साहब से कुछ कहना-सुनना व्यर्थ समझकर तखमीने के अफसर से तखमीने की दर में कुछ बेशी करा लेने की युक्ति सोच रहे थे। कुछ दे-दिलाकर उनसे काम निकालना ज्यादा सरल जान पड़ता था। इस विपत्तिा में सभी को सूरदास की याद आती थी। वह होता,तो जरूर हमारी ओर से अरज-बिनती करता। इतना गुरदा और किसी का नहीं हो सकता। कई आदमी लपके हुए सूरदास के पास गए और उससे समाचार कहा।
सूरदास ने कहा-और सब लोग तो हैं ही, मैं चलकर क्या कर लूँगा। नायकराम क्यों सामने नहीं आते? यों तो बहुत गरजते हैं, अब क्यों मुँह नहीं खुलता? मुहल्ले ही में रोब दिखाने को है?
ठाकुरदीन-सबकी देखी गई। सबके मुँह में दही जमा हुआ है। हाकिमों से बोलने को हिम्मत चाहिए, अकिल चाहिए।
शिवसेवक बनिया ने कहा-मेरे तो उनके सामने खड़े होते पैर थरथर काँपते हैं। न जाने कोई कैसे हाकिमों से बातें करता है। मुझे तो वह जरा डाँट दें, तो दम ही निकल जाए।
झींगुर तेली बोला-हाकिमों का बड़ा रोब होता है। उनके सामने तो अकिल ही खप्त हो जाती है।
सूरदास-मुझसे तो उठा ही नहीं जाता। चलना भी चाहूँ, तो कैसे चलूँगा।
ठाकुरदीन-यह कौन मुश्किल काम है। हम लोग तुम्हें उठा ले चलेंगे।
सूरदास यों लाठी के सहारे घर से बाहर आने-जाने लगा था, पर इस वक्त अनायास उसे कुछ मान करने की इच्छा हुई। कहने से धाोबी गधो पर नहीं चढ़ता।
सूरदास-भाई, करोगे सब जने अपने-अपने-अपने मन ही की, मुझे क्यों नक्कू बनाते हो? जो सबकी गत होगी, वही मेरी भी गत होगी। भगवान् की जो मरजी है, वह होगी।
ठाकुरदीन ने बहुत चिरौरी की, पर सूरदास चलने पर राजी न हुआ। तब ठाकुरदीन को क्रोधा आ गया। बेलाग बात कहते थे। बोले-अच्छी बात है, मत जाओ। क्या तुम समझते हो, जहाँ मुर्गा न होगा वहाँ सबेरा ही न होगा? चार आदमी सराहने लगे, तो अब मिजाज ही नहीं मिलते। सच कहा है, कौवा धाोने से बगुला नहीं होता।
आठ बजते-बजते अधिाकारी लोग बिदा हो गए। अब लोग नायकराम के घर आकर पंचायत करने लगे कि क्या किया जाए।
जमुनी-तुम लोग यों ही बकवास करते रहोगे, और किसी का किया कुछ न होगा। सूरदास के पास जाकर क्यों नहीं सलाह करते? देखा,क्या कहता है?
बजरंगी-तो जाती क्यों नहीं, मुझी को ऐसी कौन-सी गरज पड़ी हुई है?
जमुनी-तो फिर चलकर अपने-अपने घर बैठो, गपड़चौथ करने से क्या होना है।
भैरों-बजरंगी, यह हेकड़ी दिखाने का मौका नहीं है। सूरदास के पास सब जने मिलकर चलो। वह कोई-न-कोई राह जरूर निकालेगा।
ठाकुरदीन-मैं तो अब कभी उसके द्वार पर न जाऊँगा। इतना कह-सुनकर हार गया, पर न उठा। अपने को लगाने लगा है।
जगधार-सूरदास क्या कोई देवता है, हाकिम का हुकुम पलट देगा?
ठाकुरदीन-मैं तो गोद में उठा लाने को तैयार था।
बजरंगी-घमंड है घमंड, कि और लोग क्यों नहीं आए। गया क्यों नहीं हाकिमों के सामने? ऐसा मर थोड़े ही रहा है!
जमुनी-कैसे आता? वह तो हाकिमों से बुरा बने, यहाँ तुम लोग अपने-अपने मन की करने लगे, तो उसकी भद्द हो।
भैरों-ठीक तो कहती हो, मुद्दई सुस्त, तो गवाह कैसे चुस्त होगा। पहले चलकर पूछो, उसकी सलाह क्या है। अगर मानने लायक हो, तो मानो; न मानने लायक हो, न मानो। हाँ, एक बात जो तय हो जाए, उस पर टिकना पड़ेगा। यह नहीं कि कहा तो कुछ, पीछे से निकल भागे,सरदार तो भरम में पड़ा रहे कि आदमी पीछे हैं, और आदमी अपने-अपने घर की राह लें।
बजरंगी-चलो पंडाजी, पूछ ही देखें।
नायकराम-वह कहेगा, बड़े साहब के पास चलो, वहाँ सुनाई न हो, तो परागराज लाट साहब के पास चलो। है इतना बूता?
जगधार-भैया की बात, महाराज, यहाँ तो किसी का मुँह नहीं खुला, लाट साहब के पास कौन जाता है!
जमुनी-एक बार चले क्यों नहीं जाते? देखो तो, क्या सलाह देता है?
नायकराम-मैं तैयार हूँ, चलो।
ठाकुरदीन-मैं न जाऊँगा, और जिसे जाना हो जाए।
जगधार-तो क्या हमीं को बड़ी गरज पड़ी है?
बजरंगी-जो सबकी गत होती, वही हमारी भी होगी।
घंटे-भर तक पंचायत हुई, पर सूरदास के पास कोई न गया। साझे की सुई ठेले पर लदती है। तू चल, मैं आता हूँ, यही हुआ, किया। फिर लोग अपने-अपने घर चले गए। संधया समय भैरों सूरदास के पास गया।
सूरदास ने पूछा-आज क्या हुआ?
भैरों-हुआ क्या, घंटे-भर तक बकवास हुई। फिर लोग अपने-अपने घर चले गए।
सूरदास-कुछ तय न हुआ कि क्या किया जाए?
भैरों-निकाले जाएँगे, इसके सिवा और क्या होगा। क्यों सूरे, कोई न सुनेगा?
सूरदास-सुननेवाला भी वही है, जो निकालनेवाला है। तीसरा होता, तब न सुनता।
भैरों-मेरी मरन है। हजारों मन लकड़ी है, कहाँ ढोकर ले जाऊँगा? कहाँ इतनी जमीन मिलेगी कि फिर टाल लगाऊँ?
सूरदास-सभी की मरन है। बजरंगी ही को इतनी जमीन कहाँ मिली जाती है कि पंद्रह-बीस जानवर भी रहें, आप भी रहें। मिलेगी भी तो इतना किराया देना पड़ेगा कि दिवाला निकल जाएगा। देखो, मिठुआ आज भी नहीं आया। मुझे मालूम हो जाए कि वह बीमार है, तो छिन-भर न रुकूँ, कुत्तो की भाँति दौड़ईँ, चाहे वह मेरी बात भी न पूछे। जिनके लिए अपनी जिंदगी खराब कर दो, वे भी गाढ़े समय पर मुँह फेर लेते हैं।
भैरों-अच्छा, तुम बताओ, तुम क्या करोगे, तुमने भी कुछ सोचा है?
सूरदास मेरी क्या पूछते हो, जमीन थी, वह निकल ही गई; झोंपड़े के बहुत मिलेंगे, तो दो-चार रुपये मिल जाएँगे। मिले तो क्या, और न मिले तो क्या? जब तक कोई न बोलेगा, पड़ा रहूँगा। कोई हाथ पकड़कर निकाल देगा, बाहर जा बैठूँगा। वहाँ से उठा देगा, फिर आ बैठूँगा। जहाँ जन्म लिया है, वहीं मरूँगा। अपना, झोंपड़ा जीते-जी न छोड़ा जाएगा। मरने पर जो चाहे, ले ले। बाप-दादों की जमीन खो दी, अब इतनी निसानी रह गई है, इसे न छोड़ईँगा। इसके साथ ही आप भी मर जाऊँगा।
भैरों-सूरे, इतना दम तो यहाँ किसी में नहीं।
सूरदास-इसी से तो मैंने किसी से कुछ कहा ही नहीं। भला सोचो, कितना अंधोर है कि हम, जो सत्तार पीढ़ियों से यहाँ आबाद हैं, निकाल दिए जाएँ और दूसरे यहाँ आकर बस जाएँ। यह हमारा घर है, किसी के कहने से नहीं छोड़ सकते। जबरदस्ती जो चाहे, निकाल दे, न्याय से नहीं निकाल सकता। तुम्हारे हाथ में बल है, तुम हमें मार सकते हो। हमारे हाथ में बल होता; तो हम तुम्हें मारते। यह तो कोई इंसाफ नहीं है। सरकार के हाथ में मारने का बल है, हमारे हाथ में और कोई बल नहीं है, तो मर जाने का बल तो है!
भैरों ने जाकर दूसरों से ये बातें कहीं। जगधार ने कहा-देखा, यह सलाह है! घर तो जाएगा ही, जान भी जाएगी।
ठाकुरदीन-यह सूरदास का किया होगा। आगे नाथ न पीछे पगहा, मर ही जाएगा, तो क्या? यहाँ मर जाएँ, तो बाल-बच्चों को किसके सिर छोड़ें?
बजरंगी-मरने के लिए कलेजा चाहिए। जब हम ही मर गए, तो घर लेकर क्या होगा?
नायकराम-ऐसे बहुत मरनेवाले देखे हैं, घर से निकला ही नहीं गया, मरने चले हैं।
भैरों-उसकी न चलाओ पंडाजी, मन में आने की बात है।
दूसरे दिन से तखमीने के अफसर ने मिल के एक कमरे में इजलास करना शुरू किया। एक मुंशी मुहल्ले के निवासियों के नाम, मकानों की हैसियत, पक्के हैं या कच्चे, पुराने हैं या नए, लम्बाई, चौड़ाई आदि की एक तालिका बनाने लगा। पटवारी और मुंशी घर-घर घूमने लगे। नायकराम मुखिया थे। उनका साथ रहना जरूरी था। इस वक्त सभी प्राणियों का भाग्य-निर्णय इसी त्रिामूर्ति के हाथों में था। नायकराम की चढ़ बनी। दलाली करने लगे। लोगों से कहते, निकलना तो पड़ेगा ही, अगर कुछ गम खाने से मुआवजा बढ़ जाए, तो हरज ही क्या है। बैठे-बिठाए, मुट्ठी गर्म होती थी, तो क्यों छोड़ते! सारांश यह कि मकानों की हैसियत का आधाार वह भेंट थी, जो इस त्रिामूर्ति को चढ़ाई जाती थी। नायकराम टट्टी की आड़ से शिकार खेलते थे। यश भी कमाते थे, धान भी। भैरों का बड़ा मकान और सामने का मैदान सिमट गए,उनका क्षेत्राफल घट गया, त्रिामूर्ति की वहाँ कुछ पूजा न हुई। जगधार का छोटा-सा मकान फैल गया। त्रिामूर्ति ने उसकी भेंट से प्रसन्न होकर रस्सियाँ ढीली कर दीं, क्षेत्राफल बढ़ गया। ठाकुरदीन ने इन देवतों को प्रसन्न करने के बदले शिवजी को प्रसन्न करना ज्यादा आसान समझा। वहाँ एक लोटे जल के सिवा विशेष खर्च न था। दोनों वक्त पानी देने लगे। पर इस समय त्रिामूर्ति का दौरदौरा था, शिवजी की एक न चली। त्रिामूर्ति ने उनके छोटे, पर पक्के घर को कच्चा सिध्द किया था। बजरंगी देवतों को प्रसन्न करना क्या जाने। उन्हें नाराज ही कर चुका था, पर जमुनी ने अपनी सुबुध्दि से बिगड़ता हुआ काम बना लिया। मुंशीजी उसकी एक बछिया पर रीझ गए, उस पर दाँत लगाए। बजरंगी जानवरों को प्राण से भी प्रिय समझता था, तिनक गया। नायकराम ने कहा, बजरंगी पछताओगे। बजरंगी ने कहा, चाहे एक कौड़ी मुआवजा न मिले, पर बछिया न दूँगा। आखिर जमुनी ने, जो सौदे पटाने में बहुत कुशल थी, उसको एकांत में ले जाकर समझाया कि जानवरों के रहने का कहीं ठिकाना भी है? कहाँ लिए-लिए फिरोगे? एक बछिया के देने से सौ रुपये का काम निकलता है, तो क्यों नहीं निकालते? ऐसी न-जाने कितनी बछिया पैदा होंगी, देकर सिर से बला टालो। उसके समझाने से अंत में बजरंगी भी राजी हो गया!
पंद्रह दिन तक त्रिामूर्ति का राज्य रहा। तखमीने के अफसर साहब बारह बजे घर से आते, अपने कमरे में दो-चार सिगार पीते, समाचार-पत्रा पढ़ते, एक दो बजे घर चल देते। जब तालिका तैयार हो गई, तो अफसर साहब उसकी जाँच करने लगे। फिर निवासियों की बुलाहट हुई। अफसर ने सबके तखमीने पढ़-पढ़कर सुनाए। एक सिरे से धााँधाली थी। भैरों ने कहा-हुजूर, चलकर हमारा घर देख लें, वह बड़ा है कि जगधार का? इनको मिले 400 रुपये और मुझे मिले 300 रुपये। इस हिसाब से मुझे 600 रुपये मिलना चाहिए।
ठाकुरदीन बिगड़ीदिल थे ही, साफ-साफ कह दिया-साहब, तखमीना किसी हिसाब से थोड़े ही बनाया गया है। जिसने मुँह मीठा कर दिया,उसकी चाँदी हो गई; जो भगवान् के भरोसे बैठा रहा, उसकी बधिाया बैठ गई। अब भी आप मौके पर चलकर जाँच नहीं करते कि ठीक-ठीक तखमीना हो जाए, गरीबों के गले रेत रहे हैं।
अफसर ने बिगड़कर कहा-तुम्हारे गाँव का मुखिया तो तुम्हारी तरफ से रख लिया गया था। उसकी सलाह से तखमीना किया गया है। अब कुछ नहीं हो सकता।
ठाकुरदीन-अपने कहलानेवाले तो और लूटते हैं।
अफसर-अब कुछ नहीं हो सकता।
सूरदास की झोंपड़ी का मुआवजा 1 रुपये रक्खा गया था, नायकराम के घर के पूरे तीन हजार! लोगों ने कहा-यह है गाँव-घरवालों का हाल! ये हमारे सगे हैं, भाई का गला काटते हैं। उस पर घमंड यह कि हमें धान का लोभ नहीं। आखिर तो है पंडा ही न, जात्रिायों को ठगनेवाला! जभी तो यह हाल है। जरा-सा अख्तियार पाके ऑंखें फिर गईं। कहीं थानेदार होते, तो किसी को घर में रहने न देते। इसी से कहा है, गंजे के नह नहीं होते।
मिस्टर क्लार्क के बाद मि. सेनापति जिलाधाीश हो गए। सरकार का धान खर्च करते काँपते थे। पैसे की जगह धोले से काम निकालते थे। डरते रहते थे कि कहीं बदनाम न हो जाऊँ। उनमें यह आत्मविश्वास न था, जो ऍंगरेज अफसरों में होता है। ऍंगरेजों पर पक्षपात का संदेह नहीं किया जा सकता, वे निर्भीक और स्वाधाीन होते हैं। मि. सेनापति को संदेह हुआ कि मुआवजे बड़ी नरमी से लिखे गए हैं। उन्होंने उसकी आधाी रकम काफी समझी। अब यह मिसिल प्रांतीय सरकार के पास स्वीकृति के लिए भेजी गई। वहाँ फिर उसकी जाँच होने लगी। इस तरह तीन महीने की अवधिा गुजर गई, और मि. जॉन सेवक पुलिस के सुपरिंटेंडेंट, दारोगा माहिर अली और मजदूरों के साथ मुहल्ले को खाली कराने के लिए आ पहुँचे। लोगों ने कहा, अभी तो हमको रुपये नहीं मिले। जॉन सेवक ने जवाब दिया, हमें तुम्हारे रुपयों से कोई मतलब नहीं;रुपये जिससे मिलें, उससे लो। हमें तो सरकार ने 1 मई को मुहल्ला खाली करा देने का वचन दिया है, और अगर कोई कह दे कि आज 1 मई नहीं है, तो हम लौट जाएँगे। अब लोगों में बड़ी खलबली पड़ी, सरकार की क्या नीयत है? क्या मुआवजा दिए बिना ही हमें निकाल दिया जाएगा, घर का घर छोड़े और मुआवजा भी न मिले! यह तो बिना मौत मरे। रुपये मिल जाते, तो कहीं जमीन लेकर घर बनवाते, खाली हाथ कहाँ जाएँ। क्या घर में खजाना रखा हुआ है! एक तो रुपये के चार आने मिलने का हुक्म हुआ, उसका भी यह हाल! न जाने सरकार की नीयत बदल गई कि बीचवाले खाये जाते हैं।
माहिर अली ने कहा-तुम लोगों को जो कुछ कहना-सुनना है, जाकर हाकिम जिला से कहो। मकान आज खाली करा लिए जाएँगे।
बजरंगी-मकान कैसे खाली होंगे, कोई राहजनी है! जिस हाकिम का यह हुकुम है, उसी हाकिम का तो यह हुकुम भी है।
माहिर-कहता हूँ, सीधो से अपने बोरिए-बकचे लादो और चलते-फिरते नजर आओ। नाहक हमें गुस्सा क्यों दिलाते हो? कहीं मि. हंटर को आ गया जोश, तो फिर तुम्हारी खैरियत नहीं।
नायकराम-दारोगाजी, दो-चार दिन की मुहलत दे दीजिए। रुपये मिलेंगे ही, ये बेचारे क्या बुरे कहते हैं कि बिना रुपये-पैसे कहाँ भटकते फिरें।
मि. जॉन सेवक तो सुपरिंटेंडेंट को साथ लेकर मिल की सैर करने चले गए थे, वहाँ चाय-पानी का प्रबंधा किया गया था, माहिर अली की हुकूमत थी। बोले-पंडाजी, ये झाँसे दूसरों को देना। यहाँ तुम्हें बहुत दिनों से देख रहे हैं और तुम्हारी नस-नस पहचानते हैं। मकान आज और आज ही खाली होंगे।
सहसा एक ओर से दो बच्चे खेलते हुए आ गए, दोनों नंगे पाँव थे, फटे हुए कपड़े पहने, पर प्रसन्न-वदन। माहिर अली को देखते ही चचा-चचा कहते हुए उसकी तरफ दौड़े। ये दोनों साबिर और नसीमा थे। कुल्सूम ने इसी मुहल्ले में एक छोटा-सा मकान एक रुपये किराए पर ले लिया था। गोदाम का मकान जॉन सेवक ने खाली करा लिया था। बेचारी इसी छोटे-से घर में पड़ी अपने मुसीबत के दिन काट रही थी। माहिर ने दोनों बच्चों को देखा, तो कुछ झेंपते हुए बोले-भाग जाओ, भाग जाओ, यहाँ क्या करने आए? दिल में शरमाए कि सब लोग कहते होंगे, ये इनके भतीजे हैं, और इतने फटेहाल, यह उनकी खबर भी नहीं लेते?
नायकराम ने दोनों बच्चों को दो-दो पैसे देकर कहा-जाओ, मिठाई खाना, ये तुम्हारे चचा नहीं हैं।
नसीमा-हूँ! चचा तो हैं, क्या मैं पहचानती नहीं?
नायकराम-चचा होते, तो तुझे गोद में न उठा लेते, मिठाइयाँ न मँगा देते? तू भूल रही है।
माहिर अली ने क्रुध्द होकर कहा-पंडाजी, तुम्हें इन फिजूल बातों से क्या मतलब? मेरे भतीजे हों या न हों, तुमसे सरोकार? तुम किसी की निज की बातों में बोलनेवाले कौन होते हो? भागो साबिर, नसीमा भाग, नहीं तो सिपाही पकड़ लेगा।
दोनों बालकों ने अविश्वासपूर्ण नेत्राों से माहिर अली को देखा और भागे। रास्ते में नसीमा ने कहा-चचा ही-जैसे तो हैं, क्यों साबिर, चचा ही हैं न?
साबिर-नहीं तो और कौन हैं?
नसीमा-तो फिर हमें भगा क्यों दिया?
साबिर-जब अब्बा थे, तब न हम लोगों को प्यार करते थे! अब तो अब्बा नहीं हैं, तब तो अब्बा ही सबको खिलाते थे।
नसीमा-अम्माँ को भी तो अब अब्बा नहीं खिलाते। वह तो हम लोगों को पहले से ज्यादा प्यार करती हैं। पहले कभी पैसे न देती थीं, अब तो पैसे भी देती हैं।
साबिर-वह तो हमारी अम्मा हैं न।
लड़के तो चले गए, इधार दारोगाजी ने सिपाहियों को हुक्म दिया-फेंक दो असबाब और मकान फौरन खाली करा लो। ये लोग लात के आदमी हैं, बातों से न मानेंगे।
दो कांस्टेबिल हुक्म पाते ही बजरंगी के घर में घुस गए, और बरतन निकाल-निकाल फेंकने लगे। बजरंगी बाहर लाल ऑंखें किए खड़ा ओठ चबा रहा था। जमुनी घर में इधार-उधार दौड़ती फिरती थी, कभी हाँड़ियाँ उठाकर बाहर लाती, कभी फेंके हुए बरतनों को समेटती। मुँह एक क्षण के लिए बंद न होता था-मूड़ी काटे कारखाना बनाने चले हैं, दुनिया को उजाड़कर अपना घर भरेंगे। भगवान् भी ऐसे पापियों का संहार नहीं करते, न-जाने कहाँ जाके सो गए हैं! हाय! हाय! घिसुआ की जोड़ी पटक-कर तोड़ डाली!
बजरंगी ने टूटी हुई जोड़ी उठा ली और एक सिपाही के पास जाकर बोला-जमादार, यह जोड़ी तोड़ डालने से तुम्हें क्या मिला? साबित उठा ले जाते, तो भला किसी काम तो आती! कुशल है कि लाल पगड़ी बाँधो हुए हो, नहीं तो आज...
उसके मुँह से पूरी बात भी न निकली थी कि दोनों सिपाहियों ने उस पर डंडे चलाने शुरू किए। बजरंगी से अब जब्त न हो सका, लपककर एक सिपाही की गर्दन एक हाथ से और दूसरे की गर्दन दूसरे हाथ से पकड़ ली, और इतनी जोर से दबाई कि दोनों की ऑंखें निकल आईं। जमुनी ने देखा, अब अनर्थ हुआ चाहता है, तो रोती हुई बजरंगी के पास जाकर बोली-तुम्हें भगवान् की कसम है, जो किसी से लड़ाई करो। छोड़ो-छोड़ो! क्यों अपनी जान से बैर कर रहे हो!
बजरंगी-तू जा बैठ। फाँसी पा जाऊँ, तो मैके चली जाना। मैं तो इन दोनों के प्राण ही लेकर छोड़ईँगा।
जमुनी-तुम्हें घीसू की कसम, तुम मेरा ही माँस खाओ, जो इन दोनों को छोड़कर यहाँ से चले न जाओ।
बजरंगी ने दोनों सिपाहियों को छोड़ दिया, पर उसके हाथ से छूटना था कि वे दौड़े हुए माहिर अली के पास पहुँचे, और कई और सिपाहियों को लिए हुए फिर आए। पर बजरंगी को जमुनी पहले ही से टाल ले गई थी। सिपाहियों को शेर न मिला, तो शेर की माँद को पीटने लगे, घर की सारी चीजें तोड़-फोड़ डालीं। जो अपने काम की चीज नजर आई, उस पर हाथ भी साफ किया। यही लीला दूसरे घरों में भी हो रही थी। चारों तरफ लूट मची हुई थी। किसी ने अंदर से घर के द्वार बंद कर लिए, कोई अपने बाल-बच्चों को लेकर पिछवाड़े से निकल भागा। सिपाहियों को मकान खाली कराने का हुक्म क्या मिला, लूट मचाने का हुक्म मिल गया। किसी को अपने बरतन-भाँड़े समेटने की मुहलत भी न देते थे। नायकराम के घर पर भी धाावा हुआ। माहिर अली स्वयं पाँच सिपाहियों को लेकर घुसे। देखा, तो वहाँ चिड़िया का पूत भी न था,घर में झाड़ई फिरी हुई थी, एक टूटी हाँड़ी भी न मिली। सिपाहियों के हौसले मन ही में रह गए। सोचे थे, इस घर में खूब बढ़-बढ़कर हाथ मारेंगे, पर निराश और लज्जित होकर निकलना पड़ा। बात यह थी कि नायकराम ने पहले ही अपने घर की चीजें निकाल फेंकी थीं।
उधार सिपाहियां ने घरों के ताले तोड़ने शुरू किए। कहीं किसी पर मार पड़ती थी, कहीं कोई अपनी चीजें लिए भागा जाता था। चिल्ल-पों मची हुई थी। विचित्रा दृश्य था, मानो दिन-दहाड़े डाका पड़ रहा हो। सब लोग घरों से निकलकर या निकाले जाकर सड़क पर जमा होते जाते थे। ऐसे अवसरों पर प्राय: उपद्रवकारियों का जमाव हो ही जाता है। लूट का प्रलोभन था ही, किसी को निवासियों से बैर था, किसी को पुलिस से अदावत। प्रतिक्षण शंका होती थी कि कहीं शांति न भंग हो जाए, कहीं कोई हंगामा न मच जाए। माहिर अली ने जनसमुदाय की त्योरियाँ देखीं, तो तुरंत एक सिपाही को पुलिस की छावनी की ओर दौड़ाया, और चार बजते-बजते सशस्त्रा पुलिस की एक टोली और आ पहुँची। कुमुक आते ही माहिर अली और भी दिलेर हो गए। हुक्म दिया-मार-मारकर सबों को भगा दो। लोग वहाँ क्यों खड़े हैं? भगा दो। जिस आदमी को यहाँ खड़े देखो, मारो। अब तक लोग अपने माल और असबाब समेटने में लगे हुए थे। मार भी पड़ती थी, चुपके से सह लेते थे। घर में अकेले कई सिपाहियों से कैसे भिड़ते? अब सब-के-सब एक जगह खड़े हो गए थे। उन्हें कुछ तो अपनी सामूहिक शक्ति का अनुभव हो रहा था, उस पर नायकराम उकसाते जाते थे, यहाँ आएँ तो बिना मारे न छोड़ना, दो-चार के हाथ-पैर जब तक न टूटेंगे, ये सब न भागेंगे। बारूद भड़कनेवाली ही थी कि इतने में इंदु की मोटर पहुँची, और उसमें से विनय, इंद्रदत्ता और इंदु उतर पड़े। देखा, तो कई हजार आदमियों का हुजूम था। कुछ मुहल्ले के निवासी थे, कुछ राह-चलते मुसाफिर, कुछ आस-पास के गाँवों के रहनेवाले, कुछ मिल के मजदूर। कोई केवल तमाशा देखने आया था, कोई पड़ोसियों से सहानुभूति करने और इस उपद्रव कार् ईष्यापूर्ण आनंद उठाने। माहिर अली और उनके सिपाही उस उत्साह के साथ, जो नीची प्रकृति के प्राणियों को दमन में होता है, लोगों को सड़क पर से हटाने की चेष्टा कर रहे थे; पर भीड़ पीछे हटने के बदले और आगे ही बढ़ती जाती थी।
विनय ने माहिर अली के पास जाकर कहा-दारोगाजी, क्या इन आदमियों को एक दिन की भी मुहलत नहीं मिल सकती?
माहिर-मुहलत तो तीन महीने की थी, और अगर तीन साल की भी हो जाए, तो भी मकान खाली करने के वक्त यही हालत होगी। ये लोग सीधो से कभी न जाएँगे।
विनय-आप इतनी कृपा कर सकते हैं कि थोड़ी देर के लिए सिपाहियों को रोक लें। जब तक मैं सुपरिंटेंडेंट को यहाँ की हालत की खबर दे दूँ?
माहिर-साहब तो यहीं हैं। मि. जॉन सेवक उन्हें मिल दिखाने ले गए थे। मालूम नहीं, वहाँ से कहाँ चले गए, अब तक नहीं लौटे।
वास्तव में साहब बहादुर कहीं गए न थे, जॉन सेवक के साथ दफ्तर में बैठे आनंद से शराब पी रहे थे। दोनों ही आदमियों ने वास्तविक स्थिति को समझने में गलती की थी। उनका अनुमान था कि हमको देखकर लोग रोब में आ गए होंगे और मारे डर के आप-ही-आप भाग जाएँगे।
विनय साहब को खबर देने के लिए लपके हुए मिल की तरफ चले, तो राजा साहब को मोटर पर आते हुए देखा। ठिठक गए। सोचा, जब यह आ गए हैं, तो साहब के पास जाने की क्या जरूरत, इन्हीं से चलकर कहूँ। लेकिन उनके सामने जाते हुए शर्म आती थी कि कहीं जनता ने इनका अपमान किया, तो मैं क्या करूँगा, कहीं यह न समझ बैठें कि मैंने ही इन लोगों को उकसाया है। वह इसी द्विविधाा में पड़े हुए थे कि राजा साहब की निगाह इंदु की मोटर पर गई। जल उठे; इंद्रदत्ता और विनय को देखा, ज्वर-सा चढ़ आया-ये लोग यहाँ विराजमान हैं, फिर क्यों न दंगा हो। जहाँ ये महापुरुष होंगे, वहाँ जो कुछ नहो जाए, थोड़ा है। उन्हें क्रोधा बहुत कम आता था, पर इस समय उनसे जब्त न हुआ,विनय से बोले-यह सब आप ही की करामात मालूम होती है।
विनय ने शांत भाव से कहा-मैं तो अभी आया हूँ। सुपरिंटेंडेंट के पास जा ही रहा था कि आप दिखाई दिए।
राजा-खैर, अब तो आप इनके नेता हैं, इन्हें अपने किसी जादू-मंत्रा से हटाइएगा कि मुझे कोई दूसरा उपाय करना पड़ेगा?
विनय-इन लोगों को केवल इतनी शिकायत है कि अभी हमें मुआवजा नहीं मिला, हम कहाँ जाएँ, कैसे जमीन खरीदें, कैसे नए मकान के सामान लें। आप अगर इन्हें कह करके तसल्ली दे दें, तो सब आप-ही-आप हट जाएँगे।
राजा-यह इन लोगों का बहाना है। वास्तव में ये लोग उपद्रव मचाना चाहते हैं।
विनय-अगर इन्हें मुआवजा दे दिया जाए, तो शायद कोई दूसरा उपाय न करना पड़े। राजा-आप छ: महीनेवाला रास्ता बताते हैं, मैं एक महीनेवाली राह चाहता हूँ।
विनय-उस राह में काँटे हैं।
राजा-इसकी कुछ चिंता नहीं। हमें काँटेवाली राह ही पसंद है।
विनय-इस समूह की दशा सूखे पुआल की-सी है।
राजा-अगर पुआल हमारा रास्ता रोकता है, तो हम उसे जला देंगे।
सभी लोग भयातुर हो रहे थे, न जाने किस क्षण क्या हो जाए, फिर भी मनुष्यों का समूह किसी अज्ञात शक्ति के वशीभूत होकर राजा साहब की ओर बढ़ा चला आता था। पुलिसवाले भी इधार-उधार से आकर मोटर के पास खड़े हो जाते थे। देखते-देखते उनके चारों ओर मनुष्यों की एक अथाह, अपार नदी लहर मारने लगी, मानो एक ही रेले में इन गिने-गिनाए आदमियों को निगल जाएगी, इस छोटे-से कगार को बहा ले जाएगी।
राजा महेंद्रकुमार यहाँ आग में तेल डालने नहीं, उसे शांत करने आए थे। उनके पास दम-दम की खबरें पहुँच रही थीं। वह अपने उत्तारदायित्व का अनुभव करके बहुत चिंतित हो रहे थे। नैतिक रूप से तो उन पर कोई जिम्मेदारी न थी। जब प्रांतीय सरकार का दबाव पड़ा,तो वह कर ही क्या सकते थे? अगर पद-त्याग कर देते, तो दूसरा आदमी आकर सरकारी आज्ञा का पालन करता। पाँड़ेपुरवालों के सिर से किसी दशा में भी यह विपत्तिा न टल सकती थी, लेकिन वह आदि से निरंतर यह प्रयत्न कर रहे थे कि मकान खाली कराने के पहले लोगों को मुआवजा दे दिया जाए। बार-बार याद दिलाते थे। ज्यों-ज्यों अंतिम तिथि आती जाती थी, उनकी शंकाए बढ़ती जाती थीं। वह तो यहाँ तक चाहते थे कि निवासियों को कुछ रुपये पेशगी दे दिए जाएँ, जिसमें वे पहले ही से अपना-अपना ठिकाना कर लें। पर किसी अज्ञात कारण से रुपये की स्वीकृति में विलम्ब हो रहा था। वह मि. सेनापति से बार-बार कहते कि आप मंजूरी की आशा पर अपने हुक्म से रुपये दिला दें; पर जिलाधाीश कानों पर हाथ रखते थे कि न जाने सरकार का क्या इरादा है, मैं बिना हुक्म पाए कुछ नहीं कर सकता। जब आज भी मंजूरी न आई, तो राजा साहब ने तार द्वारा पूछा। दोपहर तक वह जवाब का इंतजार करते रहे। आखिर जब इस जमाव की खबर मिली, तो घबराए। उसी वक्त दौड़े हुए जिलाधाीश के बँगले पर गए कि उनसे कुछ सलाह लें। उन्हें आशा थी कि वह स्वयं घटनास्थल पर जाने को तैयार होंगे;पर वहाँ जाकर देखा, तो साहब बीमार पड़े थे। बीमारी क्या थी, बीमारी का बहाना था। बदनामी से बचने का यही उपाय था। साहब राजा से बोले-मुझे खेद है, मैं नहीं जा सकता। आप जाकर उपद्रव को शांत करने के लिए जो उचित समझें, करें।
महेंद्रकुमार अब बहुत घबराए, अपनी जान किसी भाँति बचती न नजर आती थी। अगर कहीं रक्तपात हो गया, तो मैं कहीं का न रहूँगा! सब कुछ मेरे ही सिर आएगी। पहले ही से लोग बदनाम कर रहे हैं। आज मेरे सार्वजनिक जीवन का अंत है! निरपराधा मारा जा रहा हूँ! मुझ पर कुछ ऐसा शनीचर सवार हुआ है कि जो कुछ करना चाहता हूँ, उसके प्रतिकूल करता हूँ, जैसे अपने ऊपर कोई अधिाकार ही न रहा हो। इस जमीन के झमेले में पड़ना ही मेरे लिए जहर हो गया। तब से कुछ ऐसी समस्याएँ उपस्थित होती चली आती हैं, जो मेरी महत्तवाकांक्षाओं का सर्वनाश किए देती हैं। यहाँ कीर्ति, नाम, सम्मान को कौन रोये, मुँह दिखाने के लाले पड़े हुए हैं!
यहाँ से निराश होकर वह फिर घर आए कि चलकर इंदु से राय लूँ, देखूँ, क्या कहती है। पर यहाँ इंदु न थी। पूछा, तो मालूम हुआ कि सैर करने गई हैं।
इस समय राजा साहब की दशा उस कृपण की-सी थी, जो अपनी ऑंखों से अपना धान लुटते देखता हो, और इस भय से कि लोगों पर मेरे धानी होने का भेद खुल जाएगा, कुछ बोल न सकता हो। अचानक उन्हें एक बात सूझी-
क्यों न मुआवजे के रुपये अपने ही पास से दे दूँ? रुपये कहीं जाते तो हैं नहीं। जब मंजूरी आ जाएगी, वापस ले लूँगा। दो-चार दिन का मुआमला है, मेरी बात रह जाएगी, और जनता पर इसका कितना अच्छा असर पड़ेगा। कुल सत्तार हजार तो हैं, ही। और इसकी क्या जरूरत है कि सब रुपये आज ही दे दिए जाएँ? कुछ आज दे दूँ, कुछ कल दे दूँ, तब तक मंजूरी आ ही जाएगी। जब लोगों को रुपये मिलने लगेंगे तो तस्कीन हो जाएगी, .यह भय न रहेगा कि कहीं सरकार रुपये जब्त न कर ले। खेद है, मुझे पहले यह बात न सूझी, नहीं तो इतना झमेला ही क्यों होता। उन्होंने उसी वक्त इंपीरियल बैंक के नाम बीस हजार का चेक लिखा। देर बहुत हो गई थी, इसलिए बैंक के मैनेजर के नाम एक पत्रा भी लिखा दिया था कि रुपये देने में विलम्ब न कीजिएगा, नहीं तो शांति भंग हो जाने का भय है। बैंक से आदमी रुपये लेकर लौटा तो पाँच बज चुके थे। तुरंत मोटर पर सवार होकर पाँड़ेपुर आ पहुँचे। आए तो थे ऐसी शुभेच्छाओं से, पर वहाँ विनय और इंदु को देखकर तैश आ गया। जी में आया, लोगों से कह दूँ, जिनके बूते पर उछल रहे हो, उनसे रुपये लो, इधार सरकार को लिख दूँ कि लोग विद्रोह करने पर तैयार हैं, उनके रुपये जब्त कर लिए जाएँ। उसी क्रोधा में उन्होंने विनय से वे बातें कीं, जो ऊपर लिखी जा चुकी हैं। मगर जब उन्होंने देखा कि जन-समूह का रेला बढ़ा चला आ रहा है, लोगों के मुख आवेश-विकृत हो रहे हैं, सशस्त्रा पुलिस संगीनें चढ़ाए हुए है, और इधार-उधार दो-चार पत्थर भी चल रहे हैं, तो उनकी वही दशा हुई, जो भय में नशे की होती है। तुरंत मोटर पर खड़े हो गए और जोर से चिल्लाकर बोले-मित्राो,जरा शांत हो जाओ। यों दंगा करने से कुछ न होगा। मैं रुपये लाया हूँ, अभी तुमको मुआवजा मिल जाएगा। सरकार ने अभी मंजूरी नहीं भेजी है, लेकिन तुम्हारी इच्छा हो तो तुम मुझसे अपने रुपये ले सकते हो। इतनी-सी बात के वास्ते तुम्हारा यह दुराग्रह सर्वथा अनुचित है। मैं जानता हूँ कि यह तुम्हारा दोष नहीं है, तुमने किसी के बहकाने से ही शरारत पर कमर बाँधाी है। लेकिन मैं तुम्हें उस विद्रोह-ज्वाला में न कूदने दूँगा, जो तुम्हारे शुभचिंतकों ने तैयार कर रक्खी है। यह लो, तुम्हारे रुपये हैं। सब आदमी बारी-बारी से आकर अपने नाम लिखाओ,ऍंगूठे का निशान करो, रुपये लो और चुपके-चुपके घर जाओ।
एक आदमी ने कहा-घर तो आपने छीन लिए।
राजा-रुपयों से घर मिलने में देर न लगेगी। हमसे तुम्हारी जो कुछ सहायता हो सकेगी, वह उठा न रक्खेंगे। इस भीड़ को तुरंत हट जाना चाहिए, नहीं तो रुपये मिलने में देर होगी।
जो जन-समूह उमड़े हुए बादलों की तरह भयंकर और गम्भीर हो रहा था, यह घोषणा सुनते ही रूई के गालों की भाँति फट गया। न जाने लोग कहाँ समा गए। केवल वे ही लोग रह गए जिन्हें रुपये पाने थे। सामयिक सुबुध्दि मँडलाती हुई विपत्तिा का कितनी सुगमता से निवारण कर सकती है, इसका यह उज्ज्वल प्रमाण था। एक अनुचित शब्द, एक कठोर वाक्य अवस्था को असाधय बना देता।
पटवारी ने नामावली पढ़नी शुरू की। राजा साहब अपने हाथों से रुपये बाँटने लगे। आसामी रुपये लेता था, ऍंगूठे का निशान बनाता था,और तब दो सिपाही उसके साथ कर दिए जाते थे कि जाकर मकान खाली करा लें।
रुपये पाकर लौटते हुए लोग यों बातें करते जाते थे :
एक मुसलमान-यह राजा बड़ा मूजी है; सरकार ने रुपये भेज दिए थे, पर दबाए बैठा था। हम लोग गरम न पड़ते, तो हजम कर जाता।
दूसरा-सोचा होगा, मकान खाली करा लूँ, और रुपये सरकार को वापस करके सुर्खरू बन जाऊँ।
एक ब्राह्मण ने इसका विरोधा किया-क्या बकते हो! बेचारे ने रुपये अपने पास से दिए हैं।
तीसरा-तुम गौखे हो, ये चालें क्या जानो, जाके पोथी पढ़ो और पैसे ठगो।
चौथा-सबों ने पहले ही सलाह कर ली होगी। आपस में रुपये बाँट लेते, हम लोग ठाठ ही पर रह जाते।
एक मुंशीजी बोले-इतना भी न करें, तो सरकार कैसे खुश हो। इन्हें चाहिए था कि रिआया की तरफ से सरकार से लड़ते, मगर आप खुद ही खुशामदी टट्टू बने हुए हैं। सरकार का दबाव तो हीला है।
पाँचवाँ-तो यह समझ लो, हम लोग न आ जाते, तो बेचारों को कौड़ी भी न मिलती। घर से निकल जाने पर कौन देता है और कौन लेता है! बेचारे माँगने जाते, तो चपरासियों से मारकर निकलवा देते।
जनता की दृष्टि में एक बार विश्वास खोकर फिर जमाना मुश्किल है। राजा साहब को जनता के दरबार से यह उपहार मिल रहा था।
संधया हो गई थी। चार ही पाँच असामियों को रुपये मिलने पाए थे कि ऍंधोरा हो गया। राजा साहब ने लैम्प की रोशनी में नौ बजे रात तक रुपये बाँटे। तब नायकराम ने कहा-सरकार, अब तो बहुत देर हुई। न हो, कल पर उठा रखिए।
राजा साहब भी थक गए थे, जनता को भी अब रुपये मिलने में कोई बाधा न दीखती थी, काम कल के लिए स्थगत कर दिया गया। सशस्त्रा पुलिस ने वहीं डेरा जमाया कि कहीं फिर न लोग जमा हो जाएँ।
दूसरे दिन दस बजे फिर राजा साहब आए, विनय और इंद्रदत्ता भी कई सेवकों के साथ आ पहुँचे। नामावली खोली गई। सबसे पहले सूरदास की तलबी हुई। लाठी टेकता हुआ आकर राजा साहब के सामने खड़ा हो गया।
राजा साहब ने उसे सिर से पाँव तक देखा और बोले-तुम्हारे मकान का मुआवजा केवल एक रु. है, यह लो, और घर खाली कर दो।
सूरदास-कैसा रुपया?
राजा-अभी तुम्हें मालूम नहीं, तुम्हारा मकान सरकार ने ले लिया है। यह उसी का मुआवजा है।
सूरदास-मैंने तो अपना मकान बेचने को किसी से नहीं कहा।
राजा-और लोग भी तो खाली कर रहे हैं।
सूरदास-जो लोग छोड़ने पर राजी हों, उन्हें दीजिए। मेरी झोंपड़ी रहने दीजिए। पड़ा रहूँगा और हुजूर का कल्यान मनाता रहूँगा।
राजा-यह तुम्हारी इच्छा की बात नहीं है, सरकारी हुक्म है। सरकार को इस जमीन की जरूरत है। यह क्योंकर हो सकता है कि और मकान गिरा दिए जाएँ, और तुम्हारा झोंपड़ा बना रहे?
सूरदास-सरकार के पास जमीन की क्या कमी है। सारा मुलुक पड़ा हुआ है। एक गरीब की झोंपड़ी छोड़ देने से उसका काम थोड़े ही रुक जाएगा?
राजा-व्यर्थ की हुज्जत करते हो, यह रुपया लो, ऍंगूठे का निशान बनाओ, और जाकर झोंपड़ी में से अपना सामान निकाल लो।
सूरदास-सरकार जमीन लेकर क्या करेगी? यहाँ कोई मंदिर बनेगा? कोई तालाब खुदेगा? कोई धारमशाला बनेगी? बताइए।
राजा-यह मैं कुछ नहीं जानता।
सूरदास-जानते क्यों नहीं, दुनिया जानती है, बच्चा-बच्चा जानता है। पुतलीघर के मजूरों के लिए घर बनेंगे। बनेंगे, तो उससे मेरा क्या फायदा होगा कि घर छोड़कर निकल जाऊँ! जो कुछ फायदा होगा, साहब को होगा। परजा की तो बरबादी ही है। ऐसे काम के लिए मैं अपना झोंपड़ा न छोड़ईँगा। हाँ, कोई धारम का काम होता, तो सबसे पहले मैं अपना झोंपड़ा दे देता। इस तरह जबरदस्ती करने का आपको अख्तियार है, सिपाहियों को हुक्म दे दें, फूस में आग लगते कितनी देर लगती है? पर यह न्याय नहीं है। पुराने जमाने में एक राजा अपना बगीचा बनवाने लगा, तो एक बुढ़िया की झोंपड़ी बीच में पड़ गई। राजा ने उसे बुलाकर कहा, तू यह झोंपड़ी मुझे दे दे, जितने रुपये कह, तुझे दे दूँ,जहाँ कह, तेरे लिए घर बनवा दूँ! बुढ़िया ने कहा, मेरा झोंपड़ा रहने दीजिए। जब दुनिया देखेगी कि आपके बगीचे के एक कोने में बुढ़िया की झोंपड़ी है, तो आपके धारम और न्याय की बड़ाई करेगी। बगीचे की दीवार दस-पाँच हाथ टेढ़ी हो जाएगी, पर इससे आपका नाम सदा के लिए अमर हो जाएगा। राजा ने बुढ़िया की झोंपड़ी छोड़ दी। सरकार का धारम परजा को पालना है कि उसका घर उजाड़ना, उसको बरबाद करना?
राजा साहब ने झुँझलाकर कहा-मैं तुमसे दलील करने नहीं आया हूँ, सरकारी हुक्म की तामील करने आया हूँ।
सूरदास-हुजूर, मेरी मजाल है कि आपसे दलील कर सकूँ। मगर मुझे उजाड़िए मत, बाप-दादों की निशानी यही झोंपड़ी रह गई है, इसे बनी रहने दीजिए।
राजा साहब को इतना अवकाश कहाँ था कि एक-एक असामी से घंटों वाद-विवाद करते? उन्होंने दूसरे आदमी को बुलाने का हुक्म दिया।
इंद्रदत्ता ने देखा कि सूरदास अब भी वहीं खड़ा है, हटने का नाम नहीं लेता, तो डरे कि राजा साहब कहीं उसे सिपाहियों से धाक्के देकर हटवा न दें। धीरे से उसका हाथ पकड़कर अलग ले गए और बोले-सूरे, है तो अन्याय; मगर क्या करोगे, झोंपड़ी तो छोड़नी ही पड़ेगी। जो कुछ मिलता है, ले लो। राजा साहब की बदनामी का डर है, नहीं तो मैं तुमसे लेने को न कहता।
कई आदमियों ने इन लोगों को घेर लिया। ऐसे अवसरों पर लोगों की उत्सुकता बढ़ी हुई होती है। क्या हुआ? क्या हुआ? क्या जवाब दिया? सभी इन प्रश्नों के जिज्ञासु होते हैं। सूरदास ने सजल नेत्राों से ताकते हुए आवेश-कम्पित कंठ से कहा-भैया, तुम भी कहते हो कि रुपया ले लो! मुझे तो इस पुतलीघर ने पीस डाला। बाप-दादों की निशानी दस बीघे जमीन थी, वह पहले ही निकल गई, अब यह झोंपड़ी भी छीनी जा रही है। संसार इसी माया-मोह का नाम है। जब उससे मुक्त हो जाऊँगा, तो झोंपड़ी में रहने न आऊँगा। लेकिन जब तक जीता रहूँगा,अपना घर मुझसे न छोड़ा जाएगा। अपना घर है, नहीं देते। हाँ, जबरदस्ती जो चाहे, ले ले।
इंद्रदत्ता-जबरदस्ती कोई कर रहा है! कानून के अनुसार ही ये मकान खाली कराए जा रहे हैं। सरकार को अधिाकार है कि वह किसी सरकारी काम के लिए जो मकान या जमीन चाहे, ले ले।
सूरदास-होगा कानून, मैं तो एक धारम का कानून जानता हूँ। इस तरह जबरदस्ती करने के लिए जो कानून चाहे, बना लो। यहाँ कोई सरकार का हाथ पकड़नेवाला तो है नहीं। उसके सलाहकार भी तो सेठ-महाजन ही हैं।
इंद्रदत्ता ने राजा साहब के पास जाकर कहा-आप अंधो का मुआमला आज स्थगित कर दें, तो अच्छा हो। गँवार आदमी, बात नहीं समझता,बस अपनी ही गाए जाता है।
राजा ने सूरदास को कुपित नेत्रों से देखकर कहा-गँवार नहीं है, छटा हुआ बदमाश है। हमें और तुम्हें, दोनों ही को कानून पढ़ा सकता है। है भिखारी, मगर टर्रा। मैं इसका झोंपड़ा गिरवाए देता हूँ।
इस वाक्य के अंतिम शब्द सूरदास के कानों में पड़ गए : बोला-झोंपड़ा क्यों गिरवाइएगा? इससे तो यही अच्छा कि मुझे ही गोली मरवा दीजिए।
यह कहकर सूरदास लाठी टेकता हुआ वहाँ से चला गया। राजा साहब को उसकी धाृष्टता पर क्रोधा आ गया। ऐश्वर्य अपने को बड़ी मुश्किल से भूलता है, विशेषत: जब दूसरों के सामने उसका अपमान किया जाए। माहिर अली को बुलाकर कहा-इसकी झोंपड़ी अभी गिरा दो।
दारोगा माहिर अली चले, नि:शस्त्र पुलिस और सशस्त्रा पुलिस और मजदूरों का एक दल उनके साथ चला, मानो किसी किले पर धावा करने जा रहे हैं। उनके पीछे-पीछे जनता का एक समूह भी चला। राजा ने इन आदमियों के तेवर देखे, तो होश उड़ गए। उपद्रव की आशंका हुई। झोंपड़े को गिराना इतना सरल न प्रतीत हुआ, जितना उन्होंने समझा था। पछताए कि मैंने व्यर्थ माहिर अली को यह हुक्म दिया। जब मुहल्ला मैदान हो जाता, तो झोंपड़ा आप-ही-आप उजड़ जाता, सूरदास कोई भूत तो है नहीं कि अकेला उसमें पड़ा रहता। मैंने चिंउटी को तलवार से मारने की चेष्टा की! माहिर अली क्रोधाी आदमी है, और इन आदमियों के रुख भी बदले हुए हैं। जनता क्रोधा में अपने को भूल जाती है, मौत पर हँसती है। कहीं माहिर अली उतावली कर बैठा, तो निस्संदेह उपद्रव हो जाएगा। इसका सारा इलजाम मेरे सिर जाएगा। यह अंधाा आप तो डूबा ही हुआ है, मुझे भी डुबाए देता है। बुरी तरह मेरे पीछे पड़ा हुआ है। लेकिन इस समय वह हाकिम की हैसियत में थे। हुक्म को वापस न ले सकते थे। सरकार की आबरू में बट्टा लगने से कहीं ज्यादा भय अपनी आबरू में बट्टा लगने का था। अब यही एक उपाय था कि जनता को झोंपड़े की ओर न जाने दिया जाए। सुपरिंटेंडेंट अभी-अभी मिल से लौटा था, और घोड़े पर सवार सिगार पी रहा था कि राजा साहब ने जाकर उससे कहा-इन आदमियों को रोकना चाहिए।
उसने कहा-जाने दीजिए, कोई हरज नहीं, शिकार होगा।
'भीषण हत्या होगी।'
'हम इसके लिए तैयार हैं।'
विनय के चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। न आगे जाते बनता था, न पीछे। घोर आत्मवेदना का अनुभव करते हुए बोले-इंद्र, मैं बड़े संकट में हूँ।
इंद्रदत्ता ने कहा-इसमें क्या संदेह है।
जनता को काबू में रखना कठिन है।'
'आप जाइए, मैं देख लूँगा। आपका यहाँ रहना उचित नहीं।'
'तुम अकेले हो जाओगे!'
'कोई चिंता नहीं।'
'तुम भी मेरे साथ क्यों नहीं चलते? अब हम यहाँ रहकर क्या कर लेंगे, हम अपनेर् कत्ताव्य का पालन कर चुके।'
'आप जाइए। आपको जो संकट है, वह मुझे नहीं। मुझे अपने किसी आत्मीय के मान-अपमान का कम भय नहीं।'
विनय वहीं अशांत और निश्चल खड़े रहे, या यों कहो कि गड़े रहे, मानो कोई स्त्री घर से निकाल दी गई हो। इंद्रदत्ता उन्हें वहीं छोड़कर आगे बढ़े, तो जन-समूह उसी गली के मोड़ पर रुका हुआ था, जो सूरदास के झोंपड़े की ओर जाती थी। गली के द्वार पर पाँच सिपाही सँगीनें चढ़ाए खड़े थे। एक कदम आगे बढ़ना संगीन की नोक को छाती पर लेना था। संगीनों की दीवार सामने खड़ी थी।
इंद्रदत्ता ने एक कुएँ की जगत पर खड़े होकर उच्च स्वर से कहा-भाइयो, सोच लो, तुम लोग क्या चाहते हो? क्या इस झोंपड़ी के लिए पुलिस से लड़ोगे? अपना और अपने भाइयों का रक्त बहाओगे? इन दामों यह झोंपड़ी बहुत महँगी है। अगर उसे बचाना चाहते हो, तो इन आदमियों ही से विनय करो, जो इस वक्त वरदी पहने, संगीनें चढ़ाए यमदूत हुए तुम्हारे सामने खड़े हैं। और यद्यपि प्रकट रूप से वे तुम्हारे शत्राु हैं, पर उनमें एक भी ऐसा न होगा, जिसका हृदय तुम्हारे साथ न हो, जो एक असहाय, दुर्बल, अंधो की झोंपड़ी गिराने में अपनी दिलचस्पी समझता हो। इनमें सभी भले आदमी हैं, जिनके बाल-बच्चे हैं, जो थोड़े वेतन पर तुम्हारे जान-माल की रक्षा करने के लिए घर से आए हैं।
एक आदमी-हमारे जान-माल की रक्षा करते हैं, या सरकार के रोब-दाब की?
इंद्रदत्ता-एक ही बात है। तुम्हारे जान-माल की रक्षा के लिए सरकार के रोब-दाब की रक्षा करनी परमावश्यक है। इन्हें जो वेतन मिलता है,वह एक मजूर से भी कम हैण्ण्ण्।
एक प्रश्न-बग्घी-इक्केवालों से पैसे नहीं लेते?
दूसरा प्रश्न-चोरियाँ नहीं कराते? जुआ नहीं खेलाते? घूस नहीं खाते?
इंद्रदत्ता-यह सब इसलिए होता है कि वेतन जितना मिलना चाहिए, उतना नहीं मिलता। ये भी हमारी और तुम्हारी भाँति मनुष्य हैं, इनमें भी दया और विवेक है, ये भी दुर्बलों पर हाथ उठाना नीचता समझते हैं। जो कुछ करते हैं, मजबूर होकर। इन्हीं से कहो, अंधो पर तरस खाएँ,उसकी झोंपड़ी बचाएँ। (सिपाहियों से) क्यों मित्रो, तुमसे इस दया की आशा रखें? इन मनुष्यों पर क्या करोगे?
इंद्रदत्ता ने एक ओर जनता के मन में सिपाहियों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न करने की चेष्टा की और दूसरी ओर सिपाहियों की मनोगत दया को जागृत करने की। हवलदार संगीनों के पीछे खड़ा था। बोला-हमारी रोजी बचाकर और जो चाहे कीजिए। इधार से न जाइए।
इंद्रदत्ता-तो रोजी के लिए इतने प्राणियों का सर्वनाश कर दोगे? ये बेचारे भी तो एक दीन की रक्षा करने आए हैं। जो ईश्वर यहाँ तुम्हारा पालन करता है, वह क्या किसी दूसरी जगह तुम्हें भूखों मारेगा? अरे! यह कौन पत्थर फेंकता है? याद रखो, तुम लोग न्याय की रक्षा करने आए हो, बलवा करने नहीं। ऐसे नीच आघातों से अपने को कलंकित न करो। मत हाथ उठाओ, अगर तुम्हारे ऊपर गोलियों की बाढ़ भी चले...।
इंद्रदत्ता को कुछ कहने का अवसर न मिला। सुपरिंटेंडेंट ने गली के मोड़ पर आदमियों का जमाव देखा, तो घोड़ा दौड़ाता उधार चला। इंद्रदत्ता की आवाज कानों में पड़ी, तो डाँटकर बोला-हटा दो इसको। इन सब आदमियों को अभी सामने से हटा दो। तुम सब आदमी अभी हट जाओ,नहीं हम गोली मार देगा।
समूह जौ-भर भी न हटा।
'अभी हट जाओ, नहीं हम फायर कर देगा।'
कोई आदमी अपनी जगह से न हिला।
सुपरिंटेंडेंट ने तीसरी बार आदमियों को हट जाने की आज्ञा दी।
समूह शांत, गंभीर, स्थिर रहा।
फायर करने की आज्ञा हुई, सिपाहियों ने बंदूकें हाथ में लीं। इतने में राजा साहब बदहवास आकर बोले-... लेकिन हुक्म हो चुका था। बाढ़ चली, बंदूकों के मुँह से धुँआ निकला, धाँय-धाँय की रोमांचकारी धवनि निकली और कई चक्कर खाकर गिर पड़े। समूह की ओर से पत्थरों की बौछार होने लगी। दो-चार टहनियाँ गिर पड़ी थीं, किंतु वृक्ष अभी तक खड़ा था।
फिर बंदूकें चलने की आज्ञा हुई। राजा साहब ने अबकी बहुत गिड़गिड़ाकर कहा डतण् ठतवूदए जीमेम ेीवजे ंतम चपमतबपदह उल ीमंतज! किंतु आज्ञा मिल चुकी थी, दूसरी बाढ़ चली, फिर कई आदमी गिर पड़े। डालियाँ गिरीं, लेकिन वृक्ष स्थिर खड़ा रहा।
तीसरी बार फायर करने की आज्ञा दी गई। राजा साहब ने सजल नयन होकर व्यथित कंठ से कहा-डतण् ठतवूदए दवू प् ंउ कवदम वित! बाढ़ चली; कई आदमी गिरे और उनके साथ इंद्रदत्ता भी गिरे। गोली वक्ष:स्थल को चीरती हुई पार हो गई थी। वृक्ष का तना गिर गया!
समूह में भगदड़ पड़ गई। लोग गिरते-पड़ते, एक-दूसरे को कुचलते, भाग खड़े हुए। कोई किसी पेड़ की आड़ में छिपा, कोई किसी घर में घुस गया, कोई सड़क के किनारे की खाइयों में जा बैठा; पर अधिाकांश लोग वहाँ से हटकर सड़क पर आ खड़े हुए।
नायकराम ने विनयसिंह से कहा-भैया, क्या खड़े हो, इंद्रदत्ता को गोली लग गई!
विनय अभी तक उदासीन भाव से खड़े थे। यह खबर पाते ही गोली-सी लग गई। बेतहाशा दौड़े और संगीनों के सामने, गली के द्वार पर आकर खड़े हो गए। उन्हें देखते ही भागनेवाले सँभल गए; जो छिपे बैठे थे, निकल पड़े। जब ऐसे-ऐसे लोग मरने को तैयार हैं, जिनके लिए संसार में सुख-ही-सुख है, तो फिर हम किस गिनती में हैं। यह विचार लोगों के मन में उठा। गिरती हुई दीवार फिर खड़ी हो गई। सुपरिंटेंडेंट ने दाँत पीसकर चौथी बार फायर का हुक्म दिया। लेकिन यह क्या? कोई सिपाही बंदूक नहीं चलाता, हवलदार ने बंदूक जमीन पर पटक दी,सिपाहियों ने भी उसके साथ ही अपनी-अपनी बंदूकें रख दीं। हवलदार बोला-हुजूर को अख्तियार है, जो चाहें करें; लेकिन अब हम लोग गोली नहीं चला सकते। हम भी मनुष्य हैं, हत्यारे नहीं।
ब्रॉउन-कोर्टमार्शल होगा।
हवलदार-हो जाए।
ब्रॉउन-नमकहराम लोग।
हवलदार-अपने भाइयों का गला काटने के लिए नहीं, उनकी रक्षा करने के लिए नौकरी की थी।
यह कहकर सब-के-सब पीछे की ओर फिर गए, और सूरदास के झोंपड़े की तरफ चले। उनके साथ ही कई हजार आदमी जय-जयकार करते हुए चले। विनय उनके आगे-आगे थे। राजा साहब और ब्रॉउन, दोनों खोए हुए-से खड़े थे। उनकी ऑंखों के सामने एक ऐसी घटना घटित हो रही थी, जो पुलिस के इतिहास में एक नूतन युग की सूचना दे रही थी, जो परम्परा के विरुध्द, मानव-प्रकृति के विरुध्द, नीति के विरुध्द थी। सरकार के वे पुराने सेवक, जिनमें से कितनों ही ने अपने जीवन का अधिाकांश प्रजा का दमन करने ही में व्यतीत किया था, यों अकड़ते हुए चले जाएँ! अपना सर्वस्व, यहाँ तक कि प्राणों को भी समर्पित करने को तैयार हो जाएँ। राजा साहब अब तक उत्तारदायित्व के भार से काँप रहे थे, अब यह भय हुआ कि कहीं ये लोग मुझ पर टूट न पड़ें। ब्रॉउन तो घोड़े पर सवार आदमियों को हंटर मार-मारकर भगाने की चेष्टा कर रहा था और राजा साहब अपने लिए छिपने की कोई जगह तलाश कर रहे थे, लेकिन किसी ने उनकी तरफ ताका भी नहीं। सब-के-सब विजय-घोष करते हुए, तरल वेग से सूरदास की झोंपड़ी की ओर दौड़े चले जाते थे। वहाँ पहुँचकर देखा, तो झोंपड़े के चारों तरफ सैकड़ों आदमी खड़े थे। माहिर अली अपने आदमियों के साथ नीम के वृक्ष के नीचे खड़े नई सशस्त्रा पुलिस की प्रतीक्षा कर रहे थे, हिम्मत न पड़ती थी कि इस व्यूह को चीरकर झोंपड़े के पास जाएँ। सबके आगे नायकराम कंधो पर लट्ठ रखे खड़े थे। इस व्यूह के मधय में, झोंपड़े के द्वार पर, सूरदास सिर झुकाए बैठा हुआ था, मानो धौर्य, आत्मबल और शांत तेज की सजी मूर्ति हो।
विनय को देखते ही नायकराम आकर बोला-भैया, तुम अब कुछ चिंता मत करो! मैं यहाँ सँभाल लूँगा। इधार महीनों से सूरदास से मेरी अनबन थी, बोल-चाल तक बंद था, पर आज उसका जीवट-जिगर देखकर दंग हो गया। एक अंधो अपाहिज में यह हियाव! हम लोग देखने ही को मिट्टी का यह बोझ लादे हुए हैं।
विनय-इंद्रदत्ता का मरना गजब हो गया।
नायकराम-भैया, दिल न छोटा करो, भगवान् की यही इच्छा होगी।
विनय-कितनी वीर-मृत्यु पाई है!
नायकराम-मैं तो खड़ा देखता ही था, माथे पर सिकन तक नहीं आई।
विनय-मुझे क्या मालूम था कि आज यह नौबत आएगी, नहीं तो पहले खुद जाता। वह अकेले सेवा-दल का काम सँभाल सकते थे, मैं नहीं सँभाल सकता। कितना सहासमुख था, कठिनाइयों को तो धयान में ही न लाते थे, आग में कूदने के लिए तैयार रहते थे। कुशल यही है कि अभी विवाह नहीं हुआ था।
नायकराम-घरवाले कितना जोर देते रहे, पर इन्होंने एक बार नहीं करके फिर हाँ न की।
विनय-एक युवती के प्राण बच गए।
नायकराम-कहाँ की बात भैया, ब्याह हो गया होता, तो वह इस तरह बेधाड़क गोलियों के सामने जाते ही न। बेचारे माता-पिता का क्या हाल होगा!
विनय-रो-रोकर मर जाएँगे और क्या।
नायकराम-इतना अच्छा है कि कई भाई हैं, और घर के पोढ़े हैं।
विनय-देखो, इन सिपाहियों की क्या गति होती है। कल तक फौज़ आ जाएगी। इन गरीबों की भी कुछ फिक्र करनी चाहिए।
नायकराम-क्या फिकिर करोगे भैया? उनका कोर्टमार्शल होगा। भागकर कहाँ जाएँगे?
विनय-यही तो उनसे कहना है कि भागें नहीं, जो कुछ किया है, उसका यश लेने से न डरें। हवलदार को फाँसी हो जाएगी।
यह कहते हुए दोनों आदमी झोंपड़े के पास आए, तो हवलदार बोला-कुँवर साहब, मेरा तो कोर्टमार्शल होगा ही, मेरे बाल-बच्चों की खबर लीजिएगा। यह कहते-कहते वह धााड़ मार-मार रोने लगा।
बहुत-से आदमी जमा हो गए और कहने लगे-कुँवर साहब, चंदा खोल दीजिए। हवलदार! तुम सच्चे सूरमा हो, जो निर्बलों पर हाथ नहीं उठाते।
विनय-हवलदार, हमसे जो कुछ हो सकेगा, वह उठा न रखेंगे। आज तुमने हमारे मुख की लाली रख ली।
हवलदार-कुँवर साहब, मरने-जीने की चिंता नहीं, मरना तो एक दिन होगा ही, अपने भाइयों की सेवा करते हुए मारे जाने से बढ़कर और कौन मौत होगी? धान्य है आपको, जो सुख-विलास त्यागे हुए अभागों की रक्षा कर रहे हैं।
विनय-तुम्हारे साथ के जो आदमी नौकरी चाहें, उन्हें हमारे यहाँ जगह मिल सकती हैं।
हवलदार-देखिए, कौन बचता है और कौन मरता है।
राजा साहब ने अवसर पाया, तो मोटर पर बैठकर हवा हो गए। मि. ब्रॉउन सैनिक सहायता के विषय में जिलाधाीश से परामर्श करने चले गए। माहिर अली और उनके सिपाही वहाँ जमे रहे। ऍंधोरा हो गया था, जनता भी एक-एक करके जाने लगी। सहसा सूरदास आकर बोला-कुँवरजी कहाँ हैं? धार्मावतार, हाथ-भर जमीन के लिए क्यों इतना झंझट करते हो? मेरे कारन आज इतने आदमियों की जान गई। मैं क्या जानता था कि राई का परबत हो जाएगा, नहीं तो अपने हाथों से इस झोंपड़े में आग लगा देता और मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाता। मुझे क्या करना था, जहाँ माँगता, वहीं पड़ा रहता। भैया, मुझसे यह नहीं देखा जाता कि मेरी झोंपड़ी के पीछे कितने ही घर उजड़ जाएँ। जब मर जाऊँ, तो जो जी में आए, करना।
विनय-तुम्हारी झोंपड़ी नहीं, यह हमारा जातीय मंदिर है। हम इस पर फावड़े चलते देखकर शांत नहीं बैठे रह सकते।
सूरदास-पहले मेरी देह पर फावड़ा चल चुकेगा, तब घर पर फावड़ा चलेगा।
विनय-और अगर आग लगा दें?
सूरदास-तब तो मेरी चिता बनी-बनाई है। भैया, मैं तुमसे और सब भाइयों से हाथ जोड़कर कहता हूँ कि अगर मेरे कारन किसी माँ की गोद सुनी हुई या मेरी कोई बहन विधावा हुई, तो मैं इस झोंपड़े में आग लगाकर जल मरूँगा।
विनय ने नायकराम से कहा-अब?
नायकराम-बात का धानी है; जो कहेगा, जरूर करेगा।
विनय-तो फिर अभी इसी तरह चलने दो। देखो, उधार से कल क्या गुल खिलता है। उनका इरादा देखकर हम लोग सोचेंगे, हमें क्या करना चाहिए। अब चलो, अपने वीरों की सद्गति करें। ये हमारी कौमी शहीद हैं, इनका जनाजा धूम से निकलना चाहिए।
नौ बजते-बजते नौ अर्थियाँ निकलीं और तीन जनाजे! आगे-आगे इंद्रदत्ता की अर्थी थी, पीछे-पीछे अन्य वीरों की। जनाजे कबरिस्तान की तरफ गए। अर्थियों के पीछे कोई दस हजार आदमी नंगे पाँव, सिर झुकाए, चले जाते थे। पग-पग पर समूह बढ़ता जाता था। चारों ओर से लोग दौड़े चले आते थे। लेकिन किसी के मुख पर शोक या वेदना का चिद्द न था, न किसी ऑंख में ऑंसू थे; न किसी कंठ सेर् आत्तानाद की धवनि निकलती थी। इसके प्रतिकूल लोगों के हृदय गर्व से फूले हुए थे, ऑंखों में स्वदेशाभिमान का मद भरा हुआ था। यदि इस समय रास्ते में तोपें चढ़ा दी जातीं, तो भी जनता के कदम पीछे न हटते। न कहीं शोक-धवनि थी, न विजयनाद था, अलौकिक नि:स्तब्धाता थी-भावमयी,प्रवाहमयी, उल्लासमयी!
रास्ते में राजा महेंद्रकुमार का भवन मिला। राजा साहब छत पर खड़े यह दृश्य देख रहे थे। द्वार पर सशस्त्रा रक्षकों का एक दल संगीन चढ़ाए खड़ा था। ज्यों ही अर्थियाँ उनके द्वार के सामने से निकलीं, एक रमणी अंदर से निकलकर जन-प्रवाह में मिल गई। यह इंदु थी। उस पर किसी की निगाह न पड़ी। उसके हाथों में गुलाब के फूलों की एक माला थी, जो उसने स्वयं गूँथी थी। वह यह हार लिए हुए आगे बढ़ी और इंद्रदत्ता की अर्थी के पास जाकर अश्रुबिंदुओं के साथ उस पर चढ़ा दिया। विनय ने देख लिया। बोले-इंदु!-इंदु ने उनकी ओर जल-पूरित लोचनों से देखा, और कुछ न बोली, कुछ बोल न सकी।
गंगे! ऐसा प्रभावशाली दृश्य कदाचित् तुम्हारी ऑंखों ने भी न देखा होगा। तुमने बड़े-बड़े वीरों को भस्म का ढेर होते देखा है, जो शेरों का मुँह फेर सकते थे, बड़े-बड़े प्रतापी भूपति तुम्हारी ऑंखों के सामने राख में मिल गए, जिनके सिंहनाद से दिक्पाल थर्राते थे, बड़े-बड़े प्रभुत्वशाली योध्दा यहाँ चिताग्नि में समा गए। कोई यश और कीर्ति का उपासक था, कोई राज्य-विस्तार का, कोई मत्सर-ममत्व का। कितने ज्ञानी,विरागी, योगी, पंडित तुम्हारी ऑंखों के सामने चितारूढ़ हो गए। सच कहना, कभी तुम्हारा हृदय इतना आनंद-पुलकित हुआ था? कभी तुम्हारी तरंगों ने इस भाँति सिर उठाया था? अपने लिए सभी मरते हैं, कोई इह-लोक के लिए, कोई परलोक के लिए। आज तुम्हारी गोद में वे लोग आ रहे हैं, जो निष्काम थे, जिन्होंने पवित्रा-विशुध्द न्याय की रक्षा के लिए अपने को बलिदान कर दिया!
और, ऐसा मंगलमय शोक-समाज भी तुमने कभी देखा, जिसका एक-एक अंग भ्रातृ-प्रेम, स्वजाति-प्रेम और वीर-भक्ति से परिपूर्ण हो?
रात-भर ज्वाला उठती रही, मानो वीरात्माएँ अग्नि-विमान पर बैठी हुई स्वर्ग-लोक को जा रही हैं।
ऊषा-काल की स्वर्णमयी किरणें चिताओं से प्रेमालिंगन करने लगीं। यह सूर्यदेव का आशीर्वाद था।
लौटते समय तक केवल गिने-गिनाए लोग रह गए थे। महिलाएँ वीरगान करती हुई चली आती थीं। रानी जाह्नवी आगे-आगे थीं, सोफी, इंदु और कई अन्य महिलाएँ पीछे। उनकी वीर-रस में डूबी हुई मधाुर संगीत-धवनि प्रभात की आलोक-रश्मियों पर नृत्य कर रही थी, जैसे हृदय की तंत्रियों पर अनुराग नृत्य करता है।