रंगमंच पर थोड़ा रुक कर / देवेंद्र

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सेना के जवानों और पैसा लेकर हत्या करने वाले पेशेवर हत्यारों में बहुत कुछ एक-सा होता है। पेशेगत नैतिकता में हत्या का महत्व तो एक जैसा होता ही है, समानता इस अर्थ में भी कि दोनों उस आदमी के बारे में कुछ विशेष नहीं जानते जिनकी हत्या उन्हें करनी होती है। उससे उनकी कोई व्यक्तिगत रंजिश नहीं होती है। कभी-कभी तो उन्हें अपने दुश्मन का नाम पता तक नहीं मालूम होता है। मरने वाले के माँ, बाप, भाई, बहन बीवी और बच्चों पर क्या गुजरेगी, इस बारे में सेना के जवान या हत्यारे नहीं सोचते। सोचना उनके पेशे में जुर्म माना जाता है। इस मामूली बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हत्या करने के एवज में उन्हें नियमित वेतन का भुगतान किया जाता है या भुगतान का ‘कांट्रैक्ट’ दिया जाता है। भुगतान करने वाले की इच्छा - यही दोनों का अकेला तर्क होता है। वे दोनों पेशेवर हत्यारे थे। बँगले के भीतर एक कोने में चुपचाप बैठे हुए वे सुव्रत को देख रहे थे।

होश में आने के बाद कुछ देर तक वैसे ही पड़े-पड़े सुव्रत ने आहिस्ते से अपने घाव की ओर देखा और फिर फर्श पर फैला खून, तो तत्काल उसकी समझ में कुछ नहीं आया। शायद जिंदगी और मृत्यु के बीच चंद साँसों का फासला भर रह गया है। एक नजर उसने बँगले की दीवारों को देखा और पहचानने की कोशिश करने लगा। कहाँ हूँ मैं? मैं यहाँ कब आया था? सामने मेज पर पड़ी अधूरी चिट्ठी को देख कर उसे कुछ कुछ याद आया। उन दोनों ने मेरे ऊपर गोली चलाई है। शायद गोली लगने की वजह से मैं बेहोश हो गया था। उसने मन ही मन ईश्वर का शुक्रिया अदा किया कि जिन मानसिक तकलीफों से गुजरने के कारण मैं पिछले दो महीने से सुकून की मामूली नींद के लिए तरस गया था वह बेहोशी की इस हालत में मयस्सर तो हुई। दस बारह घंटे या कौन जाने दस बारह दिन दिमाग शांत रहा है। उसे गोली लगी थी और खून बहुत ज्यादा रिस गया था फिर भी इत्मीनान महसूस हो रहा था। हालाँकि दर्द बहुत ज्यादा था।

- क्या अब मैं थोड़ी देर बाद मर जाऊँगा! यहाँ इस उचाट एकांत में मेरे मरने की खबर मेरे गाँव या घर वालों को कभी मिल सकेगी? मेरे यहाँ होने की खबर तक किसी को नहीं है। मेरी मृत्यु से नावाकिफ पत्नी जीवन भर मेरे लौट आने की प्रतीक्षा में तिल-तिल मरती रहेगी। यह तो और भी भयानक होगा उसके लिए। अब मैं मृत्यु के एकदम करीब हूँ। बिल्कुल अकेला। अपने बाहर और भीतर के खामोश अँधेरे में निस्पंद डूबता हुआ मैं! मुझे इस समय पत्नी या बेटे के बारे में नहीं सोचना चाहिए। इस तरह मैं कुछ कर भी तो नहीं सकता सिवा अपने हिस्से बचे थोड़े इत्मीनान को गँवाने के। मृत्यु मुझे छू रही है। मुझे एकाग्र होकर इसे महसूस करना चाहिए।

शायद यह सुबह की लालिमा है - उसने झरोखों के आसपास छितरी पड़ी रोशनी को देखते हुए सोचा - शायद साँझ हो रही हो! आखिर वे दोनों लड़के कौन थे, जिन्होंने गोली चलाई थी। वे कहाँ गए - सुव्रत ने कमरे में चारों ओर नजर दौड़ाई। उठने की कोशिश में महसूस किया कि सब कुछ घूम रहा है। हाँ, मुझे चक्कर आ रहा है। फिर वह गहरे अँधेरे नशे में लड़खड़ाता डूबता चला गया।

शायद इसे होश आ रहा है - उसे लड़खड़ाते हुए देख कर लड़कों ने सोचा और दौड़ कर पास पहुँच गए। सुव्रत गिर कर दुबारा बेहोश हो चुका था। बड़े वाले लड़के ने निराश होकर कहा - ‘इसके मुँह पर पानी का छींटा मारो।’

बड़े की उम्र तीस साल के करीब होगी। दूसरा वाला उससे थोड़ा छोटा था। दो चार साल छोटा।

हुआ यह कि जिस समय सुव्रत अपनी प्रेमिका सुवर्णा सोनी के लिए चिट्ठी का आखिरी पैरा लिख रहा था - वह बहुत उत्साहित था कि सब कुछ मन मुताबिक वैसा ही हो रहा है, जैसा कि लिखना चाहता था। बिना कोई जल्दी किए मुझे एक-एक बातें इत्मीनान से लिखनी चाहिए- उसने सोचा। उमस भरी दोपहरी थी। खिड़कियाँ खोल दूँ - यह सोच कर वह जैसे ही उठा उसी क्षण बँगले के भीतर किसी के घुसने की आहट हुई। दोनों लड़के बिल्कुल ढीठ अंदाज में भीतर घुसे।

‘आप लोग कौन हैं’ सुव्रत को उन लड़कों का यह ढंग बेहत आपत्तिजनक लगा था। धृष्टतापूर्ण भी। तभी उन लड़कों ने हँसते हुए - सिहरन पैदा करने वाली वह एक क्रूर और खतरनाक हँसी थी - उस पर गोली चला दी।

सुव्रत को कभी यह अनुमान नहीं था कि कोई उसे जान से मार सकता है। उसकी किसी से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दुश्मनी नहीं थी। उसे याद भी नहीं कि उसने इन लड़कों को पहले कभी कहीं देखा भी है। कोई लूटने की गरज से आ सकता है। लेकिन आमतौर से पहाड़ों पर ऐसे अपराध नहीं होते। इस नई जगह पर उसे कोई पहचानता भी नहीं है। दूर दूर तक फैली सुनसान पहाड़ियों के बीच अथाह सन्नाटे में डूबा यह एक अत्याधुनिक बँगला था। सुवर्णा सोनी की यादें, उसकी बेवफाई, उसके द्वारा किए गए अपमान से आहत अकेला सुव्रत दो महीने से यहाँ तड़प रहा था।

- हे भगवान क्या मेरे पुराने दिन दुबारा लौट कर आ सकेंगे! सुवर्णा सोनी से मुलाकात के पहले के सुख भरे दिन। क्या कभी चैन की दो घड़ी नींद मयस्सर हो सकेगी। एक ऐसी शांत नींद जिसमें उस लड़की का कोई दखल न हो।

वह रात दिन उसी के बारे में सोचा करता। तीन साल पहले वह उसके जीवन में आई थी। उसका आना इतना चुपचाप था कि वह उसकी आहट बहुत दिन बाद सुन सका। अपनी मरजी से वह उसके भीतर दाखिल हुई थी। उसकी हँसी, उसका दुलार सब कुछ एक सम्मोहक नशे की तरह सुव्रत के भीतर बसता जा रहा था। पत्नी यह सब देखा करतीं। चिढ़तीं, कुढ़तीं। चिड़चिड़ी होकर समय से पहले ही विद्रूप और बूढ़ी होती जा रही थीं पत्नी। एक दिन सुवर्णा सोनी चुपचाप उसके जीवन से चली गई। उसका जाना भी वह बहुत दिन बाद जान सका। यह तो सरासर धोखा है - वह सुवर्णा सोनी को एक पत्र लिख कर उसे उसकी सारी नीचताएँ, लालच और मतलबपरस्ती याद दिलाना चाहता था।

वह पिछले दो महीने से पत्र लिखता और फाड़ डालता। नहीं मुझे यह सब बातें नहीं लिखनी चाहिए। इस तरह तो वह यही सोचेगी कि चलो अच्छा हुआ जो नीच आदमी से पीछा छूटा। उसे अपने किए से तसल्ली होगी। नहीं! मुझे ऐसा कुछ नहीं करना जिससे उसे रत्ती भर तसल्ली मिले - वह पत्र को फाड़ डालता। बँगले में जगह-जगह फटे कागजों के चिथड़े बिखरे हुए थे।

लड़कों की उस बेहूदी हँसी से ही सुव्रत ने अंदाजा लगाया कि शायद इनके इरादे भयानक हैं। उसी क्षण उसने पास रखे ‘रिमोट’ से पूरे बँगले को ‘लाक’ कर दिया। गोली चलने की आवाज के साथ ही एक हल्की ‘खटाक’ की आवाज भी हुई और वह बँगला पूरी तरह बंद हो गया।

अचानक दरवाजों को बंद होता देख कर दोनों लड़के घबड़ा गए। एकबारगी तो उन्हें समझ में नहीं आया कि यह क्या हो रहा है। शायद कोई बाहर हो जिसने दरवाजों को बंद कर दिया हो। उन्होंने तेजी से खींच कर दरवाजों को खोलना चाहा, लेकिन वह टस से मस नहीं हो रहा था। अगर कोई आदमी बाहर होता तो जरूर चिल्लाता। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। तभी उन्होंने सुव्रत के हाथ में ‘रिमोट’ को देखा। - अब कुछ नहीं हो सकता - बड़े ने लगभग बुदबुदाते हुए छोटे से कहा - ‘यह दरवाजा शायद इसी ‘रिमोट’ से खुलेगा। हमें इसका ‘कोड’ नहीं मालूम है।’

थोड़ी देर तक दोनों कमरे में इधर उधर भागते रहे - नहीं! दरवाजा तो हिल भी नहीं रहा है। वे एक एक खिड़की तक गए लेकिन कहीं कुछ नहीं। अचानक पिंजड़े में फँस जाने के बाद जैसे कोई भेड़िया बार-बार सलाखों से टकराता है, वे दोनों दीवारों से टकरा रहे थे। कोई गुंजाइश नहीं। ‘क्या करें! हे भगवान!’ बड़े वाले ने छोटे से कहा - ‘तुम इसके घाव को दबाए रखो। खून बह जाने से अगर यह मर गया तो... किसी तरह इसका बचना जरूरी है।’

खून सने लोथड़े की तरह सुव्रत फर्श पर छितरा गया था। ‘अभी यह बेहोश है’ - छोटा वाला उसके घाव को दबा कर खून का बहना रोके हुए था। बड़े वाले ने पास पड़े चादर को फाड़ कर पट्टियाँ बाँधी। उन्होंने उसे उठा कर पानी का छींटा मारा। जितना भी समझ में आ रहा था, तरह-तरह से उन्होंने बहुत कोशिश की। कई बार ऐसा लगा कि उसे होश आ रहा है। उसकी पलकें काँपतीं। होठ हिलते। उम्मीदें जागतीं। लेकिन उसे होश नहीं आया। दोनों हत्यारे खून से लतपथ चौकन्ने और डरे हुए थे।

धीरे धीरे साँझ हुई और फिर रात। दूर दूर तक फैले पहाड़ों का सन्नाटा एक खिड़की के खुले पट से कमरे के भीतर भरता जा रहा था। भुतैली खोहों से निकल कर अँधेरा धीरे-धीरे गाढ़ा होने लगा। बँगला उस रात उन तमाम बँगलों से डरावना लग रहा था जो उन्होंने पुरानी फिल्मों में देखे थे। यहाँ न तो बूढ़े विकलांग चौकीदार के हाथ में लालटेन की काँपती लौ थी और न ही दूर सुनाई देता किसी बाँसुरी का रहस्यमय मोहक संगीत। ऐसा कुछ भी नहीं था यहाँ। एक मरे हुए दरियाई घोड़े के पेट को जंगली जानवरों ने खाकर खोह जैसा बना डाला था। दोनों उसी खोह में डर कर बैठे हुए सूअर के हूँफने जैसी सुव्रत की साँस को सुन रहे थे।

- हत्यारे को उसी आदमी के साथ बाँध कर किसी निर्जन स्थान पर छोड़ आना चाहिए जिसकी उसने हत्या की है। वह देख सके कि एक अच्छे भले आदमी को कौवे और सियार किस तरह घसीट-घसीट, धीरे-धीरे खाते रहते हैं। मरना सचमुच कितना भयानक होता है, हत्यारों को अवश्य ही यह जानना चाहिए। - तीन चार साल पहले छोटे ने कहीं पढ़ा था और इस कल्पना से ही सिहर उठा था। तब मुझे क्या पता था कि यह एक दिन मेरे लिए सच होगा। अँधेरे में कुछ भी दिख नहीं रहा है। उसने दोनों हाथों से उसी तरह बड़े वाले को थाम रखा है जैसे खुद बड़े वाले ने उसे।

बड़ा वाला दूसरी बातें सोच रहा था। उसे यकीन नहीं था कि अब यह आदमी बचेगा। गोली सीने और पेट के बीच लगी है। कल तक जहर भी फैलना शुरू हो जाएगा। अगर इस बीच इसे होश आ भी जाए तो यह दरवाजा खोलेगा - इस बात का कोई भरोसा नहीं है। अब यह मृत्यु के इतना करीब है कि भय या लालच किसी वजह से इसे फुसलाया नहीं जा सकेगा।

थोड़ी मुश्किल तो होगी लेकिन फिर भी...। एक उम्मीद के बतौर वह सरकार, पुलिस और अदालतों के बारे में सोच रहा था। सरकार ने उसे धरने के लिए आठ लाख रुपया घोषित कर रखा है। पुलिस ने उसे धर भी लिया तो अदालतें जरूर न्याय करेंगी। उसे अदालतों पर पूरा यकीन है। लेकिन यह सब तो बाद की बातें हैं। इस समय तो वह एक डरावनी काली रात के भीतर चुपचाप बैठा सुव्रत के होश आने की प्रतीक्षा कर रहा है।

पूरी रात वे दोनों एक दूसरे को पकड़ कर बैठे हुए उस एकांत अँधेरे को चुपचाप सुनते रहे जो आहिस्ता आहिस्ता उनके दिल की धड़कन और रुक रुक कर सुव्रत की कराहों में बज रहा था।

दूसरे दिन का लगभग चौथा पहर था। बड़े ने उठ कर एक बार फिर सुव्रत का जायजा लिया। - किसी तरह इसे एक बार होश आ जाता - वह सोच रहा था। तभी बँगले के बाहर ढेर सारे लोगों का शोर सुनाई दिया। आवाज बढ़ती जा रही है। शायद लोग इस तरफ ही आ रहे हैं। क्या लोगों को खबर हो चुकी है। बगल के गाँव वाले होंगे। दोनों चौकन्ने हो गए। अगर पुलिस का कोई जिम्मेवार अफसर इनके साथ होता तो निश्चित ही यह शोर इतना अनियंत्रित बदहवास नहीं होता। यह तो और भी भयानक होगा। खून और हत्या इन सबके लिए एक अनोखी चीज होगी। एकदम वहशी और बर्बर तरीका अपनाते हुए ये बर्छियों से कोंच कर और पत्थर से कुचल कुचल कर हमें मारेंगे। आवाज दौड़ती हुई बँगले की ओर आ रही है। एक निरंकुश और आदिम उतावलापन सुनाई दे रहा है - मारो! मारो! घेर लो!! दोनों कोने में पड़ी चारपाई के नीचे दुबक कर बैठ गए। भयभीत भेड़िए की तरह चौकन्नी और हमलावर मुद्रा थी उनकी।

शायद शोर अहाते के भीतर घुस रहा है। लाठियों के बजने और फिर किसी को मारने की आवाजें आ रही हैं। सफलता और विजय का सम्मिलित कहकहा। एक लंबी चिंचियाहट। किसी भेड़िए, सूअर या साही के चिंचियाने की आवाज है। संभवतः भागता हुआ जानवर ही बँगले की दीवारों में आकर घिर गया। शिकार का उल्लास भीड़ में भर गया। नहीं, इन लोगों को हमारे बारे में कुछ नहीं मालूम है - दोनों ने राहत की लंबी साँस के साथ सोचा। इसी आवाज से सुव्रत को दूसरे दिन थोड़ी देर के लिए होश आया था जब वह उठने की कोशिश में लड़खड़ा कर दुबारा बेहोश हो गया। दोनों थके हारे चुपचाप कोने में जाकर बैठ गए।

फिर वही भयानक रात उनके जीवन में दुहराई गई। तीसरे दिन सुबह के समय दर्द से ऐंठी सुव्रत की चीख सुनाई पड़ी। आँखें खोल कर उसने चारों तरफ देखा। एक लंबे सपने से जागने की कोशिश में उसने सोचा - अगर यह स्वप्न नहीं है और वाकई मुझे गोली लगी है तो यहाँ यह पट्टी किसने बाँधी है?

तभी उसकी नजर उन दोनों लड़कों पर पड़ी। दीवार के सहारे चुपचाप बैठे हुए वे उसे ही देख रहे थे। हाँ इन्होंने ही मेरे ऊपर गोली चलाई थी। आज! अभी, थोड़ी देर पहले। पता नहीं आज, कल या परसों! मैं तो बेहोश था।

सुव्रत को होश में आया देख कर दोनों लड़के उसके करीब आ गए। पता नहीं कितने दिन से ये दोनों भी यहाँ मेरे साथ बंद पड़े हैं। खूब! बहुत खूब! - सुव्रत ने सोचा और उसके होठों पर एक कुटिल मुस्कान फैल गई।

बड़े वाले लड़के ने कहा - ‘हमने गलती से तुम्हारे ऊपर गोली चलाई है। दो दिन हो गए। हम यहाँ बंद हैं। अगर हम वाकई चाहते तो इस बीच तुम्हें मार सकते थे। अगर अब तुम दरवाजा नहीं खोलोगे तो हम सचमुच तुम्हें मार डालेंगे।’

सुव्रत धीरे-धीरे सारी बातें याद कर रहा था। उसने उनकी बात को कोई तवज्जो नहीं दी और सोचा - सुवर्णा सोनी से धोखा खाने के बाद दुनिया में अब कोई मुझे धोखा नहीं दे सकता। उसने मुस्करा कर कहा - ‘आप लोग मुझे मार नहीं सकते हैं। अगर मैं मर गया तो आप यहाँ से कभी निकल नहीं पाएँगे। सिर्फ मैं ही आप दोनों को यहाँ से बाहर निकाल सकता हूँ। या फिर पुलिस आकर आपको यहाँ से ले जाएगी। मैं बगैर यह जाने कि आप लोग कौन हैं मुझे कैसे जानते हैं क्यों मारना चाहते हैं मुझे? जब तक मैं यह सब नहीं जान लूँगा, तब तक यह दरवाजा कभी नहीं खोलूँगा।’

‘दरवाजा तो तुम्हारे सात पुरखे आकर खोलेंगे। शायद तुम नहीं जानते कि मैं कौन हूँ। सरकारें मेरा नाम सुन कर मूत देती हैं। तुम हमें पुलिस का भय दिखा रहे हो।’ बड़े ने हँसते हुए कहा - ‘पुलिस हमारे लिए रास्ता साफ करती है। हम उस पर आगे आगे चलते जाते हैं और वह पीछे-पीछे हमें खोजती रहती है। रही बात तुम्हारे मरने की! उसे तुम भुगतो!’ उसने सुव्रत के घाव, जहाँ गोली लगी थी, उसे अपने पैर के अँगूठे से कस कर दबाया। सुव्रत दर्द से तड़प पड़ा।

‘यह क्या बदतमीजी है’ - छोटा वाला लगभग चीख पड़ा - ‘तुम्हें पता है अगर यह मर गया तो...’

सुव्रत काँप कर फिर बेहोश हो गया।

- ‘अब अगर यह मर गया तो मैं तुम्हारा खून कर डालूँगा।’ छोटे ने बेकाबू होते हुए कहा।

बड़े को अपनी गलती का अहसास हुआ। तब भी छोटे का यहाँ इस तरह बोलना उसे भीतर तक चुभ गया। उसने मन ही मन सोचा - अगर मैं कभी बाहर निकल सका तो तुम्हें यह बदतमीजी जरूर भुगतनी पड़ेगी - वह चुपचाप कोने में जाकर बैठ गया।

उस रात दोनों कमरे के दो अलग अलग कोनों में बैठे थे। संशय, नफरत और भय की कई पतरें में लिपटी थी वह रात। अँधेरे के सन्नाटे में सुव्रत की साँस बज रही थी। कभी धीमी आहट की तरह, और कभी कंठ तक भर आए कफ में फँस कर घर्र-घर्र। वह एक लंबी नींद की ओर जा रहा था। जबकि दोनों जाग रहे थे और उससे ज्यादा उसके जीवन की कामना कर रहे थे। वे दोनों, खासकर उनमें बड़ा वाला खूँखार हत्यारा था।

दूसरे दिन एक बार फिर सुव्रत की नींद टूटी।

‘देखिए, आप एक बार हम पर यकीन करें।’ बड़े ने याचना के लहजे में कहा - ‘इस तरह आप धीरे-धीरे मृत्यु की ओर जा रहे हैं। अगर आप दरवाजा खोल देंगे तो हम सचमुच आपको अस्पताल तक ले जाएँगे। आप क्यों नहीं विश्वास करते कि हमारी आपसे कोई दुश्मनी नहीं है। और जिस तरह आप हमारे बारे में कुछ नहीं जानते हमें भी आपके बारे में कुछ खास पता नहीं है। मुझे तो आपका नाम तक नहीं मालूम है।’

सुव्रत ने हँसने की कोशिश की, लेकिन असह्य दर्द में फँस कर हँसी विद्रूप हो गई। उसने कहा - ‘सचमुच कितना अजीब है! आप हमारे बारे में कुछ नहीं जानते, फिर भी आपने हमें जान से मारने की कोशिश की है। उल्टे जब आप मुसीबत में फँस गए तो मुझे अस्पताल ले जाने को कह रहे हैं और चाहते हैं कि मैं आप पर यकीन कर लूँ।’

‘तुम इस मुगालते में न रहना कि हम अंतिम रूप से तुम्हारी दया के मुहताज हैं। ज्यादा से ज्यादा यही होगा कि पुलिस आकर यह दरवाजा तोड़ेगी और हमें गिरफ्तार करेगी। पुलिस इससे ज्यादा और कुछ नहीं कर सकती। इसके बाद कानून की किताबें होंगी और अदालतें। वहाँ अदालतों में सारा कुछ इस धारणा के साथ शुरू होगा कि दो बेगुनाहों को पुलिस धर लायी है। वहाँ से तो हम निबट ही लेंगे। लेकिन उससे पहले हम तुमसे निबटेंगे। बेहोशी की शांत मौत हम तुम्हें नहीं मरने देंगे। पहले तुम्हारे नाखूनों को चीरेंगे। तुम्हारी आँखों में सुराख करेंगे। हम तुम्हें धीरे धीरे तड़पाएँगे। मृत्यु कितनी भयानक और मुश्किल होती है तुम्हें इसका अहसास कराएँगे।’

‘इससे कुछ फायदा नहीं होगा आपको।’ सुव्रत थरथराते होठों से बुदबुदा रहा था - ‘सुवर्णा सोनी ने जो मेरे साथ किया है उससे ज्यादा आप कुछ नहीं कर सकते। मैं दो महीने में इतना ज्यादा तड़प चुका हूँ कि, शायद आप यह कभी नहीं जान पाएँगे, जो सुकून मुझे आपसे मिला है। अब और अधिक तड़पाने की आपकी हर कोशिश मेरे लिए मलहम ही होगी।’ अपने घाव की ओर देखते हुए उसने बताया - ‘मवाद की वजह से बहुत जलन हो रही है। शायद जहर पूरी तरह फैल चुका है। अब दुनिया का कोई डॉक्टर मुझे नहीं बचा सकेगा। फिर भी आप चाहते हैं कि मैं एक झूठी उम्मीद पर यकीन करूँ।’

वह भी ऐसा ही चाहती थी - उसने मन ही मन सोचा - अब मैं कभी किसी पर यकीन नहीं करूँगा - सुव्रत शांत आँखों से एकटक छत को देखते हुए सोच रहा था। उसकी आँखें डबडबा गई थीं - क्या खोया क्या पाया वह जीवन की पड़ताल कर रहा था - थोड़ी देर बाद मेरी देह बदबू और मवाद का थैला बन कर रह जाएगी। पता नहीं इस एकांत में मेरे मरने की खबर उसे होगी या नहीं। क्या वह कभी जान पाएगी कि उसके चले जाने के बाद मैं पहाड़ पर चला आया था। यहाँ मेरी हत्या कर दी गई। मेरी हत्या की खबर से उसे कैसा लगेगा। क्या वह अपने पति से कभी भी मेरा जिक्र करेगी? आखिर ये दोनों लड़के कौन हैं? कहीं इनमें कोई सुवर्णा सोनी का पति तो नहीं है। उसके अलावा कोई दूसरा क्यों मारेगा? किसी तरह एक बार मैं उसे देख पाता।

बँगले के बाहर साँझ घिरने लगी थी। भीतर अँधेरे की आहट बजने लगी। वहाँ हत्यारे थे। भय था। घुटन थी। बावजूद इन सबके उसकी जागती आँखों के आसपास यादों और सपनों का एक संसार बसता और घना होता जा रहा था। इस अनोखे संसार में लोगों की भीड़ थी। बीवी थी। बेटा था। गर्मी की छुट्टियों में आम के बाग थे। बचपन था। निशा दीदी थीं और शकुंतला थी। सब उसे ही ढूँढ़ रहे हैं। वह सबकी नजरों से बचता सुवर्णा सोनी को खोज रहा है। सपने उसे एक अनियंत्रित नींद की ओर लेकर चले गए। जहाँ सारा कुछ धीरे धीरे डूबता चला जा रहा था।

अंतिम रूप से निरुपाय होकर दोनों कातर भाव से उसे देखने लगे। - अब कुछ नहीं हो सकेगा - फिर अपने अपने कोनों में जाकर बैठ गए। रात का दूसरा या तीसरा पहर। घड़ी की टिक-टिक और कैलेंडर की तारीखों से बहुत दूर किसी अँधेरे सन्नाटे के भयावह दुःस्वपनों में फँस कर समय सुव्रत की साँसों में अटक गया था और सिर्फ घर्र-घर्र बज रहा था - मैंने अपने जीवन में कभी किसी को मरते हुए नहीं देखा है - बड़ा वाला काँपती आवाज में बुदबुदाया। दीवार से किसी छिपकली के गिरने की आवाज आई। छोटा वाला हँसा, फिस्स! - ‘मैंने भी जिंदगी में तुमसे फितरती और जालिया आदमी नहीं देखा है! रोज सुनाया करते थे कि मैंने बीसों हत्याएँ की हैं। कुछ नहीं होता हत्या करने में। पाँच सेकेंड लगते हैं बस और अभी जबकि पुलिस भी नहीं आई है तुम सफाई देने लगे।’

ओह! यह जितना मूर्ख है उससे कई गुना ज्यादा बदतमीज - बड़े ने सोचा और तिलमिला कर ऐंठ गया।

वह शायद चौथा या पाँचवा दिन था जब सुव्रत पूरी तरह निस्पंद हो गया। उसका मरना जैसा कि गालिब सोचा करते थे - पड़िए गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार, और अगर मर जाए तो नौहख्वाँ कोई न हो।

रिश्तों के जंगल और जंजाल में रहते हुए वह सुव्रत बिना किसी को बताए चुपचाप इस संसार से अनुपस्थित हो गया। जबकि लोगों की स्मृतियों और संभावनाओं में हमेशा उसकी उपस्थिति दर्ज की जाती रहेगी। पत्नी की प्रतीक्षा को दुखाती हुई उसकी उपस्थिति ताउम्र उसे बेनींद और बेसपनों का बंजर बना देगी। मेले ठेले और भीड़भाड़ की तमाम जगहों पर उसकी छाया सुवर्णा सोनी को हमेशा डराती रहेगी। पुलिस, फौज, कानून और कचहरी किसी पर भरोसा न करते हुए उसकी मृत्यु अकेले अपने दम पर हत्यारों का पीछा करती रहेगी। जैसा कि उसने कहा भी था कि अब मुझे दुनिया में कोई धोखा नहीं दे सकता। अब वह नहीं था। सिर्फ उसकी मृत्यु थी। बगल में उसके हत्यारे थे।

चार या पाँच दिन कितने दिन से मैं इस कमरे में बंद हूँ - बड़े वाले ने सोचा - जैसे कई वर्ष हो गए। हो सकता है बाहर लोग उसे भूल चुके हों। और अब कोई पहचान भी न पाए। समय का आयतन इस बात पर निर्भर करता है कि आप किस जगह पर हैं और उसकी लय किस धुन में आपके भीतर बज रही है। भय और दुःस्वप्नों से भरी एक अँधेरी सुरंग में वह फँस गया है। बँगले में एक लाश धीरे-धीरे सड़ रही है। कितने दिन हो गए मैंने किसी से कोई बात नहीं की है - उसने सोचा - कहीं मेरी आवाज खो न जाए। इस ख्याल के साथ ही वह बहुत जोर से चीखा दूसरे ही क्षण रुक कर सोचने लगा - कहीं मैं पागल तो नहीं हो रहा हूँ। उसने एक बार फिर जाकर दरवाजे को हिलाया।

छोटा वाला दुबक कर उसे आश्चर्य से देख रहा था - दरवाजा जब फिर टस से मस नहीं हुआ तो उसने सिटकनी भीतर से बंद कर दी - ‘यह क्या कर रहे हो तुम?’ छोटे ने पूछा - ‘तुमने सिटकनी भीतर से क्यों चढ़ायी?’

‘मुझे बहुत घबराहट हो रही है।’ बड़े ने कातर होते हुए कहा - ‘एक तो यहाँ इस लाश के साथ मेरा दम घुट रहा है। ऊपर से तुम्हारी उजड्डता। मैंने जानबूझ कर तुम्हें इस मुसीबत में नहीं फँसाया है। मैंने दरवाजा भीतर से बंद कर दिया है बस इस विश्वास के लिए कि मैं अब भी जब चाहूँ बाहर निकल सकता हूँ। कि यहाँ अब भी सब कुछ मेरी इच्छा के अधीन है।’

‘लोग तुम्हें ‘डान’ कहते हैं’ छोटे ने व्यंग्य से हँसते हुए कहा - ‘लेकिन निश्चय ही तुम्हारी माँ ने तुम्हें किसी नाई से जना है। वाकई तुम बेहद चतुर हो’ - उसने घृणा से थूक दिया - ‘नाइयों की तरह खूब बातें बना लेते हो।’

थोड़ी देर चुप रहने के बाद - ‘शायद इस सड़ रही लाश की बदबू से या तुम्हारी बातें सुन कर’ छोटा एक थकी हँसी हँसते हुए बुदबुदा रहा था - ‘घिन्न के मारे मुझे मिचली आ रही है।’

उसने वहीं कोने में पड़े पड़े उल्टियाँ करनी शुरू कर दीं। उसकी आँखें लाल हो गई थीं। लगा कि बुखार चढ़ रहा है। ‘मेरा सिर दर्द से फटा जा रहा है’ उसने बड़े को देखते हुए कहा - ‘तुमने तो सचमुच ही मुसीबत में डाल दिया है। चाह रहा हूँ कि तुम्हें चबा जाऊँ।’

लाश से डरते हुए दोनों उस रात एक दूसरे से सट कर बैठे रहे। दीवारों के बाहर किसी के रेंगने की आहट आ रही थी। चौकन्ने और सहमें से दोनों खिड़की की ओर देखने लगे। शायद कोई भीतर घुसने की कोशिश कर रहा है। दो चार दस बीस शायद लकड़बग्घों का झुंड है। एक मृत शरीर के साथ दो जीवित गोश्त भी हैं। वहशी और हिंस्र। लकड़बग्घों की आँखें चमक रही हैं। कोने की दीवार में सटते और सिमटते जा रहे बड़े और छोटे की साँस धौकनी की तरह चल रही है। यह लकड़बग्घों के हूँफने की आवाज है। खिड़की की मोटी और अभेद्य सलाखों के बीच उनकी जीभें लपलपा रही हैं। भय और सिहरन से भरा हुआ शायद यह एक सपना है। सपने में हम भाग नहीं पाते।

बदबू से भरी लाश का दूसरा दिन। बँगला छिपकलियों, तिलचट्टों और चींटियों से भरने लगा। कीड़ों ने उसकी आँखों को धीरे धीरे चाट डाला था। वहाँ दो सूखे गड्ढे रह गए। रात से भी ज्यादा क्रूर और बदबू से भरा रहा वह दिन। क्या इतना दहशत भरा होता है आदमी का मरना। शाम के समय अपनी बकरियों के साथ एक बूढ़ी औरत उधर से गुजर रही थी - क्या यहाँ आसपास कोई कुत्ता सड़ रहा है बुढ़िया ने सोया और तीखी बदबू से बचने के लिए अपनी साड़ी के पल्लू से उसने अपनी नाक बंद कर ली।

लेकिन बदबू तो बँगले के भीतर से आ रही है - आशंका और अनुमान से खिंची बुढ़िया ने खिड़की के भीतर झाँक कर देखा - भयानक बदबू। उसने अपनी नाक कस कर दबा रखी थी। भीतर साँझ का धुँधलका भर गया था। सुव्रत की लाश फर्श पर औंधी पड़ी फूल रही थी। मिचमिचाती आँखें भय और अचरज से फैल कर फटी जा रही थीं। यह तो उसी आदमी की लाश है जो महीने भर से यहाँ अक्सर टहलता रहता था। ये दोनों लड़के कौन हैं - बुढ़िया ने सोचा।

किसी बड़ी घटना का प्रथम दर्शक होने का वह रोमांच उस एक क्षण में बुढ़िया के भीतर इतना तीव्र और आकस्मिक था कि अचानक उसके भीतर साठ पैंसठ साल पहले वाली दस बारह साल की एक छोटी लड़की उभर आई। अपनी चरती हुई बकरियों को वहाँ उसी तरह छोड़ कर लगभग दौड़ती हाँफती वह सीधे गाँव की ओर भागी। इस बीच वह थक कर कई बार बैठ जाती। फिर उठ कर दौड़ने लगती। गाँव के बाहर खड़े एकाध लोगों ने उसे देख कर सोचा कि शायद फिर उसकी बकरियों को भेड़ियों के झुंड ने घेर लिया है। अक्सर वह गाँव वालों को इस तरह की कहानियाँ सुना कर बेवकूफ बनाती और अकेले कई दिनों तक हँसा करती थी। अब लोग उसकी बातों पर विश्वास नहीं करते थे। जब वह गाँव में पहुँची तो बुरी तरह हाँफ रही थी। बोलने की उसकी हर कोशिश पर उसके गले में सिर्फ गुर्र गुर्र और साँय साँय बज रही थी। पेट के नीचे का बायाँ हिस्सा दर्द से ऐंठ रहा था। दस मिनट बाद किसी तरह संयत होकर वह इतना ही बोल पाई - ‘वहाँ बँगला... बदबू... खून...।’

एक आदमी ने ऊँची आवाज में लोगों को बताया कि भले ही इसकी जवानी चली गई है लेकिन अब भी इसकी आदत नहीं गई है। बुढ़िया का लड़का और बहू दोनों आ चुके थे। बहू जोर-जोर से चिल्लाने लगी कि यह निकम्मी आज फिर बकरियों को छोड़ कर भाग आई है। आज भेड़िए उसकी किसी न किसी बकरी को जरूर खा जाएँगे। लड़के ने कस कर एक लात बुढ़िया के पेट में मारी और बकरियों को हाँक लाने के लिए जंगल की ओर चला गया।

बुढ़िया अब भी अपनी नाक को एक हाथ से दबाए हुए थी। उसी तरह वह घर के भीतर गई और अपनी झिंगली चारपाई पर भहरा गई। बदबू और घिन अब भी उसका पीछा कर रहे थे।

दूसरे दिन लोगों ने सोचा - हो सकता है बुढ़िया की बातों में राई रत्ती कुछ न कुछ सच्चाई हो। उन्होंने बँगले के भीतर जाकर झाँका।

वाकई! यह तो बिल्कुल सच है। लाश सड़ रही है। भयानक बदबू। वहाँ कोने में कौन बैठा है? दो आदमी हैं। हटो, हमें भी देखने दो। लोग उत्सुकता से एक दूसरे को पीछे खींचते और खुद खिड़की से भीतर झाँकते। कुछ लोग गाँव की ओर भागे - पहली बार बुढ़िया ने कोई सच बात कही है। लोग भागते चले आ रहे हैं। हे, तुम खिड़की से क्यों नहीं हटते हो बस तुम्हीं दिन भर देखोगे क्या अपनी गोद में बच्चे को सँभाले हिलती दौड़ती औरतें भी चली आ रही हैं। बायस्कोप के भीतर सुव्रत की लाश और वहाँ कोने में बैठे दो लड़के। उनका चेहरा सूज कर भयानक लग रहा है। आँखें लाल और कीचड़ से भरी हुईं। अँधेरी खोहों में रहने वाले वनमानुष की तरह। डरे हुए दोनों खिड़की पर झूल रही भीड़ को देख रहे हैं। बड़े ने उठने की कोशिश की तो भहरा गया। वह दुबारा खड़ा हुआ और किसी तरह सँभल-सँभल कर चलते हुए खिड़की के पास तक आया। भय और कौतूहल से भीड़ दो कदम पीछे हट गई। वह हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ा रहा था - ‘हमने ही इस आदमी की हत्या की है। तुम सब थाने जाकर खबर कर दो।’

औरतों ने एक दूसरे को कुहनी मारी और खिलखिला पड़ीं। लोग हँसने लगे - ‘वाकई, यह तो बहुत मजेदार है।’

‘तुम लोग क्यों हँस रहे हो। आखिर तुम सब यह क्यों नहीं समझते कि हमने हत्या की है। तुम लोग जाओ और पुलिस को यह बता दो। जेल, कचहरी, हवालात जहाँ चाहे पुलिस हमें ले जाए।’ बड़ा वाला सचमुच गिड़गिड़ा रहा था।

‘लेकिन थाना तो यहाँ से बीस मील दूर है।’ एक आदमी ने ऊँची आवाज में कहा - ‘हम वहाँ कभी नहीं जाते। अगर तुम्हारे कहने से हम वहाँ जाएँ भी तो सबसे पहले पुलिस यही पूछेगी कि किस आदमी ने किस आदमी को मारा है? पहले तुम यह बताओ कि यह आदमी कौन है और तुमने इसे क्यों मारा है?’

बड़ा वाला सोचने लगा - आखिर हम कैसे बता सकते हैं कि यह कौन है। हमें इसके बारे में कुछ भी तो पता नहीं है। उसने कहा - ‘तुम लोग बता देना कि उन्हें उस आदमी के बारे में कुछ भी पता नहीं है।’

बाहर खड़े लोग खूब जोर से हँसे - ‘कहीं तुम पागल तो नहीं हो?’

‘क्यों?’ बड़े ने भोलेपन से कहा।

‘बातें तो तुम लहीम शहीम कर रहे हो और इतना भी नहीं जानते कि बिना किसी के बारे में कुछ जाने कोई किसी का खून क्यों करेगा? हम तुम्हारे कहने से ऐसी बेतुकी बात करेंगे तो पुलिस हमें पागल समझेगी। वह हमें चार डंडे रसीद करेगी और हवालात में डाल देगी। वैसे भी बेमतलब दूसरे के मामले में कौन पुलिस के पास जाना चाहेगा।’

छोटा वाला घुटनों पर ठुड्डी टिकाए कोने में पड़े पड़े दूर से ही यह सब देख रहा था - ‘अब खोजते रहो पुलिस और अदालत’ उसने बड़े वाले के लिए बुदबुदाया - ‘अच्छी भली जिंदगी को तुमने कैसे मुसीबत में डाल दिया।’

अजीब जंगली और बर्बर लोग हैं - बड़े वाले ने थक हार कर सोचा। अगर सब कुछ ऐसे ही रहा तो कितना भयानक होगा। वह छोटे के पास जाकर कोने में बैठने लगा।

छोटा चीख पड़ा - ‘उठो, भागो यहाँ से! मेरे पास बैठना मत। मुझे तुमसे घिन्न आ रही है। सचमुच मैं तुम्हारे ऊपर उल्टियाँ कर दूँगा।’

‘एक तो यहाँ मेरा दम घुट रहा है। ऊपर से तुम कोई न कोई बहाना पाकर गालियाँ दे रहे हो।’ बड़े ने रिरियाते हुए लगभग याचना के स्वर में कहा।

लोग उत्सुकता से यह सारा कुछ देख रहे थे - ‘ये, सुनो!’ - एक आदमी ने उन्हें बुलाते हुए कहा, ‘यह औरत अभी-अभी गाँव से आ रही है। इसने कभी हत्यारे को नहीं देखा है। जरा तुम फिर से एक बार खड़े हो जाओ। वही बातें दुहराओ जो तुम कह रहे थे। यकीन करो हमें, तुम्हारी बातों से बहुत मजा आ रहा है।’

आठ दस दिन तक दोनों वहाँ उसी तरह पड़े रहे। लोगों को उनकी बातों में अब वह मजा नहीं रह गया जो वाकई पहले दिन था। फिर भी खिड़की के पास हर सुबह दो चार लोग जरूर पहुँच जाते। गाँव में चर्चा थी कि आज पूरी रात उस लाश ने उन दोनों को कमरे में नचा नचा कर खूब मारा है। किसी ने यह भी बताया कि आज रात जब उसकी नींद टूटी तो देखा कि बँगले के ऊपर खूब सारे आग के गोले उड़ रहे हैं और वही लाश खूब ऊपर आकाश में उछल उछल कर नाच रही थी। एक औरत के अनुसार, जब सुबह वह मुँहअँधेरे शौच के लिए जा रही थी तो उसने लाश को गाँव के चारों तरफ खूब तेज चक्कर लगाते हुए देखा है। गाँव में बीड़ी तमाखू बेचने वाली एक तेलिन ने बताया कि आज रात को किसी ने उसका दरवाजा खटखटाया। जब वह उठ कर आई तो उसने लाश को सामने देखा। वह उससे सिगरेट माँग रहा था। मैंने दरवाजा बंद कर लिया। वह देर तक दुकान के सामने उसी तरह खड़ा रहा और फिर रोने लगा। जितने मुँह उतनी बातें। बातें बातों को जन्म दे रही थीं। लाश से ज्यादा लाश की कहानी घूम रही थी। घूमते हुए लोग जब भी वहाँ जाते, वे दोनों उनसे पुलिस बुलाने के लिए कहते। लोग उनकी बातें सुन कर हँस देते - ‘हम बीस मील दूर कभी-कभार शहर जाते हैं। वहाँ पैसा देकर सिनेमा देखना पड़ता है। यहाँ तो सब कुछ सच है।’

एक रात सड़ांध से भरे उस अँधेरे कमरे में जब कुछ भी दिख नहीं रहा था, छोटे ने महसूस किया कि उसकी देह पर जगह जगह तिलचट्टे, और छिपकलियाँ रेंग रही हैं।

- कहीं मैं भी तो नहीं मर गया। घर से यहाँ इतनी दूर तिलचट्टे, छिपकलियाँ और कीड़े मुझे भी चाट जाएँगे - इस ख्याल के साथ ही उसे लगा कि दम घुट रहा है। वह उछल कर खड़ा हो गया और कमरे में चारों तरफ दौड़ने लगा। कई बार दीवारों से टकराया। सुव्रत की लाश में उलझ कर गिर पड़ा। उठा और फिर भागा। अँधेरे में इधर उधर भागते हुए वह दीवार से टकरा कर गिर पड़ा और वहीं बैठ गया। वह औरतों की तरह गला फाड़े अहक अहक कर रो रहा था।

उस रात फिर भेड़िए आए। उन्होंने पहले की ही तरह खिड़की से झाँका और उसे रोता हुआ सुनते रहे। वह भेड़ियों से डर रहा था। भेड़िए उससे डर रहे थे। खिड़की की वजह से दोनों आश्वस्त थे। यही खिड़कियों का स्वभाव है। पहले परिचय कराती हैं और फिर दीवार बन कर खड़ी हो जाती हैं। खिड़की के बारे में सोचते हुए उसे बालकनी की याद आई। मुहल्ले की एक बालकनी। अक्सर वहाँ एक लड़की कपड़े फैलाने आया करती और देर तक अपने घने काले लंबे बालों को सुखाया करती। लड़की जब तक अपने बाल सुखाती तब तक सारा मुहल्ला अपनी अपनी छतों पर सूखता रहता था।

लड़की की याद आते ही वह भावुक हो गया। अपने आसपास फैले अँधेरे, भय और नफरत को ललकारते हुए वह खूब ऊँचे स्वर में गाना गाने लगा। गीत की ध्वनि तरंगों पर थिरकती हुई मुहल्ले की वह लड़की आकर वहाँ अँधेरे में अश्लील उत्पात करने लगी। थोड़ी देर बाद ही उन्हीं भाव व्यंजनाओं के साथ लड़की की माँ भी वहाँ आ गई और धमाचौकड़ी करने लगी। छोटा बहुत देर तक आह, ऊह! करते शायद कराहते हुए माँ-बेटी के एक एक अंगों को तल्लीनता से निहारता रहा। वह ‘कनफ्यूज्ड’ था कि माँ-बेटी में कौन उसके श्रृंगार का उपयुक्त आलंबन होगी। वह देर तक उन्हें अपने गीतों में पुकारता रहा। अताउल्ला खाँ उसके इस वीरोचित श्रृंगार में मदद कर रहे थे। लेकिन माँ या बेटी दोनों में से कोई वहाँ नहीं आया। वह चुप हो गया।

उसकी इन बेहूदी हरकतों को देख कर बड़ा वाला कुछ भय और झुँझलाहट के साथ सोच रहा था कि या तो तेज बुखार के कारण इसे सन्निपात हो गया है या इसे मरे आदमी के भूत ने धर लिया है। लंबी साँस खींचते हुए उसके मुँह से निकला - हे भगवान्!

हे भगवान! छोटे ने दुहराया। उसने लड़की और उसकी माँ को वहीं छोड़ दिया और बीच रास्ते भगवान के साथ हो लिया और लगा गुत्थमगुत्था करने। सचमुच उसने भगवान को दबोच लिया था। अब धीरे-धीरे उनके सारे कपड़े उतार रहा था। पहले धोती को तहस नहस किया और बनियान फिर अंत में चड्ढी। उसने भगवान की चड्ढी उतार दी। इसके बाद उसने मुहल्ले की लड़की और उसकी माँ को जहाँ बेतरह पटक कर छोड़ आया था, वहीं भगवान को भी घसीट ले गया।

इतनी मिन्नत मनौवल के बाद भी न वहाँ वह लड़की आई न उसकी माँ और न ही भगवान। जब कोई नहीं आया तो वह चुप हो गया। थोड़ी देर तक चुप होकर कुछ सोचता रहा। फिर अचानक उसी लय में उसने बड़े वाले की माँ और बहन को पुकारना शुरू किया।

माँ और बहन तो नहीं आयीं, उनके एवज में बड़ा वाला उठ कर अँधेरे में टटोलते हुए स्वयं उसके पास आया।

‘हाँ वाकई, तुम्हें बुखार चढ़ गया है।’ उसने उसे छूकर कहा - ‘यह तो हद है। तुम्हारा इलाज होना ही चाहिए।’

वैसे तो गोली लगने के बाद हर कोई चीखता है लेकिन हर कोई चीखे ही, यह जरूरी भी नहीं। जैसे गांधी जी ने सिर्फ ‘हे राम!’ कहा था, कुछ वैसे ही अंदाज में छोटे ने इतना भर कहा - ‘यह बहुत अच्छा हुआ! मैं तो यहाँ सिर्फ एक लाश के साथ सड़-सड़ कर मर रहा था। तुम दो-दो लाशों के साथ यहीं पड़े रहो।’

सुबह-सुबह जब गाँव वाले आए तो बड़ा वाला जैसे उन्हीं का इंतजार कर रहा था - ‘देखो, तुम लोगों को यकीन नहीं है न कि मैं हत्यारा हूँ। यह देखो।’ उसने हाथ में पकड़े रिवाल्वर को दिखाते हुए कहा - ‘मेरे पास बंदूक भी है। मैंने अपने साथ वाले को भी मार डाला है, ताकि तुम लोग मेरी बातों पर यकीन कर सको। अब तो जाकर तुम पुलिस को मेरे बारे में बता दो। पुलिस मुझे खोज रही है और पकड़ना भी चाहती है।’

गाँव वालों का आश्चर्य और बढ़ गया - ‘वाकई, तुम तो बहुत मजेदार हो। क्या तुम इसके पहले किसी मदारी वाले के साथ काम करते थे।’

‘चलो हम मान भी लेते हैं कि तुम हत्यारे हो।’ एक दूसरे आदमी ने कहा - ‘जबकि देखने में तो तुम भिखारी लगते हो, फिर भी अगर तुम्हारी बात सच है तो तुम पुलिस के पास क्यों जाना चाहते हो। अगर वाकई तुम प्रायश्चित करना चाहते हो तो यहीं बैठ कर क्यों नहीं प्रायश्चित करते?’

इन लोगों से कुछ भी कहना बेकार है - बड़े ने सोचा और वहीं थक हार कर बैठ गया। घुटनों पर सिर टिका कर उसने दोनों हाथों से माथा पकड़ रखा था। कुछ उपाय समझ में नहीं आ रहा था।

खिड़की के बाहर सब हँस रहे थे - ‘हे हत्यारे जरा तुम खड़े हो जाओ! हम तुम्हें देखना चाहते हैं। हे भाई, विश्वास करो हमने कभी हत्यारे नहीं देखे हैं।’

उल्टे खड़ा होने के, वह गिर कर चुपचाप पेट के बल लेट गया और जोर-जोर से रोने लगा। बाहर सब हो-हो हँस रहे थे। वह उसी तरह देर तक रोता रहा और थक कर चुप हो गया। कहीं यह भी तो नहीं मर गया शायद सो रहा हो - लड़के देर तक उस पर ढेला फेंकते रहे। वह छोटे बड़े ढेर सारे ढेलों से लद गया। देख कर यही लगता है कि कमरे में तीन लाशें पड़ी हैं। अब यहाँ कुछ भी ऐसा नहीं रह गया जिसे देखा जा सके। साँझ हो रही थी। सब गाँव की ओर लौट गए।

धुँधलका बढ़ रहा था। अपनी बकरियों के साथ वही बुढ़िया उधर से गुजर रही थी। उसने सोचा चल कर देखना चाहिए। बँगले के भीतर उसने झाँक कर देखा। गाँव में लोग कहते हैं कि रोज रात को वह लाश धीरे से उठती है और उन दोनों को पकड़ कर देर तक उनका खून पीती रहती है। बुढ़िया भीतर से डर भी रही थी। मिचमिचाती आँखों पर बल डाल कर उसने अनुमान लगाया - शायद ये दोनों भी मर चुके हैं। एक हाथ से नाक दबाए वह अपने मुँह को सलाखों के भीतर तक ले जाने की कोशिश कर रही थी। अचानक वह खूब जोर से चीखी आंऽऽ...आंऽऽ!

यह कौन है - बड़े वाले ने वैसे ही पड़े पड़े सोचा - उसकी देह में हरकत हुई। हिलती हुई आँखें खिड़की पर जाकर टिक गईं। बुढ़िया हँस रही थी। सारी मुसीबत की जड़! अब यह भी हँसेगी - शायद इन्हें नहीं मालूम मैं कौन हूँ दुनिया की सारी जेलें और सरकारी जासूस मेरी छाया छू पाने का सपना देखा करते हैं। उसकी आँखों में गुस्सा था। पुतलियाँ काँप रही थीं। वह तेजी से खिड़की की ओर झपटा। एक खूँखार भेड़िया लग रहा था वह। बुढ़िया वैसे ही अपनी नाकों को दबाये दो कदम पीछे हट कर उसे देखती रही। सलाखों से टकराता वह एक मानुष भेड़िया था। बुढ़िया ने अपनी मिचमिचाती आँखों को मटकाया। उसके भीतर वही साठ पैंसठ साल पहले वाली दस बारह साल की बच्ची जी उठी। वह उस भेड़िए को उँगलियाँ बिराते हुए हँस रही थी। बछड़े के गले में बँधी घंटी की तरह टुनटुनाती बजती एक हँसी।

लड़के ने बुढ़िया को बताया कि - ‘मुझे जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए सरकार ने आठ लाख रुपया इनाम में धरा है। तुम अगर जाकर पुलिस को यह सब बता दोगी तो तुम्हें आठ लाख रुपए मिलेंगे।’

बुढ़िया खिलखिला पड़ी। लड़के ने पूछा - ‘क्या तुम जानती हो, आठ लाख रुपया कितना होता है? तुम नोटों से दब जाओगी। इतना होता है आठ लाख रुपया। तुम्हारा सारा घर सोने चाँदी से भर जाएगा। धरती और आकाश के बीच चाहे तुम जिस चीज के बारे में सोचोगी वह दौड़ती हुई तुम्हारे पास चली आएगी।’

बुढ़िया ने सचमुच आकाश की ओर देखा। वहाँ खूब लाल गोल चाँद उग रहा था। वह चरती हुई बकरियों को वहीं छोड़ कर गाँव की उल्टी दिशा में दौड़ने लगी। दो फर्लांग की दूरी पर कोलतार की सड़क थी। सड़क शहर की ओर जाती थी। वहीं वह थक कर बैठ गई। हाँफती हुई साँसों से वह बुदबुदा रही थी - आठ लाख... सोना... चाँदी। शायद यह टोना पढ़ रही है। बगल से गुजर रहे दो आदमियों ने बुढ़िया को देख कर सोचा - हो सकता है कोई पागल हो।

निर्जन सन्नाटे में पहाड़ियों के बीच ऊपर नीचे लुकती-छिपती चली जाती सड़क। अगल बगल ऊँची पहाड़ियाँ और झांड़ झंखाड़ वाली गहरी खाइयाँ। बुढ़िया दौड़ती रही। रास्ते में एक नीलगाय बैठ कर पागुर कर रही थी। बुढ़िया देख नहीं पाई। उसके थूथून से टकरा कर सींगों के बीच उलझी और भहरा गई। दूसरे ही क्षण वह उठी और फिर दौड़ने लगी। इस बीच भेड़ियों के एक झुंड ने उसका पीछा किया, लेकिन पकड़ नहीं सके। एक आदमखोर तेंदुए ने उसके ऊपर छलाँग लगाई, और खाईं में गिर पड़ा। इन सब बातों से बेखबर बुढ़िया सारी रात दौड़ती रही। जब वह शहर में दाखिल हुई तो सुबह के छः बज रहे थे। थाना खोजते खोजते उसे आठ बज गया। थानेदार चुस्त दुरुस्त बैठा अखबार पढ़ रहा था। उसी समय बुढ़िया लतपथ गिरती पड़ती उसके सामने पहुँची। थानेदार ने यही समझा कि शायद वह भीख माँगती थाने के भीतर तक आ गई है। गेट पर तैनात कान्स्टेबुल को डाँटते हुए उसने पूछा कि यह कौन है और यहाँ कैसे आ गई?

कान्स्टेबुल ने बताया - ‘साहब पता नहीं क्या बोल रही है। आठ लाख रुपया... बँगला... खून... एक आदमी... दो आदमी... कुल तीन आदमी!

दरोगा अचरज से कान्स्टेबुल को देखने लगा - ‘अजीब गधे आदमी हो। इस पागल को भीतर कैसे आने दिया।

कान्स्टेबुल बुढ़िया को घसीट ले गया। गेट के बाहर ले जाकर उसने उसके चूतड़ पर दो डंडे धरे और सड़क पर धकेल दिया।

उसी दिन राजधानी में तैनात एस.टी.एफ. के एस.पी. और साथ में दो सब इन्स्पेक्टर बहुत गुपचुप तरीके से वहाँ पहुँचे। जिले के एस.पी. के साथ उन्होंने मीटिंग की। एस.पी. ने सी.ओ., कोतवाल और सारे दरोगाओं की मीटिंग ली और बताया कि जिले भर के होटलों, धर्मशालाओं और तमाम लॉजों पर निगरानी रखनी जरूरी है। उसने धीरे से बताया कि आठ लाख रुपए का इनामी अपराधी तकरीबन पंद्रह दिन पहले यहाँ दाखिल हुआ है। उसके साथ एक लड़का भी है। एस.पी. ने सख्त हिदायत दी कि अगर किसी स्तर पर लापरवाही हुई तो कठोर कार्रवाई की जाएगी।

लेकिन दरोगा जी तो लापरवाही कर चुके थे। उस समय उनकी साँस ऊपर नीचे हो रही थी। बुढ़िया के मिलने की बात पचा जाने में ही भलाई थी। मीटिंग खत्म होते ही वह सीधे थाने आए। सारे कान्स्टेबुल तत्काल बुलाये गए - ‘कहीं से भी बुढ़िया को खोजो।’ उन्होंने कहा। हेड मुहर्रिर को छोड़ कर सारे सिपाही भागे। सबको बुढ़िया की हुलिया बता दी गई। यह सारी कार्रवाई अत्यंत गोपनीय रही। कान्स्टेबुलों को उन्होंने यही बताया कि - ‘दरअसल वह मेरी मौसी थी। कुछ दिनों से पागल हो गई है। मैं उसे पहचान नहीं पाया था।’

पहाड़ी शहर था। सब एक दूसरे को जानते पहचानते थे। दरोगा जी की मौसी को खोजने में देर नहीं लगी। रात होते-होते एस.टी.एफ. सहित दोनों एस.पी., कोतवाल और ढेर सारे इन्स्पेक्टर थाने में मुस्तैद जमा नजर आने लगे। थाने के पिछवाड़े खंडहर जैसा एक वीरान अहाता था। वहीं एक पाकड़ के पेड़ पर बुढ़िया को उल्टा लटका दिया गया। अगर वह जवान होती तो बात दूसरी थी, लेकिन सूखी चमड़ियों में अश्लीलता जैसा कोई दृश्य नहीं था। इस शक की बिना पर उसे आठ लाख रुपए के इनामी अपराधी की बाबत सब कुछ मालूम है, उससे पूछताछ की जा रही थी। कसाई के ठीहे पर जिबह होती बकरी की तरह वह अलल्ला रही थी। नाकों से खून टपक रहा था और उसकी आँखें बाहर लटक गई थीं। पुलिस की सघन पूछताछ के बावजूद वह अपना नाम नहीं बता रही थी। दरअसल, बहुत सालों से किसी ने उसका नाम लेकर उसे पुकारा ही नहीं था। बहुत कोशिश के बाद पुलिस इतना ही जान पाई कि वह सुहरतगढ़ वाले प्रसिद्ध और वीरान पड़े बँगले से डेढ़ किलोमीटर दक्षिण थारुओं के किसी गाँव की रहने वाली है।

सुबह जब कान्स्टेबुल ने उसे चूतड़ पर दो डंडे जमाए थे तभी से वह आठ लाख रुपया, बँगला और खून जैसे बेमतलब की सारी बातें पूरी तरह भूल गई थी। अब वह दरोगा उससे उन बातों के बारे में पूछता तो वह हुजूर... सरकार और अपनी बकरियों के अलावा कुछ नहीं बता पा रही थी।

‘यह कुछ नहीं बताएगी। देखने से ही शातिर लग रही है। चुपचाप दबिश की तैयारी करो।’ एस.पी. ने मातहतों से कहा।

रात का आखिरी पहर - पुलिस की दबिश के लिए यही समय उपयुक्त माना जाता है। लाल नीली धारियों वाली एक मरी-अधमरी बुढ़िया गठरी को हवालात के अँधेरे कोने में पटक कर पुलिस की दर्जन भर गाड़ियाँ जब उसके गाँव को घेरने के लिए चलीं तो आसपास की सारी पहाड़ियाँ दल-दल काँप रही थीं। लोगों ने इतनी पुलिस कभी नहीं देखी थी। गाँव चारों तरफ से घेर लिया गया। गायें, खूँटा तुड़ाने की कोशिश में डाँय-डाँय रँभा रही थीं। बकरियाँ भय से मिमियाने लगीं। झुंड के झुंड कौवे उड़ कर भाग रहे थे। जल्दी ही बुढ़िया के बेटे और बहू को धर लिया गया।

बुढ़िया को झूठ बोलने की आदत है। वह चिकारी भी करती रहती है। लेकिन परसों शाम से गायब होकर वह शहर में बम फोड़ आई है - यह यकीन करने में सबको मुश्किल हो रही थी। सब भौंचक भकुवाए और डरे हुए कूंऽ कूंऽ कर रहे थे। तीन-चार घंटे की पूछताछ के बाद पुलिस वाले बँगला और खून की बात समझ पाए।

तरह तरह के अनुमान, आशंका और दहशत की कई रहस्यमय पर्तों में वह समूचा इलाका उस दिन डूबा पड़ा रहा। लोगों को क्या मालूम कि वे जिसे एक मामूली बुढ़िया समझ रहे थे वह वाकई क्या चीज है। इतने बड़े बड़े अधिकारी, तरह-तरह के लोग सबकी जान पर बुढ़िया गूँज रही थी। गाँव के सारे लोग यही बताते कि हमारा उसके यहाँ आना जाना नहीं है। उसकी बहू को जब पुलिस वालों ने पाँच-सात कुंदे मारे तभी से वह जमीन पर गिर कर उईं-उईं काँख रही थी। पूरी घटना का अंदाजा लगाने के लिए वह भकुवाई और डरी हुई लोगों की बातें सुनती। लोग थे कि बस फुसफुसा रहे थे। पुलिस वालों को देखते ही बहू कराहने लगती।

शाम होते होते कामयाबी के बतौर सबूत पुलिस वाले तीनों लाशों को उठा कर शहर चले गए। बँगला सील कर दिया गया। होमगार्ड के दो जवानों को वहीं छोड़ दिया गया। युद्धभूमि के हवाले अंतिम रूप में बचे रह जाते हैं खून के कुछ सूखे हुए धब्बे। संग्राम का निर्णायक फैसला कूटनीतिक व्याकरणों से चंद हर्फों में लिखा जाता है। मामले को अदालत तक जाने में कुछ पाँच साल लग गए। मामूली तफ्तीश में ही पुलिस जान गई थी कि इस पूरे प्रकरण में बुढ़िया कहाँ और कितनी दूर खड़ी रही है। लेकिन मीडिया वाले डंडा किए हुए थे। कहीं बँगले से सीधा प्रसारण तो कहीं गाँव वालों की बातें। बेतमलब तिल का ताड़। चूँकि हत्यारों पर आठ लाख रुपए का इनाम भी था, इसीलिए दावेदारी बढ़ गई थी। एस.टी.एफ. के एस.पी. और दोनों सब इन्स्पेक्टरों का स्थानीय पुलिस से झगड़ा बढ़ता गया। जिले के एस.पी. ने उन्हें देख लेने की धमकी दी। कोतवाल ने दोनों सब इन्स्पेक्टरों की माँ बहन कर डाली। मामले में लापरवाही बरतने के लिए उस दरोगा को, जिसके पास बुढ़िया पहले दफे गई थी और थाने के सारे कान्स्टेबुलों को सस्पेंड किया जा चुका था।

पुलिस के हवाले एक न्यूज चैनल ने बताया कि शहर में किसी बड़े और गुप्त मिशन के लिए आई हुई बुढ़िया की गिरफ्तारी स्थानीय पुलिस की सबसे महत्वपूर्ण और पहली कामयाबी थी। उसके बाद सारा आपरेशन ही पुलिस के लिए एकदम आसान हो गया। बुढ़िया को रिमांड पर लेने के लिए पुलिस ने अदालत को बताया कि वन विभाग द्वारा संरक्षित जानवरों को जहर खिला कर मारने और फिर उसके चमड़ों की तस्करी में यह औरत अंतर्राष्ट्रीय गिरोहों के लिए काम करती रही है। चोरी छिपे शराब बेचने और शहर के होटलों में आदिवासी लड़कियों की सप्लाई करने का भी उस पर आरोप लगाया गया।

बुढ़िया की जमानत लेने वाला कोई नहीं था। वह पाँच सालों से जेल में ही पड़ी रही। इन मुकदमों में उसकी बाकी जिंदगी और दूसरे जन्म की जवानी तक बीत जाती, बशर्ते मानवाधिकार वालों की पहल पर यह सारी घटना अदालत में न पहुँची होती।

वहाँ अदालत में क्या हुआ - इसमें किसी की कोई दिलचस्पी नहीं रह गई। हत्यारे और जिसकी हत्या की गई थी, सबके सब मारे जा चुके थे। लेकिन इनके भूत काफी हाउसों, अड्डेबाजों की मंडली, गोष्ठियों, सेमिनार कक्षों और अदालत में अपने अपने पक्ष के साथ प्रस्तुत थे।

सरकार मरे हुए आदमी की ओर से मुकदमा लड़ती है। सरकारी वकील इसी काम के लिए होते हैं। बुढ़िया सरकार की चिंता नहीं थी। यह इत्तिफाक था कि जज, मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष और डिप्टी एस.पी., जिसने इस घटना की विवेचना के बाद अपनी रिपोर्ट दी थी, इन सबकी जाति और बड़े वाले हत्यारे की जाति एक ही थी। हालाँकि सरकार की कोई जाति नहीं होती, इसलिए इन बेकार की बातों का कोई मतलब नहीं है। अदालत के फैसलों को इस तरह देखा भी नहीं जाना चाहिए। यह उसका और सरकार का अपमान करना होगा। सरकारी वकील जाति का लाला था। इनके बारे में कहा जाता है कि पुश्त दर पुश्त कागजी लिखा पढ़ी में ये इतने पारंगत होते हैं कि प्रतिपक्षी का इनसे जीत पाना लगभग असंभव होता है।

इसीलिए जब सरकारी वकील ने अदालत को बताया कि ‘रिमोट’ से दरवाजा बंद करना एक तरह से कानून को हाथ में लेना है। क्योंकि इसी मूलभूत वजह से ये दोनों लड़के जिनके अपुष्ट अपराधों की लंबी फेहरिश्त गिनाई जाती रही है, अपराध साबित न होने तक प्रतिष्ठित नागरिक माने जाएँगे, वहाँ उस सुनसान भुतहे बँगले में एक लाश की सड़ांध में घुट-घुट कर लंबी प्रताड़ना सहते हुए तड़प-तड़प कर मर गए।’ अचानक इस बेतुकी बात पर प्रतिवादी वकील ने ‘फिस्स’ से हँस दिया।

जज ध्यान से वकील की बातें सुन रहा था। उसने प्रतिवादी वकील को हँसने के लिए मना किया और बताया कि आप चुपचाप ध्यान से सारी बातें सुनें और अपनी दलील दें।

‘दलील ये है साहब कि ये दोनों कुख्यात अपराधी थे।’ प्रतिवादी के वकील ने कहा - ‘विशेषकर बड़ा वाला तो पेशेवर हत्यारा था। कई सरकारों के लिए सिरदर्द था वह। इन दोनों ने अपने किए की सजा भुगती है।’ सुव्रत का उद्देश्य यह कत्तई नहीं था कि वह ‘रिमोट’ से दरवाजा बंद करके इन्हें मार डालेगा। वह सिर्फ यही चाहता रहा होगा कि इस तरह से दोनों पुलिस द्वारा पकड़ लिए जाएँगे। जैसा कि बाद में हुआ भी।’

सरकारी वकील ने दलील को सिरे से गलत बताते हुए कहा कि - ‘आपका उद्देश्य क्या रहा है, इस बात को कानून में कोई महत्व नहीं दिया जाता है। तथ्य यह है कि दोनों वहाँ दरवाजा बंद होने की वजह से मर गए। अगर आपका उद्देश्य मारना न हो तब भी, अगर कोई आपकी वजह से मरता है तो 304 का केस आप पर बनेगा ही। रही बात ‘अपने किए की सजा’ भुगतने वाली तो यह थके हारे गैरजरूरी धर्मग्रंथों का वाक्य है। यह सब पर समान भाव से लागू होता है। सुव्रत शादीशुदा था। तब भी एक लड़की सुवर्णा सोनी से फँसा था। जिस समय उसे गोली लगी, वह उसी लड़की को प्रेमपत्र लिख रहा था। उसकी वह अधूरी चिट्ठी पुलिस के हाथ लगी! पुलिस ने समझा कि यह लड़की भी इस घटना में कहीं जुड़ी हो सकती है। उस समय सुवर्णा सोनी अपने पति के साथ सुखी संपन्न जिंदगी जी रही थी। इस घटना में उसे गिरफ्तार किया गया। पति ‘बेचारा’ इतने बड़े सवाल के लिए तैयार नहीं था - ‘अपने किए की सजा’ भुगतो - कह कर उसने सुवर्णा सोनी को छोड़ दिया। अब वह लड़की अपनी बूढ़ी बीमार विधवा माँ के साथ परित्यक्ता बन कर जी रही है। माँ, बेटी दोनों सुव्रत के लिए भी सोचती होंगी कि उसे ‘अपने किए की सजा’ मिली है।’

सरकारी वकील ने जज को सुनाते हुए प्रतिवादी वकील से पूछा - ‘क्या किसी आदमी को हक है कि वह अपने हत्यारे को खुद सजा दे सके। बात यह नहीं है कि ऐसा संभव हो सकता है या नहीं। कल्पनाएँ गप्प नहीं होती हैं। एक रचा हुआ झूठ जिससे सच को पहचाना जाता है, वह सच से कम महत्व नहीं रखता। आदमी का भौतिक जीवन उसकी कल्पनाओं और सपनों से ही रचा हुआ होता है। अगर कोई आदमी अपने हत्यारे को खुद सजा देने लगे और इसे जायज माना जाने लगेगा तो उसकी अनुपस्थिति में उसके परिजन भी यही करने लगेंगे। तब इसे गलत मानने का कोई तुक नहीं रह जाएगा। लेकिन तब सरकार, संविधान, कानून की किताबें, पुलिस, अदालत हम या हमारे विरोधी वकील बैठ कर माँछी मारेंगे। जज साहब! इस मुकदमे में इस बात को कतई नजरअंदाज नहीं किया जा सकेगा कि सुव्रत ने सिर्फ ‘रिमोट’ हाथ में नहीं लिया था, उसने कानून हाथ में लिया था। इसका परिणाम यह रहा कि उम्र और उल्लास से भरी एक नहीं दो-दो जिंदगियाँ लंबे समय तक बदबू और घुटन में फँस कर उसी बदबू का हिस्सा बन गईं।’

जज ध्यान से वकील की बातों को सुन रहा था और समझने की कोशिश में कन्विंस होता लग रहा था। प्रतिवादी वकील बचाव की मुद्रा में आ गया था - ‘साहब’ उसने जज को संबोधित करते हुए कहा - ‘सुव्रत का उद्देश्य उन्हें मारना नहीं था। वह पुलिस की मदद भर करना चाहता था। वह इतना भर चाहता था कि ये दोनों भाग न सकें। उस समय वह खुद धोखा खाया हुआ और निराशा में डूबा था। उसने हत्यारों से पूछा था कि आप मुझे क्यों मारना चाहते हैं मैं तो आप लोगों को पहचानता भी नहीं। उस समय वह कितना निरीह रहा होगा, जब उसे अपना अपराध भी नहीं मालूम था। और ये दोनों विशेषकर बड़ा वाला कुख्यात हत्यारा है। इसे यह तक नहीं मालूम कि वह जिस आदमी को मार रहा है, वह कौन है?’ कहाँ का रहने वाला है?’

जज ने बीच में टोका - ‘आप वकील हैं। इतना तो जानते होंगे कि यहाँ कविता नहीं पढ़ी जाती है। बात कानून की हो रही है। आपको विरोधी वकील की बात ध्यान से सुननी चाहिए। आपका उद्देश्य किसी को मारना न हो तो भी अगर कोई आपकी वजह से मरता है तो 304 का केस तो आप पर बनेगा ही आप सुव्रत को किस तरह बरी करना चाहते हैं?’

‘लेकिन जज साहब!’ प्रतिवादी वकील अपनी बात समझाना चाहता था - ‘इन दोनों ने उसके ऊपर गोली चलाई। उसे मारने का प्रयास किया और मार भी डाला।’

सरकारी वकील ने तुरंत हस्तक्षेप किया - ‘इन दोनों ने नहीं, सिर्फ एक ने गोली चलाई! गोली चलाने का जितना पुख्ता प्रमाण है उतना इस बात का भी है कि इन दोनों ने उसके घाव पर पट्टी बाँधी थी। अपनी ओर से बचाने का भरपूर प्रयास भी किया। अस्पताल ले जाने का भरोसा दिया। लेकिन सुव्रत जो शादीशुदा होकर भी एक लड़की से फँसा था, उसने इन पर भरोसा नहीं किया। दरअसल, उसे किसी पर भी भरोसा नहीं था। वह गोली लगने से मरा, यह आधा सच है। पूरा सच है कि उसने आत्महत्या की। उसने अपनी आत्महत्या का समारोह मनाया और ये दोनों भी मारे गए।’

‘जज साहब!’ सरकारी वकील ने उसी समय अपनी फाइल से कुछ पन्ने निकाले और बताया - ‘इस हत्याकांड के समय वहाँ पुलिस और मीडिया के बाद मानवाधिकार वाले भी गए थे। उन्होंने गाँव वालों से बातें कीं। वे लोग यह देख कर हैरान थे कि आजादी के इतने दिनों बाद भी उस इलाके में सरकार नाम की कोई चीज नहीं है। न अस्पताल, न स्कूल न ही कोई थाना पुलिस। उनकी रिपोर्ट का मुख्य अंश जो इस हत्याकांड से संबंधित है मैं पढ़ रहा हूँ - हत्याएँ अनंतकाल से होती हैं। अनिवार्य न होते हुए भी हत्याएँ अनिवार्य रूप से मौजूद रही हैं। अब यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि कानून की तमाम धाराओं के बावजूद हत्याओं को रोक पाना हर समय लगभग असंभव रहा है। हमारे पौराणिक आख्यान, धर्मग्रंथ अपने अपने हितों के लिए हत्याओं का सहारा लेते रहे हैं। कानून हत्याओं को अपराध मानता है। लेकिन इस मामूली बात का जवाब नहीं दे पाता कि कानून निर्माताओं को यह हक किसने दिया है कि वे दूसरों के लिए जीने का ढंग तय करें। फिर भी वे लोग कानून बनाते हैं। इसलिए कि उनके पास शक्ति है। वे हत्या कर सकते हैं। शक्ति का वर्चस्व किसी भी तर्क से भारी होता है। शक्ति और समृद्धि के विस्तार के लिए एक राजा दूसरे पर हमला करता है। हजारों नगर लूटे जाते हैं। लाखों लोग मरते हैं। लेकिन सैनिकों को हिंसक या हत्यारा नहीं माना जाता जबकि वे मूल रूप से हत्या ही करते हैं। वे सारे सैनिक किसी नैतिक तर्क के आधार पर ये हत्याएँ नहीं करते हैं बल्कि इसके लिए उन्हें पैसा दिया जाता है। वे एक प्रशिक्षित सिद्धहस्त पेशेवर हत्यारे और मामूली वेतन भोगी होते हैं। अगर यही काम एक व्यक्ति करता है तो नैतिकता के किस आधार पर उसे गलत माना जाएगा। दरअसल, हिंसा और हत्या एक चीज है ही नहीं। अगर आप किसी को यातना देकर लंबे समय के भीतर धीरे-धीरे तड़पाते हैं, मसलन किसी की जननेंद्रियों को कुचल कर, नाखूनों को चीरते हुए, आँखों में सूराख करके, आप यह सब करते हुए भले ही उसकी हत्या न करें तब भी आपका आचरण गोली मारने वाले पेशेवर हत्यारे से ज्यादा हिंसक माना जाएगा। सुव्रत ने इन लोगों के साथ ऐसा ही किया था। समूचा गाँव इस नृशंस दृश्य का तमाशबीन था। सभ्यता के विकास के साथ साथ इस बात का ध्यान रखा गया है कि हत्या के तरीके को ज्यादा से ज्यादा आसान बनाया जाए न कि लंबे समय तक अपराधी को उसके अपराधों की याद दिलाते हुए तड़पाया जाए। कानून अपराधी से बदला नहीं लेता है। उसे चुपचाप अनुपस्थित करता है।’

जज ने यह बात किसी से नहीं बतायी कि उसकी पत्नी के मामा के लड़के की लड़की बड़े वाले हत्यारे के छोटे भाई से ब्याही गई थी। इस बात का वैसे भी इस मुकदमे से कोई मतलब नहीं है। क्योंकि शादी विवाह तो अपनी ही जाति में कहीं न कहीं होगा। वह चुपचाप सरकारी वकील की बातें सुनता रहा। उसकी आँखें डबडबा गई थीं। एक लंबी साँस खींचते हुए उसने कहा - ‘मैं तो यह सोच कर ही काँप जाता हूँ कि उन दोनों लड़कों पर क्या बीतती रही होगी जब वे एक सड़ रही लाश के साथ बदबू और अँधेरे से भरे कमरे में तिलचट्टों और छिपकलियों के बीच पूरे आधा महीना! पंद्रह दिन! कुल 360 घंटे तक बंद कर दिये गए होंगे। मृत्यु से हजार गुना भयावह होता है मृत्यु का खौफ। वहाँ सिर्फ आदमी नहीं मरता है। आदर्श, विचार, आस्थाएँ तिल-तिल कर धीरे धीरे सबकी मृत्यु होती जाती है। मनुष्यता मरती है इस तरह।’

बुढ़िया अपराधियों वाले कटघरे में खड़ी कर दी गई थी। मोतियाबिंद और कीचड़ से सनी आँखों को मिचमिचाते हुए वह जज और वकील की बातें सुनती और कठपुतली की तरह सिर हिलाती जाती। उसे बताया गया था कि मुकदमा शुरू होने के बाद जिसका गुनाह नहीं होता है, उसे छोड़ दिया जाता है। वह यही सोचती कि ये लोग उसे छोड़ने के बारे में बातें कर रहे हैं। उसे कई-कई महीने से अक्सर जेल से कचहरी लाया जाता। उससे उम्मीद की जाती कि इस नाटक के चलते रहने तक वह कटघरे में खड़ी रहे। लेकिन सिपाहियों के बार बार डाँटने के बावजूद वह वहीं बैठने लगती। उससे खड़ा नहीं हुआ जाता था। पुलिस वालों ने एक आसान रास्ता निकालते हुए उसके पैरों में खपच्चियाँ बाँध दी थीं। वे उसे उसी तरह घसीटते हुए ले आकर रेलिंग पर लटका देते। इस समय वह उसी रेलिंग पर लटके लटके जज की आवाज को देखने और पहचानने की कोशिश कर रही थी। वहाँ एक काले कोट का धुँधला धब्बा भर दिख रहा था।

जज ने कहा - ‘यह संभव नहीं है कि इस घटना को ‘इन्ज्वाय’ करने के लिए सारे गाँव को सजा दी जा सके। गाँव वाले चाहते तो यह दोनों लड़के बचाए जा सकते थे। यह जरूरी होते हुए भी कि इन्हें सबक सिखाया जाए, मेरे लिए ऐसा करना मुमकिन नहीं हो पा रहा है। फिर भी कानून जहाँ तक संभव हो सकेगा अपना काम तो करेगा ही। इस वाकया की प्रथम दर्शक यह बुढ़िया है। समूची न्याय प्रणाली का प्रतिनिधि मैं प्रतीकात्मक हस्तक्षेप करते हुए मात्र इतना भर कर सकता हूँ कि इस औरत को मृत्युदंड का हकदार माना जाएगा।’

रेलिंग पर लटकी पड़ी बुढ़िया वैसे ही मंद-मंद मुस्काते हुए जज की बात को समझने की कोशिश में अपनी आँखें मिचमिचाती रही। उम्र और मुसीबत के जिस मुकाम पर वह लटकी पड़ी थी उसे किसी से क्या शिकायत हो सकती है।