रंगमहल / जया झा
जब निशा ने राजस्थान के एक छोटे से शहर के उस प्राचीन महल को देखने जाने के लिए हामी भरी थी, उस वक़्त वह दिल्ली से, अपने काम से, अपने आस-पास की हर चीज़ से दूर जाने के लिए इतनी उतावली थी, कि वह किसी जंगल या श्मशान में जाने के लिए भी तैयार हो जाती। पुराने महल देखने में तो फिर भी उसे रुचि थी। लेकिन उसने तब ज़्यादा कुछ सोचा नहीं था।
जब वह अपने दोस्तो के साथ वहाँ पहुँची तो उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उस छोटी-सी जगह पर, जहाँ ज़्यादा लोग आते-जाते भी नहीं थे, उन्हें एक गाइड भी मिल गया। उस गाइड ने सौ रुपयों के लिए उन्हें दो घन्टे तक महल घुमाने का, उसके बारे में सारी जानकारी देने का और उससे जुड़ी सभी कहानियाँ बताने का वादा किया। उन्हें बाद में पता चला कि वह गाइड दरअसल पास में एक साइकिल और रिक्शों के पंक्चर ठीक करने की दुकान चलाता था।
गाइड उन्हें महल के अलग-अलग हिस्से घुमाने लगा। कुछ कमरों को संग्रहालय बना दिया गया था। कुछ अन्य कमरों में राजपरिवार के लोगों की बड़ी-बड़ी तस्वीरें लगी हुई थीं। फिर वे लोग एक बड़े से हॉल में पहुँचे, जहाँ छत कई खम्भों पर टिकी थी। खम्भे बराबर दूरी पर एक पैटर्न में खड़े थे और गुलाबी रंग के पेन्ट के साथ बहुत ही सुन्दर नज़ारा बना रहे थे। निशा ने उस हॉल की और खम्भों के पैटर्न की कई तस्वीरें खींची अपने कैमरे से। गाइड बता रहा था कि यह रंगमहल है जहाँ नाच-गाने हुआ करते थे।
‘इसका माहौल ही बड़ा रसिक है इन खम्भों के साथ। नाच-गाने के लिए ही सही रहा होगा।’ निशा ने मन-ही-मन सोचा।
गाइड उन लोगों को कोने के एक खम्भे के पास ले गया। उसमें एक दरार पड़ी हुई थी। गाइड ने बड़े ही नाटकीय तरीके से उन्हें उस दरार की कहानी सुनाई। सत्रहवीं शताब्दी में इस राज्य के राजा महाराज चन्द्रभानु थे। उन्होंने किसी पर गुस्सा हो कर इस खम्भे पर ज़ोरों से मुक्का मारा था। उससे ही इस खम्भे में यह दरार पड़ गई। लेकिन उन्होंने कभी भी उस खम्भे की मरम्मत कराने की अनुमति नहीं दी और मरते हुए भी अपने वारिसों से उस खम्भे को वैसे ही छोड़ देने को कहा। इसलिए इस खम्भे की कभी मरम्मत नहीं करवाई गई। किसी को नहीं पता है कि उनका गुस्सा किस पर था।
सत्रहवीं शताब्दी के किसी राजा के हाथ इतने मजबूत होंगे, इस बात पर निशा विश्वास नहीं कर सकती थी। लेकिन फिर भी उसे बड़ा ही मज़ा आया कहानी सुनकर। एक राजा का गुस्सा। किसपर था कभी किसी को पता नहीं चला। एकदम बच्चों जैसी कहानी होकर भी कुछ तो जिज्ञासा उत्पन्न करती थी।
लोग आगे बढ़ने लगे, तभी निशा की नज़र खंभे के पास की दीवार पर बने एक दरवाज़े पर पड़ी। दरवाज़ा छोटा-सा लकड़ी का था और उसपर एक बड़ा भारी-सा जंग लगा ताला पड़ा हुआ था। निशा की नज़रें उस दरवाज़े पर गड़ गईं।
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रंगमहल की साज-सज्जा चल रही थी। कई लोग इस काम में लगे हुए थे। तभी दो बच्चे, एक लड़का और एक लड़की रंगमहल से लगे लकड़ी के छोटे-से दरवाज़े से दौड़ते हुए रंगमहल में घुसे। लड़की आगे-आगे थी और लड़का उसके पीछे-पीछे उसे पकड़ने के लिए दौड़ रहा था।
“कांति की बच्ची। आज मैं तुझे नहीं छोड़ूँगा।”
तभी एक औरत उनके पीछे आई।
“राजकुमार चन्द्रभानु, कांति। ये क्या तमाशा चल रहा है? रंगमहल में रात के उत्सव के लिए तैयारियाँ हो रहीं हैं। यहाँ बच्चों का कोई काम नहीं है अभी।”
इतना कहते-कहते उस औरत ने कांति को पकड़ लिया।
“माँ। तुमने मुझे क्यों पकड़ा? देख नहीं रही थी, चंद्र मुझे आज फिर नहीं हरा पाया।”
“कांति। कितनी बार कहा है कि राजकुमार को उनके नाम से मत बुलाया कर।”
“हाँ, हाँ। नहीं बुलाउँगी।” फिर मुँह चिढाती हुई बोली, “राजकुमार चंद्रभानु।”
“कांति। देख लेना, जब मैं महाराज बन जाऊँगा तो तुझे इसी रंगमहल में नचाऊँगा।”
“नाचें मेरे दुश्मन। मैं राजमहल में तुम्हारी बांदी बनकर नहीं रहूँगी।”
कांति की माँ, राजकुमार की धाय माँ, मीरा उन्हें उसी दरवाज़े से अंदर ले गई, जिससे वे बाहर आए थे। वह दरवाज़ा रंगमहल को राजप्रासाद के अंतःपुर के रास्ते से जोड़ता था।
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किशोरी कांति उद्यान में खड़ी थी। तभी पीछे से किसी ने उसका नाम पुकारा।
‘कांति।’
‘चंद्र। बधाई हो। सुना कि राजद्रोह के कुचलने में तुम सफल हो कर लौटे हो।’
‘सही सुना कांति। तू कैसी है?’
‘मैं तो ठीक हूँ। किन्तु तुम बड़े थके-थके से लग रहे हो। अभी-अभी आए हो क्या?’
‘हाँ। अभी-अभी आया हूँ। धाय माँ ने बताया कि तू यहाँ है तो मिलने चले आया।’
‘हाँ चन्द्र मन थोड़ा अशांत लग रहा था। उद्यान में आने से शांति मिलती है।’
‘मन तो मेरा भी अशांत है कांति। प्रियदर्शन की हत्या करनी पड़ी मुझे।’
कांति की आँखों में वह भाव था कि मैं तुम्हारी स्थिति समझ सकती हूँ। किन्तु उसने बस इतना कहा ‘तुम्हारा दोष नहीं है चन्द्र। इसके बारे में सोचकर परेशान न हो।’
फिर बात बदलती हुई बोली, “अच्छा चंद्र। तुमने तो कई गाँवों से, खेत-खलिहानों से होकर यात्रा की होगी ना।”
“हाँ।”
“कैसे होते हैं गाँव? सुंदर लगते हैं क्या खेत-खलिहान? मैं तो कभी राजमहल से बाहर गई ही नहीं। माँ तुम्हें छोड़कर कभी कहीं नहीं जा सकती थीं।”
“सुंदर तो लगते हैं खेत-खलिहान कांति, किन्तु उन्हें चलाने वाले किसानों का जीवन बड़ा कठिन है। बहुत परिश्रम करना पड़ता है उन्हें। और फिर कभी मौसम, कभी रास्ते से जाती सेनाएँ, कभी कीड़े-मकोड़े और कभी जानवर खेतों को क्षति पहुँचाते रहते हैं। पर क्यों पूछ रही है तू?”
“ऐसे ही। मैं भी कभी रहूँगी वहाँ।”
“भूल जा। मैं महाराजा बन जाऊँगा तो तुझे रंगमहल में नचाऊँगा।” चंद्रभानु से शैतानी से हँसते हुए कहा।
“नाचें मेरे दुश्मन। मैं राजमहल में तुम्हारी बांदी बनकर नहीं रहूँगी चंद्र।”
तभी मीरा की आवाज़ आई, “राजकुमार। आप यहाँ क्या कर रहे हैं? रानी माँ आपके स्वागत के लिए सारी तैयारियाँ कर के बैठी हैं। और कांति। तुझे कब समझ में आएगा कि राजकुमार से कैसे बात करते हैं। मैंने तुझे अभी भी उनका नाम लेते सुना। नाम से मत बुलाया कर।”
“हाँ, हाँ। नहीं बुलाउँगी।” फिर मुँह चिढाती हुई बोली, “राजकुमार चंद्रभानु।”
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चंद्रभानु रंगमहल में थे। कांति लकड़ी के दरवाज़े से रंगमहल में आई।
“मुझे यहाँ क्यों बुलाया चंद्र?”
“मुझसे विवाह कर ले कांति।”
“मैं एक दासी की पुत्री हूँ।”
“मैं रानी बनाऊँगा तुझे।”
“मेरा विवाह बहुत पहले तय हो चुका है।”
“पता है।”
“अगले सप्ताह मेरा विवाह होने वाला है।”
“रुक सकता है।”
“पता है चंद्र। मैं मुँह नहीं खोलना चाहती थी। अब तुम महाराज हो। किन्तु बोलना पड़ेगा। मैं तुमसे विवाह नहीं करूँगी।”
“एक गरीब किसान से कर लेगी, मुझसे नहीं करेगी। क्यों कांति?”
“वह गरीब है। एक ही पत्नी रखेगा। तुम्हारे अंतःपुर में मैं कितनों के बीच एक रहूँगी?”
“मैं और किसी से विवाह नहीं करूँगा।”
“पिथौरागढ़ के महाराजा सीमा-समझौते और मित्रता के लिए अपनी पुत्री से विवाह करने को कहें फिर भी नहीं?”
चंद्रभानु चुप हो गए। थोड़ी देर नीचे ज़मीन की ओर देखते रहे। फिर बोले, “लेकिन प्यार मैं सिर्फ तुझसे करूँगा।”
“उसका क्या भरोसा चंद्र। प्रियदर्शन से प्यार नहीं करते थे? चचेरा भाई था तुम्हारा। बचपन से साथ खेल-कूद कर बड़े हुए थे तुम।”
“राजधर्म से विवश था कांति।”
“दोष नहीं दे रही तुम्हे। राजधर्म किसी को तो पूरा करना है। यह तुम्हारा कर्तव्य है। और मेरा? एक किसान का घर अभी मेरी राह देख रहा है। उसकी बूढ़ी माँ को मेरी सेवा की आवश्यकता है। उस घर को सँभालने की आवश्यकता है।”
“रानी बनाऊँगा तुझे कांति। ऐसे कितने ही किसानों का घर भर सकती है तू जब रानी बन जाएगी।”
“उस किसान के काम में हाथ बटाऊँगी तो उस खजाने को कर दे कर भरूँगी जिससे तुम्हारी रानी ऐसे कितने ही किसानों का घर भर सकेगी।”
“बहुत कष्ट हैं उस जीवन में कांति। तू राजमहल में पली-बढ़ी है।”
“जो कष्ट अपनी आँखों से देखें हैं, उन्हें नहीं झेलना चाहती। रानी माँ को रातों में छिप-छिप कर रोते नहीं सुना क्या मैंने? माँ का कमरा ठीक उनके कमरे से सटा हुआ है।”
“धन दौलत नहीं होगी उस जीवन में।”
“किसान के साथ मिलकर मिट्टी से सोना उगाऊँगी।”
“कभी मौसम, कभी रास्ते से जाती सेनाएँ, कभी कीड़े-मकोड़े और कभी जानवर खेतों को क्षति पहुँचाएँगे।”
“जो बचेगा उसे सहेज कर रखूँगी।”
“कभी अकाल पड़ जाएगा।”
“महल में घुट कर जीने की बजाय खुले आकाश के नीचे भूख से मर जाऊँगी।”
“अंतिम बात हमेशा तेरी ही होती है कांति। हमेशा हार जाता हूँ।”
“चलो इस बार प्रयत्न करते हैं कि अंतिम बात मेरी ना हो।”
“तेरा विवाह तय हो जाने की बात मुझे बहुत दिनों बाद पता चली थी। तूने मुझे बताया क्यों नहीं था?”
‘उस दिन उद्यान में बताना चाहती थी किन्तु माँ आ गईं थीं।’ कांति ने सोचा। पर बोला नहीं।
“तुम्हें बता कर झंझट कौन मोल लेता चंद्र। तुम तो मुझे इस रंगमहल में नचाना चाहते थे।”
“नाचें तेरे दुश्मन।”
कांति मुस्कुरा दी। फिर बहुत सहजता से झुक कर बोली, “चलती हूँ महाराज। प्रणाम स्वीकार कीजिए और अपना आशीर्वाद दीजिए।”
“देख। फिर तेरी ही बात अंतिम रही।”
कांति ने अब अपना मुँह नहीं खोला। बस मुस्कुराते हुए सिर ना में हिलाया। और दरवाज़े से अंदर चली गई। चंद्रभानु ने उसे तब अंतिम बार देखा।
किन्तु कांति ने चंद्रभानु को एक बार और देखा। उस दरवाज़े के अंदर का एक रास्ता ऊपर की और भी जाता था, जहाँ झरोखों से रंगमहल का दृश्य दिखता था। कांति ने वहाँ से झाँक कर देखा तो चंद्रभानु उदास चेहरे के साथ एक खम्भे का सहारा लेकर खड़ा था। कुछ क्षण बाद वहाँ से चला गया। दरबार में जाने का समय हो गया था।
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“निशा। यहाँ कैसे रह गई थी तू यार? हमने पूरा महल देख लिया। खाने के लिए जाने का टाइम हो गया है। चल।”
निशा ने सागर को दो पल के लिए ऐसे देखा मानो पहचान ही ना रही हो। फिर बुदबुदा कर बोली, “गाइड झूठ बोल रहा था। उसने खंभे पर मुक्का नहीं मारा था। दरार कभी और पड़ी होगी।”
“क्या?”
“कुछ नहीं।”
तभी गाइड भी वहाँ आया।
निशा ने बंद दरवाज़ा दिखा कर उससे पूछा, “यह दरवाज़ा?”
“कुछ दो सौ सालों से बंद पड़ा है। यह अंतःपुर के रास्ते में खुलता है। एक बार रंगमहल के किसी उत्सव की चहल-पहल के दौरान महल की एक राजकुमारी यहाँ से भाग गई थी। उसके बाद से इसे बंद कर दिया गया था। आज तक नहीं खुला है।”
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“निशा। वी नीड टू टॉक।”
रोशनी निशा की मैनेजर थी, कॉल सेंटर में जहाँ वह काम करती थी। निशा को पता था कि क्या बात होनी है। पिछले कई महीनों से एक ही बात हो रही थी।
“निशा। देखो तुम्हें सक्सेसफुल बनाना मेरा जॉब है। और मैं तुम्हारी मदद करना चाहती हूँ। तुम बहुत पहले ट्रेनर की पोस्ट पर प्रोमोट हो गई होती, तुम्हें पता है ना। लेकिन क्यों हर महीने किसी कस्टमर पर चिल्लाने जैसी हरक़त कर बैठती हो? हर प्रोमोशन मीटिंग में एक ही चीज़ पर बात अटक जाती है। तुम बहुत इन्टेलीजेंट हो लेकिन मैच्योरिटी नहीं है तुम्हारे अंदर। ट्रेनिंग कैसे दोगी नए लोगों को?”
रोशनी अपना काम कर रही थी। उसे अपने को रिपोर्ट करने वाले सभी लोगों को क्वाटरली फीडबैक देना था। उसने सोचा था कि हमेशा की तरह हाँ-ना कर के मीटिंग खतम हो जाएगी।
“अब परेशान होने की ज़रूरत नहीं है रोशनी। मैं रिज़ाइन कर रही हूँ।”
“क्या? कहाँ जा रही हो?”
“कहीं नहीं।”
“नहीं बताना चाहती हो तो ठीक है। लेकिन तुम्हें पता है ना कि इस कंपनी की तरह का ग्रोथ तुम्हें शायद ही कहीं और मिले। और तुम्हें रेज़ भी मिल रही है।”
“इनसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता रोशनी। मैं किसी और कंपनी में नहीं जा रही हूँ।”
“फिर?”
“मैं पेंटिंग करूँगी।”
“पेंटिंग? वो हॉबी है तुम्हारी। कैरियर नहीं।”
“मैं उसे कैरियर बनाऊँगी।”
“तुम सोच लो थोड़ा इसपर। हर कोई मशहूर नहीं हो जाता। बहुत रिस्क हैं।”
“मैं लेने को तैयार हूँ।”
“हर रात पिज़्जा खाने के पैसे बाइस साल के पेंटर को नहीं मिलते।”
“मैं चावल, रोटी खाऊँगी। परेशान मत हो।”
“इस कंपनी में बहुत ग्रोथ है।”
“मैं सुबह-सुबह सन-राइज़ देखना चाहती हूँ, किसी की वाशिंग-मशीन ठीक नहीं कराना चाहती।”
“सूरज पर बादल भी छाते हैं मैडम।”
“तो बादलों की पेंटिंग बना लूँगी।”
“सोच लो। एक-दो दिन का समय लो। फिर डिसाइड करना।”
“मैंने यहाँ आने से पहले अपना रेज़िगनेशन ई-मेल तुम्हें और एच आर मैनेजर को भेज दिया है।”
फिर उठती हुई बोली, “चलती हूँ रोशनी। जितनी जल्दी हो सके मुझे रिलीव कर देना। बाय।”
पहली बार अंतिम बात रोशनी की नहीं, निशा की हुई थी।