रंगों की भाषा की बौराई ग्रामर / जयप्रकाश चौकसे

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रंगों की भाषा की बौराई ग्रामर
प्रकाशन तिथि : 13 अप्रैल 2019


पिंक, रेडरोज, ब्लैक, ब्लू अम्ब्रेला, ब्लू, ब्लैक फ्रायडे, बॉम्बे वेलवेट, रंग नामक फिल्में बन चुकी हैं। रंगों को भी पुरुष और नारी के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। मसलन, पिंक को महिलाओं के साथ जोड़ा जाता है। राजनीतिक दलों ने भी रंग को अपने खेल के दायरे में लिया है। भगवा दक्षिणपंथी राजनीति का रंग है। वामपंथियों को लाल रंग पसंद है। हमारे राष्ट्रीय ध्वज में भी तीन रंग है, इसलिए उसे तिरंगा भी कहा जाता है। लाल रंग का स्कार्फ बहुत लोग पहनते हैं। मेहबूब खान की फिल्म 'ऑन' में नायिका का लाल रंग का स्कार्फ नायक अपने पास रख लेता है। यह फिल्म शेक्सपीयर के 'टेमिंग ऑफ श्रू' से प्रेरित थी और इसी का चरबा सनी देओल की पहली फिल्म 'बेताब' थी। क्रिकेट टेस्ट मैच खेले जाते हैं और खिलाड़ी सफेद कपड़े पहनते हैं। तमाशा क्रिकेट में सफेद गेंद से खेलते हैं परंतु खिलाड़ी रंग-बिरंगे कपड़े पहनते हैं। वकील अदालत में काला कोट पहनते हैं और प्राय: सफेद झूठ बोलते हैं।

महिलाएं प्राय: रेड लिपस्टिक से अपने ओंठ रंगती हैं परंतु कुछ समय से नीले और हरे लिपस्टिक का इस्तेमाल करने लगी हैं। इसी तरह नाखून भी रंगे जाते हैं। बालों को रंगना बहुत पहले शुरू हुआ था। महिलाओं को भी ब्लांड, रेडहेड आदि कहा जाता है। पुरुषों द्वारा सफेद बालों को काला रंग लगाया जाता है। धन भी काला और सफेद होता है। शोक के अवसर पर पुरुष बांह पर काला बैंड बांधते हैं। राजकुमार हिरानी की आमिर खान अभिनीत फिल्म 'पीके' में विधवा द्वारा सफेद वस्त्र धारण करना और बुरके के रंग को लेकर दृश्य रचे गए हैं। एक क्रिश्चियन महिला विवाह के लिए जाते समय सफेद वस्त्र पहनती है और दूसरे ग्रह से आया व्यक्ति उसे विधवा समझ लेता है। रंगों के झमेले में उसकी पिटाई हो जाती है। स्टीवन स्पिलबर्ग की फिल्म 'शिंडलर्स लिस्ट' श्वेत-श्याम फिल्म थी परंतु एक बालक लाल रंग का स्कार्फ पहने दिखाया गया है। नाजी खून-खराबे को श्वेत-श्याम फिल्म में लाल रंग के मफलर द्वारा रेखांकित किया गया है। वामपंथी तो अपने कॉमरेड को लाल सलाम कहकर अभिवादन करते हैं। पात्रों द्वारा पहने पोशाक के रंग भी सोच-समझकर चुने जाते हैं। भारत में मेहबूब खान की 'आन' और सोहराब मोदी की 'झांसी की रानी' रंगीन फिल्में थीं परंतु उस समय तक टेक्नोलॉजी विकसित नहीं हुई थी। 1960 में शशधर मुखर्जी की शम्मी कपूर-सायराबानो अभिनीत 'जंगली' को भारी सफलता मिली, जिसके बाद सभी फिल्में रंगीन बनने लगीं। हमारे मेकअप करने वालों को देर से समझ में आया कि रंगीन फिल्म के लिए कलाकार का मेकअप अलग ढंग से करना पड़ता है। प्रारंभिक फिल्मों में रंग चटख हो गए। नायक के ओंठ नायिका से अधिक लाल नज़र आने लगे। चटख को अंग्रेजी में लाउड कहते हैं, जो ध्वनि के लिए इस्तेमाल किया जाता है। प्रकृति रंगों की होली खेलती है। वृक्षों के पत्तों के रंग भी बदलते हैं। आकाश भी विविध रंग का नजर आता है। घने स्याह बादल बरसते हैं और मात्र गरजने वाले बादलों का रंग अलग होता है। गरजने वाले नेता बरसते नहीं। बादल भी भांति-भांति के आकार ग्रहण करते हैं। कभी लगता है कि आकाश में हाथी मौज-मस्ती कर रहे हैं। मस्ती में आने पर हाथी सूंड से पानी का फव्वारा छोड़ता है। क्या यह उसने बादलों से सीखा है? रंग बोलते हैं, समय स्याह या उजला होता है। इंद्रधुनष राजनीतिक सरहदों के परे चला जाता है। प्रकृति को समझने के प्रयास सदियों से जारी है परंतु उसके सारे रहस्य मनुष्य अभी भी समझ नहीं पाया है। फिल्मी गीतों में भी रंगों का खूब प्रयोग किया गया है। 'बंदिनी' में गीत है 'मोरा गोरा अंग लइ ले मोहे शाम रंग दइ दे/ छुप जाऊंगी रात ही में मोहे पी का संग दइ दे'। एक अन्य गीत है 'परवतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है/ सुरमई उजाला है, चंपई अंधेरा है।' शांताराम की फिल्म नवरंग में बहुत गीत थे। एक नृत्य गीत में नायिका के पीठ वाले हिस्से को पुरुष की तरह प्रस्तुत किया गया। हर पुरुष में नारी और नारी में कुछ पुरुष होता है। हरिवंश राय बच्चन का विचार था कि सारा सृजन का काम पुरुष में बैठी स्त्री कराती है। मेहमूद की फिल्म में गीत था, 'काले हैं तो क्या हुआ, हम दिलवाले हैं।' एक टेलीविजन सीरियल में नायिका बहुत काले रंग की है। उसका तिरस्कार किया जाता है। अंत में दिखाया गया है कि वह गोरी और सुंदर है परंतु पुरुष भेड़ियों के समाज में सुरक्षित रहने के लिए वह रोज अपने बदन पर रंग पोतकर नौकरी करने जाती है। अमेरिका आज भी रंगभेद का शिकार है। समय के साथ यह कम हुआ है परंतु अभी भी कायम है।