रंगों के शहर में गुरु नानक / देव प्रकाश चौधरी
हर समय की अपनी कहानी होती है। हम अपने समय में उसे सुनते हैं। कई बार उन कहानियों में हमारी दिलचस्पी नहीं होती, क्योंकि वहाँ समय की एक दीवार खड़ी होती है। लेकिन वही कहानी जब किसी कला के जरिए हमारे पास आती है तो फिर, उस समय की दीवार में कई खिड़कियाँ खुलती हैं... आस्था की खिड़की, जिज्ञासा की खिड़की, कुछ कही गई बातों की खिड़की और कुछ अनकहे दास्तानों की खिड़की। इन खिड़कियों के जरिए कई बार हम-हम आस्था से जिज्ञासा की ओर अग्रसर होते हैं और जिज्ञासा से आस्था की ओर। कई बार कुछ कही गई बातों को सुनते हुए कुछ कहने से रह गए शब्दों की ओर। इन खिड़कियों की आज हमें कितनी ज़रूरत है, इस पर बहस हो सकती है। ऐसी बहस की ज़रूरत भी है। ऐसी ही बहस का प्रांगण हम सब मशहूर चित्रकार अर्पणा कौर की कला में पाते हैं, जहाँ आस्था की खिड़कियाँ बिना किसी परदे की है और हमें ज़िन्दगी को लेकर कई तरह की नई बातें बताती हैं। वैसे तो उनकी कला की दुनिया बहुत बड़ी है, लेकिन जब उनकी कला में ध्यान में बैठे मिलते हैं बुद्ध...तो उस आस्था की खिड़की से कुछ उत्सव के स्वर हमें भी सुनाई पड़ते हैं। जब उनकी कला में आशीष से भरे गुरु नानक के हाथ, रंग की एक दोपहर में खोलते हैं संसार का द्वार, तो ज़िन्दगी के रास्ते खुद-ब-खुद खुलते चले जाते हैं।
गुरु नानक की दुनिया है भी अनूठी। उन्होंने परमात्मा को गा-गा कर पाया। इसलिए उनकी खोज अद्भुत है। दिल को छूती है। एक कहानी है उनकी ज़िन्दगी की। आपने भी सुनी होगी। कलाकार अर्पणा कौर की कला पर बात करते हुए कहानी को एक बार फिर से सुनना ज़रूरी है। वह अंधेरी रात थी। शायद भादों की अमावस। बादलों की गड़गड़ाहट और बीच-बीच में बिजली की चमक। बारिश सब कुछ बहा लेना चाहती थी। पूरा गाँव डर में सिमटा हुआ। लेकिन अकेले नानक अपने में मग्न। वे गा रहे थे। रात देर तक वे गाते रहे। उनकी माँ डर गई। आधी रात से ज़्यादा बीत गई थी। नानक के कमरे का दीया जल रहा था। दरवाजे पर नानक की माँ ने दस्तक दी और कहा, "बेटे! अब सो भी जाओ। रात करीब-करीब जाने को हो गई।" नानक चुप हो गए और तभी रात के अंधेरे में एक पपीहे ने ज़ोर से कहा, "पियू-पियू।"
नानक ने कहा, "सुनो मां! अभी पपीहा भी चुप नहीं हुआ। अपने प्यारे की पुकार कर रहा है, तो मैं कैसे चुप हो जाऊँ? इस पपीहे से मेरी होड़ लगी है। जब तक यह गाता रहेगा, पुकारता रहेगा, मैं भी पुकारता रहूंगा और इसका प्यारा तो बहुत पास है, मेरा प्यारा बहुत दूर है। जन्मों-जन्मों गाता रहूँ तो ही उस तक पहुँच सकूंगा।" नानक ने फिर गाना शुरू कर दिया।
इसलिए कहते हैं, गुरु नानक ने परमात्मा को गा-गा कर पाया।
गा गा कर परमात्मा को पाने की यह साधना निश्चित रूप से साधारण नहीं रही होगी। परमात्मा को पाने की साधना साधारण हो भी नहीं सकती। निश्चित तौर पर रंगों में गुरु नानक की साधना को दिखाने की कौर की यात्रा भी साधारण नहीं है। यह ज़िन्दगी के सत्य को आध्यात्मिक और दार्शनिक ऊंचाई देने की एक कलात्मक यात्रा है। लेकिन इसकी शुरुआत कैसे हुई? अगर गुरु नानक अर्पणा कौर की कला में आए, बार-बार आए तो इसे क्या महज़ संयोग माना जाए। या फिर इसके लिए उन्होंने तैयारी की?
यह बात तो सच है कि अर्पणा कौर देश और दुनिया की उन कलाकारों में से हैं, जो मानती हैं कि भविष्य की आहट हमें हमेशा आने वाले समय में नहीं मिलती। बीते अतीत में भी उपलब्ध होती है। बीते अतीत में परंपरा के जितने उत्सवधर्मी स्वर हैं, ज़िन्दगी से जुड़े हुए गीत हैं, उन सबकी उऩकी कला में सहज मौजूदगी रही है। लेकिन हमेशा किसी बड़ी शृंखला पर काम करने के लिए एक ख़ास क़िस्म की तैयारी या 'रचनात्मक इंधन' की ज़रूरत होती है। क्या उन्होंने भी ऐसा किया? ऐसे सवालों का जवाब अगर कलाकार दें तो-तो सृजनात्मक यात्रा की सही तस्वीर सामने आती है। लेकिन कला रचना के बाद ख़ुद अपनी रचना प्रक्रिया पर बोलना उन्हें बहुत भाता नहीं, शायद इसकी वज़ह यह भी हो सकती है कि वह एकांत की कलाकार हैं। वर्जीनिया वुल्फ ने कभी अपनी डायरी में लिखा था—"मैं सिर्फ़ अकेले में रहना चाहती हूँ, जिस दिन सम्मानों की तरफ़ भागूंगी, लिखना बंद कर दूंगी।" वुल्फ की तरह ही अर्पणा कौर अकेलेपन को स्वीकार करती हैं।
फिर भी, वर्षों से उनकी कला को देखते-सुनते-गुनते और टुकड़े-टुकड़े में हुई बातों को समेटने के बाद नानक शृंखला को लेकर उनके कुछ विचार हमें मिले, जिन्हें जानते हुए उनकी कला के प्रति उत्सुकता जगती है। टुकड़े-टुकड़े में हुई उनसे अनगिनत बातचीत को एक सूत्र में पिरोने पर कुछ तस्वीर उभरती है-"गुरु नानक शृंखला के पीछे की कहानी दरअसल मेरी भी एक यात्रा है। इसे आप आस्था की यात्रा, संस्कार की यात्रा या फिर भविष्य के लिए अतीत की एक यात्रा कह सकते हैं। इसके लिए मैं अपनी माँ अजीत कौर (मशहूर साहित्यकार) और संत गुरु संजीव जी का शुक्रगुजार हूँ कि उन्होंने गुरु नानक की दुनिया से मेरा परिचय कराया।"
गुरु नानक को लेकर कौर ने अनगिनत चित्र बनाए। वर्षों तक लगातार काम करती रहीं। इस शृंखला में उनके कई चित्र 'जर्नी' शीर्षक से हैं। यह यात्रा कई तरह से कई रूप में है। एक तो गुरु नानक भौगोलिक यात्रा करते हैं। दूसरे नानक बाहर से अपने भीतर की यात्रा करते हैं। तीसरी यात्रा परमात्मा की ओर है। लेकिन यहाँ कलाकार अर्पणा कौर एक चौथी यात्रा भी करती हैं। गुरु नानक के विचारों को लेकर पेंटिंग देखने वाले शख़्स के दिलो-दिमाग तक की यात्रा। गुरु नानक के बारे में इससे पहले भी हमने सुना होगा। लेकिन इनकी कला के जरिए जिस गुरु तक हम पहुँचते हैं, वे कुछ अलग, नए से लगते हैं। सच्ची कला में हम जानी-सी कहानी को भी अप्रत्याशित ढंग से सुन पाने का सुख पाते हैं।
कौर गुरु नानक की कहानी सुनाते हैं-"गुरु नानक जी कभी पैदल चीन तक गए था। वहाँ उन्हें लामा नानक कहते हैं। गुरु नानक बगदाद भी गए। वहाँ एक गुरुद्वारा मौजूद है। 2003 में अमरीका ने इस पर बमबारी की थी, तब उस गुरुद्वारे का अस्तित्व ख़त्म हो गया था। लेकिन उस गुरुद्वारे को फिर से बनाया गया। मैं 1986 में वहाँ गई थी, जब इराकियों ने हमें वहाँ आमंत्रित किया था। यह शायद उनका पहला और एकमात्र अंतरराष्ट्रीय कला बेनाले था। मैं उस दल में सबसे कम उम्र की कलाकार थी, अन्य कलाकार थे शंखो चौधुरी, नागजीभाई और ब्रूटा। इसी तरह, मैंने सुना था कि नानक जी सिक्किम भी गए थे और 18, 000 फीट की ऊंचाई पर चढ़ गए। वहीं से नानक जी चीन तक पहुँचे थे। इसलिए मैं अपनी माँ के साथ सिक्किम तक गई। हम वहाँ ब्रिगेडियर डी.जे. सिंह को जानते थे, जो वहाँ इंचार्ज थे और मैं उस जगह पर गई जहाँ से गुरुनानक जी चीन की ओर गए थे। वहाँ केवल सफेद पत्थरों की एक पंक्ति है और मैंने उसे पार किया। भारतीय सेना ने मुझे दूरबीन से चीन की सेना दिखाई, वहाँ उनकी एक चेक पोस्ट थी। जब हम ऊपर गए तो हम ऑक्सीजन सिलेंडर लेकर गए, जबकि नानक जी वहाँ बिना किसी सहायता के पहुँचे थे और फिर मैं वापस आई और गुरु नानक की इस सीरीज या शृंखला को किया। मैं पहले भी कभी-कभी नानक के चित्र बनाती रहती थी, लेकिन फिर मैंने इसे उनकी यात्राओं को दर्शाते या प्रतिबिंबित करते हुए लगातार चित्र बनाए। मेरा काम स्मिथसोनियन संग्रहालय में तीन साल तक 'लीजेंड ऑफ द सिख्स' नामक शो में दिखाया गया। अब वे काम सैन फ्रांसिस्को में हैं।"
जिन लोगों ने कौर की कला में गुरु नानक को देखा है, उन्हें पता है कि कलाकार ने रंगों से गुरु नानक की प्रार्थना की है। यहाँ उनकी कला के ग्रामर यानी तकनीक पर बात करना बहुत ज़रूरी तो नहीं, लेकिन इतना जान लेना सही है कि नानक सीरिज की सभी कलाकृतियाँ, तैल चित्र हैं। वह अक्सर बड़े कैनवस पर काम करती हैं। रंगों के चयन में आपको सादगी तो मिलेगी, उदासी नहीं। उनकी कला की केंद्रीय कलात्मक मुद्रा सम्बोधन की है। हर हाल में वह जीवन की पूर्णता का आग्रह करती हैं।
वर्ष 2000 में बनाई गई उनकी एक कलाकृति का शीर्षक है 'मक्का' । गुरु नानक मक्का गए थे। कौर कहबती हैं-"गुरु नानक ने हर जगह की यात्रा की और वह रूढ़ियों को तोड़ने वाले थे। जैसे वह जब मक्का गए, तो उन्होंने अपने पैर मक्का की तरफ़ रखे। लोगों ने विरोध किया तो उन्होंने कहा कि मेरे पैर उस दिशा में रख दो, जिधर अल्लाह न हों।"
इस चित्र में एक आदमी गुरु नानक के पैर को हटाने की ज़िद में दिखाई देता है। चित्र में पीले रंग के साथ ब्रश का स्ट्रोक एक घटना बनाती है, जिसका ज़िक्र ऊपर कलाकार कर चुकी हैं।
वैसे गुरु नानक की ज़िन्दगी में घटनाओं की कमी नहीं है। अर्पणा कौर उनकी ज़िन्दगी की एक और महत्त्वपूर्ण घटना का ज़िक्र करती हैं-"नदी के किनारे रात के अंधेरे में, अपने साथी और सेवक मरदाना के साथ वे नदी तट पर बैठे थे। अचानक उन्होंने वस्त्र उतार दिए। बिना कुछ कहे वे नदी में उतर गए। नानक ने डुबकी लगाई। मरदाना सोचते थे कि क्षण-दो क्षण में बाहर आ जाएंगे। फिर वे बाहर नहीं आए। कुछ देर मरदाना ने राह देखी, फिर वह खोजने लग गए। फिर वह चिल्लाने लगे। नानक को सभी लोग प्यार करते थे। सारा गाँव रोने लगा, भीड़ इकट्ठी हो गई। सारी नदी तलाश डाली। लेकिन कोई पता न चला। तीन दिन बीत गए। लोगों ने मान ही लिया कि नानक नहीं रहे और तीसरे दिन रात अचानक नानक नदी से प्रकट हो गए। जब वे नदी से प्रकट हुए तो वह एक द्रष्टा थे। नए नानक थे।"
इस घटना पर कौर ने कई चित्र बनाए हैं। उसमें वर्ष 2001 में बनाई गई कृति 'इमर्शन' का ज़िक्र ज़रूरी है। लाल बैकग्राउंड में पानी की लहरें, मछलियाँ और ध्यान में बैठे नानक। कौर कहती हैं-"नानक नदी से लौटे तो परमात्मा हो कर ही लौटे। फिर उन्होंने जो भी कहा है, एक-एक शब्द बहुमूल्य है। उन्होंने जाति का प्रतिकार करने के लिए सभी के लिए सामान्य रसोई घर की स्थापना यानी लंगर प्रणाली शुरू की थी और उस वक़्त भी औरतों पर उनकी सोच बेहद मौलिक और बराबरी वाली रही। वे यात्राओं पर जाते थे और जब भी वापस लौटते तो फिर अपनी खेती-बाड़ी में लग जाते। पूरे जीवन, जब भी वापस लौटते घर, तब अपना काम शुरू कर देते। जिस गाँव में वे आख़िर में बस गए थे, उस गाँव का नाम उन्होंने करतारपुर रख लिया था—कर्ता का गांव। काम करने वालों का गाँव नानक ने ही पहली बार कहा था कि औरतों और मर्दों के बीच कोई अंतर नहीं है। वे एक साथ बैठेंगे, परदे में नहीं।"
उनकी ज़िन्दगी में कहानियों और घटनाओं की कमी नहीं। अर्पणा कौर कहती हैं, "गुरु नानक के बारे में बचपन से जो सुना, पढ़ा और महसूस किया, उन सभी को आकार देने के लिए एक ज़िन्दगी काफ़ी नहीं है। लेकिन गुरु नानक जब मेरे रंगों के बीच उभरते हैं तो हमेशा मुझे एक अद्भुत सुकून का अनुभव होता है।"
कहते हैं, जहाँ मस्तिष्क और हृदय मिलते हैं, वहीं धर्म शुरू होता है। अगर मस्तिष्क अकेला रहे, तो विज्ञान पैदा होता है। अगर हृदय अकेला रहे, तो कल्पना का जगत, काव्य, संगीत, चित्र, कला पैदा होती है और अगर मस्तिष्क और हृदय दोनों मिल जाएँ, दोनों का संयोग हो जाए, तो हम आस्था में प्रवेश करते हैं। अर्पणा कौर आकारों के बीच, रंगों के सहारे मन और दिल को साधते हुए आस्था की जिस दुनिया में प्रवेश करते हैं, वहीं हमें गुरु नानक की ढेर सारी छवियाँ मिलती हैं, ढेर सारे रूप मिलते हैं और कथाएँ मिलती हैं। नानक शृंखला के उनके चित्र 'फेथ' , 'आरती' , 'डांसिग नानक' , 'इमर्शन ईमर्जन्स' , 'सेक्रिड थ्रेड' , 'सच्चा सौदा' , 'ट्रेवलर' और 'नानक इन ब्लिडिंग टाइम' हमें सिर्फ़ इतिहास में नहीं ले जाते, भविष्य के लिए रास्ते भी बनाते हैं।
इन रास्तों पर चलते हुए प्रेक्षक को एक अहसास हो सकता है कि अर्पणा कौर के चित्र, उनकी कला अपने समय की रिपोर्ट नहीं करती है। अपने काल से अलग एक ऐसी दुनिया में हमें लेकर चलती है, जो परालौकिक—सा है। लेकिन उनकी कला की यही पारलौकिकता उन्हें अपने समय से बाहर छलांग लगाने की ताकत देता है और वह रंगों के साथ टहलने निकल पड़ती हैं। स्विट्ज़रलैंड के चित्रकार पाल क्ली कहते हैं कि एक कलाकार को रेखाओं को टहलाने के लिए ले जाना चाहिए। अर्पणा कौर के यहाँ रंग टहलते हैं। आस्था के आंगन में, प्रार्थना को सुनते हुए, ज़िन्दगी की बात करते हुए और कुछ कहते हुए।
एक कलाकार के साथ सबसे बड़ा सवाल यही होता है कि कला में कितना कहा जाए और कितना अनकहा छोड़ दिया जाए। सब कुछ कह डालने की कोशिश में कलाकार कभी-कभी बहुत आगे निकल जाता है। लेकिन कौर हमेशा अपनी कला के दर्शकों के साथ होती हैं। क्योंकि वह जानती हैं कि किसी भी कृति का सबसे बड़ा सच यही है कि वह शाश्वत नहीं होती, क्योंकि वह संपूर्ण कभी नहीं होती। अगर कोई कृति संपूर्ण हो गई तो फिर वह कलाकार की कृति नहीं, कोई दैवीय रचना ही हो सकती है। उत्सुकता बची हुई है तो कला हमारे लिए देखने का आग्रह करते हुए उदार बनी हुई है। ऐसी उदारता आप लेखिका माला दयाल की लिखी 'गुरु नानक' किताब में अर्पणा कौर के बनाए इलेस्ट्रेशन में भी देख सकते हैं। ताज्जुब की बात यह भी है कि नानक शृंखला में वह काले रंग के मोह से भी मुक्त हैं। कुछ एक चित्रों को छोड़कर काले रंग का प्रयोग नहीं के बराबर है, जबकि वह सभी रंगों में काले रंग को सबसे महत्त्वपूर्ण मानती हैं-"अन्य सभी रंगों की चमक टल जाने का इंतज़ार करें, अंत में काला रंग ही बचेगा।" हालांकि रंगों को वह ज़िन्दगी की चादर से जोड़कर देखती हैं-"हमारी ज़िन्दगी एक चादर है और रंग हम ख़ुद चुनते हैं। कभी लाल, कभी हरी, कभी नीली, कभी काली तो कभी सफेद भी। इसी चादर में समय झांकता है। सूरज-उगता-डूबता है। प्रकृति इसी चादर में तो इंद्रधनुष खिलाती है। ऐसी ही एक चादर थी कबीर के पास। ऐसी ही चादर गुरु नानक ने भी बिछाई थी। ऐसी ही चादर पर बुद्ध का मौन पसरा था। ऐसी चादर हम सब के पास है, बस हम ओढ़ने की कला नहीं जान पाए, इसलिए हमारी चादरों के रंग नहीं खिलते।" शायद ज़िन्दगी में रंगों को खिलना बहुत आसान भी नहीं। एक साधना है, जिसके बाद हम ख़ुद अपने लिए रंग चुनते हैं। उन रंगों में तब हमें गुरु नानक के गीत बुद्ध के उपदेश, कबीर के दोहे, सोहनी महिवाल के गीत या अपनी ज़िन्दगी की कविता मिल सकती है और शायद आप भी अर्पणा कौर की तरह कह सकते हैं-"धागों में उलझती है समय की झुर्रियाँ, रंग देखता है खिला-खिला चेहरा।"