रंग बदलता मौसम / सुभाष नीरव
पिछले कई दिनों से दिल्ली में भीषण गरमी पड़ रही थी लेकिन आज मौसम अचानक खुशनुमा हो उठा था। प्रात: से ही रुक-रुक कर हल्की बूंदाबांदी हो रही थी। आकाश काले बादलों से ढका हुआ था। धूप का कहीं नामोनिशान नहीं था।
मैं बहुत खुश था। सुहावना और ख़ुशनुमा मौसम मेरी इस ख़ुशी का एक छोटा-सा कारण तो था लेकिन बड़ा और असली कारण कुछ और था। आज रंजना दिल्ली आ रही थी और मुझे उसे पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर रिसीव करने जाना था। इस खुशगवार मौसम में रंजना के साथ की कल्पना ने मुझे भीतर तक रोमांचित किया हुआ था।
हल्की बूँदाबाँदी के बावजूद मैं स्टेशन पर समय से पहले पहुँच गया था। रंजना देहरादून से जिस गाड़ी से आ रही थी, वह अपने निर्धारित समय से चालीस मिनट देर से चल रही थी। गाड़ी का लेट होना मेरे अंदर खीझ पैदा कर रहा था लेकिन रंजना की यादों ने इस चालीस पैंतालीस मिनट के अन्तराल का अहसास ही नहीं होने दिया।
परसों जब दफ्तर में रंजना का फोन आया तो सिर से पाँव तक मेरे शरीर में ख़ुशी और आनन्द की मिलीजुली एक लहर दौड़ गई थी। फोन पर उसने बताया था कि वह इस रविवार को मसूरी एक्सप्रेस से दिल्ली आ रही है और उसे उसी दिन शाम चार बजे की ट्रेन लेकर कानपुर जाना है। बीच का समय वह मेरे संग गुज़ारना चाहती थी। उसने पूछा था- “क्या तुम आओगे स्टेशन पर?”
“कैसी बात करती हो रंजना ! तुम बुलाओ और मैं न आऊं, यह कैसे हो सकता है? मैं स्टेशन पर तुम्हारी प्रतीक्षा करता खड़ा मिलूँगा।”
फोन पर रंजना से बात होने के बाद मैं जैसे हवा में उड़ने लगा था। बीच का एक दिन मुझसे काटना कठिन हो गया था। शनिवार की रात बिस्तर पर करवटें बदलते ही बीती।
करीब चारेक बरस पहले रंजना से मेरी पहली मुलाकात दिल्ली में ही हुई थी- एक परीक्षा केन्द्र पर। हम दोनों एक नौकरी के लिए परीक्षा दे रहे थे। परीक्षा हॉल में हमारी सीटें साथ-साथ थीं। पहले दिन सरसरी तौर पर हुई हमारी बातचीत बढ़कर यहाँ तक पहुँची कि पूरी परीक्षा के दौरान हम एक साथ रहे, एक साथ हमने चाय पी, दोपहर का खाना भी मिलकर खाया। वह दिल्ली में अपने किसी रिश्तेदार के घर में ठहरी हुई थी। तीसरे दिन जब हमारी परीक्षा खत्म हुई तो रंजना ने कहा था- “मैं पेपर्स की थकान मिटाना चाहती हूँ अब। इसमें तुम मेरी मदद करो।”
पिछले तीन दिनों से परीक्षा के दौरान हम दिन भर साथ रहे थे। अब परीक्षा खत्म होने पर रंजना का साथ छूटने का दुख मुझे अंदर ही अंदर सता रहा था। मैंने रंजना की बात सुनकर पूछा- “वह कैसे?”
“मैं दिल्ली अधिक घूमी नहीं हूँ। कल दिल्ली घूमना चाहती हूँ। परसों देहरादून लौट जाऊँगी।” कहते हुए वह मेरे चेहरे की ओर कुछ पल देखती रही थी।
मैं उसका आशय समझ गया था। उसके प्रस्ताव पर मैं खुश था लेकिन एक भय मेरे भीतर कुलबुलाने लगा था। बेकारी के दिन थे। घर से दिल्ली में आकर परीक्षा देने और यहाँ तीन दिन ठहरने लायक ही पैसों का इंतज़ाम करके आया था। मेरी जेब में बचे हुए पैसे मुझे रंजना के साथ पूरा दिन दिल्ली घूमने की इजाज़त नहीं देते थे।
“दिल्ली तो मैं भी पहली बार आया हूँ, इस परीक्षा के सिलसिले में। घूमना तो चाहता हूँ पर...।”
“पर वर कुछ नहीं। कल हम दोनों दिल्ली घूमेंगे, बस।” रंजना ने जैसे अंतिम निर्णय सुना दिया। परीक्षा केन्द्र इंडिया गेट के पास था। वह बोली, “कल सुबह नौ बजे तुम यहीं मिलना।”
यूँ तो मुझे परीक्षा समाप्त होते ही गांव के लिए लौट जाना था, पर रंजना की बात ने मुझे एक दिन और दिल्ली में रुकने के लिए मजबूर कर दिया। मैं पहाड़गंज के एक छोटे-से होटल में एक सस्ता सा कमरा लेकर ठहरा हुआ था। जेब में बचे हुए पैसों का मैंने हिसाब लगाया तो पाया कि कमरे का किराया देकर और वापसी की ट्रेन का किराया निकाल कर जो पैसे बचते थे, उसमें रंजना को दिल्ली घुमाना क़तई संभव नहीं था। बहुत देर तक मैं ऊहापोह में घिरा रहा था- गांव लौट जाऊँ या फिर ...। रंजना की देह गंध मुझे खींच रही थी। मुझे रुकने को विवश कर रही थी। और जेब थी कि गांव लौट जाने को कह रही थी।
फिर मैंने एक फ़ैसला किया। रुक जाने का फ़ैसला। इसके लिए मुझे गले में पहनी पतली-सी सोने की चेन और हाथ की घड़ी अपनी जेब कट जाने का बहाना बनाकर पहाड़गंज में बेचनी पड़ी थी। अगले दिन मैं समय से निश्चित जगह पर पहुँच गया था। रंजना भी समय से आ गई थी। वह बहुत सुन्दर लग रही थी। उसका सूट उस पर खूब फब रहा था। उसके चेहरे पर उत्साह और उमँग की एक तितली नाच रही थी। एकाएक मेरा ध्यान अपने कपड़ों की ओर चला गया। मैं घर से दो जोड़ी कपड़े लेकर ही चला था। मेरी पैंट-कमीज और जूते साधारण-से थे। मन में एक हीन भावना रह-रह कर सिर उठा लेती थी। मेरे चेहरे को पढ़ते हुए रंजना ने कहा था, “तुम कुछ मायूस-सा लगते हो। लगता है, तुम्हें मेरे संग दिल्ली घूमना अच्छा नहीं लग रहा।”
“नहीं, रंजना। ऐसी बात नहीं।” मेरे मुँह से बस इतना ही निकला था।
हम दोनों ने उस दिन इंडिया गेट, पुराना किला, चिड़िया घर, कुतुब मीनार की सैर की। दोपहर में एक ढाबे पर भोजन किया। सारे समय हँसती-खिलखिलाती रंजना का साथ मुझे अच्छा लगता रहा था।
साल भर बाद इंटरव्यू के सिलसिले में हम फिर मिले थे। हमने फिर पूरा एक दिन दिल्ली की सड़कें नापी थीं। इसी दौरान रंजना ने बताया था कि उसके बड़े भाई यहाँ दिल्ली में एक्साइज विभाग में डेपूटेशन पर आने वाले हैं। उसने मुझे उनका पता देते हुए कहा था कि मैं उनसे अवश्य मिलूं।
कुछ महीनों बाद मुझे दिल्ली में भारत सरकार के एक मंत्रालय में नौकरी मिल गई। मैं रंजना के बड़े भाई साहब से उनके ऑफिस में जाकर मिला था। वह बड़ी गर्मजोशी में मुझसे मिले थे। उनसे ही पता चला कि नौकरी की ऑफर तो रंजना को भी आई थी, पर इस दौरान देहरादून के केन्द्रीय विद्यालय में बतौर अध्यापक नियुक्ति हो जाने के कारण उसने दिल्ली की नौकरी छोड़ दी थी। मैं उन्हें अपने ऑफिस का फोन नंबर देकर लौट आया था। मुझे रंजना का दिल्ली में नौकरी न करना अच्छा नहीं लगा था। फिर भी, मुझे उम्मीद थी कि रंजना से मेरी मुलाकात अवश्य होगी। लेकिन, रंजना के बड़े भाई साहब कुछ समय बाद दिल्ली से चंडीगढ़ चले गए और मेरे मन की चाहत मेरे मन में ही रह गई थी।
ट्रेन शोर मचाती हुई प्लेटफॉर्म पर लगी तो मैं अपनी यादों के समन्दर से बाहर निकला। रंजना ने मुझे प्लेटफॉर्म पर खड़ा देख लिया था। ट्रेन से उतरकर वह मेरी ओर बढ़ी। आज वह पहले से अधिक सुन्दर लग रही थी। सेहत भी उसकी अच्छी हो गई थी। सामान के नाम पर उसके पास एक बड़ा-सा अटैची था और कंधे पर लटकता एक छोटा-सा काला बैग। उसने कुली को आवाज़ दी। मैंने कहा, “कुली की क्या ज़रूरत है। तेरे पास एक ही तो अटैची है। मैं उठा लूंगा।” और मैंने अटैची पकड़ लिया था।
प्लेटफॉर्म पर चलते हुए रंजना ने कहा, “मनीष, मेरे पास चार-पाँच घंटों का समय है। कानपुर जाने वाली शाम चार बजे वाली गाड़ी की मैंने रिज़र्वेशन करा रखी है। ऐसा करती हूँ, सामान मैं यहीं लॉक अप में रखवा देती हूँ और रिटायरिंग रूम में फ्रैश हो लेती हूँ। फिर हम शॉपिंग के लिए निकलेंगे। ठीक।”
मुझे भी रंजना का यह प्रस्ताव अच्छा लगा। मैं जहाँ रह रहा था वह जगह स्टेशन से काफी दूर थी, वहाँ आने-जाने में ही दो घंटे बर्बाद हो जाने थे। रिटायरिंग रूम में फ्रैश होने के बाद रंजना ने अटैची को लॉक अप में रखवाया और फिर हम दोनों स्टेशन से बाहर निकले। सवा ग्यारह बज रहे थे। मैंने पूछा- “किधर चलोगी शॉपिंग के लिए?”
“करोल बाग चलते हैं।” रंजना जैसे पहले से ही तय करके आई थी।
मैंने एक ऑटो वाले से बात की और करोल बाग के लिए चल दिए। ऑटो में सट कर बैठी रंजना की देह गंध मुझे दिवाना बना रही थी। मैंने चुटकी ली, “पहले से कुछ मुटिया गई हो। टीचर की नौकरी लगता है, रास आ गई है।”
“तुम्हें मैं मोटी नज़र आ रही हूँ ?” रंजना ने ऑंखें तरेरते हुए मेरी ओर देखकर कहा।
“मोटी न सही, पर पहले से सेहत अच्छी हो गई है। और सुन्दर भी हो गई हो।”
“अच्छा ! पहले मैं सुन्दर न थी?”
“मैंने यह कब कहा ?”
“अच्छा बताओ, तुम्हें मेरी याद आती थी?” हवा से चेहरे पर आए अपने बालों को हाथ से पीछे करते हुए रंजना ने पूछा।
“बहुत! मैं तो तुझे भूला ही नहीं।”
“अच्छा !” इस बार रंजना की मुस्कराहट में उसके मोती जैसे दांतों का लिश्कारा भी शामिल था।
“तुमने दिल्ली वाली नौकरी की ऑफर क्यों ठुकराई? यहाँ होती तो हम रोज मिला करते।”
“दरअसल मुझे दफ्तर की दिन भर की नौकरी से टीचर की नौकरी बहुत पसंद है। इसलिए जब अवसर मिला, वह भी केन्द्रीय विद्यालय का तो मैं उसे ठुकरा न सकी।”
तभी, ऑटो वाले ने करोलबाग के एक बाजार में ऑटो रोक दिया। हम उतर गए। ऑटो वाले को रंजना पैसे देने लगी तो मैंने रोक दिया। पैसे देकर हम दोनों बाजार में घूमने लगे। रंजना कई दुकानों के अन्दर गई। सामान उलट-पुलट कर देखती रही। कीमतें पूछती रही। भाव बनाती रही। उसे देखकर मुझे लगा, रंजना को शॉपिंग का अच्छा तजुर्बा हो जैसे। हमें बाजार में घूमते एक घंटे से ऊपर हो चुका था लेकिन रंजना ने अभी कुछ भी नहीं खरीदा था। मैंने पूछा, “रंजना, तुझे लेना क्या है?”
उसने मेरी ओर देखा और हल्का-सा मुस्करा दी। फिर, वह उसी दुकान में जा घुसी जहाँ हम सबसे पहले गए थे। वह कपड़ों की दुकान थी। काफी देर बाद उसने दो रेडीमेड सूट खरीदे। पैसे देने लगी तो मैंने उसे रोक दिया। थोड़ी न-नुकर के बाद वह मान गई। मैंने पैसे दिए और सूट वाले थैले पकड़ लिए। फिर वह एक और दुकान में गई और तुरन्त ही बाहर निकल आई। वह मुझे बाजू से पकड़कर खींचती हुई -सी आगे बढ़ी और एक दूसरी दुकान में जा घुसी। उसने दो साड़ियाँ पसंद कीं। इस बार उसने अपना बटुआ नहीं खोला। साड़ियाँ कीमती थीं, मैंने पैसे अदा किए और दुकान से बाहर आ गए। बाहर निकलकर वह बोली, “शॉपिंग करना कोई आसान काम नहीं।”
फिर वह फुटपाथ पर लगी दुकानों पर झुमके, बालियाँ और नेल-पालिश देखने लगी। पूरा बाजार घूम कर उसने दो-चार चीजें खरीदीं। मैंने घड़ी की तरफ देखा- दो बजने वाले थे।
“मनीष, मुझे जूती खरीदनी है।” रंजना के कहने पर मैं उसे जूतियों वाले बाजार में ले गया। थैले उठाये मैं उसके पीछे-पीछे एक दुकान से दूसरी, दूसरी से तीसरी और तीसरी से चौथी दुकान घूमता रहा।
रंजना के संग घूमना हालाँकि मुझे अच्छा लग रहा था पर मैं एकांत में बैठकर उसके साथ बातें भी करना चाहता था। रंजना को लेकर जो स्वप्न मैंने देखे थे, उनके बारे में मैं उसे बताना चाहता था। मैंने सोचा था, रंजना घंटा, डेढ़-घंटा शॉपिंग करेगी, फिर हम किसी रेस्तरां में बैठकर लंच के साथ-साथ कुछ बातें भी शेयर करेंगे। समय मिला तो किसी पॉर्क में भी बैठेंगे। पर मेरी यह इच्छा पूरी होती नज़र नहीं आती थी।
रंजना तीन बजे तक सैंडिल ही पसंद करती रही। सैंडिल लेकर जब हम सड़क पर आए तो उसे जैसे एकाएक कुछ याद हो आया। वह रुक कर बोली, “मनीष, एक चीज़ तो रह ही गई।”
“क्या ?” सामान उठाये मैंने पूछा।
“छोटा सा अटैची या बैग लेना था।”
मैं कुछ न बोला। चुपचाप उसके पीछे-पीछे चलने लगा।
मुझे जोरों की भूख लगी हुई थी। मैंने पूछा, “रंजना, तुम्हें भूख नहीं लगी? कुछ खा लेते हैं कहीं बैठ कर।”
उसने पहली बार अपनी कलाई पर बंधी घड़ी की ओर देखा था और समय देखकर हड़बड़ा उठी।
“नहीं-नहीं, मनीष। देर हो जाएगी। साढ़े तीन बज रहे हैं। चार बजे की ट्रेन है। अब बस चलो यहाँ से।”
ऑटो कर जब हम स्टेशन पहुँचे चार बजने में दस मिनट रहते थे। उसने फटाफट लॉक-अप रूम से अपना अटैची लिया। रंजना ने छोटा छोटा सामान अपने हाथों में ले लिया था और बोली थी, “जल्दी करो, मनीष। कहीं गाड़ी न छूट जाए।”
ट्रेन प्लेटफॉर्म पर लगी हुई थी। सामान उठाये मैं रंजना के पीछे-पीछे सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। मेरी साँस फूल रही थीं। एकबार मन हुआ, कुली को बुला लूँ। लेकिन दूसरे ही क्षण अपने इस इरादे को रद्द करके मैं रंजना के पीछ-पीछे चलता रहा। रंजना ने अपना कोच ढूँढ़ा। यह एक टू-टायर डिब्बा था। मैंने उसका सारा सामान उसकी सीट के नीचे और उसकी सीट पर रखा। वह रूमाल से अपने माथे का पसीना पोंछ रही थी। ट्रेन छूटने में कुछ मिनट ही बाकी थी।
मैं डिब्बे से नीचे उतरा और रंजना के लिए पानी की बोतल लेने दौड़ा। पानी की बोतल लेकर लौटा तो देखा- प्लेटफॉर्म पर खड़ा एक युवक खिड़की के पास बैठी रंजना से बातें कर रहा था। दोनों की पीठ मेरी ओर थी। मैं कुछ फासला बनाकर पीछे ही खड़ा हो गया। उन दोनों की बातें मुझे स्पष्ट सुनाई दे रही थीं।
“मुझे पहचाना? मैं राकेश का दोस्त, कमल। राकेश जब आपके घर आपको देखने गया था, मैं उसके साथ था।”
“ओह आप!”
“मैं लखनऊ जा रहा हूँ। पिछले डिब्बे में मेरी सीट है। मैंने आपको डिब्बे में चढ़ते देख लिया था। आप किधर जा रही हैं?”
“कानपुर।”
“कौन रहता है वहाँ?”
“मेरी मौसी का घर है कानपुर में। उनकी बेटी का विवाह है। मेरे घरवाले बाद में में आएंगे, मैं कुछ पहले जा रही हूँ।”
“वह कौन है जो आपके साथ आया है?”
“वो... वो तो बड़े भाई साहब का कोई परिचित है। यहीं दिल्ली में नौकरी करता है। भाई साहब ने फोन कर दिया था। बेचारा सुबह से मेरे संग कुलियों की तरह घूम रहा है।”
मेरे अंदर जैसे कुछ कांच की तरह टूटा था। मैं तो अपनी दोस्ती को रिश्ते में बदलने के सपने देख रहा था और रंजना ने मुझे दोस्त के योग्य भी नहीं समझा।
सिगनल हो गया था। वह युवक अपने डिब्बे में चला गया था। मैंने आगे बढ़कर खिड़की से ही पानी की बोतल रंजना को थमाई और पूछा, “कौन था?”
“मेरे मंगेतर का दोस्त।” रंजना ने मुस्कराते हुए बताया ही था कि ट्रेन आगे सरकने लगी। आगे बढ़ती गाड़ी के साथ-साथ मैं कुछ दूर तक दौड़ना चाहता था, पर न जाने मेरे पैरों को क्या हो गया था। वे जैसे प्लेटफॉर्म से ही चिपक गए थे। मैं जहाँ खड़ा था, वहीं खड़ा रह गया।
धीमे-धीमे गाड़ी रफ्तार पकड़ती गई। मेरे और रंजना के बीच का फासला लगातार बढ़ता जा रहा था। देखते देखते रंजना एक बिंदु में तबदील हो कर एकाएक गायब हो गई।
मैं भारी कदमों से स्टेशन से बाहर निकला। मुझे बेहद गरमी महसूस हुई। इस मौसम को न जाने अचानक क्या हो गया था। सवेरे तो अच्छा-भला और खुशनुमा था, पर अब आग बरसा रहा था। क्या वाकई मौसम गरम था या मेरे अंदर जो आग मच रही थी, यह उसका सेक था?