रंजना त्रिखा के कुछ सच्चे मोती / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु'
रंजना त्रिखा के कुछ सच्चे मोती
वर्णन और विवरण किसी घटना या दृश्य का हो सकता है। यह भाषा का प्रथम सोपान है। इतिहास-भूगोल, विज्ञान अदि बहुत सारे विषय इसी शैली के माध्यम से हमारे सामने आते हैं। कथादि विधाओं में इसके बहुत सारे अवसर होते हैं। रोचकता के लिए इसकी आवश्यकता सदा रही है है। काव्य में भी इसका अपना महत्त्व है, कथ्य को परस्पर जोड़ने और अभिव्यक्त करने में; लेकिन यह अवसर बहुत कम है। जहाँ तक हाइकु की बात है, वह स्वयं में इतना संश्लिष्ट है कि वर्णन और विवरण का उसमें अधिक काम ही नहीं है। गिने-चुने शब्दों में बात कहना है या यों कहिए रचना है। जब रचना की बात आती है, तो उन कारकों से बचना भी अनिवार्य है, जो अभिव्यक्ति को भोथरा बनाते हैं। भाषा और विषय दोनों ही प्रमुख हैं। वर्णन, विवरण, सपाटबयानी वाले उपदेश आदि रचना को कमज़ोर करते हैं। हाइकु किसी भी विषय पर रचे जा सकते हैं; लेकिन यह सब रचनाकार की सामर्थ्य पर निर्भर है। सजग सृजक साधारण विषय को भी अपनी अनुभूति की आँच से तपाकर ऊष्मा प्रदान कर सकता है, दूसरी ओर लापरवाह और अनुभवहीन रचनाकार अच्छे से अच्छे विषय को भी कमज़ोर भाषा, उथले अनुभवों में घसीटकर बेदम कर सकता है। यहाँ यह बताना ज़रूरी समझता हूँ कि जन्मजात प्रतिभा को निखार कर व्यक्ति अच्छा रचनाकार बन सकता है। यदि वह अध्ययन और जीवन अनुभवों से कुछ नहीं सीखना चाहता तो, जन्मजात प्रतिभा भी बहुत दूर तक साथ नहीं देती। कारण स्पष्ट है-इस परिवर्तनशील संसार में नित्य नवीन परिस्थितियाँ सामने आती हैं, जो हमें हर स्तर पर कुछ न कुछ सिखाती हैं। 'ओस के मोती'-रंजना त्रिखा का ऐसा ही सर्जन है, जो उनके जीवन की विविध अनुभूतियों को समाहित किए हुए है।
किसी भी प्रकार का साहित्य हो वह देशकाल से परे नहीं होता। रचनाकार जिस परिवेश में साँस लेता है, उसकी धड़कन उसके सर्जन में ज़रूर दिखाई देगी। खानपान, इतिहास, भूगोल, सभ्यता और संस्कृति, धर्म एवं लोकाचार सभी का अनुरंजित रूप किसी न किसी रूप में साहित्य का अंग बनता है, जो हमारे साहित्य को दूसरों के साहित्य से अलग करता है। जापानी विधा होने पर भी इसका अन्त: करण शुद्धरूप से भारतीय है। विश्व का कोई भी ज्ञान-विज्ञान-साहित्य हेय नहीं है। साहित्य-जगत् में 'हाइकु' को आयातित या विदेश से आई विधा मानकर हेय समझने वालों को क्या कहा जाए! क्या ऐसे संकीर्ण मानसिकता के लोग बिजली और टेलीफोन से लेकर अन्य आधुनिक उपकरणों का परित्याग कर देंगे, जिनका आविष्कार विदेश में हुआ, कदापि नहीं! रचना का मूल्यांकन उसकी गुणवत्ता पर ही होना चाहिए.
रंजना त्रिखा के हाइकु भी उसके परिवेश और अनुभव की उपज हैं, जिसमें उनकी आस्था से लेकर रीतिरिवाज़ों तक, पर्व-त्योहारों से लेकर रिश्ते-नातों की गहन संवेदना तक, बाह्य प्रकृति से लेकर अन्त: प्रकृति के मन्थन तक का पूरा संसार व्याप्त है। कृष्ण और राधा भारत की आस्था के प्रतीक हैं, तो मुरली उस प्रेममयी चेतना को जगाने वाली अनुगूँज है, जो भौतिकता से ऊपर उठकर उदात्त चेतना को सिंचित करती है, जिससे जड़ और चेतन सभी प्रभावित होते हैं। उसी तरह शिव भी हमारी आस्था के केन्द्र हैं, जो जीवन की कल्याणमयी प्रवृत्तियों के पोषक होने के साथ-साथ विरोधी और विकृत प्रवृत्तियों के संहारक भी है। -
अमर हुई / कान्हा ने अपनाया / बाँस की बंशी
मुरली बजी / ब्रज मंडल नाचे / धेनु बेसुध
शिव तांडव / विकल चराचर / क्रोध प्रचंड
रंजना त्रिखा जी ने आस्था के इन दोनों स्रोत का निर्वाह कुशलतापूर्वक से किया है
सभी पर्व जीवन में नया उल्लास लेकर आते हैं। कुछ पर्व अपनी आत्मीयता क कारण नितान्त निजी बन जाते हैं। उनकी गहन रागात्मकता हृदय को अनुरंजित करने वाली होती है। राखी ऐसा ही पर्व है। इस पर्व के अवसर पर बहन की व्याकुलता को स्वर देने वाली ये पंक्तियाँ इसी भूमि की उपज हैं-
भैया विदेश / कहाँ पाए माँ जाई / सूनी कलाई
भाई का गहन प्रेम सात समन्दर पार भी कम नहीं होता। जब बहन ससुराल के लिए बिदा होती है, तब भाई की व्याकुलता और भी बढ़ जाती है, व्याकुलता का यह परिवेश भारत का ही है, विदेश का नहीं। दीपावली है, तो 'दीप' का अपना महत्त्व है।
रक्त पुकारे / सात समन्दर पार / आए भइया।
भाई बिदा दे / / लगा डोली को काँधा / बहाए धारे
मिट्टी का दीप / स्नेहासिक्त हो बाती / रौशन जग
दूसरा सम्बन्ध बेटी का है, बहुत ही नाज़ुक, रोम-रोम से जुड़ा, जिसका पालन पिता ने बहुत नाज़ों के साथ किया है। विदा की बेला में नैन कटोरों का छलकना, घर आँगन के साथ शहनाई का भी रोना बहुत मार्मिक है, जो छोटे से हाइकु को काव्य की महत्तम ऊँचाई प्रदान करते हैं। इन पंक्तियों में भाव और भाषा का सामंजस्य, उपयुक्त चित्रात्मक शब्द चयन द्वारा इन हाइकु को गरिमा प्रदान करते हैं।
बेटी गौरैया / नाजों पाले बाबुल / पी संग चली
नैन कटोरे / छलके ससुराल / मेहँदी लगी
बेटी विदाई / घर आँगन रोया / औ शहनाई
जो स्वयं नारी है, उससे अधिक नारी की पीड़ा को कौन जानेगा! नैन-पपोटों का सूजना, आँसुओं का छुपाना न जाने कितनी व्यथा-कथाओं का अपने पार्श्व में रुदन समेटे हुए है। काव्य में सभी कुछ हस्तामलक हो, यह सम्भव नहीं। इस हाइकु का अर्थ इन तीन लघु पंक्तियों तक सीमित नहीं है, बल्कि इससे भी परे है। 'छुपाना' और 'सूजना' क्रियाएँ अपने आप में जीवन के महाकाव्य की करुण अभिव्यक्ति बन जाती हैं। 'पपोटे' का प्रयोग एक अलग ही सौन्दर्य लिये हुए है-
नारी जीवन- / नैन पपोटे सूजे / अश्रु छुपाए.
अकेलापन सभी के लिए अभिशाप है। जहाँ अपने न मिलें, जहाँ अपनत्व न मिले; आदमी उस भीड़ में रहकर भी अकेला हो सकता है। संवाद और अपनापन आत्मा का आहार है। जहाँ प्यार-भरे दो बोल सुनने को मिल जाएँ, तो समझो, सब कुछ मिल गया। अपनत्व के अभाव में साथ रहते हुए भी व्यक्ति नितान्त अकेला हो सकता है। प्रकृति को देखिए-चाँद भी अकेला, रात की रानी भी अकेली। यह अकेलापन कैसे दूर हो? जीवन में यदि दो नितान्त अकेले आपस में मिल जाएँ, तो दोनों एक दूसरे का दुःख बाँटकर एक दूसरे के लिए सहारा बन सकते हैं-
अकेला मन / भटके राहों पर / चाहे सुकून।
चाँद अकेला / थक गया चलते / भोर को सोया।
रात की रानी / रात भर झरती / भोर अकेली।
एक अकेला / उदास दूजा मिला / हो गए ख़ास।
अकेलेपन और खामोशी एक दूसरे के अन्तरंग साथी हैं। बस एक मन ही ऐसा है, जो इस खाओशी का व्याकुल साथी होता है-
कहे ख़ामोशी / सुने बावरा मन / बीती आहटें।
ख़ामोश रातें / तनहा मन पर / देतीं दस्तक।
इस मन की स्थिति भी क्या कहें। मन की माया, भला कब कोई जान पाया! इससे कुछ छुपाते नहीं बनता। छुपाए भी तो कैसे, भीगी आँखें इसका भेद सबको दे देती हैं। मन अगर उत्साह से भरा हो तो अपने परिवेश को भी उज्ज्वल कर देगा। मन अगर निर्मल हुआ, तो उसके लिए कुछ भी छुपाना असम्भव है। कहीं अनियन्त्रित मन का अश्व है, जो किसे रोके कब रोके रुका है–
शीशे-सा मन / छुपा न पाए भाव / चुगलखोर
किरचें चुभीं / मन चकनाचूर / अँखियाँ भीगीं
मन उद्गार / लहरें बन झूमें / चूमें आकाश।
मन उमगा / फेनिल तरंगों ने / तट निखारा।
मन का घोड़ा / बेलगाम हो दौड़ा / रोके न रुका
प्रकृति के सौन्दर्य के चित्रण में भी रंजना त्रिखा जी का मन पूरी तरह रमा है। मेघों को देखकर कोरे आँचल वाली धरती का हर्ष लुभाता है। कोरे आँचल का प्रयोग बहुआयामी अर्थ की व्यंजना करता है। कभी पृथ्वी की प्यासी रूह बादलों लो पुकार उठती है। -
प्यासी धरती / मेघ देख हर्षाई / कोरा आँचल
छाई उदासी / पृथ्वी की रूह प्यासी / पुकारे मेघा
कहीं नृत्य करती हवा है, जिसके साथ पत्ते भी ताल देते हैं। हवा का मानवीकरण मनमोहक है-
हवा नाचती / बाँध पैर घुँघरू / पात दें ताल
कहीं फुनगी पर बैठकर झूला झूलती नन्ही चिड़िया की मस्ती है, तो कहीं वर्षा को बुलाने के लिए चिड़िया अनुरोध भी कर रही है, वह भी रेत में नहाकर। आदमी की सुने न सुने, बादल इसकी तो सुनेंगे ही, ऐसी आशा है-
फुनगी झूले / नन्ही चिड़िया मस्त / फुलाए पंख
रेत नहाती / नन्हीं गौरैया आ जा / बरखा रानी
कहीं गर्मी में दहकता पलाश है, तो कहीं गुलमोहर है। ये तपस्वी मिलकर धरती को रंगीन बनाए हुए हैं। सिन्दूरी साँझ को जो रूप मिला है, उसमें कुछ योगदान सूरज का भी है, उसके अनुराग का भी है। उसके गुलाल मलने से ही वह लाज से लाल हो गई है-
रंगीन धरा / दहकता पलाश / गुलमोहर
सिन्दूरी साँझ / रवि मले गुलाल / लज्जा से लाल
यह रुपहली साँझ कहीं झील के दर्पण में अपना रूप निहारती दिखाई पड़ती है-
झील-दर्पण / सिन्दूरी साँझ झाँके / झिलमिलाए
मन का उद्वेग कभी आँसुओं के रूप में छलक पड़ता है, कभी शोक का आवेग बनकर मन के द्वार पर पछाड़ें खाता है, कभी आँसू पीकर मोती का स्वरूप धारण कर लेता है, कभी नदी का नीर बन जाता है, कभी अन्नदाता किसान के लिए नीर-भरी बदली बना जाता है-
अश्रु कहानी / कपोलों पर लिखी / लकीरों छपी.
शोक आवेग / लहरों-सा पछाड़े / मन के द्वारे।
आँसू पीकर / सीप मोती उगले / धन्य जीवन।
ताके किसान / नीर भरी बदरी / प्यासी फ़सल।
वही नीर कहीं पवित्र ओस के रूप में ताज़गी का संदेशं देता है । कहीं वह मन की तरंगें बनता है, तो कहीं क्रुद्ध सागर के रूप में जीवों को व्याकुलता से भर देता है । भयावह बाढ़ और उफनता सागर इसके साक्षात् उदाहरण हैं। प्रत्येक रूप में रंजना की माधुरी से ओतप्रोत कल्पना, उस कल्पना का भावानुरूप तादात्म्य देखते ही बनता है । यही वह उद्भावना है, जो सहृदय रचनाकार को अच्छे पाठकों से केवल जोड़ती ही नहीं; बल्कि उनकी रुचि का संस्कार और परिष्कार भी करती है-
पवित्र ओस / ताज़गी का सन्देश / भोर प्रवेश।
मन नदिया / लहरों—सी मचले / उठीं तरंगें।
क्रुद्ध सागर / उत्ताल तरंगित / व्याकुल जीव।
रंजना त्रिखा की दृष्टि प्रकृति के आलंबन रूप से लेकर उद्दीपन और प्रतीक रूप तक पहुँची है । यही वह दृष्टि है, जो सामान्य को अपनी लेखनी से विशिष्ट बना सकती है ।इस सन्दर्भ में कतिपय हाइकू देखे जा सकते हैं, जिनमें विरही साँझ, तालाब की हँसी और शांत पर्वत का चित्र दर्शनीय है-
विरही साँझ / खनकती चूड़ियाँ / बैरन भईं
कंकड़ गिरा / जल पर चूड़ियाँ / तालाब हँसा
ऋषि—से गिरि / धुँध निर्लिप्त शान्त / तपस्या लीन
यही नहीं कवयित्री की द्रृष्टि सामाजिक विद्रूपता और अभाव पर भी गई है, भूख जीवन का शाश्वत सत्य है, भूख की आग का पेट में भक्क से जलने की व्यंजना बहुत सार्थक है । 'टिक्कड़' शब्द का प्रयोग उस वर्ग की उपस्थिति अनायास करा देता है, जिसके लिए दो वक़्त की रोटी जुटाना ही सबसे बड़ा युद्ध जीतना है । हर प्राणी का सांसारिक उपादानों में और वस्तुओं में भूख का प्रक्षेपण किस रूप में होता है, उसे भी रंजना त्रिखा ने सहजता से चित्रित किया है । भूखे बालक के लिए आकाश में खिला चाँद भी थाली में रखी रोटी जैसा ही है-
सोंधे टिक्कड़ / चूल्हे की आग भक्क / पेट में जली
आकाश थाली / चन्दा रोटी निहारे / भूखा बालक
रोटी सवाल / हल नहीं हो पाता / जग बेहाल
पेट की आग / पशु या इनसान / जले समान
आज भूख विश्व भर की वह समस्या है, जो निरन्तर विकराल रूप धारण किए हुए है । इसके ही सामान दूसरी समस्या प्रदूषण की है । कवयित्री की दृष्टि उस पर भी गई है–
चिमनी-धुआँ / उगलतीं सर्वत्र / दिवस काले।
सूरज ढका / ज़हरीले बादल / खाँसते लोग।
रंजना त्रिखा जी के हाइकु बहुआयामी हैं। इन पर बहुत कुछ और भी लिखा जा सकता है, लेकिन विस्तार-भय से अपनी बात का समाहार करना चाहूँगा, वह यह है कि अच्छे हाइकु रचने में रंजना जी सफल हुई हैं, आशा करता हूँ की इनके निकट भविष्य में और भी संग्रह आएँगे!
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' , ब्रम्पटन, कैनेडा 18 अगस्त 2018