रंजना पांडे और शम्सुद्दीन खान का प्रेम-पंथ / रमेश उपाध्याय
बी.ए. में साथ पढ़ने वाले और कॉलेज के छात्र संघ में सक्रिय शमीम खान और रंजना पांडे में प्रेम हो गया, तो न तो उन्होंने अपने प्रेम को छिपाने की कोशिश की और न ही किसी ने उन्हें प्रेम करने से रोकने की; क्योंकि उन दोनों के सगे-संबंधी और मित्र-परिचित धार्मिक कट्टरता से दूर और आधुनिकता के नजदीक रहने वाले शिक्षित मध्यवर्गीय लोग थे। यह तो उनका अपना ही फैसला था कि शादी तब करेंगे, जब दोनों में से कम से कम एक घर-गृहस्थी चलाने लायक कमाने लगेगा। अतः जब शमीम खान ने बी.ए., एलएल.बी. करके वकालत शुरू कर दी और रंजना पांडे एम.ए. करने के बाद लेक्चररशिप पाने के लिए पीएच.डी. कर रही थीं, उन्होंने शादी कर ली और किराए का मकान लेकर अपने परिवारों से अलग रहने लगे।
शादी कोर्ट में हुई थी, लेकिन उन दोनों के परिवार वहाँ उपस्थित थे। इतना ही नहीं, दोनों परिवारों ने आधा-आधा खर्च बाँटकर एक शानदार दावत भी दी थी, जिसमें शहर के प्रायः सभी प्रबुद्ध और प्रगतिशील लोग खुशी-खुशी शामिल हुए थे। जिन दकियानूसों को यह शादी पसंद नहीं थी, वे भी - थोड़ा मन मारकर ही सही - दुनियादारी निभाने के तकाजे से आए थे और आशीर्वाद, बधाई, शुभकामनाएँ आदि देकर गए थे।
कुछ दकियानूस उन दोनों के परिवारों में भी थे। जैसे, इधर रंजना पांडे की माँ, जो समझती थीं कि उनकी बेटी ने यह शादी करके उनकी नाक कटवा दी है और उधर शमीम खान के पिता, जिनका खयाल था कि उनके इकलौते बेटे ने यह शादी करके उन्हें दीन-दुनिया कहीं का नहीं छोड़ा है। इन लोगों को अपने मूलधन से ज्यादा चिंता ब्याज की थी - कि इन दोनों की जो औलाद होगी, वह क्या होगी? हिंदू या मुसलमान?
लेकिन रंजना पांडे और शमीम खान के लिए यह कोई समस्या नहीं थी। वे कहा करते थे - “हम धर्म-वर्म को नहीं मानते। हमारा अगर कोई धर्म है, तो वह है प्रेम। हमारे बच्चों का धर्म भी प्रेम ही होगा।” सो जब उनके यहाँ बेटा हुआ, तो वे उसे अपने जन्म से पहले की एक हिंदी फिल्म का गाना लोरी की तरह सुनाया करते थे - “तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा...”
उन्होंने वह फिल्म नहीं देखी थी, इसलिए उन्हें मालूम नहीं था कि उसमें जिस बच्चे के लिए यह गाना गाया गया था, उसका नाम क्या रखा गया था। उन्होंने इस गाने के मुताबिक पहले तो अपने बेटे का नाम 'इंसान' ही रखने की सोची, लेकिन फिर यह सोचकर कि इसमें निहित फिल्मी आदर्शवाद कुछ ज्यादा ही प्रत्यक्ष होने के कारण खटकता-सा है, उन्होंने यह विचार त्याग दिया था। 'इंसान' के पर्यायवाची 'मानव' में भी यही बात थी। ऊपर से 'मानव' शुद्ध हिंदू नाम लगता था, जबकि वे अपने बेटे का कोई सेकुलर-सा नाम रखना चाहते थे।
हालाँकि वे हिंदी को हिंदुओं की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा नहीं मानते थे, फिर भी उनका इरादा बेटे का ऐसा नाम रखने का था, जो हिंदी-उर्दू दोनों में चलता हो और हिंदुओं-मुसलमानों दोनों को स्वीकार्य हो। इस प्रकार उन्होंने बड़ी सूझबूझ के साथ बेटे का नाम 'समीर' रखा। इससे रंजना पांडे की माँ तो संतुष्ट हुईं कि चलो, लड़की ने अपने बेटे का नाम तो हिंदुओं वाला रखा, लेकिन शमीम खान के पिता को, जो अरबी-फारसी तो क्या, उर्दू भी अच्छी तरह नहीं जानते थे, पोते का हिंदुओं वाला नाम पसंद नहीं आया। तब शमीम खान ने, जिन्होंने अपने पूरे शिक्षा-काल में उर्दू कभी पढ़ी ही नहीं थी, उन्हें मुहम्मद मुस्तफा खाँ 'मद्दाह' वाला उर्दू-हिंदी शब्दकोश दिखाकर बताया कि 'समीर' अरबी भाषा से आया हुआ उर्दू शब्द है और इसका अर्थ है - फलदार। फलवाला। वह पेड़, जिसमें फल लगे हों।
समीर जब स्कूल जाने लायक हुआ, तो रंजना पांडे और शमीम खान उसे पाँचवीं तक के एक प्राइमरी स्कूल में दाखिल कराने गए। हालाँकि स्कूल एक हिंदूवादी संस्था चलाती थी और वहाँ के टीचर-प्रिंसिपल सब हिंदू थे, फिर भी समीर के दाखिले में कोई दिक्कत नहीं हुई। स्कूल के प्रिंसिपल और कई टीचर रंजना पांडे और शमीम खान को जानते थे। इसीलिए जब उनसे दाखिले का फॉर्म भरवाया गया और उन्होंने उसमें 'धर्म' का खाना खाली छोड़ दिया, तो वे लोग सिर्फ मुस्कराकर रह गए और उन्होंने समीर को स्कूल में दाखिल कर लिया। 'समीर' नाम भी ऐसा था, जो उन्हें पसंद आया था, क्योंकि यह नाम हिंदू बच्चों के नामों के बीच अलग से नहीं पहचाना जाता था।
लेकिन धीरे-धीरे स्कूल में सब बच्चे “हिंदू नाम वाले मुसलमान लड़के” को जान गए और समीर को छेड़कर सताने लगे। फिर जब रंजना पांडे और शमीम खान की जान-पहचान के प्रिंसिपल की जगह नया प्रिंसिपल आ गया, जो पहले वाले उदार प्रिंसिपल की तुलना में कुछ कट्टर था, तो समीर के साथ होने वाला भेदभाव कुछ और बढ़ गया। रंजना पांडे और शमीम खान को मालूम था कि स्कूल में उनके बेटे के साथ भेदभाव किया जाता है, लेकिन पाँचवीं तक का कोई दूसरा बेहतर स्कूल शहर में था नहीं और सरकारी स्कूलों की हालत सबसे बदतर थी। इसलिए दोनों ने सोचा कि जैसे भी हो, समीर पाँचवीं तक यहीं पढ़ ले, फिर इसे किसी अच्छे स्कूल में डाल देंगे। इधर रंजना पांडे कॉलेज में लेक्चरर हो गई थीं, शमीम खान की वकालत अच्छी चल रही थी और समीर के बाद उन्हें कोई और बच्चा भी नहीं हुआ था, इसलिए खर्च की उन्हें परवाह नहीं थी।
वे समीर को छठी में दाखिल कराने के लिए जिस स्कूल में गए, वह एक बड़ा और भव्य पब्लिक स्कूल था, जिसे ईसाइयों की एक धार्मिक संस्था चलाती थी, लेकिन जिसके बारे में यह प्रसिद्ध था कि उसका वातावरण धार्मिक सांप्रदायिकता से एकदम मुक्त है। वहाँ के प्रिंसिपल फादर गोंजाल्वेज रंजना पांडे और शमीम खान से मिलकर प्रसन्न हुए। उन्होंने पूरा आश्वासन देते हुए कहा, “आप लोग बिलकुल सही जगह आ गए हैं। यहाँ का वातावरण धर्म और संप्रदाय के आधार पर बच्चों के प्रति बरते जाने वाले भेदभाव से एकदम मुक्त है। जाइए, बगल वाले कमरे में जाकर दाखिले का फॉर्म भर दीजिए और फीस जमा करा दीजिए।”
लेकिन वे दूसरे कमरे में समीर का दाखिला कराने पहुँचे, तो यह देखकर हैरान रह गए कि वहाँ ननों के-से सफेद कपड़े पहने और गले में क्रॉस लटकाये बैठी ईसाई महिला के साथ कुरता-धोती और बंडी पहने एक तिलकधारी पंडित बैठा है, जिसने अपने सिर के पीछे गाँठ लगी चोटी हिंदुत्व की पताका-सी फहरा रखी है।
वे अपनी बारी की प्रतीक्षा में वहाँ पड़ी खाली कुर्सियों पर बैठ गए। रंजना पांडे ने शमीम खान के कान में कहा, “वाह! क्या सेकुलर दृश्य है!” और शमीम खान मुस्कराते हुए फुसफुसाए, “साथ में एक मुल्ला और एक ग्रंथी भी बिठा देते, तो सर्वधर्म समभाव का सीन पूरा हो जाता!”
उनकी बारी आई, तो ईसाई महिला ने एक फॉर्म शमीम खान की ओर बढ़ाते हुए कहा, “इसे भर दीजिए और पंडितजी से चेक कराकर उधर काउंटर पर फीस जमा करा दीजिए।”
शमीम खान ने फॉर्म भरकर तिलकधारी पंडित के सामने सरका दिया। पंडित ने उस पर नजर डालते ही उसे लौटाते हुए कहा, “धर्म का खाना खाली क्यों छोड़ दिया? नाम के आगे अपना धर्म भी लिखो!”
शमीम खान ने फॉर्म लेने के लिए हाथ नहीं बढ़ाया और कहा, “पहली बात यह कि आप तमीज से बात कीजिए। 'लिखो' नहीं, 'लिखिए' कहिए। और दूसरी बात यह कि मैंने धर्म का खाना गलती से नहीं, जान-बूझकर खाली छोड़ा है।”
पंडित ने शमीम खान को ही नहीं, समीर और रंजना पांडे को भी घूरकर देखा और अपनी गलती न मानने वालों की-सी धृष्टता के साथ 'सॉरी' कहते हुए फॉर्म शमीम खान के सामने पटक दिया। उसने खाली खाने पर अपनी मोटी और भद्दी तर्जनी से दो बार ठक-ठक की और 'भर दीजिए' का उच्चारण 'भर दो' से भी ज्यादा हिकारत भरे अंदाज में करते हुए कहा, “नाम शमीम खान है, तो धर्म का खाना खाली क्यों छोड़ा है? आप जो भी हैं, इसमें भर दीजिए!”
शमीम खान ने स्वयं को नियंत्रित रखते हुए शांत स्वर में कहा, “देखिए, मैं मुसलमान हूँ और मेरी पत्नी हिंदू हैं। हमने प्रेम-विवाह किया है। हम धर्म-वर्म को नहीं मानते।”
“ओ, अच्छा!” पंडित ने रंजना पांडे को घूरकर देखा और फिर समीर को। अपने चेहरे पर आए घृणा के भाव को उसने छिपाया नहीं और कठोर स्वर में कहा, “आप क्या मानते हैं, इससे हमें कोई मतलब नहीं। स्कूल को यह मालूम रहना चाहिए कि बच्चा किस धर्म का है। यह हिंदू या मुसलमान जो भी है, आपके नाम के आगे लिखे धर्म से ही पता चलेगा न! इसलिए इस खाने को भरिए और मेरा समय नष्ट न करिए।”
शमीम खान ने चुपचाप धर्म के खाने में 'प्रेम' लिखा और फॉर्म पंडित के आगे बढ़ा दिया।
“यह...” पंडित बौखला गया, “यह क्या है? प्रेम आप अपने घर में या बेडरूम में कीजिए। यहाँ यह नहीं चलेगा। इसे काटकर हिंदू या मुसलमान, जो भी आप इस लड़के को बनाना चाहते हों, लिखिए।”
रंजना पांडे, जो अब तक चुपचाप बैठी थीं, बोल उठीं, “इन्होंने बिलकुल ठीक लिखा है। प्रेम ही हमारा और हमारे बच्चे का धर्म है।”
“प्रेम कोई धर्म नहीं है।” पंडित ने सख्त और ऊँची आवाज में कहा, जैसे एक स्त्री ने - और वह भी एक मुसलमान से शादी करने वाली हिंदू स्त्री ने - उसके सामने जबान खोलकर उसका भारी अपमान कर दिया हो।
लेकिन शमीम खान ने शांतिपूर्वक कहा, “देखिए, प्रेम-विवाह के पहले हम हिंदू-मुसलमान थे, लेकिन उसके बाद न ये हिंदू रहीं, न मैं मुसलमान। अब हम सिर्फ प्रेमी हैं। प्रेम ही हमारा धर्म है और हमारे बच्चे का धर्म भी प्रेम ही होगा।”
“मैं यह बकवास सुनना नहीं चाहता।” पंडित ने दाखिले का फॉर्म शमीम खान की तरफ फेंकते हुए - मानो उनके मुँह पर मारते हुए - कहा, “लड़के का दाखिला कराना है, तो धर्म के खाने में अपना या अपनी पत्नी का धर्म लिखो, नहीं तो दफा हो जाओ।”
शमीम खान और रंजना पांडे अनपढ़ और गरीब होते, तो इस तरह दुत्कारे जाने पर या तो घबराकर धर्म के खाने में 'हिंदू' या 'मुसलमान' लिख देते, या समीर का दाखिला कराए बिना ही वहाँ से चले आते। मगर शमीम खान वकालत करते थे और रंजना पांडे कॉलेज में पढ़ाती थीं। शादी से पहले भी दोनों संपन्न परिवारों के थे और उच्च शिक्षा प्राप्त थे। अतः दोनों अड़ गए। उन्होंने पंडित की बदतमीजी के लिए उसे फटकारते हुए कहा, “जब हम कह रहे हैं कि हमारा धर्म प्रेम है, तो है। तुम नहीं मानते, तो साबित करो कि प्रेम कोई धर्म नहीं है और यह बात लिखकर दो। हम तुम पर अपने धर्म की मानहानि का मुकदमा चलाएँगे।”
पंडित क्रोध से काँपने लगा और उठकर खड़ा हो गया, “आप लोग लड़के का दाखिला कराने आए हैं या स्कूल के साथ मजाक करने? चलिए, प्रिंसिपल के पास चलिए आप लोग!”
वे तीनों उसके पीछे-पीछे प्रिंसिपल के कमरे में गए। फादर गोंजाल्वेज ने पंडित की आवेशपूर्ण बातें शांतिपूर्वक सुनीं और सारा मामला समझकर मुस्कराते हुए कहा, “इसमें गलत क्या है, पंडितजी? जो जिसे अपना धर्म मानता है, वही उसका धर्म है। अगर इन लोगों का धर्म प्रेम है, तो इन्होंने जो लिखा है, ठीक है। दुनिया में हजारों धर्म चल रहे हैं, एक इनका भी चलने दीजिए। जाइए, बच्चे को दाखिल कर लीजिए।”
पंडित ने समीर को दाखिल तो कर लिया, लेकिन वह पहले ही दिन से उसका दुश्मन बन गया। स्कूल में पहले ही दिन समीर को पता चल गया कि पंडित यहाँ का हिंदी टीचर है। हिंदी फिल्मों में हिंदी टीचर बड़े मूर्ख और हास्यास्पद दिखाए जाते हैं, लेकिन पंडित बड़ा धूर्त और खलनायक जैसा था। हालाँकि अभी पढ़ाई शुरू नहीं हुई थी और समीर की कक्षा में तो उसका कोई काम ही नहीं था, फिर भी वह आ धमका और स्कूल में दाखिल हुए नए बच्चों से हँसती-खेलती टीचर के कान में समीर को देखते-दिखाते न जाने क्या कह गया कि उसके जाने के बाद टीचर समीर को घूर-घूरकर देखती रही।
कुछ दिन बाद समीर ने देखा कि स्कूल के कई शिक्षक और छात्र उसे घूरकर देखते हैं और कुछ बच्चे पीठ पीछे मगर उसे सुनाते हुए 'प्रेम' कहते हैं और जोर से हँसते हैं।
समीर ने यह बात अपने माता-पिता को बताई, तो वे एक दिन उसके स्कूल जाकर तिलकधारी पंडित से मिले। उन्होंने उसे समझाने की कोशिश की, “देखिए, हम दोनों सुशिक्षित परिवारों के उदार, धर्मनिरपेक्ष और जनतांत्रिक वातावरण में पले हैं। हमने उच्च शिक्षा प्राप्त की है। शिक्षा-काल में हम एक प्रगतिशील छात्र संगठन और जनहित के सामाजिक कार्यों में सक्रिय रहे हैं। हमने बाकायदा प्रेम-विवाह किया है, जो सामाजिक या कानूनी दृष्टि से कोई गलत काम नहीं है। हमारे संविधान में देश के सभी नागरिकों को यह अधिकार प्राप्त है कि वे जिस धर्म को मानना चाहें, मानें। हमारा जन्म भले हिंदू और मुसलमान के रूप में हुआ हो, पर अब हम प्रेम को अपना धर्म मानते हैं और ऐसा मानने का हमें पूरा अधिकार है।”
“लेकिन प्रेम कोई धर्म नहीं है।” पंडित ने खीझते हुए कहा।
“प्रेम तो शाश्वत और सनातन धर्म है।” रंजना पांडे ने कहा और कई महापुरुषों को उद्धृत करते हुए हिंदू पौराणिक गाथाओं से अनेक उदाहरण दे डाले।
शमीम खान ने भी साहित्य, इतिहास, सिनेमा और लोकगाथाओं वाले अनेक प्रेमियों के उदाहरण देते हुए प्रेम के लौकिक और अलौकिक स्वरूपों का वर्णन किया।
पंडित उन दोनों के सामने निहायत मूर्ख और अज्ञानी सिद्ध हो रहा था, इसलिए क्रुद्ध हो उठा और दहाड़ती-सी आवाज में बोला, “धर्म के बारे में तुम लोग हम ब्राह्मणों से ज्यादा जानते हो?”
“निश्चित ही नहीं।” शमीम खान ने शांत स्वर में कहा, “हम न तो धर्म का धंधा करते हैं, न धर्म की राजनीति।”
“करने की सोचना भी मत!” पंडित ने धमकाते हुए कहा, “सोचना, तो अपने लड़के के भविष्य के बारे में सोचना। यह प्रेमी बनकर नहीं, हिंदू या मुसलमान बनकर ही समाज में रह सकता है।”
पंडित से निराश होकर रंजना पांडे और शमीम खान समीर को साथ लेकर प्रिंसिपल फादर गोंजाल्वेज के पास गए। उन्हें शायद उम्मीद थी कि दाखिले वाले दिन की तरह आज भी प्रिंसिपल उन्हें सही और पंडित को गलत मानते हुए उसे बुलाकर समझाएँगे, लेकिन प्रिंसिपल ने पंडित का पक्ष लेते हुए कहा, “देखिए, दो धर्मों का घालमेल ठीक नहीं। या तो आप दोनों हिंदू बन जाइए, या दोनों मुसलमान। अगर हिंदू-मुसलमान नहीं रहना चाहते, तो ईसाई बन जाइए।”
शमीम खान ने कहा, “क्यों? जब देश में हिंदू-मुसलमान साथ रह सकते हैं, तो घर में क्यों नहीं?”
“देश में साथ रहने पर भी उनकी संतानें अलग-अलग होती हैं। वे हिंदू और मुसलमान के रूप में अलग-अलग पहचानी जाती हैं। घर में साथ रहने पर दोनों की जो संतान होती है, उसके बारे में यह साफ होना जरूरी है कि वह हिंदू है या मुसलमान। आप लोग इस पहचान को गायब कर देना चाहते हैं। यह ठीक नहीं है।”
“क्यों ठीक नहीं है?” शमीम खान ने शालीनता के साथ किंतु किंचित् कठोर स्वर में कहा।
फादर गोंजाल्वेज ने निहायत ठंडे स्वर में कहा, “आप क्या कोई पीर-पैगंबर हैं या संत-महात्मा, जो प्रेम नाम का अपना अलग ही एक धर्म चलाना चाहते हैं? यह तमाम धर्मों के साथ धोखा है।”
“हम किसी को धोखा नहीं दे रहे हैं।” रंजना पांडे ने कहा।
“तो ठीक है, आपको जो करना हो, कीजिए, पर मेहरबानी करके यहाँ से आप चले जाइए।”
शमीम खान के एक मित्र अब्दुल कादिर, जिन्हें वे कामरेड कादिर कहा करते थे, अक्सर उनसे मिलने आया करते थे। उसी दिन शाम को वे उनके घर आए। शमीम खान और रंजना पांडे ने जब उन्हें बताया कि स्कूल में समीर के दाखिले के समय धर्म के खाने में 'प्रेम' लिखने पर कैसा हंगामा हुआ, तो वे हँसकर बोले, “वाह! आप लोगों ने बता दिया कि फकत एक शब्द 'प्रेम' लिखकर भी हम संप्रदायवाद के खिलाफ प्रोटेस्ट कर सकते हैं। लेकिन सांप्रदायिक राजनीति करने वालों से उलझना ठीक नहीं। उनसे अकेले-अकेले और व्यक्तिगत स्तर पर नहीं, संगठित होकर सामूहिक रूप से ही लड़ा जा सकता है।”
“यानी पहले हम तुम्हारी पार्टी के सदस्य बनें, फिर तुम्हारा लाल परचम लहराते हुए उनसे लड़ने जाएँ?” शमीम खान ने हँसते हुए कहा, “कामरेड अब्दुल कादिर, तुम बरसों से हम लोगों को अपना काडर बनाने की कोशिश कर रहे हो। अब यह कोशिश करना बंद कर दो। हम लोगों को राजनीति में कभी नहीं जाना है।”
“प्रेम करोगे और राजनीति से बचे रहोगे?” अब्दुल कादिर ने कहा।
“बचे ही हुए हैं।” शमीम खान बोले, “शादी करते वक्त हमें डर लग रहा था कि हमारी वजह से कहीं सांप्रदायिक दंगा न हो जाए। कुछ हुआ?”
“अब हो रहा है न! समीर के दाखिले के फॉर्म में तुम 'हिंदू' या 'मुसलमान' लिख देते, तो किसी को कोई दिक्कत न होती। उस तिलकधारी पंडित को भी नहीं। जानते हो, क्यों? इसलिए कि प्रेम-विवाह करके दोनों हिंदू या दोनों मुसलमान बन जाएँ, तो किसी संप्रदाय को ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। उनकी व्यवस्था ज्यों की त्यों बनी रहती है, उनकी राजनीति चलती रहती है और उनका धर्म का धंधा भी फलता-फूलता रहता है। मगर ज्यों ही तुमने अपना धर्म 'प्रेम' लिखा, समझो कि दोनों संप्रदायों को चुनौती दे दी। और यह चुनौती राजनीतिक है।”
“तो अब हम क्या करें, भाईसाहब?” रंजना पांडे ने पूछा।
“भाभी, राजनीतिक लड़ाई तो राजनीतिक स्तर पर ही लड़नी पड़ेगी।” अब्दुल कादिर ने कुछ सोचते हुए कहा, “लेकिन उसके लिए तो सेकुलर पार्टियाँ भी अभी तैयार नहीं हैं। हमारी पार्टी भी नहीं। इसलिए मैं संघर्ष में विश्वास रखते हुए भी फिलहाल आपको यही सलाह दूँगा कि आप लोग इस पचड़े में न पड़ें। समीर के स्कूल जाकर धर्म के खाने में 'प्रेम' की जगह 'हिंदू' या 'मुसलमान' लिख दें।”
“यह नहीं हो सकता।” शमीम खान ने कहा।
“तो फिर लड़ो।” अब्दुल कादिर ने कहा और बात वहीं खत्म करने के लिए समीर से बातें करने लगे।
समीर के दाखिले के समय तो रंजना पांडे और शमीम खान ने पंडित पर मुकदमा चलाने की खाली धमकी दी थी, लेकिन अब उन्हें लगा कि पंडित पर ही नहीं, स्कूल पर भी मुकदमा चलाया जाना चाहिए, जहाँ पंडित जैसे सांप्रदायिक लोगों पर लगाम लगाने के बजाय उनका बचाव किया जाता है और प्रेम को अपना धर्म मानने वालों को हिंदू, मुसलमान या ईसाई बनने की सलाह दी जाती है।
लेकिन जब उन्होंने अपने एक वकील मित्र को घर बुलाकर उसकी राय पूछी, तो उसने कहा, “नहीं-नहीं! ऐसा भूल कर भी न कीजिएगा। मुकदमा चलाकर आप लोग उलटे फँस जाएँगे। आप पर एक साथ कई आरोप ठोक दिए जाएँगे, जैसे - धर्म के मामलों में नाहक दखलंदाजी करना, प्रेम नामक एक जाली धर्म चलाने की कोशिश करना, स्थापित धर्मों का अपमान करना, एक अबोध बच्चे को जीवन भर के लिए उसके धर्म से वंचित करना, और एक बच्चे को अधर्मी बनाकर आने वाली असंख्य पीढ़ियों के असंख्य लोगों को अधर्मी बनाना। मतलब यह कि जब अधर्मी समीर बड़ा होकर बच्चे पैदा करेगा, तो उसके बच्चे, फिर उनके बच्चों के बच्चे और फिर आगे की तमाम पीढ़ियों के बच्चों के बच्चे भी अधर्मी होंगे।”
“यह मामला इतनी दूर तक जाता है?” रंजना पांडे और शमीम खान चकित रह गए।
“हाँ, भई!” वकील मित्र ने व्यंग्यपूर्वक कहा, “आखिर धर्म की सत्ता को सदा के लिए बनाए रखने का सवाल है!”
“यह मामला इतनी दूर तक जाता है, तब तो हमें चुप नहीं रहना चाहिए। मुकदमेबाजी में हम न पड़ें, पर इसके बारे में लिख तो सकते हैं। मैं अखबारों में लेख लिखूँगी।” रंजना पांडे ने निश्चयात्मक स्वर में कहा।
“लिखिए, पर उसमें भी सावधान रहिए। प्रेम के बारे में आप जो चाहें और जितना चाहें लिखें। लेख ही क्यों, कहानी लिखें, उपन्यास लिखें, नाटक लिखें, टी.वी. सीरियल लिखें। लोग लिखते ही हैं। मगर प्रेम को प्रेम ही कहें, धर्म कहकर उसे दूसरे धर्मों के खिलाफ खड़ा करने की गलती न करें।”
लेकिन रंजना पांडे और शमीम खान ने वकील मित्र की यह सलाह नहीं मानी। रंजना पांडे ने हिंदी के अखबारों में और शमीम खान ने अंग्रेजी के अखबारों में लिखना शुरू कर दिया कि आज के समय में प्रेम ही सच्चा धर्म है। लेकिन उनके दो-तीन लेख ही छपे थे कि तूफान आ गया। अखबारों में उनके खिलाफ पहले पाठकों के पत्र छपे, फिर छोटी-छोटी टिप्पणियाँ, फिर बड़े-बड़े लेख। उनमें कहा जा रहा था कि प्रेम को धर्म बताना धर्म के साथ खिलवाड़ करना या उसका मजाक उड़ाना है। इससे धार्मिक लोगों की भावनाओं को चोट पहुँचती है। अतः ऐसे लेख नहीं छपने चाहिए और ऐसे लेख लिखने वालों को दंडित किया जाना चाहिए।
देखते-देखते प्रेम के संदर्भ में बहुत-से नैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और कानूनी मुद्दे उठाए जाने लगे। जैसे - प्रेम-विवाह संबंधी नियम-कानूनों पर पुनर्विचार करके उन्हें जनहित में सुसंगत बनाया जाए; प्रेम-विवाह के बाद पति के ही धर्म को पत्नी और बच्चों का धर्म माना जाए; लड़कों का धर्म उनके वयस्क होने तक और लड़कियों का धर्म उनका विवाह होने तक वही माना जाए, जो उनके पिता का धर्म हो; धर्म परिवर्तन की अनुमति केवल अविवाहित लोगों को अथवा केवल उन लोगों को हो, जिनकी सभी संतानें वयस्क हो चुकी हों; इत्यादि।
फिर यह भी हुआ कि शमीम खान और रंजना पांडे के विरुद्ध झूठी-सच्ची तरह-तरह की अफवाहें फैलाई जाने लगीं। उन पर तरह-तरह के आरोप लगाए जाने लगे और जलसों, जुलूसों, भाषणों, सेमिनारों, पत्र-पत्रिकाओं और टी.वी. चैनलों में खुलकर उनकी निंदाएँ की जाने लगीं। उनके खिलाफ तरह-तरह के नारे और पोस्टर लगाए जाने लगे। मसलन, एक नारा था - “धर्म के साथ धोखेबाजी... नहीं चलेगी, नहीं चलेगी! प्रेम के नाम पर जालसाजी... नहीं चलेगी, नहीं चलेगी।” और एक पोस्टर था, जिसमें शमीम खान और रंजना पांडे को एक-दूसरे से लिपटे हुए साँप-साँपिन के रूप में और समीर को उनके सँपोले के रूप में दिखाया गया था। नीचे लिखा था - “भोले-भाले हिंदुस्तान! इन साँपों से सावधान!”
एक दिन समीर ने देखा कि यह पोस्टर उसके स्कूल के अंदर भी एक दीवार पर चिपका हुआ है। उसे बहुत बुरा लगा और उसने प्रिंसिपल के पास जाकर इसकी शिकायत की। प्रिंसिपल और वाइस-प्रिंसिपल ने खुद उसके साथ जाकर उस पोस्टर को देखा। प्रिंसिपल पोस्टर देखकर बहुत नाराज हुए। उन्होंने वाइस-प्रिंसिपल को सख्ती से आदेश दिया, “इसे तुरंत यहाँ से हटवाइए और पता लगाइए कि इसे यहाँ लाकर किसने लगाया। यह जिसका भी काम हो, उसे सख्त सजा मिलनी चाहिए।”
लेकिन प्रिंसिपल के इस आदेश के बावजूद वह पोस्टर कई दिनों तक दीवार पर लगा रहा। आखिर एक दिन समीर ने ही उसे फाड़कर फेंका।
इसके दूसरे ही दिन समीर की कक्षा में हिंदी टीचर तिलकधारी पंडित पाठ्य पुस्तक हाथ में लेकर 'देशभक्ति' नामक पाठ पढ़ाते हुए कहा रहा था, “हमें अपने देश से प्रेम करना चाहिए।” कहते-कहते अचानक उसने समीर की तरफ देखा और व्यंग्यपूर्वक कहा, “क्यों, प्रेमीजी, करना चाहिए कि नहीं? वैसे आपका अपने देश और धर्म से क्या वास्ता! फिर भी, कोर्स में है, इसलिए देशभक्ति का पाठ तो आपको भी पढ़ना ही पड़ेगा। तो बताइए, हमें अपने देश से प्रेम करना चाहिए कि नहीं?”
समीर समझ रहा था कि पंडित उसका अपमान कर रहा है, इसलिए उसने सीधा जवाब न देकर कहा, “मेरे माता-पिता कहते हैं कि देश का मतलब दीवार पर टँगा देश का नक्शा नहीं होता। देश का मतलब होता है देश के लोग। अब अगर आप देश हैं, तो मैं देश से प्रेम करने से पहले जानना चाहूँगा कि देश भी मुझसे प्रेम करता है या नहीं।”
पंडित यह सुनकर चिढ़ गया। बोला, “यहाँ बात लैला-मजनूँ के प्रेम की नहीं, देशप्रेम की हो रही है। देश तुम्हारी प्रेमिका नहीं है कि वह भी तुमसे प्रेम करे। देश भगवान है और तुम उसके भक्त। देश तुम्हारा स्वामी है और तुम उसके सेवक। भगवान अपने भक्त से और स्वामी अपने सेवक से प्रेम करे या न करे, भक्त को भगवान की भक्ति और सेवक को स्वामी की सेवा करनी ही चाहिए। इस प्रकार देशप्रेम का अर्थ है देशभक्ति और देश की सेवा। समझे?”
समीर ने जान-बूझकर सिर हिलाया कि नहीं समझा। पंडित आगबबूला होकर ऊँचे स्वर में बोला, “नहीं समझा? तो ठीक है, मैं समझाता हूँ। चल, कान पकड़कर डेस्क पर खड़ा हो जा और सौ बार बोल - मैं देशप्रेमी हूँ, अर्थात् मैं देशभक्त हूँ, मैं देश का सेवक हूँ।”
स्कूल में छात्रों को मारना-पीटना मना था, पर शिक्षक ऐसी 'अहिंसक' सजाएँ छात्रों को दे सकते थे और छात्रों को ऐसी सजाएँ - स्कूल का अनुशासन बनाए रखने के लिए - भुगतनी ही पड़ती थीं।
पंडित द्वारा दी गई सजा समीर को अत्यंत अपमानजनक लगी। घर आकर उसने अपने माता-पिता को इसके बारे में बताया, तो उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। रंजना पांडे ने प्यार से उसके आँसू पोंछे और शमीम खान से कहा, “देश से प्रेम करना सिखाने का यह कौन-सा तरीका है? इससे तो बच्चों पर उलटा ही असर पड़ेगा।”
“यही नहीं, पंडित की बात भी गलत है।” शमीम खान ने कहा, “समीर का कहना ठीक था। प्रेम एकतरफा कभी नहीं होता। हम जिससे प्रेम करते हैं, वह भी हमसे प्रेम करे, तब तो प्रेम है। अन्यथा वह प्रेम नहीं, कुछ और है। चाहे उसे भक्ति कहो या सेवा।”
रंजना पांडे क्षुब्ध स्वर में बोलीं, “ये लोग धर्म और ईश्वर से प्रेम करने की बातें भी इसी तरह करते हैं, जबकि प्रेम का मूल आधार तो बराबरी है। ऐसे ही लोगों ने ईश्वर-भक्ति को स्वामी-सेवक वाला संबंध बना दिया है। दासता का संबंध...”
“लेकिन सूफियों और प्रेममार्गी संतों के यहाँ ईश्वर से प्रेम का संबंध माना जाता है।” शमीम खान ने रंजना पांडे की बात का समर्थन करते हुए कहा, “उनके यहाँ ईश्वर से बराबरी का संबंध बनाया जाता है।”
“यही संबंध मनुष्य-मनुष्य के बीच बनना चाहिए।”
“गुरु-शिष्य के बीच भी।” शमीम खान ने अत्यंत क्षोभ के साथ कहा, “लेकिन पंडित जैसे लोग तो गुरु कहलाने लायक ही नहीं। मूर्खों को इतना भी अहसास नहीं कि इस तरह वे बच्चों को क्या बना रहे हैं!”