रक्षक ज़ख्म / सुषमा गुप्ता

Gadya Kosh से
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शहर के बड़े सरकारी अस्पताल में कुछ दिन पहले ही तबादला हुआ डॉक्टर तेजस का। रोज़ के मंदिर का नियम था सो शहर आकर भी ज़ारी रहा। मंदिर की सीढ़ियों पर यूँ तो बहुत से भिखारी बैठे रहते थे; पर एक महिला पर उनका ध्यान हमेशा अटक जाता। वह आवाज़ दे-देकर पैसे नहीं माँगती थी। शांत सिर झुकाए बैठी रहती। दूर से भी उसकी देह के ज़ख्म साफ़ दिखते। मक्खियाँ जो भिन्नभिनाती रहती। बाक़ी भिखारी भी उससे थोड़ा दूर ही बैठते थे। शुरू में उन्हें लगा कि शायद उस औरत को कोढ़ है; पर अब अक्सर उसके सामने पैसे रखते उनकी अनुभवी नज़र ये समझ चुकी थी कि कोढ़ के ज़ख्म नहीं है ये।

"नाम क्या है तुम्हारा?"

"..."

"इलाज क्यों नहीं कराती इन जख्मों का?"

"..."

"कोई है नहीं क्या तुम्हारा?"

भिखारन ने न में सिर हिला दिया

"चल मेरे साथ। सरकारी अस्पताल में मुफ्त में इलाज़ करा दूँगा।"

वह टस से मस न हुई।

"अरे बड़ी ढीठ है। चल भी।"

"मुझे नहीं कराना इलाज।"

"क्यों भला! देखा भी है किस क़दर मक्खियाँ बैठी है! कितने घिनौने हो चुके है ज़ख्म। मर जाएगी इनके ज़हर से।"

"न ...ऐसे ही ठीक हैं। ये घिनौने ज़ख्म ही रात को वहशी कुत्तों से मेरी रक्षा करते है। शरीर के जख्मों में इतना दर्द नहीं होता साहब जितना ..."

डॉक्टर साहब की ज़ुबान को तो जैसा लकवा मार गया, भिखारन की अनकही बात समझके। आज पहली बार उन्होंने ध्यान से देखा कि वह भिखारिन जिसकी उम्र कोई तीस साल के आस-पास है, बहुत सुंदर भी थी। वे चुपचाप सिर झुकाए लौट गए।

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