रक्षक / सत्या शर्मा 'कीर्ति'
शिप्रा का रिजर्वेशन जिस बोगी में था उसमें लगभग लड़के ही लड़के भरे थे। टॉयलेट जाने के बहाने शिप्रा पूरी बोगी घूम आई थी, मुश्किल से दो या तीन औरतें होंगी। मन अनजाने भय से काँप-सा गया।
पहली बार अकेली सफर कर रही थी इसलिए पहले से ही घबराई हुई थी, अतः खुद को सहज रखने के लिए चुपचाप अपनी सीट पर मैगजीन निकाल कर पढ़ने लगी।
नवयुवकों का झुंड जो शायद किसी कैम्प जा रहे थे, उनके हँसी-मजाक, चुटकुले उसके हिम्मत को और भी तोड़ रहे थे।
शिप्रा के भय और घबराहट के बीच अनचाही-सी रात धीरे-धीरे उतरने लगी।
सहसा सामने के सीट पर बैठे लड़के ने कहा—
"हेलो, मैं साकेत और आप?"
भय से पीली पड़ चुकी शिप्रा ने कहा—"जी मैं ..."
"कोई बात नहीं नाम मत बताइये। वैसे कहाँ जा रहीं हैं आप?"
शिप्रा ने धीरे से कहा— "इलाहाबाद"
" क्या इलाहाबाद...?
वो तो मेरा नानीघर है। इस रिश्ते से तो आप मेरी बहन लगीं "-खुश होते हुए साकेत ने कहा।
और फिर इलाहाबाद की अनगिनत बातें बताता रहा कि उसके नाना जी काफी नामी व्यक्ति हैं, उसके दोनों मामा सेना के उच्च अधिकारी हैं, और ढेरों नई-पुरानी बातें।
शिप्रा भी धीरे-धीरे सामान्य हो उसके बातों में रुचि लेती रही।
रात जैसे कुँवारी आई थी वैसे ही पवित्र कुँवारी गुजर गई.
सुबह शिप्रा ने कहा-" लीजिये मेरा पता रख लीजिए कभी नानी घर आइये तो ज़रूर मिलने आइयेगा।
"कौन-सा नानीघर बहन? वह तो मैंने आपको डरते देखा तो झूठ-मूठ के रिश्ते गढ़ता रहा। मैं तो कभी इलाहाबाद आया ही नहीं।"
"क्या...?"—चौंक उठी शिप्रा।
"बहन ऐसा नहीं है कि सभी लड़के बुरे ही होते हैं कि किसी अकेली लड़की को देखा नहीं कि उस पर गिद्ध की तरह टूट पड़ें। हम में ही तो पिता और भाई भी होते हैं।" कह कर प्यार से उसके सर पर हाथ रख मुस्कुरा उठा साकेत।