रघुवीर सहाय की कविता और समकालीन यथार्थ / कुमार मुकुल
1955 में मुक्तिबोध लिखते हैं- ‘‘लगभग सभी कवियों में विकसित विश्वदृष्टि का अभाव मिलता है। अगर किसी में कोई विश्वदृष्टि है भी, तो वह ऐसी स्थिति में है कि वह उसकी भाव-दृष्टि का अनुशासन प्रायः नहीं कर पाती है।’’ और जब रघुवीर सहाय की ‘सीढि़यों पर धूप में’ से लेकर ‘कुछ पते कुछ चिट्ठियों’ तक की यात्रा का मैं आकलन करता हूँ, तो पाता हूँ कि एक आतंक है वहाँ, धूमिल की चीख और चुप्पी के अंतःसंबंध को अप्रासंगिक करार देता हुआ दुःपरिभाष्य इसीलिए अगम्य, अवध्य आतंक, एक अराजकता है, जिसमें राजनीतिक शोहदेपन के मार-तमाम भाष्य बिखरे पड़े हैं। धूप में चित्त लेटी एक स्त्री है, जिसने ‘पतिव्रता’ से ‘रखैल’ और ‘पतुरिया’ तक की यात्रा की है। वहाँ एक दर्द मिलता है उबासी भरा। और एक हंसी मिलती है गमगीन-सी, जो शमशेर के यहाँ पाई जाती है।
पर यह सब काफी है क्या? क्या उच्च मध्यवर्गीय जीवन के अलावे का पिचहत्तर प्रतिशत जीवन, जो महानगर के बाहर रहता है, की समझ कविता की आधुनिकता के लिए जरूरी नहीं है? गाँव, कस्बा, नगर, उपनगर का जीवन और मजदूरों-किसानों का जीवन सहाय की कविता में आ नहीं पाता है। इस पर विचार किया जा सकता है। या इस बारे में रामविलास शर्मा के विचार सिर्फ यूटोपिया हैं। सहाय जी की जीविका रेडियो, अखबार, टेलिविजन से जुड़ी रही तो क्या मीडिया के यंत्रीकृत दबावों की भी उनकी कविता पर कोई भूमिका बनती है?
बच्चन की कविता से सहाय जी का कंठ फूटता है। और कुछ लोगों को लगता है कि जिस तरह उत्तर छायावाद में बच्चन और दिनकर और बाद में एक हद तक अज्ञेय मुख्यता से उभरते हैं, पर कविता की परम्परा पंत-प्रसाद-निराला के बाद मुक्तिबोध, शमशेर, त्रिलोचन, केदार, नागार्जुन से जुड़ती है, उसी तरह इनके बाद रघुवीर सहाय पूरे काल छाये रहते हैं, पर क्या वह परम्परा कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह, विनोद कुमार शुक्ल, ज्ञानेन्द्रपति, आलोक धन्वा, अरुण कमल और विजेन्द्र से नहीं जुड़ती है। क्या इस जुड़ाव को परिभाषित करने के लिए इन कवियों को भी अज्ञेय की तरह रघुवीर सहाय की कवितांतक आधुनिकता से जूझना नहीं पड़ेगा? क्या सहाय जी की मृत्यु उन्हें इस संघर्ष से बचा सकती है।
जितनी बूंदें
उतने जौ के दाने होंगे
इस आशा में चुपचाप गाँव यह भीग रहा है।
इन पंक्तियों का सच क्या मुकम्मिल नहीं है। आगे उनकी कविता से गाँव और उसका यह स्वर निर्वासित क्यों हो जाता है? जबकि केदारनाथ सिंह गाँव की इस ताकत को उसकी आत्मा और सुगंध के साथ ‘तार सप्तक’ से ‘अकाल में सारस’ तक लेकर चलते हैं। महानगर का अर्थ क्या है- सत्ता। सत्ता का शासन गाँवों पर भी है, पर क्या महानगरों से गाँवों की नकेल पकड़ कर उन्हें विकसित किया जा सकता है? क्या रघुवीर सहाय भी श्रीकान्त वर्मा की तरह सत्ता की विकृतियों तक सीमित नहीं रह जाते हैं। सत्ता सिरमौर है इसलिए उसकी विकृतियों का विश्लेषण भी साहित्य का सिरमौर हो जाएगा।
कुछ लोग हिन्दी कविता की परम्परा को निराला के बाद मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय से जोड़ते हैं और तर्क देते हैं कि तीनों युग की विकृत विडंबनाओं से एक से आतंकित रहते हैं। क्या आतंकित रहने से परम्परा बनती है या उससे जुड़ने से, जूझने के साहस से, विवेक से। यह सर्वाधिक गहरा और बहुआयामी आतंक सबसे ज़्यादा मुक्तिबोध को ही ग्रसता है, पर वे विचलित नहीं होते हैं। वे लिखते हैं- ‘ कम-से-कम प्रस्तुत समय में, भारत में ऐसी कोई भयानक बाधा नहीं है जो लेखक को अपने पूर्ण और मूर्त आत्मप्रकटीकरण अथवा जीवन चित्राण से रोके।‘
आज कौन-सी नई बाधा अभिव्यक्ति को अमूर्त कर रही है। चीख और चुप्पी का अंतर मिटा ताकत ही ताकत का दर्शन रच रही है। यहाँ रघुवीर सहाय की ‘रामदास’ कविता की तुलना कुंवर नारायण के ‘सम्मोदीन की लड़ाई’ कविता से करें तो राहत मिलती है।रामदास की तरह निहत्था सम्मोदीन का भी मारा जाना तय है पर उसकी मौत उसके संघर्ष का अंत नहीं -
जल्दी ही वह (सम्मोदीन) मारा जाएगा
सिर्फ उसका उजाला लड़ेगा।
रघुवीर सहाय के यहाँ आतंक तो दिखता है, पर उसका प्रतिकार कहाँ और कैसा है -‘ले आओ कहीं से वह दिमाग’, ‘रामदास मारा जाएगा’, ‘ऐसे हंसो वैसे हंसो नहीं तो मारे जाओगे’, ‘जो गवाह होगा मारा जाएगा’ । पर हल कहाँ है? क्या सबसे बड़े दुस्साहसी वहीं नहीं होते, जहाँ सबसे ज्यादा खतरे होते हैं। खतरे का यह आत्मघाती स्वरूप किसकी पैदाइश है? रघुवीर सहाय खतरे का कोई निदान नहीं खोजते, तो सुधीश पचैरी कविता का ही अंत देखते हैं, ठीक ही है कि ‘कहाँ से कौन लाएगा वह दिमाग।’
रघुवीर सहाय के यहाँ कथ्य गड्ड-मड्ड रहता है। वे समय की दुखती रगों पर अंगुलियाँ देते चलते हैं, पर समाधान नहीं ढूंढ़ते। वह चेतावनी के कवि हैं यह चेतावनी उनकी परम्परा में कितनी जटिल हो जाती है कि किसी काम की नहीं रहती। यह असद जैदी, विमल कुमार के यहाँ देखा जा सकता है। विमल कुमार के यहाँ परम्परा का मोह बाकी है, खैर है कि चाँद, तारे अभी भी उन्हें बुलाते हैं। ‘अखबार वाला’ कविता में सहाय जी खुद इस आतंक का विश्लेषण करते हैं पर निष्कर्ष खबर होकर रह जाता है -
खबर हमको पता है हमारा आतंक है
हमने बनाई है
फिर वो लिखते हैं -
खबर वातानुकूलित कक्ष में तय कर रही होगी
करेगा कौन रामू के तले की भूमि पर कब्जा।
अखबार बेचने वाले रामुओं की अलबत्ता कोई जमीन नहीं होती, जमीन छिनने पर ही वे इस आवारागर्द जीवन-शैली में प्रवेश करते हैं और रोटी की इस जमीन को जिस पर वह खड़ा है उससे छीनना नामुमकिन है, क्यूँ कि यह जमीन नहीं उसकी लड़ाई है। यह आखिरी लड़ाई छिन जाने पर खुद रामू छिन जाएगा। फिर कौन बाँटेगा अखबार, किसे धोखा दे चलेगी यह व्यवस्था। इसीलिए बेकारी, बेगारी की यह जमीन छोड़ देती है व्यवस्था। राजकमल चैधरी लिख चुके हैं –
आदमी को तोड़ती नहीं हैं लोकतांत्रिक पद्धतियाँ,
लाचार-अपाहिज बना देती हैं।
‘कला क्या है’ कविता में खुद सहाय जी लिखते हैं -
वे जो प्रत्येक दिन चक्की में पिसने से करते हैं शुरू
और सोने को जाते हैं
क्योंकि व्यवस्था उन्हें मार डालना चाहती।
‘धूप’ कविता में सहाय जी कहते हैं -
कितने सही हैं ये गुलाब
कुछ कसे हुए और कुछ झरने-झरने को
और हल्की-सी हवा में और भी, जोखम से
निखर गया है उनका रूप
जो झरने को हैं।
मृत्यु की उपत्यका में झरने-झरने के पूर्व का यह जोखिम, जो मुक्तिबोध की अपनी पहचान है और जिसे सहाय जी ने भी इस कविता में पहचाना है, वह कहाँ गुमा गया। किसने खरीद लिया यह जोखम, उसे खदेड़ कौन भर गया यह भय का तिलिस्म, जो तोड़े नहीं टूटता, जिसमें उलझकर दम तोड़ देता है कवि और तिलिस्म है कि अभी भी शमा बाँध रहा है।
असद जैदी की विशेषता बताते हुए सहाय जी लिखते हैं, ‘‘वे एक नई परम्परा गढ़ते हैं कि अनुभव का एक आदि, मध्य, अंत हो यह जरूरी नहीं।’’ तो क्या अब हमारे अनुभव में आदमी की पहचान उसके चेहरे, उसकी भाषा और दिशा से नहीं उसकी बड़-बड़ाहट, गुड़-गड़ाहट और उसके थिरकन से होगी। इसीलिए रंग शब्दों से ज्यादा जरूरी लगने लगते हैं सहाय जी को। वे लिखते हैं -
शब्दों को तो यों ही कह देते हैं ब्रह्म शब्द के अर्थ
निकल सकते हैं दो रंगों के नहीं।
आखिर इस अनादि, अनंत, सनातन और शब्दों के द्वंद्व से मुक्त कविता को हम मुक्तिबोध की जीवट परंपरा से कैसे जोड़ सकते हैं। गाँधी कहते थे कि घृणा, पाप से करो पापी से नहीं। सहाय जी लिखते हैं, ‘‘और अगर चेहरे गढ़ने हों तो अत्याचारी के चेहरे खोजो / अत्याचार के नहीं।’’ क्या ये उलटबाँसियाँ सही हैं या सच दोनों के मध्य कहीं है? अपने घर में बच्चों के बीच क्या अत्याचारी का वही चेहरा होगा जो घटनास्थल पर होगा। या अत्याचार के दृश्यों में ही उसका चेहरा छिपा होगा। जिस तरह श्रीकान्त वर्मा राजनीतिक दबाव में थे, वैसे ही सहाय जी पर मीडिया का दबाव था, पर श्रीकान्त वर्मा इस दबाव से बचने के लिए इतिहास की शरण लेते हैं और अपने संघर्ष की पुनर्रचना करते हैं। लड़ते तो सहाय जी भी हैं, पर वे वर्तमान में रहते हैं, जिसके अपने जोखिम हैं, जिससे जूझ नहीं पाते वे और बकौल सुधीश पचैरी उनकी कविता अहिंसक हो जाती है, मधुर निवेदन हो जाती है।
एक सुरक्षित जीवन के लिए वे भय को शत्रु के पक्ष से उछालते हैं फिर छद्म विडम्बना और संत्रास की रचना करते हैं -
एक समय होगा जब ताकत-ही-ताकत होगी
चीख नहीं होगी।
खतरा होगा, खतरे की घंटी होगी
और बादशाह उसे बजाएगा।
यह बादशाह कविता की दुनिया के बादशाह सहाय जी तो नहीं हैं। भय पर श्रीकांत वर्मा निर्णायक रूप से विजय प्राप्त करते हैं -
पर तुम्हारा एक शत्रु पल रहा है
विचार
और आजकल महामारी की तरह फैल जाता है विचार।
ब्रेख्त की कविता है -
जनरल बहुत मजबूत है तुम्हारा टैंक
बहुत मजबूत
पर इसे एक मनुष्य की जरूरत होगी।
यहाँ टैंक की ‘ताकत ही ताकत’ मनुष्य के सामने कितनी बौनी हो जाती है। इसी स्थिति को ध्यान में रखकर ज्ञानेंद्रपति लिखते हैं -
बहुत बज चुकी खतरे की घंटी अपने-अपने घर से बाहर आ
एक मुट्ठी की तरह कसने का वक्त है यह।
पर भय को टन-टनाकर रघुवीर सहाय कवियों को जरूर भटका देते हैं। यही कारण है कि कविता से विजन गायब होने लगा, लंबी कविताएँ गए जमाने की चीज लगने लगी हैं। भय के इसी हमले से बचने के लिए केदारनाथ सिंह को अपनी सरल गतिमयता त्याग अमूर्तता का सहारा लेना पड़ा, पर विजन को उन्होंने छोड़ा नहीं। जगूड़ी की ‘मंदिर लेन’ और कुमारेन्द्र की सारी कविताएँ एक विजन और तय कालबोध को प्रकट करती हैं। गाँवों का अपनी ठेठियत के साथ आ-आकर अमूर्तन को तोड़ते चलना, यही केदारजी को ताकत देता रहा। और सहाय जी के समानान्तर मात्र वही खड़े रह सके। अमूर्तन का सहारा लें, न लें का द्वंद्व जगूड़ी और कुमारेन्द्र को पीछे छोड़ गया। आज के लोकतंत्री युग में खबरों का स्वरूप बदल चुका है। ताकत ही ताकत बाहुबलियों के सामंती युग की चीज थी।
फिर अर्थ का और ज्ञान का युग आया। अब खतरे सूक्ष्म हो चुके हैं, अब वे बजते नहीं, घुलते हैं हवाओं में, जल में, रक्त में। एक लंबी जटिल अन्वेषण की प्रक्रिया से गुजरकर ही इन्हें पहचाना जा सकता है। घंटी बजाना मूल संश्लेषी खतरे से जनता का ध्यान हटाकर उसे छद्म भय की ओर ले जाता है।
यह रघुवीर सहाय का ही आभामंडल था कि पाश जैसा कोई कवि हिंदी में नहीं हुआ। जब सहाय जी भय का तिलिस्म रच रहे थे, उसी वक्त पाश जैसा कवि व्यवस्था के विरुद्ध एक पूरी लकीर खींच रहा था। आखिर पाश जैसा क्षेत्रीय भाषा का कवि हिंदी जगत को क्यों मोहित कर रहा था। पाश की आग के गीत तो सबने गाए, पर उसमें आहुति किसी ने नहीं डाली। पाश की पंक्तियों को देखें -
भारत
इस शब्द के अर्थ
खेतों के उन बेटों में हैं
जो आज भी वृक्षों की परछाइयों से
वक्त मापते हैं।
कि
भारत के अर्थ
किसी दुष्यंत से संबंधित नहीं
वरन् खेतों में दायर हैं
जहाँ अन्न उगता है
जहाँ सेंध लगती है।
अब केदारनाथ सिंह की कुछ पंक्तियों को देखें -
जमीन पक रही है, उसने कहा
और उसे लगा यह एक ऐसी खबर है
जिसे खरहे की माँद तक पहुँचा देना चाहिए।
या
मैं दौड़ा गया और पाया कि पौधों की जड़ों में छिपे हैं शब्द।
पाश और केदारनाथ सिंह की पंक्तियों में एक अंतरसंबंध खोजा जा सकता है। इनका अंतर प्रौढ़ता और वय का अंतर हो सकता है, विजन और प्रकृति का नहीं। क्या सहाय जी से भी पाश का कोई संबंध खोजा जा सकता है? सहाय जी अपनी कविता में एक शुष्क शोक गीत रचते हैं, जो व्यक्ति और समाज दोनों से निरपेक्ष होता है। मंगलेश डबराल के शोकगीतों में एक लय, एक तरलता होती है, जो उसे करुणा में परिवर्तित कर देती है। उनका आधार स्मृतियाँ हैं। आज के यांत्रिक जीवन में जब खाली वक्त मिलता है और कवि अपने जीवन पर विचार करता है, तो अतीत के बरक्स वर्तमान बेसुरा-सा लगता है और उसे स्मृतियों का सहारा लेना पड़ता है। स्मृतियों की पुनर्रचना द्वारा वह उस गैप को भरता है। इसी तरह इन शोकगीतों की रचना होती है। सहाय जी के पास भी ऐसी कविताएँ हैं पर कम ,जैसे -आजादी, मुआवजा, लोग भूल गए हैं आदि। पर उनके यहाँ बड़ी संख्या शुष्क शोक गीतों की है। जैसे कोई अपनी खाज खुजा रहा हो। जो दिखता तो दुख की तरह है, पर खुजाना आनंद दे रहा है। खबर की तरह सपाट इन कविताओं का आधार कुछ दिमागी मनोविज्ञानी जानकारियाँ होती हैं। दुर्भिक्ष, अभिनेत्री, कैमरे में बंद अपाहिज, अज्ञातवास, विचित्र सभा ऐसी ही कविताएँ हैं। उनकी परम्परा में असद के यहाँ, खासकर उनके दूसरे संग्रह में, यह खाज भी नहीं है। शुष्कता उसे रेत का ढेर बना डालती है। रेत उछालने का भी अपना मजा है, जो इन कविताओं में मिलता है। कभी-कभी कुछ घिसे सुंदर पत्थर भी मिलते हैं, जिनके मिलने पर हम कुछ देर सम्मोहन में उसे उछालते हैं, दबाते हैं उसका संबंध नदी की धारा से जोड़ते हैं फिर ऊबकर रेत पर या धारा में फेंक देते हैं।
रघुवीर सहाय का जीवन खबरों के मध्य बीता। खबरों का संघनित ढंग से कविता में प्रयोग की नई टेकनीक भी उन्होंने विकसित की, पर खबरों का कोई चरित्र वो नहीं गढ़ सके। खबरों का चेहरा उजागर करने का जोखिम, जोखिम के सफल शिल्पकार बड़ी दिलेरी से बचा लेते हैं। और कवियों की बिरादरी उन्हें दाद देते थकती भी नहीं है। ऐसे में राजेश जोशी का यह कहना कि, ‘‘विश्लेषण और गहन बौद्धिक स्वर के बीच वह दो-टूक आलोचनात्मक स्वर सहाय जी का कहीं खो गया है जो उनकी कविता, उनकी शुरू की कविता में सुनाई देता था।’’ बड़ा सुकून देता है। उन्हीं के समकालीन जगूड़ी कविता में खबरों का एक चरित्र गढ़ते हैं। ‘मंदिर लेन’ कविता इसका बेहतर उदाहरण है। इस लंबी कविता की हर पंक्ति खबरों का इतिहास रचती है। और खबरों को जोड़ता है एक करुण, निडर, विवेक। खबरों की भीड़ में उसका एक
चेहरा खोजना उससे लड़ने की ताकत देता है। रघुवीर सहाय की पहचान के जो कारक बनते हैं वो कारक जगूड़ी में ज्यादा ताकत से आते हैं, पर उन्हें वो रिटर्न नहीं मिलता है। पर भविष्य में जब कोई कवि रघुवीर सहाय को बेहतर ढंग से समझने की कोशिश में इनकी काई और फिसलन भरी जमीन पर पटकनिया खाएगा तब श्रीकान्त वर्मा और जगूड़ी की कविता उसे शरण देगी।
रघुवीर सहाय की स्त्री की अवधारणा और समकालीन कविता
रघुवीर की कविताओं में यथार्थ उनके अपने अनुभवों तक सीमित रहता है, यहाँ तक कि अक्सर यह लगता है कि वह उन्हीं से परिभाषित भी होता है।...उनकी अधिकांश कविताओं में अगर स्त्री का करुण या दयनीय रूप ही उभरता है तो यह उनके यथार्थबोध पर एक विपरीत टिप्पणी भी मानी जा सकती है। एक बड़ा कवि सिर्फ अपनी ही तरफ और एक ही तरह नहीं देखता; अपने चारों ओर, दूसरों की तरफ और दूर-दूर तक भी देखता है - कुँवर नारायण
जीवन की विडम्बना से ज्यादा विस्मय बोध के कवि सहाय जी के विस्मय की जड़ में कहीं न कहीं हल न ढूँढ़ पाना ही होता है। ‘‘गदराई लड़कियों/बच्चों में विस्मय क्षण भर को भर दो।’’ महानगर के बाहर आ देखें कवि लड़कियाँ गदराती कहाँ हैं, और उनकी आँखों में जो विस्मय है वह अज्ञान नहीं उसका छल है। उसी एक भोलेपन के, विस्मय के छल के भीतर वे छुपाती हैं अपनी दारुणता, अपना धैर्य।
रघुवीर सहाय के साथ कविता का अंत कर ही रह जाते सुधीश पचैरी, तो भला था, पर वे कविता को इतिहास में जाता देखते हैं और स्त्री को काली, दुर्गा का अवतार बता उसकी असहायता का महान दुख उनकी कविता में देखते थे। भई, स्त्री असहाय और दुर्गा एक साथ कैसे हो जाती है। वे दिखलाते हैं किस तरह सहाय जी गरीब लड़की की व्यथा से साक्षात्कार कराते हैं -
एक लड़की जिसकी बाढ़ मारी गई है
डर के मारे नहीं बताती मुझको यह अपना दुख।
पचैरी बताते हैं कि जैसी अमूर्त सहाय जी की कविता है वैसा ही अमूर्त यह दुख है। जिसे लड़की समझा नहीं सकती। उनके अनुसार औरतों का खत्म होता भविष्य सबसे पहले सहाय की कविता में दिखता है। तो वह दुर्गा किसकी खोज है। यहाँ डर का कारण अमूर्तता है या परिवेश, वेश-भूषागत अलगाव।
स्त्री की करुणा का बेहतर स्वरूप आज के युवा कवियों मदन कश्यप, विमल कुमार की कविताओं में नज़र आता है। वहाँ केवल आतंक नहीं एक अन्वेषण भी है -
एक का रोना सुनती हैं स्त्रियाँ
और रोने लगती हैं
रोने लगती हैं स्त्रियाँ कि क्या उनकी अपनी व्यथा ही
कम है रोने के लिए।
या विमल कुमार के यहाँ देखें -
वे किताबें पढ़-पढ़कर आँखें फोड़ती रहीं
फिर भी अनपढ़ कहलाईं।
‘पढि़ए गीता बनिए सीता’। किसी विडम्बना बोध की स्पष्ट कविता भी सहाय जी ने लिखी है। वही उनकी सीमा भी है। जबकि आलोक धन्वा, अरुण कमल के यहाँ स्त्रिायाँ इस मध्ययुगीन असहायता से मुक्त होती हैं। सहाय जी के यहाँ वह चित्त ही रहती हैं -
हम रोटी और फल बचाएँगे
यह उसके सीने में एक दिन उदय होगा।
यह जिलाने की, बचाने की मनोवृत्ति कैसी है? आज भी इस दया की जरूरत है या उसे पूरा साथ; पूरा अधिकार चाहिए। क्या फल इसलिए बचाएँ कि उभर आए सीना और भोग्या तैयार हो!
वह था उसका सीना
आँखों के सामने
उसकी अकेली असहाय
और गैरबराबर औरत
का वह सर्वस्व था और मेरे बहुत पास।
सहाय जी का दर्द गजब क्यूँ हो गया है! ‘असहायता सीने में क्यूँ है? असहाय लड़की गदरा क्यूँ जाती है? आँखों में उसकी विस्मय क्यूँ आ जाता है? लड़की का सीना तो घास-भूसा खाकर भी गदरा जाता। ये लड़कियाँ मायकोवस्की की सात साध्वियाँ तो नहीं हैं। जरूरत है कि कवि की दृष्टि सीने से उठकर आँखों में देखे। वहाँ विस्मय नहीं, पीड़ाएँ ढूँढ़े, सामथ्र्य ढूँढ़े। अरुण कमल की कविता में जब मजदूरन कवि से लगकर सोती है, तो उसे तो डर नहीं लगता। आलोक धन्वा के यहाँ भी स्त्रियों का सामर्थ्य दिखता है। वे असहायता के कारण नहीं, अपनी सामर्थ्य के कारण जलाई जाती हैं। वे रुकी, गदराई, विस्मयबोध ग्रसित, अजूबी स्त्रियाँ नहीं हैं। वे गतिशील हैं। उनकी गतिशीलता से ग्रसित डरा वर्ग है जो हमलावर है। यह हमला प्रामाणिक है, वह विकास प्रामाणिक है। यह कविता का ही नहीं हमारे जीवन का भी सच है।
वे अचानक कहीं से नहीं
बल्कि नील के किनारे-किनारे चलकर
पहुँची थीं यहाँ तक।
ये कविताएँ यह छूट नहीं देतीं कि आप आदि-मध्य, अन्त से बचाकर उनकी व्याख्या करें। श्रम, समय, समाज से जोड़कर ही इनकी व्याख्या संभव है। शायद इसीलिए पचौरी के सुविधापरक घेरे में ये कवि नहीं आ पाते। स्त्री को एक जाति के रूप में पेश करते-करते सहाय जी उसका साधारणीकरण करने लगते हैं। वह माँ, बेटी, पत्नी क्यूँ नहीं होती। कहीं उसकी चीख नहीं होती। जबकि आंकड़ों में सबसे ज्यादा वह दिल्ली में ही जलाई जाती है। त्रिलोचन ‘चम्पा’ और ‘चित्रा जाम्बोरकर’ से चरित्र रचते हैं। ‘एक सूरज माँ के लिए’ में कुमारेन्द्र पारसनाथ उसके श्रम को दर्शाते हैं। सहाय जी ऐसा कुछ नहीं कर पाते। वहाँ अमूर्तता की जातीय अवधारणा के सवाल से काम चलाया जाता है। यह अनामता, शक्लहीनता समाज सापेक्षता की गहन कसौटी से बचाव का तरीका नहीं तो और क्या है। तब पचैरी बताएँ सहाय जी के यहाँ नारी संपूर्णता में कहाँ आ पाती है? ‘भागी हुई लड़कियों’ से लेकर ‘ब्रूनो की बेटियाँ’ तक आलोक धन्वा जो एक समर्थ नारी चरित्रा रचते हैं, क्या वह आधुनिक नहीं। स्पष्टतः नारी की जातीय अवधारणा: अमूर्तता व उससे जुड़े सवालों से बचने की मुद्रा है। बम उसके श्रम की ताकत को मापना नहीं चाहते। क्या किसी की पहचान मिटा देना ही आधुनिकता है। ऐसा नहीं कहता कि सहाय जी ने नारी की बाबत नया नहीं लिखा, पर सबल नहीं लिया। एक डर, एक हाय उससे जुड़ी है। वह भी उलझी हुई। हिंदी की युवतर पीढ़ी की कविता में नारी की जुझारू छवि उभरती है। जो अपनी शैली में भी महत्त्वपूर्ण है। गोरख की ‘कैथरकला की औरतों’ से लेकर निलय की ‘रामकली’ तक इसका उदाहरण हैं। छोटे-छोटे ही सही नारी के गतिशील चरित्र बनते हैं। उनकी सपाटता सहाय जी की आदि-अंतहीन सपाटता से बेहतर है। ये गतिशील नारी चरित्र विकास की राह में मील के पत्थर हैं। जबकि सहाय जी के यहाँ नारियों की ‘कचोट और कुंठाओं से अमीर होता’ उनका कवि है। इन कुंठाओं को तोड़ने का प्रयास वहाँ नहीं मिलता। अपने जीवन में तो वो सामथ्र्यवान पुत्रियाँ पैदा करते हैं। पर कविता में समर्थ चरित्र क्यों नहीं रच पाते।
‘वह जवान थी उसके जिस्म में जान थी
पर क्या चीज टूटी पड़ी थी उसके चेहरे में’।
‘थोड़ा-सा गोश्त और वह ज़रा ताकतवर
हो जाती
देह से।’
‘तब मैंने देखा कि उसे इतने करीब
पाकर यह क्या हुआ इतना अजीब दर्द।’
इन पंक्तियों पर गौर करें। जान थी तो थोड़ा गोश्त क्यों चाहिए, थोड़ा साहस क्यों नहीं चाहिए। ताकत देह से क्यों, मन से क्यों नहीं चाहिए। सुबह से शाम हाड़ तोड़ती औरतों के पास ताकत की कमी नहीं, मानसिक हौसले की जरूरत है। उसके अजूबे दर्द को समझने की जरूरत है।
जब वह घुटने मोड़ कर
करवट लेटी हो
तब देखोगे कि तुम
देख रहे हो कि
उस पर अन्याय होंगे ही।
‘पर उसका चेहरा उसका विद्रोह है
यह कितनी कम औरतें जान पाती हैं।’
आप जब अन्याय होते देख रहे हैं तो उसे अपने विद्रोह के बारे में कौन बताएगा? घुटने की असहायता, चेहरे के विद्रोह को पूरी तरह बाँट कर अपनी सुविधा के लिए उपयोग किया गया है, ऐसा नहीं लगता क्या?
रघुवीर सहाय की ‘तारसप्तक’ की कविताओं में स्त्री और प्रकृति के प्रति वैसी असहज दृष्टि नहीं मिलती। उनमें एक सरीलता, कच्चापन और मिठास मिलती है। 1950 के आसपास वे लिखते हैं - ‘वसंत’ कविता में -
पकी फसल सा गदराया जिसका तन
अपने प्रिय को आता देख लजायी जाती।
या
और कभी जब गौरैया-सा मन
घर के आँगन में खेलने का हुआ
मैंने थामा उसे कह के बचपना न करो।
पर 1960 में ‘सीढि़यों पर धूप में’ के प्रकाशन तक लगता है अज्ञेय का असर होने लगा था। उनकी सहजता टूटने लगती है। वे एक नई समझ पाते हैं जिसमें नारी की अकुलाहट या बेचैनी क्षुद्र लगने लगती है। वह कवि की महान करुणा से जुड़कर ही ऊपर उठ सकती है। सयाने कवि का मन गौरैया-सा नहीं रह जाता। वह कर्मठ हो जाता है और सलज लड़की, छोकरी में परिणत हो, मसखरा बन जाती है। स्वेटर बुनने की अनन्तता में दुनिया एक चिपचिपी चीज़ हो जाती है। यह भी कोई काम है, पुरुषों को गर्मी पहुँचाना उनका नैतिक दायित्व जो है। यहाँ मलयज की ‘प्रेम’ और ‘लड़की’ कविता द्रष्टव्य है -
बंद अंधेरे में
दो सफेद चमकते बटन
थोड़ा-सा लाल फन थोड़ा सा नीला और
कुछ बुनने को मचलती दो सुनहली सलाईयाँ।
या
जैसे पशु पर गर्म लोहे की मुहर लगा दी जाती है
उस कमसिन लड़की की गोद में एक बच्चा आ गया।
ऊपर भी तो स्त्री के प्रेम, करुणा का ललित व यथार्थवादी दो चित्र सामने है क्या वह पिछड़ा लगता है। पर सहाय की कविता में अब बक-बक करती स्त्रियाँ प्यारी लगने लगती हैं और प्रेम ऊब का खेल हो जाता है। साली में नयापन मिलता है। और तन से क्षुधित मन से मुदित नारी अंत में चित्त हो जाती है। उसकी अभिव्यक्ति का कोई भी ढंग कवि को गुस्सा दिलाता है। देखें -
चिटखती क्यों हो
एतना गुस्सा!
बोसा भी तो नहीं
लिया है सिर्फ गुस्सा।
अब 1980 के बाद की कविताएँ देखें -
हाँ, मारी नहीं गई
तो विधवा रोती है।
क्या आज भी विधवा के पास मृत्यु के सिवा कोई विकल्प नहीं है। अभी औरत की आज़ादी सहने लायक नहीं हुआ है पुरुष और कविता पश्चिम की तरह आधुनिक हो गई। क्या हत्या की संस्कृति का पर्दाफाश करने को केवल स्त्री ही मिलती है। और वे भी राजकमल की तरह पतिव्रता और रखैल के द्वंद्व में उलझ जाते हैं। ‘पागल औरत’ कविता में पागलपन के कारण क्या हैं? कौतूहल में मोटर संभालते कवि को ‘चदरा खोले नंगी स्त्री’ का नंगापन ज़्यादा दिखता है, वे लिखते हैं -
पागल विरोध में तन खोले रहता है
जुल्म सी शक्ल सिर्फ औरत बताती है।
‘रंगों का हमला’ कविता में तो कवि जुल्मी की शक्ल दिखाने की बात कहता है फिर किस मजबूरी में वे औरत में जुल्म की शक्ल खोजते हैं।
तब रिकार्ड खत्म इस तरह हुआ
जैसे पतुरिया ने महफिल में झुककर सलाम किया हो।
यही है औरत की महान जातीय अवधारणा, कि एक रद्दी-सी चीज के जस्टिफिकेशन के लिए कवि को औरत का यह पतित रूप मिलता है। पतुरिया की जगह भड़ुआ या लौंडा शब्द भी आ सकता था। उससे पुरुष के अहम को ठेस जो लगती। पर भड़ुआ शब्द में पतुरिया-सा सौंदर्यबोध कहाँ मिलता, मुँह का जायका ही बिगड़ जाता।
रघुवीर सहाय की महानगरीय मनोवृत्ति, जो उन्हें अकेला करती जाती है, का प्रमाण ‘हम दोनों’ कविता भी है। जिसमें अहम और प्रेम का सामंजस्य खो जाता है। फिर पत्नी के साथ सोना भी बड़प्पन में बाधक लगता है, जिसे वे थकान और युद्ध जैसे शब्दों से ढंकना चाहते हैं।
दिन भर संग्राम मैं करता हूँ युद्ध में
रात को, अकेला मुझे छोड़ दो, कहता हूँ मैं
तुम भी यही कहती हो।
सहाय की इस आधुनिकता का अंधाधुंध प्रयोग असद के यहाँ भी देखा जा सकता है। असद के पहले संग्रह की स्त्री में उसके प्रति एक तन्मयता है। बहनों की दारुणता कतर लेती है हमारा धैर्य, हालाँकि वहाँ भी अंत में वह अति उदात्त हो स्त्री की जातीय अवधारणा से जुड़ जाती है और हमें भावुक और कमजोर करती हैं। बावजूद कविता का पक्ष प्रबल होता है वहाँ। ‘आयशा के लिए कविताएं’ 13 की पंक्तियाँ हैं -
पत्थर धूल चीड़ और धोक और तेंदू उभरे
उनके बीच से गुजरती लौटी फिर एक बार आयशा
मैंने कहा था उठो जीवन सहना दुश्वार था
और
तुम मेरे विषय मेरे समय मेरे संग्राम
मुझसे अब नहीं होगा समीक्षा का काम।
यहाँ आयशा के लिए जो उन्मेष है, संग्राम का, उसकी तुलना सहाय जी के जुदाकारी संग्राम से करें तो बातें स्पष्ट होती हैं। पर दूसरे संग्रह में असद के यहाँ भी सहाय जी का स्त्री के प्रति जो उखड़ा-राग है वह चिलकने लगता है ‘और उन्हें एक विवाहिता प्रौढ़ा पर प्यार आने लगता है।’