रचनात्मकता का एक ज़रूरी तत्व / निर्मल वर्मा

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
रचनात्मकता का एक ज़रूरी तत्व?
साक्षातकारकर्ता:दयानंद पांडेय

(कहानियों, उपन्यासों में बार-बार प्रेम और अकेलापन उलीचने-परोसने वाले निर्मल वर्मा से बतियाना भी अकेलेपन की आंच में तिरना है। बातचीत में इतना संयत, इतना धीमे और इतनी नीरवता बोना निर्मल वर्मा का ठेंठ अंदाज़ है। प्रेम और अकेलापन उनकी कथा के अनिवार्य अभिप्राय हैं जिसमें वह बार-बार लौटते हैं। इन्हीं अभिप्राय में शायद उनकी रचनात्मकता के संकेत दिखाई देते हैं। निर्मल का कैनवस दरअसल बहुत छोटा है। एक तरह से वह स्थितियों के लेखक हैं जिनमें वह कुछ सीमित अनुभव परोसते रहते हैं। इसे वह अपने अस्तित्व की बेचैनी बताते हैं और कहते हैं कि हम किसी चीज़ की प्रतीक्षा करते हुए एक अवसाद जी रहे हैं। बेहद संकोची और शऊर वाले निर्मल वर्मा बोलते भी ऐसे हैं जैसे उनकी कहानियों में पत्ते झरते हैं। उदास और शांत। कुछ समय पहले दयानंद पांडेय ने निर्मल वर्मा से ख़ास बात की थी।)

(यह साक्षात्कार नवम्बर १९९६ में लिया गया था.)

आप अपनी कहानियों उपन्यासों में एक अजीब क़िस्म का रोमांटिक तनाव रोपते हैं। लगभग हर बार !

- आपने बहुत सरल और अच्छी टिप्पणी की है पर रोमांटिक तनाव ही रोपता हूं सिर्फ़, ऐसा मुझे नहीं लगता। हर लेखक की अपनी शैली होती है पर यह भी ठीक है कि किसी उपयुक्त शब्द के अभाव में रोमांटिक तनाव कहा जा सकता है।

रोमांटिक तनाव की जगह कोई उपयुक्त शब्द आप ही सुझाएं?

- भीतर, कोमल और जीवन के स्वप्न के बीच का जो अंतराल है उसके बीच से यह तनाव उपजता है। पर इस समय इस रोमांटिक तनाव की जगह कोई और शब्द नहीं सूझ रहा।

आप की कहानियां और उपन्यास बार-बार प्रेम और अकेलेपन की कथा ही कूतती हैं। एक लंबे समय तक एक ही अनुभव बीनती हैं ! बहुतों को लगता है कि आप स्थितियों के लेखक हैं !

- यह तत्व रचनात्मकता के लिए ज़रूरी लगते हैं। फिर अकेलापन कोई अवधारणा नहीं है। जब हम अकेले होते हैं तो भी किसी के साथ होते हैं। साथ और अकेलापन कहीं न कहीं घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं।

आप की मूल मुश्किल?

- कला और दुनिया के बीच का रिश्ता बहुत उद्वेलित करता रहा है। यह एक तरह की मेरी रचनात्मकता भी यहीं कहीं है। हम किसी चीज़ की प्रतीक्षा करते हुए एक अवसाद जी रहे हैं।

इन दिनों क्या कर रहे हैं?

- मैं एक उपन्यास लिख रहा हूं। अभी पूरा नहीं हुआ है।

विषय क्या है?

- इस उपन्यास के बारे में कुछ नहीं बताऊंगा। मेरी नीति रही है कि जब तक छप न जाए - किसी से नहीं बताता।

कहीं इस लिए तो नहीं कि कथा बताने के बाद लिखने की ललक ग़ायब हो जाने का ख़तरा रहता है?

- हां, यही बात है।

हम लोग आप को हिंदी कहानी का परदेसी बाबू मानते हैं।

- क्यों?

आप का जो अंदाजे बयां है !

- कहानी को देसी और परदेसी खाने में विभाजित करना ठीक नहीं। यह कहना ख़तरनाक है। अच्छी कहानी कहीं से आए, घर से, गांव से, देस से, परदेस से, कहीं से भी। कहानी अच्छी होनी चाहिए।

अस्सी के दशक में एक शोध पत्र में तो बाक़ायदा स्थापना दी गई थी कि मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव तो शहरी बाबू हैं। रही बात निर्मल वर्मा की तो वह तो परदेसी ठहरे।

- हमें इस तरह के छद्म और कृत्रिम ग़ैर साहित्यिक तरह के विभाजनों, आलोचनाओं से छुट्टी पा लेना चाहिए। उनसे भी जो इस तरह के विभाजन करते हैं।

पर यह तो आप मानेंगे कि आप की कथाओं में पात्र देसी हैं पर स्थितियां परदेसी। ‘रात का रिपोर्टर’ पर ही बात करें। रिपोर्टर है तो भारतीय पर स्थितियां तो यहां की नहीं हैं? कपास की खेती पर एक रिपोर्ट लिखने के लिए 6 महीने की मोहलत भारत में तो किसी रिपोर्टर को नहीं मिलेगी?

- हां, यह मैं, मान लेता हूं। हमारी कथाओं में स्थितियां ऐसी हैं। पर हर लेखक की अपनी शैली होती है।

एक बात यह भी है कि एक समय आप और आप के समकालीन लेखकों की रचनाओं से ज़्यादा चर्चा उनकी महिलाओं की होती थी। उन दिनों की बात है जब जैनेंद्र जी ने लेखकों के लिए पत्नी के अतिरिक्त प्रेमिका की स्थापना दी थी !

- हां, याद है। पर रचना की जो क़िस्सागोई है, तो उससे पाठक की उत्सुकता तो स्वाभाविक हो सकती है, लेकिन उनके रचना संसार का सत्य नहीं उपलब्ध किया जा सकता।

गगन गिल से आपने शादी की। वह उम्र में आप से बहुत छोटी हैं। लगभग आधी। एज गैप नहीं महसूस होता?

- होता है कभी। कभी नहीं होता है। पर व्यक्तिगत बात आप क्यों कर रहे हैं? मेरी रचना के बारे में बात करिए।

गगन गिल पहले बहुत अच्छी कविताएं लिखा करती थीं। अब उनकी कविताएं दिखती नहीं?

- कुछ और बात कीजिए। व्यक्तिगत बातें नहीं।

शिमला के बारे में?

- शिमले में मेरा बचपन बीता था। इस लिए बचपन की स्मृतियां मेरे साथ जुड़ी हुई हैं।

आप के बहुतेरे समकालीन टी.वी., फ़िल्मों की ओर भागे हैं। आप नहीं गए?

- अपने को उसके उपयुक्त नहीं मानता।

आप ने कहानी, उपन्यास, निबंध, अनुवाद और यात्रा वृतांत लिखे। पर नाटक, कविता आदि विधाओं से भागे रहे? वज़ह विवशता है या कोई रिजर्वेशन?

- अयोग्यता !

कैसे?

- आदमी हर चीज़ नहीं कर सकता। मैं जो भी करना चाहता हूं ठीक-ठीक ढंग से करना चाहता हूं।

अरुंधती राय इन दिनों हर चर्चा में छाई हुई हैं।

- मुझे भी उनकी रचना बहुत पसंद है। उन्हें जो सम्मान मिला है उनकी रचना और योग्यता पर ही मिला।

प्रतिबद्धता और कलावाद की बहस पर आप की खीझ, कल बहुत साफ नहीं हो पाई

- खीझ नहीं है। पर प्रतिबद्धता का प्रश्न साहित्येतर प्रश्न है ऐसे प्रश्न हमें ऐसी किसी सार्थक बहस में नहीं ले जाते।

आप को नहीं लगता कि ऐसे बसियाए विषयों के बजाय रचनाओं पर केंद्रित बहस ज़्यादा मायने रखती?

- बिलकुल।

लेखन की चुनौती?

- अच्छा सुघड़ शिल्प और भाषा को विकसित कर पाना ताकि हम अपने जीवन के विविध अनुभव को उनकी पूरी संशलिष्टता के साथ व्यक्त कर सकें।

आप के पढ़ाकू होने, ज़्यादा गंभीर होने और बेहद रिजर्व रहने से लोग आक्रांत रहते हैं।

- मुझे तो नहीं लगता।

अभी कल ही मनोहर श्याम जोशी कह रहे थे कि मैं भी अगर वयस्क होता तो निर्मल वर्मा की तरह लिखता और बोलता।

- ऐसा कह रहे थे वह ! सचमुच ! अब मैं क्या कह सकता हूं? पर कई बार ऐसा होता है।

एक चिथड़ा सुख की तरह? जहां जो लोग थियेटर करते हैं लगता है बहुत ज़रूरी काम कर रहे हैं और व्यर्थतता का एहसास भी करते रहते हैं।

- हां, व्यर्थतता का बोध भी हमें संवेदनशील बना सकता है। u

सरोकारनामा से साभार