रचनात्मकता की उष्मा से अनुस्यूत पुरस्कृत लघुकथाएँ / सुकेश साहनी
(1) कोशिश: मीना गुप्ता, (2) गंध: वंदना शांतुइंदु,(3) स्त्रीवादी पुरूष: मानवी वहाणे,(4) तिलिस्म: सविता इंद्र गुप्ता,(5) लव जिहाद: महेश शर्मा, (6) लेकिन जिंदगी: कस्तूरी लाल तागरा, (7)कौन बनेगा राष्ट्रवादी: मार्टिन जान, (8)पटरी पर सीख: सुभाष अखिल,
साहित्य की दूसरी विधाओं की तरह लघुकथा के लिए भी यही सच है -जो रचेगा वही बचेगा। लघुकथा के क्षेत्र में सक्रिय लेखकों को मोटे तौर पर दो श्रेणियों में बाँटकर देखा जा सकता है-
एक- ऐसे रचनाकार, जिन्हें लघुकथा लिखना बहुत आसान लगता है, वे चुटकियों में लघुकथा लिखकर प्रिन्ट मीडिया अथवा सोशल मीडिया पर पोस्ट कर देते हैं।ऐसा भी नहीं है कि वे विधा की बारीकियाँ नहीं जानते, लघुकथा के शास्त्रीय पक्ष को लेकर उनके पास अंतहीन प्रश्न है, लघुकथा के पुरोधाओं से अपने प्रश्नों के उत्तर जानने की बेचैनी भी दिखाई देती है;.परन्तु आशु (¼extempore )लेखन के कारण आकार ले रही रचनाओं के पात्र उनके हाथों की कठपुतली बनकर रह जाते हैं और वे कच्ची रचना को ही मनचाहा मोड़ देकर समापन तक पहुँचा देते हैं। ऐसे लेखक एक दिन में कई लघुकथाएँ लिख लेने का दावा करते हैं। इस प्रकार का लेखन देखकर उन विद्यार्थियों की याद आती है ,जो परीक्षा के नजदीक आने पर कुंजियों और गेस पेपर्स के सहारे परीक्षा उत्तीर्ण करने का प्रयास करते हैं। इसी प्रकार के लघुकथा लेखकों पर प्रसिद्ध साहित्यकार अमृतलाल नागर जी ने टिप्पणी की थी, “इन रचनाकारों में भाव तो जागते हुए अवश्य परिलक्षित होते है किन्तु बौद्धिक विकास अभी उनींदा और अलसाया नजर आता है।”
एक-इस श्रेणी में कुछ प्रतिभाशाली कथाकार ऐसे भी हैं, जो लघुकथा के प्रति समर्पित हैं। उनमें सीखने की ललक है। उनकी रचनाएँ स्तरीय संकलनों में भी प्रकाशित होने लगी हैं।
दो- इस श्रेणी में ऐसे लघुकथाकार आते हैं, जो मानते हैं कि लघुकथा में रचनात्मकता जरूरी है। वे रचते हैं। इसे प्रसिद्ध साहित्यकार रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी की सृजनात्मक-प्रक्रिया विषयक तर्कसंगत टिप्पणी से बखूबी समझा जा सकता है-
‘सृजन और लेखन दो विपरीत ध्रुव हैं। सर्जन वह अन्तःस्फूर्त कार्य है, जो समय-कुसमय नहीं देखता। बस मनोमस्तिष्क पर इस तरह छा जाता है कि रचनाकार लिखने को बाध्य हो जाए. न लिखे तो वह पाखी-सा फुर्र भी हो सकता है और बरसों बरस कभी हाथ आने वाला नहीं। सर्जन की इस त्वरा के पीछे कोई क्षणिक हड़बड़ाहट नहीं, वरन् अनुभवजन्य चिन्तन का वह आवेशित स्वरूप है ,जो किसी न किसी रूप में प्रकट होना चाहता है, स्वरूप धारण करना चाहता है। लघुकथा का सर्जन लम्बे अर्से के जीवन-अनुभव के ताप में तपकर सामने आता है। घटना एक आधारभूत तथ्य को खुद में छुपाए होती है, जैसे एक प्रस्तर खण्ड अपने में खूबसूरत मूर्त्ति समाहित किए हुए होता है। वही तथ्य जब कथ्य का आधार बनता है तो लघुकथा में परिवर्तित हो जाता है। यह सम्भव है कि उस लघुकथा में आधारभूत घटना का कोई एक छोटा-सा अंश परिमार्जित होकर हमारे सामने आ जाए. यह अंश उससे उद्भूत होने पर भी उससे एकदम अलग नजर आ सकता है, जैसे प्रस्तर-खण्ड से बनी मूर्ति, उस बेडौल पत्थर की सूरत से कहीं मेल नहीं खाती। यह निर्मिति ज्यों की त्यों घटना न होकर एक अलग, एक पुनर्गठित स्वरूप है, जो मूल घटना या उत्प्रेरक घटना से कोसों दूर है। यह भी सम्भव है कि कई घटनाएँ, कुछ संवाद परस्पर अनुरूप होते हुए पूरक रूप में जुड़कर किसी एक बिन्दु पर केन्द्रित हो गए हों। एक मुख्य कथा-बिन्दु बन गए हों। यही बात विचार-सरणी को लेकर भी है। कोरा विचार लघुकथा नहीं। किसी बात को सार रूप में लिख देना भी लघुकथा नहीं। विचार तो वह धुरी है, जिस पर वह कथा घूमती है। विचार किसी क्षण विशेष से उपजा वह स्रोत है, जिसकी विरल धारा उन किनारों की कोई बात कहती हो, जिन्हें छूकर वह कुछ अपनापन महसूस करती रही है। इस प्रकार किसी लघुकथा की सर्जन-प्रक्रिया (वह लघुकथा भले ही 10-12 पंक्तियों की हो) एक दिन का या एक पल का काम नहीं। वह स्रोत से रिसने वाली क्षीण धारा है, जो चट्टानों से उतरते-उतरते आगे चलकर वेगवती बनने को आतुर हो उठती है।’
लघुकथा की रचना-प्रक्रिया पर गत वर्ष कथादेश में ‘लघुकथा गुण धर्म और पुरस्कृत लघुकथाएँ’ में उदाहरण सहित विस्तृत चर्चा की गई थी। इसे लघुकथा डॉट कॉम, नवम्बर 2017 पर भी पढ़ा जा सकता है। कुल मिलाकर इस श्रेणी में लिखी जा रही लघुकथाएँ तुलनात्मक रूप से ज्यादा परिपक्व और सामाजिक रूप से अधिक सजग हैं। इन लघुकथाओं में जीवन की धड़कन महसूस की जा सकती है।
जिस जीवन की धड़कन या जीवन संगीत की बात ऊपर की गई है, उसे प्रथम पुरस्कार प्राप्त मीना गुप्ता की ‘कोशिश’ में महसूस किया जा सकता है। लघुकथा में दो ही मुख्य पात्र है। बिस्तर पर पड़ी बीमार वृद्धा और पड़ोस में रहने वाली अधेड़ आभा। नेपथ्य में वृद्धा के पति की उपस्थिति है, जो कभी-कभार पैरों को घसीटता हुआ किचन में आता-जाता दिख जाता है। अधेड़़ आभा बुढ़ापे से बेहद डरी हुई है। आभा और बीमार वृद्धा के संवादों से दोनों महिलाओं की मनोदशा धीरे-धीरे पाठक के सामने खुलती है और पाठक कथा से कहींे गहरे जुड़ता चला जाता है। बीमारी से लड़ती हुई औरत की जीवन्तता का बहुत ही प्रेरक चित्रण इस लघुकथा में हुआ है। आभा द्वारा पूछे गए सवालों के जवाब में वृद्धा एक बार भी अपनी बीमारी का जिक्र नहीं करती बल्कि- जब तक मन जवान है, तब तक इंसान जवान है/ गले में घड़ी पहनते हुए यह बताना कि देखो इन्दिरा गांधी भी इसी तरह की घड़ी पहनती थी/ बेटे से बड़े नम्बरों वाली टाइटन घड़ी की माँग ताकि समय देखने में दिक्कत न हो/ बीमारी की हालत में भी सोने की चैन बनवाना,जैसी बातें साझा करते हुए आभा को आश्वस्त करती है। वृद्धा की बातों से प्रभावित होकर आभा कहती है, “बुढ़ापा इतना बुरा तो नहीं होता ,जितना वह सोचती है, बल्कि यह तो अच्छा है।” इस पर वृद्धा का जवाब काबिले- गौर है, “न न ! यह मत कहो कि यह अच्छा है, हम इसे अच्छा बनाने की कोशिश करते रहते हैं।”
यह रचना हर हाल में जीवन को बेहतर बनाने की ‘कोशिश’ का सकारात्मक संदेश देती है और इस संदेश के कारण यह लघुकथा देश की सीमाएँ लाँघकर विश्वस्तरीय हो जाती है। लघुकथा बिना किसी बड़बोलेपन के उन तमाम लोगों को जीवन संघर्ष के लिए प्रेरित करती है ,जो शारीरिक रूप से पूर्णतया सक्षम होते हुए भी जीवन से निराश होकर आत्महत्या का रास्ता अपनाते हैं। इस लघुकथा का समापन वहीं हो सकता था , जहाँ वृद्धा कहती है कि हम इसे अच्छा बनाने की कोशिश करते रहते हैं, लेकिन लेखिका ने अंत में दो पंक्तियाँ और लिखी हैं-अचानक एक बदबू आभा के नथुनों में भर गई। शायद वृद्ध महिला की कमर में बँधी थैली भर गई थी।
इन दो पंक्तियों से एकाएक पाठक को वृद्धा की बीमारी की ‘एडवांस स्टेज’ का पता चलता है और लघुकथा का प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है।
पाठक के तौर पर लघुकथा पढ़ते हुए एक कमी भी महसूस होती है। कथा के प्रारम्भ में यह समझ ही नहीं आता कि बीमार वृद्धा और उसका पति कौन हैं, कहाँ हैं। अधेड़ आभा से उनका क्या रिश्ता है। दोबारा ध्यान से पढ़ने पर पाठक को अनुमान लगाना पड़ता है कि बीमार वृद्धा आभा के पड़ोस में रहने आई है और आभा उससे संवाद कर रही है। इधर सोशल मीडिया पर सार्थक लघुकथा के मानक के तौर पर यह भी उल्लेख मिलता है कि लघुकथा भूमिका विहीन विधा है। बिना समझे इस प्रकार की टिप्पणियों को जस का तस लेने से रचनाकार भ्रमित ही होते हैं। ‘कोशिश’ लघुकथा के प्रारम्भ में जिस कमी की ओर संकेत किया गया है,वह इसी प्रकार की किसी टिप्पणी से प्रभावित प्रतीत होती है। लघुकथा अपने आप में मुकम्मल रचना है। आकारगत लघुता को लेकर उसके किसी भाग को नियंत्रित किया जाना अगर लघुकथा की माँग है ,तो दूसरे भागों के सापेक्ष अनुपात का ध्यान तो रखना ही होगा।
वंदना शांतुइन्दु की लघुकथा ‘गंध’ निर्णायकों के सम्मिलित अंकों के आधार पर दूसरे स्थान पर रही।जमीनी हकीकत से जुड़ी इस लघुकथा में बरसों से छुआछूत का दंश झेल रहे दलित समाज की पीड़ा का वास्तविक चित्रण हुआ है। लघुकथा-लेखन के लिए जिन जरूरी शर्तों का प्रायः उल्लेख किया जाता है, उनकी परवाह किए बिना किस प्रकार स्वतः स्फूर्त मुकम्मल और प्रभावी लघुकथा का जन्म हो सकता है, इसे ‘गंध’ में देखा जा सकता है।
कथा के सभी पात्र अपनी जड़ों से जुड़े होने के कारण बहुत जाने-पहचाने लगते हैं। राजपत्रित अधिकारी सरस्वती के घर में प्रवेश के साथ लघुकथा प्रारम्भ होती है और लक्ष्मीबेन (माँ) और पापा से वार्तालाप के साथ ही खत्म हो जाती है।
लघुकथा में चपरासी का दरवाजा खोलकर बाजू में खड़े हो जाना/ उसकी नजर कोने में उकूड़ू बैठे बीड़ी पी रहे पापा पर गई और उसका दिमाग फट पड़ा/वह जानती थी,ऐसे बैठना पूर्वजों से मिली आदत है। पुट्ठे पर बँधा झाड़ू उन लोगों को पालथी मारकर बैठने नहीं देता था/ जैसे वाक्य लघुकथा के लिए जरूरी वातावरण निर्माण करते हैं।
लक्ष्मीबेन और सरस्वती के संवादों के बीच लक्ष्मी के रिटायर्ड चपरासी पिता का हस्तक्षेप कथ्य विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है-
बीड़ी बुझाकर उसके पापा उठते हुए बोले, “और तू सत्य की पूँछ पकड़े बैठी है ,तेरी माँ जैसी ही तू मूर्ख, तुजे जाति बताने की क्या जरूरत थी? सत्य तो गया गांधी बापू के साथ।”
सरस्वती के बापू बीच में बोले, “तू तो मूर्ख है। लक्ष्मी तेरा बाप क्या दो दिन साबरमती आश्रम में रह आया कि तुम लोग सुधारवादी की पुच्छ बन गए! वो मरे हुए पशु के चमड़े की गंध…..’’
लघुकथा में कहानी की भाँति कई घटनाओं,वातावरण-निर्माण एवं चरित्र-चित्रण द्वारा पाठक को बाँधने या रिझाने का अवसर नहीं होता ; परन्तु इस लघुकथा में सातवीं कक्षा तक पढ़ी लक्ष्मीबेन का चरित्र उभरकर सामने आता है और अंत में उसका यह कथन-”गंध आती हो ,तो नाक को नहीं ,गंध को बंद करना चाहिए’’-देर तक पाठकों के मस्तिष्क में गूँजता रहता है।
इस प्रकार की रचनाएँ लघुकथा के लिए निर्धारित सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए समीक्षकों को अपनी मान्यताओं पर पुनर्विचार करने को बाध्य कर देती हैं।
मानवी वहाणे की ‘स्त्रीवादी पुरुष’ संवाद शैली में लिखी गई सशक्त लघुकथा है। संवाद शैली में बहुत सी लघुकथाएँ लिखी गई हैं, जो काफी प्रसिद्ध हुई हैं। लघुकथा की विषयवस्तु पर निर्भर है कि संवाद-शैली का चयन किया जाए अथवा नहीं । ‘स्त्रीवादी पुरुष’ के लिए यह शैली उपयुक्त थी। यदि लघुकथा किसी और तरीके से लिखी जाती ,तो संभवतः उतनी प्रभावी नहीं हो पाती। रचना में संवादों के माध्यम से कथ्य-विकास हुआ है। चरमोत्कर्ष पर पुरुष का असली चेहरा उजागर हो जाता है। आधी दुनिया का प्रतिनिधित्व करती यह लघुकथा निर्णायकों के सम्मिलित अंकों के आधार पर तीसरा स्थान पाने में सफल रही ।
इधर फैशन के तौर पर संवाद-शैली में लेखन का चलन बढ़ा है। प्रतियोगिता हेतु इस शैली में बहुत-सी लघुकथाएँ प्राप्त र्हुइं, जो अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाईं । कुछ ने मण्टो की तर्ज पर लघुकथाएँ लिखने का असफल प्रयास किया, दो तीन पंक्तियों की बहुत-सी लघुकथाएँ प्रतियोगिता हेतु प्राप्त हुईं, जो विचार योग्य नहीं पाई गई। इधर सोशल मीडिया पर भी ऐसी कथाएँ विमर्श हेतु देखने को मिली-
बेबसी रमिया पुन गर्भवती थी, और उसके चार बच्चे भूख से बिलख रहे थे।
बेअसर “नहीं ! अंकल प्लीज” उसकी पुकार चीखों में दबकर रह गई।
इन पर ‘लाइक’ करने वालों की भरमार थी। एक साथी ने तो अपनी टिप्पणी में एक ऐसी लघुकथा की तारीफ करते हुए रमेश बतरा की ‘कहूँ कहानी’ को कुछ इस तरह पेश किया-”एक राजा था, वह बहुत गरीब था” ,मजे की बात यह कि इन आधे अधूरे शब्दों की भी तारीफ होने लगी।
इस प्रकार की लघुकथाओं की उपस्थिति विधा के हित में नहीं है, संबंधित समूह के एडमिन को इस पर विचार करना चाहिए। यहाँ उद्देश्य उन रचनाकारों को सचेत करना मात्र है ,जो नासमझी या फैशन के तौर पर इस प्रकार लेखन करते हैं, और उनकी पोस्ट को बिना पढ़े-समझे बहुतायत मिल रहे ‘लाइक’उन्हें भ्रमित ही अधिक करते हैं। ऐसा भी नहीं है कि छोटे आकार में महत्त्वपूर्ण सृजन सम्भव नहीं है। यह लघुकथा की विषय वस्तु और कथ्य पर निर्भर होगा। इस प्रकार के सृजन के लिए जिस चिंतन और मनन की आवश्यकता है ,उसका यहाँ नितांत अभाव दिखता है। एक लघुकथा के उदाहरण से इसे बखूबी समझा जा सकता है। इन पंक्तियों को लिखने से पूर्व कथादेश के ताजा अंक में सुरेश उनियाल द्वारा अशोक गुप्ता पर लिखा ‘स्मृति शेष’ पढ़ रहा था। लेख का अंतिम पैरा देखें-उसकी स्मृति में राजकमल के घर पर जो गोष्ठी रखी गई ,उसमें भी अशोक की उपस्थिति महसूस की जाती रही। यहीं जो घटा, उससे लघुकथा की ताकत को समझा जा सकता है।उनियाल जी की टिप्पणी पढ़ते ही मुझे जोगिंदर पाल की ‘उपस्थित’ लघुकथा स्मरण हो आई। तीन चार पंक्तियों में किस तरह गहरी और अनोखी बात कही जा सकती है, सीखा जा सकता है। प्रस्तुत है जोगिंन्दर पाल की लघुकथा ‘उपस्थित’और उस पर हरिमृदुल की टिप्पणी-
उपस्थित/जोगिंदर पाल क्या मजाल, कोई जान-पहचान वाला मर जाए और वह उसकी अर्थी के संग उपस्थित न हो।
परंतु आज हम उसी की अर्थी लिये श्मशान की ओर जा रहे हैं और किसी ने आगे-पीछे देखते हुए मुझसे अचरज से पूछा है, “आश्चर्य है, आज वह नहीं आया?’’
उपर्युक्त जब मैंने कुछ साल पहले पढ़ी थी, तो मैं भौंचक रह गया था। तीन या चार पंक्तियों में जीवन से जुड़ी इतनी गहरी और अनूठी बात कहने के हुनर का मैं कायल हो गया था। लम्बे समय तक इस कथा ने मुझे अपने सम्मोहन में बाँधे रखा। इस कथा को पढ़ने के बाद मुझे अहसास हुआ कि अपने लघु आकार के बावजूद इस विधा में कितनी बड़ी बात कही जा सकती है। यह भी स्पष्ट हो गया कि साहित्य की दूसरी विधाओं की तुलना में यह विधा भले ही उपेक्षित हो, लेकिन इसकी ताकत को कोई नकार नहीं सकता है।
जोगिंदर पाल की इस लघुकथा में समकालीन जीवन की त्रासदी तो सही ढंग से व्यक्त होती ही है, इसकी संवेदनशीलता भी भीतर तक हिला डालती है। कितना जबरदस्त कथ्य है कि हर किसी के दुःख को अपना मानने वाले और उसमें हर हालत में शामिल होने वाले व्यक्ति को कभी नहीं भुलाया जा सकता है। ऐसे व्यक्ति की मृत्यु भी सच नहीं लगती। महसूस होता है कि जल्द ही वह आएगा और ढाँढस बँधाएगा। यूँ पहली नजर में यह लघुकथा एक चुटकुले जैसी लगती है; लेकिन जब पूरी बात समझ में आती है, तो चकित होना पड़ता है। कथाकार की पैनी दृष्टि पाठक को एक ऐसे कोण पर ले जाकर खड़ा कर देती है, जहाँ सबसे बड़ा कौतूहल मौजूद है और जीवन का सबसे बड़ा सच भी घटित हो चुका है। मृत्यु एक सत्य है; लेकिन स्मृति में बने रहना ,जैसे मौत को मात देना है। अमरता प्राप्त कर लेना है। कथानक में पहली खबर मृत्यु की है और फिर इससे उपजा शोक है। अगले ही क्षण इस शोक को झटकने के लिए हास्य का अपूर्व संधान है। लघुकथा मंे ऐसा सामंजस्य एक दुर्लभ स्थिति है। जीवन की विडंबना की ऐसी बेधक अभिव्यक्ति कोई कुशल रचनाकार ही कर सकता है।
देश के विभाजन के समय हुए दंगों को लेकर मंटो ने बहुत सशक्त लघुकथाएँ लिखीं जो ‘स्याह हाशिये’ में संकलित है। वर्तमान में यदि कोई रचनाकार मंटो के लेखन से प्रेरित होकर उसी शैली में मौलिक लघुकथा का सृजन करता है ,तो उसे बहुत सजग रहने की जरूरत है। अखिल भारतीय कथादेश लघुकथा प्रतियोगिता हेतु प्राप्त मंटो की तर्ज पर लिखी गई लघुकथाएँ बहुत ही कमजोर और हास्यास्पद होने के कारण प्राथमिक चयन से ही बाहर हो र्गइं। उल्लेखनीय है कि मंटो के पात्रों को केन्द्र में रखकर आधुनिक संदर्भों में लघुकथा लेखन काफी जोखिम भरा है, यह हर एक के बूते की बात नहीं। इसमें तनी हुई रस्सी पर चलने जैसा संतुलन जरूरी है , जरा-सी चूक लेखक को कटघरे में खड़ी कर सकती है। इस तरह की रचनाओं में जिस लेखकीय दायित्व और अनुशासन की जरूरत होती है ,उसे प्रसिद्ध नाटयकर्मी एवं कथाकार उर्मिल कुमार थपलियाल की लघुकथा ‘गांधीगीरी’ में देखा जा सकता है-
गाँधीगीरी मंटो मियाँ बोले, “बरखुरदार! हमारे टाइम में भी गाँधीगीरी हुआ करती थी। इस पर उन्होंने एक किस्सा सुनाया कि एक दफ़ा तीन दहशतग़र्द रात को दरवाजा तोड़कर एक घर में घुस गए। अंदर एक अधेड़ मर्द, उसकी बीवी और बूढ़ा बाप था। दहशतग़र्दों ने तीनों पर बंदूकें तान दीं। तीनों ज़रा भी सहमे नहीं। उन्होंने गाँधीगीरी दिखा कर दहशतग़र्दों को गुलाब के फूल भेंट किए।”
मैं, “फिर क्या हुआ।”
मंटो, “दहशतग़र्दों ने तीनों को गोली मार दी और उनकी लाशों पर गुलाब के फूल रखकर चल दिए।”
एक और घटना याद आ रही है, गत वर्ष यूरोप जाने का अवसर मिला था। प्राग (चेक गणराज्य) में हम एक अपार्टमेंट में ठहरे हुए थे। कमरे में सड़क की ओर खुलने वाली खिड़की थी। सड़क पर दौड़ते घोड़ों की टापों, उनकी बग्घियों की खड़-खड़ का शोर सुनकर मुझे फ्रान्ज काफ्का की लघुकथा ‘खिड़की’ की याद हो आई थी, जिसका अनुवाद मैंने किया था।काफ्का की लघुकथा से गुजरने का यह एक वास्तविक अनुभव था। मैं बिस्तर से उठकर खिड़की पर आ गया था और वहाँ से झाँकते हुए काफ़्का की लघुकथा मस्तिष्क में घूमने लगी थी। वर्षों पहले काफ़्का द्वारा अवसाद की स्थिति में किन परिस्थितियों में अपने घर की खिड़की से झाँकते हुए इस कालजयी रचना का सृजन किया गया होगा ,यह सोचकर मैं उस समय रोमांच से भर गया था।
ऊपर दिए गए इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि छोटे आकार की लघुकथाएँ बहुत श्रम और रचना-कौशल की माँग करती हैं। जल्दबाजी में आसपास की घटनाओं से प्रेरित होकर लिखी गई पंक्तियाँ अखबार की खबरों के सिवा कुछ नहीं कहलाती।
सविता इंद्र गुप्ता की लघुकथा में बहुत ही दिलचस्प ढंग से बाजारवाद के मायाजाल की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है, जिसमें फँसकर आम आदमी सहर्ष जेब कटवाने के लिए तैयार हो जाता है, पर बाद में ठगा हुआ महसूस करता है। फिजूलखर्ची का अपराधबोध उसे सालता रहता है। लघुकथा का शीर्षक ‘तिलिस्म’ बहुत ही सटीक और प्रभावी है। लघुकथा का विषय ऐसा है कि हर पढ़ने वाले को अपनी ही कथा मालूम देती है।
महेश शर्मा की ‘लव जिहाद’ पाँचवे स्थान पर रही उनकी लघुकथा तीसरी बार कथादेश प्रतियोगिता में पुरस्कृत हुई हैं, रिंगटोन के माध्यम से पिता को अपनी पुत्री के दूसरे धर्म के युवक से प्रेम की बात पता चलती है और वह गश खा जाते है, नवीन विषयों की तलाश की वजह से महेश शर्मा अपने समकालीन लेखकों में अलग पहचाने जाने लगे हैं। जो लोग रोज एक लघुकथा लिखने का दावा करते है ,उन्हें महेश शर्मा से प्रेरणा लेनी चाहिए जिन्होंने आठ दस सशक्त लघुकथाएँ ही लिखकर इस विधा में अपनी पहचान बना ली है। कथादेश लघुकथा प्रतियोगिता 2010 में ‘सारी,डियर चे’ और गत वर्ष प्रथम पुरस्कार प्राप्त ‘जरूरत’ भी लघुकथा में प्रयोग की दृष्टि से सराही गई थीं। लव जिहाद में भी उन्होंने लड़की और लड़के के फोन पर एक दूसरे के मजहब की रिंग टोन के उल्लेख से लेखकीय दायित्व का निर्वहन किया है।
कस्तूरी लाल तागरा की ‘लेकिन जिंदगी’ अपनी सशक्त उपस्थित दर्ज कराने में सफल रही। कस्तूरी लाल तागरा इस प्रतियोगिता में पहले भी कई बार पुरस्कृत हो चुके हैं। इस लघुकथा में वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य की पड़ताल करते हुए उस पर करारा व्यंग्य किया गया है। राजनीति में अपराधियों की उपस्थिति से हम सभी वाकिफ़ है। कालगर्ल के सामने नेता जी के कोरे आदर्शवाद की कलई खुल जाती है। नेता का कालगर्ल से उसका मजहब पूछना वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में छद्म धर्मनिरपेक्षता की पोल खोलता है। लघुकथा का समापन बहुत ही संतुलित है।इस प्रकार की रचनाओं में जिस रचना कौशल और अनुशासन की जरूरत होती है ,वह इसमें देखा जा सकता है। नेता जी ने साथ-साथ पाठकों को भी अंत तक पता नहीं चलता कि कालगर्ल का मजहब क्या है। लघुकथा के शाीर्षक पर पुनर्विचार किया जा सकता है।
मार्टिन जान की ‘कौन बनेगा राष्ट्रवादी’ का पूरा फार्मेट पाठक को जाना पहचाना लगता है। लघुकथा पढ़ते हुए पाठक के मस्तिष्क में कौन बनेगा करोड़पति कार्यक्रम जैसा संगीत और अभिताभ बच्चन की गूँजती भारी भरकम आवाज लघुकथा का प्रभाव दोगुना कर देती है। इस प्रकार के प्रयोग लघुकथा में होते रहने चाहिए। वर्तमान परिदृश्य में राष्ट्रवाद की परिभाषा क्या हो गई है, इसे बहुत ही रोचक ढंग से लेखक ने दर्शाया है। लेखक अपने दायित्व बोध के प्रति सजग है। यहाँ लघुकथा का अंत सांकेतिक है, इस तरह के राष्ट्रवाद के हिमायतियों को जनता शीघ्र सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा देती है- ‘लेकिन दर्शक दीर्घा में कोई हलचल नहीं हुई । वहाँ सवालिया सन्नाटा पसरा हुआ था । स्टूडियो में केवल होस्ट की ही तालियाँ गूँजती रही।’
मार्टिन जान की इस लघुकथा का समापन कथ्य के अनुरूप बहुत ही स्वाभाविक ढंग से हुआ है। लघुकथा का अंत पैना, मारक,चुटीला, धारदार या विस्फोटक होना चाहिए ,जैसी एकतरफा सोच लेखक की रचनात्मकता को प्रभावित करती है। समापन बिंदु की कथ्य के अनुरूप रचना को निम्न उदाहरणों से समझा जा सकता है-
“चुप रह! आइंदा ख्याल रखना। नहीं तो कोठरी में बंद कर दूँगा।”
इतना कह थानेदार कुछ आगे बढ़ा और पिच्च से उसने मंदिर की दीवार पर पान की पीक थूक दी।
(तीर्थ और पीक: शंकर पुणतांबेकर)
इस पर मिस्टर खुराना ने ताजे खाए पान की ढेर सारी पीक को लापरवाही से एक ओर थूक दिया, जिस कारण अनेक बेकसूर चीटियाँ उस तंबाकू की पीक में जिंदा रहने के लिए बिलबिलाने लगीं।
(औकात: जगदीश कश्यप)
पुणतांबेकर जी की लघुकथा में मंदिर के सामने थाना है। पुजारी सूर्य को जल चढ़ाता है तो गल्ती से जल थानेदार पर पड़ जाता है। थानेदार भड़क जाता है और उसे भविष्य में मंदिर की दीवार गंदी न करने के लिए सचेत करता है। लघुकथा के समापन में थानेदार द्वारा मंदिर की दीवार पर पान की पीक थूक दी जाती है। यहाँ लेखक तीर्थ और पीक प्रतीकों के माध्यम से जो सम्प्रेषित करना चाहता है, वह पूर्ण हो जाता है, अतः यह कथ्य के अनुरूप स्वाभाविक समापन कहा जाएगा।
अब अगर इस लघुकथा की तुलना में जगदीश कश्यप की ‘औकात’ लघुकथा को देखा जाए तो उसमें एक ऐसे वकील की कथा है जो विपक्षी वकील से पाँच हजार रुपये लेकर जानबूझकर गरीब रामजीलाल का केस हार जाता है और रामजीलाल के विरुद्ध तत्काल घर खाली करने के आदेश हो जाते हैं। यहाँ लघुकथा के समापन में जिस रचनात्मकता की बात कही गई, उसे देखा जा सकता है। लेखक द्वारा प्रयोग किया गया प्रत्येक शब्द मायने रखता है-ताजे खाए पान की ढेर सारी पीक को लापरवाही से एक ओर थूकना, जिसके कारण बेकसूर चींटियों(बेकसूर गरीब रामजीलाल जैसे लोग) का उस पीक में जिंदा रहने के लिए बिलबिलाने लगना। पाठक को विचलित कर देने वाला अंत। खुराना जैसे वकीलों के प्रति मन नफरत से भर उठता है। जगदीश कश्यप की यह रचना, लघुकथा के समापन बिंदु पर जिस अतिरिक्त श्रम की बात की जाती है, उसका बहुत ही सशक्त उदाहरण है।
लघुकथा का समापन किसी झील की तरह शांत एवं गहराई लिये भी हो सकता है, इसे रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी की कालजयी लघुकथा ‘ऊँचाई ’ (लघुकथा चोरों की सबसे प्रिय रचना) में देखा जा सकता है-
पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए। बरसों पहले पिता जी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर इकन्नी टिका दिया करते थे, परन्तु तब मेरी नजरें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं।
सुभाष अखिल की ‘पटरी पर सीख’ एक सशक्त लघुकथा है। पटरी पर रद्दी के भाव बिकती अपनी किताब को दुकानदार से खरीदने के प्रसंग के माध्यम से लेखक यह संप्रेषित करने में सफल रहा है कि पटरी पर समान बेचने वाले गरीब जरूर हो सकते हैं, पर चरित्र के मामले में किसी लेखक या दूसरे पैसे वाले से कमतर नहीं होते। -0-