रचनाधर्मिता और शिल्प / कमलेश कमल
साहित्य के 'सहित' अर्थ से संश्लिष्ट रह, एकमना साहित्यकार जब अपनी कल्पनाशीलता का उच्छ्वास लेखनी के माध्यम से करता है; तो अभिप्रयुक्त कौशल रचनाधर्मिता का विशेषण पाता है!
वस्तुतः, रचना का कलेवर रचनाकार के मानसिक संवेगों का सहचर होता है एवं इसकी गुणवत्ता, परिष्कृत रचनाधर्मिता कि अनुगामिनी! स्पष्ट है कि किसी रचनाकार की रचनाधर्मिता एक स्वच्छंद इकाई है, जो पूर्णत: व्यष्टिगत होती है और भाषाई अलंकरण या व्याकरण के अंकुश से उसका ख़ास प्रयोजन नहीं होता! यह तो प्रभावित होती है मानसिक क्षितिज की व्यापकता एवम् भौतिक-मानसिक परिवेश की उन सूक्ष्मातिसूक्ष्म तरंगों से जो चेतन-अचेतन मन को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है!
रही बात भाषा कि तो यह रचनाधर्मिता का चोला होता है जिसे देख प्रथमतः कोई पाठक आकृष्ट होता है! हर किसी को एक से वस्त्र नहीं भाते ...ऐसे ही, एक ही भाषा सबको नहीं लुभा सकती! कोई सादगी पसंद होता है तो कोई लकदक का प्रेमी! वहीं कुछ होते हैं जो किसी खास का पूर्वाग्रह नहीं पालते और अवसर के अनुरूप चुनाव के हिमायती होते हैं!
फिर भी, इतना तो मानना पड़ेगा कि पंडिताऊ भाषा कथानक के सरस सलिल प्रवाह को अवरुद्ध करती है; भले ही सरस और सलिल का मानक हर पाठक का अलग-अलग होता है!
ऐसी आश्वस्ति है कि कम-से-कम लेखक को अपने मानक ऊँचे रखने चाहिए क्योंकि उसका तुष्टीकरण रचना को परिमार्जन-विमुख बनाता है और वह ढाक के तीन पात भर बन कर रह जाता है। सधी हुई भाषा और चुस्त-दुरुस्त शिल्प लेखक को एक अलग पहचान देती है।
जो अपना शिल्प और अपनी भाषा को लेकर सजग नहीं होते, उन्हें आलस्य और प्रमाद जल्द ही घेर लेता है और फिर स्याही या तो समाप्त हो जाती है या फिर सीमित।
लब्बो-लुबाब यह कि रचनाधर्मिता और शिल्प-सजगता दोनों पायदानों पर टिका होता है लेखक का साहित्यिक अवदान।