रचना एवं रचनाकार का परिवेश / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
काव्य-साधना के लिए निर्मल मन के बिना शब्द-शक्ति और भाव-शक्ति जाग्रत नहीं होती और न इनके अभाव में सहृदय अभिभूत होता है। रचनाकार का परिवेश और अध्ययन, जीवन-अनुभव और सरोकार उसे और अधिक सजग दृष्टि प्रदान करते हैं। विभिन्न कार्य-समूहों, स्थानों (गाँव व नगर) , कार्य-संस्थाओं से जुड़े होने वाले लोगों का जीवन-अनुभव, उनकी संवेदना, विभिन्न प्रकार का अध्ययन एक ही स्थान पर, एक ही कार्यक्षेत्र में उम्र बिताने वालों के अनुभव से अधिक होता है। उदार चिन्तन जहाँ हमें व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करता है, वहीं अनुदारता सोच को संकीर्ण बनाती है। तिड़कम या जुगाड़ से पुरस्कार झटकना और विश्व-कल्याण को ध्यान में रखकर साहित्य-सृजन करना, दोनों ही अलग-अलग कर्म हैं।
परिवेश रचनाकार का निर्माण करता है, वहीं सजग रचनाकार अपने परिवेश को अपने कर्म से सुवासित भी करता है। यहाँ मैं दो रचनाकारों का उल्लेख करना चाहूँगा-कमला निखुर्पा, डॉ.कविता भट्ट का। इन दोनों का अभी तक कोई स्वतन्त्र हाइकु / ताँका आदि का संग्रह नहीं आया है, तदपि इनका रचनाकर्म गुणवत्ता में किसी से किंचित् भी कम नहीं है। कमला निखुर्पा के जीवन की शुरुआत एक पहाड़ी गाँव से होते हुए, प्रवक्ता के रूप में केन्द्रीय भीलवाड़ा, फिर देहरादून में स्थानान्तरण। प्राचार्य के रूप में अव्यवस्थित केन्द्रीय विद्यालय सूरत और अब पिथौरागढ़ की प्रशासनिक चुनौतियों से जूझते हुए, निरीक्षण-प्रशिक्षण और केन्द्रीय विद्यालय संगठन की विभिन्न गतिविधियों के दौरान भारत के अनेक शहरों तक जाना पड़ा, व्यस्त रहना पड़ा। इन्होंने अपनी सारी शक्ति इन संस्थानों को बेहतर बनाने में लगाई. यही वैविध्य और सांस्थानिक जुड़ाव डॉ.कविता भट्ट का भी रहा है। अंग्रेज़ी साहित्य, योग, दर्शन और सामाजिक कार्य की स्नातकोत्तर शिक्षा से लेकर विज्ञान-शिक्षा-संस्कृति के राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय स्तर के सैंकड़ों कार्यक्रमों में, सैकड़ों नगरों में जाना पड़ा। इन दोनों की एक और बात कि विकट परिस्थितियों में भी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया, सिर नहीं झुकाया, अपना रास्ता अनेक बाधाओं से जूझते हुए खुद तैयार किया। दूसरों को सदा कुछ न कुछ दिया ही है। ऐसा व्यक्ति किसी की चारण-गाथा नहीं गा सकता। ऐसे सृजक ही समाज को कुछ दे सकते हैं। साहित्य के नाम पर धन की वसूली करने वाले, पुरस्कार के लिए जुगाड़ बिठाने वाले किसी को क्या देंगे! कुछ ऐसे भी हैं जो ध्रुवीय भालू की तरह शीत निद्रा से बरसों में एक बार जागते हैं। कुछ देर तक रचनात्मकता का हो-हल्ला करके फिर से सो जाते हैं। तेजी से बदलती दुनिया में उनकी यह दीर्घसूत्रता सर्जन को गति प्रदान नहीं कर सकती। नाम के लिए काम करने वाले बहुत हैं। काम के लिए काम करना चाहिए और अपनी सामाजिक प्रतिबद्धताओं का पूरे मन से निर्वाह करना चाहिए. ये दोनों क्रमशः पचास-चालीस की अवस्था के हैं, लेकिन अनुभव की दृष्टि से कहीं बड़े। केवल उम्रदराज़ होना किसी के बड़े होने का निकष नहीं है। मनुस्मृति में कहा भी है-
न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः। ' यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवाः स्थविरं विदुः॥2.156॥
(सिर के बाल सफ़ेद हो जाने से ही कोई मनुष्य वृद्ध नहीं कहा जा सकता; देवगण उसी को वृद्ध कहते हैं जो तरुण होने पर भी ज्ञानवान् हो।) सीखने की प्रवृत्ति और परिवेश की व्यापकता, भाषिक नियन्त्रण रचनाकार को समृद्ध करता है। सामाजिक परिवेश, सांस्कृतिक-चेतना रचनाकार को और अधिक भाव-सम्पन्न बनाते हैं।
इस लेख में सबसे पहले मैं बात करूँगा कमला निखुर्पा की, जो केन्द्रीय विद्यालय खमरिया जबलपुर में केन्द्रीय विद्यालय संगठन के स्नातकोत्तर हिन्दी-शिक्षकों के 21 दिवसीय शिविर में साथ रहीं। अपने कार्य में चुपचाप निमग्न। कई राज्य के शिक्षकों में इनकी प्रतिभा और कर्मठता अभिभूत करने वाली थी। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि तब से आज तक कमला निखुर्पा मेरे आत्मीय सम्पर्क में हैं। सबसे पहले इनकी हाइकु, ताँका, सेदोका और चोका रचनाओं पर दृष्टिपात करते हैं।
कमला निखुर्पा ने-'मन के मेघ / उमड़े है अपार / नेह-बौछार' हाइकु से 1 सितम्बर 2010 को हिन्दी हाइकु से सर्जन की शुरूआत की। ठेठ ग्रामीण अंचल की ऊष्मा, रिश्तों की जीवन्तता इनके हाइकु को अलग पहचान देती है। 'हिचकी' का भारतीय गीतों में बहुत प्रयोग होता है। भाई को याद करते हुए, जो हाइकु इन्होंने रचा, उसकी भावभूमि नितान्त अलग है। चोटी खींचने का आभास उसे यादों की गहराई में निमज्जित कर देता है-
आई हिचकी / अभी-अभी भाई ने / ज्यों चोटी खींची
'हिचकी आना, भाई का चोटी खींचना' गहरे प्रेम के भाव सँजोए हुए है। बचपन में बहन को तंग करने के लिए की गई शैतानी माधुर्य-भरी अद्भुत अनुभूति करा जाती है। मन के मेघ की नेह-बौछार भी भाई के निर्मल प्रेम की याद दिला देती है। यह नेह भी ऐसा कि बिना बादल के ही सिंचित कर देता है-
तेरा ये नेह / बिन बदरा के ही / बरसा मेह।
जहाँ अपनापन होगा, वहाँ अपनों के दु: ख की अनुभूति भी होगी। कुछ लोग केवल अपने दु: ख से दु: खी और अपने सुख से सुखी होते हैं। दूसरों के दु: ख को उत्सव की तरह मनाने का काम केवल क्रूर व्यक्ति ही कर सकता है। सहृदय वही होता है, जो दूसरों के सुख से तो सुखी हो ही, उनके दु: ख को भी अनुभव करे। दूसरों का दुख उसे गहरे तक बींध जाए, उद्वेलित कर जाए. वह उस दु: ख को दूर करने का प्रयास भी करे। वह दु: ख यदि अपनों का हुआ तो उससे अछूता रहना कठिन ही नहीं, असम्भव है। इस हाइकु को देखिए-
बिंध गई मैं / हँसी में ही छुपी थी / तेरी सिसकी।
कवयित्री कमला निखुर्पा ने प्रिय की हँसी को महसूस किया; लेकिन उस हँसी के पीछे छुपी सिसकी को, विगलित व्यथा को भी बहुत गहराई तक महसूस किया है। अन्तर्मन को मथने वाली व्यथा को हँसी या मुस्कान की ओट में बरबस नहीं छुपाया जा सकता। लाख प्रयास करने पर भी वह पीड़ा, सिसकी बनकर फूट पड़ती है। संवेदना वह गुण है, जो कवि को पाठक से जोड़ देता है। कमला निखुर्पा की गहन संवेदना इस हाइकु के एक-एक शब्द में उतर आई है। इन हाइकु में प्रेम की तीव्र अनुभूति भिगो जाती है। एक सावन अगर बाहर बरसता है, तो उससे भी अधिक मन के भीतर बरसने वाला सावन मन को नम कर जाता है। ढल रहे चाँद को पुकारने का निहोरा करके चकोरी रो पड़ती है। न जाने कितने भाव मन को उद्वेलित कर जाते हैं। नयनों की झील सागर बनकर छलक पड़ती है।
इक सावन / बरसे मन भीतर / इक बाहर।
पुकारो कोई / ढल रहे चाँद को / चकोर रोई।
उठी हिलोर / सिंधु बन छलकी / नैनों की झील।
यदि हमारा मन आराध्य के प्रति समर्पित रहेगा, पतंग से डोर की तरह बँधा रहेगा, तभी सच्चा प्रेम मिल सकेगा, तभी अनन्त की खोज हो सकेगी-
मैं तो पतंग / डोर तेरे हाथों में / खोजूँ अनंत।
उसका चाँद कहीं दूर है। वह उसका हाल किससे पूछे? इसलिए वह-वह चाँद से ही पूछती है–
नभ के चाँद / निहारता होगा ना / तुम्हें वह चाँद!
बेटी की बिदाई के बाद माँ पुरानी स्मृतियों में खो जाती है। बेटी के जन्म से लेकर विवाहोपरान्त विदा होने की घटनाएँ चलचित्र-सी घूम जाती हैं। कमला निखुर्पा ने 'बिटिया की गुड़िया' शीर्षक से अपने 24 हाइकु में बहुत मार्मिकता से व्यक्त किया है। बेटी के बिदा होने पर वह उस गुड़िया को तलाशती है, जो आले में पड़ी रहती थी-
ढूँढ़े है मैया / वह नन्ही-सी गुड़िया / आले पर पड़ी।
पुरानी यादें रह-रहकर मन को मथती रहती हैं। खुलकर सबके सामने रोना भी नहीं हो पाता। चुपचाप आँसू बहाने पड़ते हैं-
उमड़ी यादें / भूली-बिसरी बातें / भीगा तकिया।
प्रकृति का मोहक सौन्दर्य कमला की आँखों में बसा हुआ है। कहीं वह रस छलकाने वाला बदरा है, तो कहीं पूरब रूपी पड़ोसी की खिड़की से झाँकता उजाला है। पूरब के लिए पड़ोसी के उपमान का सुन्दर संयोजन किया गया है-
रस गागर / छलकाए बदरा / नशीली धरा।
खुली खिड़की / पूरब पड़ोसी की / उजाला हुआ।
कहीं धरा का मानवीकरण करते हुए उसे जगाने का प्रयास है-
जागो री धरा / आ बैठी सिरहाने / भोर किरण!
प्रकृति का अंधाधुन्ध दोहन कवयित्री के सामने है, जिसके चलते आधुनिकता और विकास के पोषकों ने पर्यावरण का सन्तुलन ही बिगाड़ दिया है। पीढ़ियों से वहाँ रहने वालों को गँवार समझकर बेदखल कर दिया गया है। उनकी जगह धन कुबेरों ने हड़प ली है-
कटे जंगल / गँवार बेदखल / उगे महल।
ताँका में प्रेम और वियोग का कोमल शब्दों से उकेरा यह भावानुवाद देखिए-
मैं तो चुप थी / फिर क्यों गूँजी चीख? / मन की घाटी / कैसे हुई वीरान? / पहाड़ क्यों दरके?
ओ मेरे मीत! / मिलना तेरा-मेरा / मिले हैं जैसे / नदिया का किनारा / मन क्यों घबराया?
पल में मिली / बिछुड़ी युगों तक / सदियाँ बीतीं / गुनगुनाती रही / गीत तेरे नेह के।
शब्द-चयन और उनके द्वारा व्यंजित भाव-सौन्दर्य, चीख का गूँजना, मन की घाटी की वीरानी और उसके प्रभाव से पहाड़ का दरकना, नदिया से जैसे किनारे मिलते हैं, उसी तराह से मीत का मिलना सुखद है; लेकिन फिर भी बिछुड़ने की आशंका कहीं न कहीं अवचेतन मन में दुबकी होती है। सम्भवतः मिलन के माधुर्य के छिन जाने से यही मन वियोग के भय से आक्रान्त रखता है। मिलना पल भर का होता है और बिछुड़ने की पीड़ा युगों-युगों तक सालती रहती है। फिर भी प्रिय के नेह के गीत होंठों पर थिरकते रहते हैं। कमला जी के चोका भी इसी तरह की भाव-प्रवणता से सुसज्जित हैं। अमूल्य भेंट चोका का एक अंश-
मुड़के देखूँ / दूर क्षितिज पार / तुम्हें ही पाऊँ / गहन गुरु-वाणी / थामे कलम / नेह भर सियाही / बूँदे छिटकी सुधियों की सरिता / उमगी बह आई।
भाव और अभिव्यक्ति की दृष्टि से त्रिवेणी में 26 सितम्बर 2011 से सुन्दर ताँका प्रकाशित हो रहे हैं। डॉ. सुधा गुप्ता, डॉ. हरदीप सन्धु, कमला निखुर्पा, रचना श्रीवास्तव, सुदर्शन रत्नाकर, डॉ.जेन्नी शबनम कृष्णा वर्मा, शशि पाधा आदि इसी सर्जन की शृंखला में हैं। बहुत से लोगों ने त्रिवेणी की देखा-देखी थोक में भाव-शून्य शब्द-जाल रचा है, जो केवल 5-7-5-7-7 का जंजाल ही सिद्ध हुआ। ऐसे कलमवीरों के संकलन पढ़कर बहुत निराशा हुई, अत; 2012 के बाद से किसी अगले संकलन की बात दिमाग़ से निकाल दी थी। डॉ. कविता भट्ट ने पहली बार फ़रवरी 2018 में त्रिवेणी के लिए ताँका भेजे. मुझे पढ़कर सुखद अहसास हुआ। विषयवस्तु में नयापन, अभिव्यक्ति में नूतनता के साथ सहजता इनके ताँका की विशेषताएँ हैं। इस विशेषता को त्रिवेणी के नियमित रचनाकार और पाठक भली प्रकार समझते हैं। प्रेम जीवन की शाश्वत अनुभूति है, जो जड़ से चेतन तक फैली है। इसकी उदात्तता मनुष्य को मानव बनाती है। विकृत मानसिकता वाले इसी प्रेम को वासना या कुण्ठा बना लेते हैं। एक साथ इतने भावपूर्ण ताँका भाव एवं कल्पना की ऊर्ध्व भावभूमि तक ले जाते हैं। भाव-सम्पन्न और गुणात्मक सर्जन करना सृजक को स्थापित करता है। रससिद्ध कवयित्री कविता ने इसे सिद्ध कर दिखाया है। उपमान नए तो हैं ही, भाव-पूरित भी हैं, जैसे -नभ-सी बाहें, मन की खूँटी, मन की दीवारें-
कभी पसारो / बाहें नभ-सी तुम, / मुझे भर लो / आलिंगन में प्रिय / अवसाद हर लो।
उगता रवि / धरा का माथा चूमे / खग-संगीत / मिले ज्यों मनमीत / दिग-दिगन्त झूमे।
ताप-संताप / मिटे हिय के सब, / प्रिय-दर्शन / प्रफुल्ल तन-मन / ज्यों खिले उपवन।
आँखें लिखतीं / मन पर अक्षर / प्रेम-पातियाँ, / उन अध्यायों पर / मैं करूँ हस्ताक्षर।
मन की खूँटी / झूलता फूलदान / तेरी प्रीत का / प्रिय फूल सजाऊँ / नित खिले मुस्कान।
बदले रंग। / मन की दीवारों के, / नहीं बदली / उस पर चिपकी / तेरी तस्वीर कभी।
मन का कोना / उदीप्त-सुवासित / प्रिय प्रेम से! / इत्र नहीं, कपूर;। पूजा के दीपक-सा।
खोले द्वार यूँ / बोझिल पलकों से, / नशे में चूर / कदमों के लिए भी, / मंदिर के जैसे ही।
कविता भट्ट के इन ताँका में-नभ-सी बाहें पसारना में 'पसारो' शब्द की व्यापकता फैलाओ में नहीं, आलिंगन द्वारा अवसाद हर लेना (वासना नहीं भाव की शीतलता और सुखानुभूति) , रवि द्वारा धरा का माथा चूमना (प्रकृति का मानवीकरण और दृश्य बिम्ब, दिग-दिगन्त का झूमना भी हर्षोल्लास की अभिव्यक्ति) , प्रिय-दर्शन द्वारा ताप-सन्ताप का मिटना एक सात्त्विक अनुभूति है। आँखों द्वारा मन पर अक्षर लिखकर प्रेम पाती पूरी करती हैं फिर उन पर हस्ताक्षर करके उस भावानुभूति को पुष्ट करना बेहद गहन है। मन की खूँटी पर रूपक की प्रस्तुति और उस पर भी झूलता हुआ (बलपूर्वक टँगा हुआ नहीं) फूलदान, मन की दीवारों पर चिपकी (टँगी हुई नहीं) तस्वीर का न बदलना (चिपकी हुई जो है) , मन के कोने का उद्दीप्त और सुवासित होना, वह भी किसी सस्ते या तीव्रगन्ध वाले बाज़ारू इत्र से नहीं; बल्कि कपूर से सुवासित् (सुगन्धित से ऊपर) । प्रिय का प्रेम मर्यादित है। कोई भी चलताऊ जुमलेबाजी यहाँ काम नहीं करती। हुस्ने-जानाँ, जाने-जानाँ जैसी घिसी-पिटी शब्दावली का यहाँ प्रवेश नहीं; क्योंकि प्रिय का वह प्रेम पूजा के दीपक की ज्योति-सा पावन है, आस्था और विश्वास से भरा है, आत्मीयता से परिपूरित है। प्रेयसी का समर्पण इस सीमा तक है कि नशे में चूर / कदमों के लिए भी वह उसी तरह द्वार खोलती है, जैसे कोई आस्थावान् मन्दिर का द्वार खोलता है, पूरे समर्पण भाव से। उपर्युक्त ताँका के भावों की यह एक झलक भर है। यहाँ प्रत्येक ताँका व्यापक अनुभूति लिये हुए है, जिस पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है।
आप हाइकु के क्षेत्र में पहली बार 24 सितम्बर 2014 को अपने इस हाइकु के साथ आई. मकान और घर के अन्तर को बताते हुए दीवारें ढहने की नियति को स्वीकार करते हुए कहती हैं-
मकाँ को घर / बनाना चाहते थे / दीवारें ढही।
स्वप्न-शृंखला का निरन्तर चलते जाने वैसा ही सुख्द लगता है, जैसे अधिक सर्दी में लिहाफ़ की गर्माहट। कवयित्री मन के मीत से मधुर मनुहार करती है कि कभी सप्न बनकर ही चले आते; क्योंकि जीवन में वैसे तो साक्षात् मिलन विधि ने प्रदान ही नहीं किया। सपनों की यह गर्माहट प्रकारान्तर से जीवन की ऊष्मा है। ऐसे में जो सुधियाँ मन को घेरती हैं, लहरों के और भीड़ के रेले की तरह घेरती हैं, ये उन्हीं की हैं जो प्रेम की टीस देकर, कोमल हृदय को छलकर चले गए हैं-
गर्म लिहाफ़ / आँखों में निरन्तर / स्वप्न-शृंखला
मीत मन के / कभी तो आते तुम / स्वप्न बनके.
उमड़े रेले / उनकी सुधियों के / छलिया हैं जो।
कोहरे को आपने नई उद्भावना के साथ प्रस्तुत किया है। जब कोहरा छाया हो तो प्रेमी के संग अठखेलियाँ करते हुए 'कोई देख न ले' यह झिझक नहीं रहती। कोहरा अपनी कम दृश्यमानता के कारण प्रेमी-प्रेमिका के लिए सकारात्मक आत्मीय और अन्तरंग अवसर प्रदान करता है। कुछ शब्दों के छोटे से कलेवर में शृंगार का अभिभूत करने वाला इतना सौन्दर्य भर देना सरल कार्य नहीं। यही वह भाषा-शक्ति है, जो निरन्तर गहन अध्ययन और पर्यवेक्षण से मिलती है। चिट्ठी पाने के लिए डाकिए की प्रतीक्षा बहुत आतुरता से की जाया करती थी। अब नया ज़माना आ गया। उस डाकिए की प्रतीक्षा नहीं रह गई. कविता ने आँखों के लिए 'डाकिया आँखें' नितान्त नूतन, मसृण-भाव पूरित शब्द का प्रयोग किया है। वह प्रतीक्षा ही करती रह जाती है; लेकिन कोई मन के लिखे उन खतों को प्रिय पढ़ता ही नहीं। उसके प्रेम को वह अनुभव ही नहीं करता। इस प्रयोग की जितनी भी व्याख्या की जाए कम है।
कोहरा ढक ले / अठखेलियाँ सारी / प्रिय-संग की।
डाकिया आँखें / मन के खत भेजें / प्रिय न पढ़े।
ये दो हाइकु केवल हाइकु नहीं, वरन् किसी कुशल कैमरा मैन द्वारा लिये गए स्नैपशॉट प्रतीत होते हैं। कवयित्री ने किसी बाज़ारू प्रेम को अपना विषय नहीं बनाया। वह प्रेम तो प्रणव (ओम्) की तरह साँसों में समाया है, रन्ध्र-कूपों को सींचने वाला है। वह तो निरन्तर तपश्चर्या में निमग्न योगिनी की तरह है और उसका प्रिय साधारण नहीं, उच्छृंखल नहीं, वरन् योगीश्वर है। उदात्त प्रेम का इससे सुन्दर उदाहरण क्या होगा। बड़े से बड़े गीत में जो बात नहीं कही जा सकती वह 17 वर्णों अर्थात् छह शब्दों में सम्प्रेषित कर दी। इस तरह की भाषा होने पर ही हाइकु 'मन्त्र सिद्ध' हो सकेगा।
तुम प्रणव / मैं श्वासों की लय हूँ / तुम्हें ही जपूँ।
प्रतीक्षारत / तापसी योगिनी मैं / तू योगीश्वर!
जो सच्चा प्रेमी है, वही सच्चा पारखी हो सक्ता है। वही पत्थर और हीरे के भेद कि समझ सकता है। यह प्रेमपूरित दृष्टि ही उसे पहचान सकती है। शिल्पी का भी कमाल है कि वह अपने मन के स्वरूप को प्रस्तर-खण्ड में मूर्त्तिमान् कर दे।
पाहन हूँ मैं / तुम हीरा कहते / प्रेम तुम्हारा।
तुम हो शिल्पी / प्रतिमा बना डाली / मैं पत्थर थी।
ये कुछेक उदाहरण है। बहुतों के कई-कई संग्रह छप गए, तब भी ऐसे चार हाइकु उनके पास नहीं मिलेंगे।
प्रिय का स्पर्श वैसा ही सुखद है जैसे किसी भिखारी को ठिठुराती शीत में गर्माहट देने के लिए कम्बल मिल जाए. प्रिय के आने की असीम उत्कण्ठा और लालसा इतनी अधिक हैं कि जैसे कोई लिहाफ़ मिल गया हो। मिलन की व्याकुलता में साँसें दहक उठी हैं अर्थात् साँसों में गहन उत्तेजना भर गई है, मिलन की अधीरता बढ़ गई है।
स्पर्श तुम्हारा / भिखारी को कम्बल / शीत-प्रतीक्षा।
तुम्हारा आना / सर्दी में लिहाफ-सा / साँसें दहकी।
प्रिय तो नहीं पहुँचता। प्रिया प्रतीक्षारत रही और सारा सौन्दर्य विगलित हो गया। यौवन-सम्पन्ना श्वेतकेशा में परिवर्तित हो गई-
हुआ विलम्ब / तुम्हें आने में प्रिय / श्वेतकेशा मैं।
कोई पढ़े न पढ़े, पीड़ा जाने न जाने, महसूस करे या न करे; लेकिन सच्ची प्रिया वही है, जो हृदय में छपी व्यथा को बाँचने की क्षमता रखती हो, जो गहन संवेदना की धनी हो-
मैं ही बाँचूँगी / पीर-अक्षर पिय, / जो तेरे हिय।
वियोग में जीवन भर अँगीठी की तरह सुलगती रही, फिर भी मन क्यों सीला रह गया! बहुत मार्मिक व्यंजना विरह में सुलगने के साथ निरन्तर अश्रु धारा बहती रही, इसीलिए सुलगते रहने पर भी मन का सीलापन दूर नहीं हुआ। विप्रलम्भ शृंगार की बहुत ही मार्मिक अभिव्यंजना की गई है। 'सुलगना' शब्द में व्यथा की निरन्तरता बनी हुई है। जलना कुछ पल का; लेकिन सुलगना बरसों-बरस, अहर्निश-
जीवन भर / अँगीठी-सी सुलगी / मन क्यों सीला।
नारी के नयनों में, वक्ष में ममता के अमृत का अजस्र स्रोत अवस्थित है, फिर भी इस हृदयहीन संसार में उसका उत्पीड़न कम नहीं होता। इस हाइकु में 'नैन' और 'वक्ष' शब्दों का व्यापक अर्थ है। यही सफल हाइकुकार की क्षमता है, जिसकी सिद्धि शब्द-जाल से सम्भव नहीं-
ममता फूटे / नैनों और वक्षों से / क्यों उत्पीड़न।
इनका चोका-सृजन भी बेजोड़ है। ओ माँ! आद्या प्रकृति, प्रेम-अँजुरी, इस बरस अब से कुछ अंश यहाँ पर दे रहा हूँ-
-निज चिन्ताएँ / और उद्वेग सभी / तुझको सौंपे / वर सदैव / अनंत चुम्बन भी / मेरे मस्तक / धरे तूने नित माँ
-प्रेम-अँजुरी / किन्तु यह क्या मिला! / तुम सदैव / सशंकित, क्रुद्ध ही—-नहीं जानती / तप जिससे होओ / तुम प्रसन्न/ जबकि मैं तो प्रिय / हूँ प्रेम-तपस्विनी!
-बाट तिहारी / मधुमास निहारे / मन-आँगन / दहकते अंगारे / तन-चंदन / सुलगाएँ फुहारें / होम अग्नि में / ज्यों घृत हो द्रवित / ये कौन कहे / कि तन की है ज्वाला, / यह बन्धन / मन से मन का रे! / अधरों पर / यों अधरों की प्याली / मैं रूक्ष धरा / तू बदली निराली / बरस जा ना! / इस बरस अब / मैं जनमों की / पिया रही हूँ प्यासी / युगों-युगों से / बैठी नैन सँजोए / सभी स्वप्न गुलाबी!
आपकी भाषा में एक सांस्कृतिक सुगन्ध है, वैदिक चिन्तन का मुग्धकारी भावात्मक स्पर्श है-जैसे आद्या प्रकृति, होम, घृत, प्रणव, आदि। जापान की इस काव्य शैली को पूर्णरूपेण भारतीय परिवेश और चिन्तन में गूँथकर सरस बना दिया है। इनके हाइकु आदि काव्य में बिम्ब, प्रतीक, विशेषण विपर्यय सहज भाव से आए हैं, जो भाव को और अधिक सम्प्रेष्य बना देते हैं।
काव्य का कोई भी प्रकार हो, वह शब्द की सीमा से परे होता है। केवल शब्दों में उलझा शब्दकोश का अर्थ कभी काव्य नहीं बन सकता। अच्छे काव्य का अर्थ सदैव शब्दों के अभिधेय अर्थ का अतिक्रमण करता है। हाइकु, ताँका, सेदोका, चोका आदि जापानी कविताएँ होने पर भी हमारी भारतीय काव्यशास्त्रीय परम्परा के साथ हमारे समाज का दर्पण भी हैं। हमारे उपमान इनको और उत्कृष्ट बनाते हैं। आप सबसे आशा करता हूँ कि आप इसी माधुर्य को पहले की तरह आगे बढ़ाएँगे। कम रचेंगे (लिखेंगे नहीं, बहुत से लोग लिख-लिखकर बहुत कूड़ा भर चुके हैं) गुणात्मक रचेंगे।
भविष्य में इन दोनों का काव्य-सृजन हिन्दी-जगत् को ऊँचाई प्रदान करेगा, मेरा ऐसा विश्वास है। कुछ वर्ष पहले आदरणीया सुधा दीदी ने 'मेरी पसन्द' के अन्तर्गत मेरे ताँका पर लिखा था। उनकी मनमर्ज़ी। उनका यह लिखना कुछ को बुरा भी लग सकता था कि काम्बोज के ताँका पर ही क्यों लिखा। मैंने पूछा तो दीदी ने उत्तर दिया था कि मैंने क्यों लिखा, यह मेरी पसन्द, मेरी मर्ज़ी। आज यही बात अपने लिए कह रहा हूँ-किसी को बुरा लगे, तो इस पर मेरा वश नहीं। मेरा सभी से यह कहना है कि जो अच्छा रचे, वे हमसे बड़े हों या छोटे हम उनके रचनाकर्म का विश्लेषण करें और उदारतापूर्वक इस स्वस्थ परम्परा को आगे बढ़ाएँ। जिन साथियों के रचनाकर्म पर मैं अभी तक कुछ नहीं लिख सका हूँ, भविष्य में मुझे उन पर भी कुछ न कुछ लिखना है।
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