रचना से लेकर भाव तक की यात्रा / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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हाइकु की अन्तर्वस्तु के बारे में सार रूप से कहा जाए, तो रचना से लेकर भाव तक पहुँचने की यह यात्रा शब्द के उपयुक्त चयन और प्रयोग की यात्रा है। पातञ्जलमहाभाष्य में कहा गया है-

एक: शब्द: सम्यक् ज्ञात: सुप्रयुक्त:

स्वर्गे लोके च कामधुग् भवति॥ पतञ्जलि (पातञ्जलमहाभाष्य, प्रथम आह्रिक)

-यदि एक ही शब्द को सही रूप से जान लिया जाए और जानकर सही रीति से यदि उसका सुप्रयोग किया जाए, तो वह इस लोक और स्वर्ग लोक में भी कामधेनु के समान सब मनोरथ सिद्ध करने में सहायक होता है।

हाइकु के विषय में 'सर जॉर्ज सैन्सम' का कथन है-'a little drops of poetic essence.'-काव्यात्मक सौरभ की एक बूँद कहा है। शब्द का सम्यक् प्रयोग ही काव्यात्मक सौरभ तक पहुँचने का माध्यम है। हाइकु भी लघु कलेवर में उसी सम्यक् शब्द-चयन और उसके सुप्रयोग पर आधृत है। शास्त्रीय नियमानुसार 5-7-5 के स्वर युक्त वर्ण (अक्षर नहीं, जैसा कि कुछ लोग अनजाने में कह जाते हैं) की बात हम यहाँ कर रहे हैं। बहुत-सी भाषाओं में कवि इस शास्त्रीय रूप से बचकर चलने की सुविधा ले रहे हैं।

पुरुषोत्तम श्रीवास्तव 'पुरु' के हाइकु-संग्रह की पाण्डुलिपि 'अनुभूति के पल' मेरे समक्ष है। यह संग्रह जीवन-जगत् के विभिन्न भावों, कल्पनाओं और विचारों के मंथन एवं प्रत्यक्षीकरण से अभिषिक्त है। हाइकु, अल्पतम समय और न्यूनतम शब्दों में कुछ गहन एवं रससिक्त सृजित करने की सहज अभिव्यक्ति है। पुरुषोत्तम श्रीवास्तव 'पुरु' ने अपने जीवन की उन्हीं अनुभूतियों को इस संग्रह से प्रस्तुत किया है।

मन की व्याकुलता से मुक्ति मिले, ऐसा तभी सम्भव है, जब मन शान्त होता है। मन की उस शान्त स्थिति के लिए कहा है—

व्याकुल मन / शांति की एक ठाँव / गुरु की छाँव /

प्रकृति मानव की आदि सहचरी ही नहीं, उसकी जीवन रेखा है-'प्रकृति दर्शन' में पुरु जी ने इसके अभिभूत करने वाले रूपात्मक सौन्दर्य के चित्रण के साथ, इसके विनाश पर भी चिन्ता व्यक्त की है।

गगन को दूल्हा बताकर उसके माथे पर चाँद का टीका लगा दिया, जिसके साथ बाराती के रूप में तारों का समूह भी है। दृश्य बिम्ब का बहुत सुन्दर प्रयोग किया गया है—

गगन दूल्हा / लगा चाँद का टीका / तारे बाराती।

प्रकृति के विनाश से ऐसी स्थिति हो गई कि हमें अब गौरैया दिवस मनाना पड़ता है। अब गौरैया हमारे आँगन में दिखाई नहीं पड़ती। गौरैया केवल घण्टी की आवाज़ में ही सिमटकर रह गई है। अब गौरैया / कंक्रीट के वन में / घंटी में बोले।

कवि ने जहाँ माँ के महत्त्व पर हाइकु रचे हैं, वहीं 'पिता' के कोमल मन और आत्मीय व्यक्तित्व की विशालता को भी चित्रित किया है—

पिता गगन / जिसके तले पले / कोमल मन।

विश्व साहित्य की कोई भी विधा हो, 'प्रेम' का विस्तार सार्वकालिक है। कवि ने धरती और आकाश के एकात्म्य को आत्मपरक रूप से प्रस्तुत किया है। प्रेम के मूल में दृढ़ विश्वास निहित है। ऐसा ही प्रेम, प्रेमी युगल में होता है। सच्चा प्रेम कभी छुपाया नहीं जा सकता। हृदय की एकरूपता और सह अनुभूति के कारण दृष्टिपात भर से पहचाना जा सकता है।

धरा-गगन / एक दूजे को देख / ना थके कभी।

वट-विश्वास / प्रेम गगन सम / तुम्हारा मेरा।

कैसे छिपाऊँ / वह एक नज़र में / पढ़ ले मुझे।

'स्मृतियाँ' व्यक्ति को बहुत व्यथित करती हैं। सूर्यास्त के बाद जैसे छाया डूब जाती है, उसी प्रकार जीवन के बीते मधुर कटु-क्षण उद्वेलित करते हैं। मन बहुत चंचल है। वह प्रिय की तलाश में मुक्त होकर भाव के आकाश में भटकता रहता है-

यादों के साए / डूबते सूरज में / बढ़ते जाते।

भाव विहंग / विचरे मुक्ताकाश / खोजता प्रिय।

'नयन' विषय में कवि का मन बहुत रमा है। नयन की बहु विध भंगिमाओं का चित्र बहुत गहनता से किया है—

बाँचें नयन / जहाँ लिखे अनंत / प्रेम बयन।

नयन पट / अब क्यों कर खोलें / पिया हिय में।

नयन प्याले / भरे नेह सुधा के / अंक पिया के।

यन बोलें / मन मिसरी घोलें / बँध हिय के।

झील, स्नेह और हंस के उपमान के माध्यम से निम्नलिखित हाइकु अधिक सम्प्रेषणीय बन गया है

नयन-झील / भरा नेह सलिल / हंस तैरते।

'बुढ़ापा' जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है। जब तक यौवन और सामर्थ्य है, तब तक सब सम्मान देते हैं। बुढ़ापा भी पेड़ की तरह होता है। सूखने पर जैसे पेड़ को काट दिया जाता है, उसी प्रकार अपना स्वार्थ पूरा होने पर बूढ़ों की भी उपेक्षा हो जाती है—पेड़ बेचारे / जब बाट दें सब / काट दे जग।

उन्हीं माता-पिता को छोड़कर जब बच्चे प्रवासी हो जाते हैं, तो यह घोर एकाकीपन बुजुर्गों के लिए अभिशाप बन जाता है।

जड़ों से दूर / वैभव चकाचौंध / रोता वात्सल्य।

समय सदा एक जैसा नहीं रहता है। कहा भी गया है-

सुखमापतितं सेव्यं दुखमापतितं तथा।

चक्रवत् परिवर्तन्ते दुखानि च सुखानि च

जैसे सुख का उपभोग किया जाता है, उसी भाव से दुःख का भी उपभोग करना चाहिए। ये सब चक्र की तरह से परिवर्तनशील हैं। इसी सत्य को पुरु जी ने इस प्रकार कहा है-

ना हो उदास / बदलेगा समय / रख विश्वास।

किसी प्रिय के आने पर हृदय की धड़कन किस प्रकार बढ़ जाती है, इसका सहज चित्रण 'विविध' के इस हाइकु में देखिए—हवा की थाप / बढ़ गई धड़कन / कौन है आया।

यह संसार बहुरंगी है। अन्त तक पता नहीं चलता कि कौन अपना है और कौन पराया है। शान्त-एकान्त पलों में मन्थन करने पर ही पता चलेगा। समय और ये ॠतुएँ सराय हैं। निरन्तर समय चक्र बदलता है। इसी बदलाव के साथ हमें सबको परखना और तदनुरूप जीवन व्यतीत करना है। हम सबका जीवन क्षण-भंगुर है। जर्जर नौका के प्रतीक के रूप में इस कटु यथार्थ को प्रस्तुत किया है—मन का कोना / वहाँ बैठ सोचना / कौन अपना।

'काल सराय / ऋतुएँ आएँ-जाएँ / सीखो सहना।

जर्जर नाव / प्रतिक्षण डूबती / केवट रोए।

जीवन का सुख लेना चाहिए लेकिन असंग होकर, मोहातीत होकर, जैसे आकाश अपनी गोद में तारे संजोए रहता है, लेकिन उनसे मोहग्रस्त नहीं होता-

नभ असंग / पर अंक सँजोए / तारे सुमन।

यह सारी सृष्टि उसी सर्वव्यापक प्रभु की है, जिसका अनन्त विस्तार है। उसका कोई आदि-अन्त नहीं, कोई ओर-छोर नहीं। कवि ने दर्शन जैसे कठिन विषय को भी सरल अभिव्यक्ति प्रदान की है—उसकी सत्ता / है अनंत व्योम-सी / ओर ना छोर।

पुरुषोत्तम श्रीवास्तव 'पुरु' जी का यह पहला हाइकु-संग्रह है। मुझे आशा है कि पाठक इसे अवश्य सराहेंगे। आशा करता हूँ कि आप इस विधा को और भी ऊँचाई प्रदान करेंगे।

-0- 28-10-2024