रचना / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल
ईश्वर ने एक आत्मा को अपने-आप से निकाला और सुन्दरता में डाल दिया। उस पर उसने अपनी समूची करुणा और उत्कृष्टता उड़ेल दी। प्रसन्नता का प्याला पकड़ाते हुए उसने उससे कहा - "इस प्याले को कभी पीना मत वरना तुम अपना अतीत और भविष्य सब-कुछ भूल जाओगी क्योंकि प्रसन्नता कुछ-और का नहीं, पल-विशेष का नाम है।" उसने एक प्याला उसे दु:ख का भी दिया और कहा - "इस प्याले को पिओ। इससे तुम्हें जीवन में आनन्द के पलों के अर्थ समझ में आएँगे क्योंकि दु:ख सभी में व्याप्त है।"
फिर ईश्वर ने उसको प्रेम दिया जो भौतिक संतुष्टि की पहली साँस के साथ ही हमेशा के लिए उसे लेकर डूब जाए। मृदुलता दी जो आत्म-प्रशंसा की पहली चाहत के साथ ही उसके साथ नष्ट हो सके।
सन्मार्ग पर अग्रसर करने के लिए उसे बुद्धि दी। अदृश्य को देखने के लिए एक आँख उसके हृदय की गहराई में लगाई। सभी के लिए उसमें आकर्षण और अच्छाई की रचना की। उसने इन्द्रधनुष के धागों से फरिश्तों द्वारा बुने कपड़े की बनी पोशाक उसे पहनाई। दुविधा के साये में उसने उसके मस्तिष्क की घड़ी, जो जीवन का उदय और विकास है, सेट कर दी।
क्रोध की भट्टी से भस्म कर डालने वाली आग, मोह के रेगिस्तान से अचेत कर डालने वाली हवा, स्वार्थ के तटों से धारदार रेत, इतिहास के तलवों से असभ्यता की मिट्टी लेकर ईश्वर ने मनुष्य को बनाया। उसने उसे असीम शक्ति दी जो उसको तबाही के पागलपन से भर दे और जो इच्छा पूरी होने से पहले उसे शांत न होने दे। फिर उसमें उसने जीवन भर दिया जो मौत की निगरानी में रहता है।
फिर ईश्वर हँसा और रोया। मनुष्य के लिए उसने असीम प्यार और दया महसूस की और अपने निर्देशों के तहत उसको रक्षित किया।