रणबीर कपूर 'सावरिया' से 'बेशरम' तक / जयप्रकाश चौकसे

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रणबीर कपूर 'सावरिया' से 'बेशरम' तक
प्रकाशन तिथि : 01 अक्तूबर 2013


दबंग के लिए लोकप्रिय अभिनव कश्यप की फिल्म 'बेशरम' में रणबीर कपूर अपनी 'बर्फी' और 'रॉकस्टार' तथा 'ये जवानी है दीवानी' से अलग छवि में प्रस्तुत होंगे। अपनी पहली फिल्म 'सावरिया' से 'बेशरम' तक रणबीर कपूर ने विविध भूमिकाएं अभिनीत करके अपनी सितारा छवि में 'युवा' होने के अतिरिक्त किसी और चीज को जमने नहीं दिया है। प्राय: सितारे अपनी छवि में कैद हो जाते हैं और कुछ अलग करने का प्रयास नहीं करते। दरअसल, सिनेमा का आर्थिक आधार अधिकतम की पसंद पर टिका है और अधिकतम दर्शकों से भावनात्मक तादात्म्य बनाना सितारे की जमा-पूंजी की तरह होता है। यही कारण है कि दिलीप कुमार से लेकर रणबीर कपूर तक सभी अपने करियर में आम दर्शकों की रुचियों की फिल्म करते हैं।

दिलीप कुमार ने अपनी त्रासदी सम्राट की छवि से मुक्ति के लिए 'आजाद', 'कोहिनूर' तथा 'राम और श्याम' अभिनीत कीं तथा बाद की फिल्मों में भी 'हरफनमौला' छवि के अंश को अपनी भूमिकाओं में कायम रखा। अमिताभ बच्चन लगभग दर्जनभर असफलताओं के बाद सलीम-जावेद की 'जंजीर' से सितारा बने और उसी छवि को उन्होंने 'दीवार' तथा 'त्रिशूल' में मांजा। उनकी अपार लोकप्रियता को देखकर मनमोहन देसाई ने उस सिक्के को अपनी मसाला टकसाल का हिस्सा बनाने के लिए 'अमर अकबर एंथोनी' रची, क्योंकि उद्योग की परंपरा है कि प्रतिभाशाली कलाकार को एकल व्यक्ति मनोरंजन में बदला जाए और ऐसा न करने पर मसाला दुकानें बंद हो जातीं। यह सिद्धांत मसाला फिल्मों के आदि गुरु शशधर मुखर्जी ने वर्ष १९४१ में प्रतिपादित किया था। कलाकार भी यह जानता है कि उसकी प्रतिभा जब तक अधिकतम दर्शकों की चाहत का ठप्पा नहीं लगाती, तब तक वह बड़ी राशि अर्जित नहीं कर सकता और अपना ब्रान्ड नहीं बना सकता। मनोरंजन उद्योग का सारा खेल इसी बात पर टिका है। दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन की लोकप्रियता के शिखर दिनों में उनकी फिल्मों में नायिका, हास्य अभिनेता और संगीत गौण हो गए। सभी सितारों के शिखरकाल में कम मेहनताना लेने वाली नायिकाओं को लिया जाता था, क्योंकि फिल्म का एकमात्र आकर्षण वह सितारा ही होता था, अत: रणबीर कपूर भी 'एकल मनोरंजन उद्योग' में परिवर्तित हो रहे हैं। 'बेशरम' एक मॉस आधारित फिल्म है, जिसका पूर्व अभ्यास वे राजकुमार संतोषी की 'अजब प्रेम की गजब कहानी' में कर चुके हैं। यह बात भी गौरतलब है कि राजकुमार संतोषी ने उसी सफल फिल्म के दूसरे संस्करण के रूप में शाहिद कपूर के साथ 'फटा पोस्टर निकला हीरो' की, परंतु बात नहीं बनी, क्योंकि मॉस फिल्म के लिए भी सितारे का बहुमुखी प्रतिभा का धनी होना आवश्यक है और उसके सितारा कंधे इतने मजबूत होने चाहिए कि वह मनों मसाला उठाने में समर्थ हों। इस खेल में सलमान खान पारंगत हैं और उनकी सफलता से सबक लेकर ही शाहरुख खान 'चेन्नई एक्सप्रेस' में सवार हुए।

यह जो अधिकतम से भावनात्मक तादात्म्य बनाने की बात है, यह आसान नहीं है। इसके लिए प्रथम आवश्यकता यह है कि सितारा मसाला दृश्यों को पूरी विश्वसनीयता से प्रस्तुत करे। इसका अर्थ यह है कि सितारे की सामान्य बुद्धि भी जिन चीजों पर यकीन नहीं करती, उन पर यकीन करके ही यह विश्वसनीयता परदे पर प्रस्तुत होती है। अनेक अत्यंत प्रतिभाशाली कलाकारों ने मॉस फिल्में भीतरी हिकारत के साथ कीं, जैसे नसीरुद्दीन शाह ने 'हीरो हीरालाल' और 'कर्मा' इत्यादि हिकारत के साथ अभिनीत कीं, जबकि ओमपुरी मसाला फिल्मों में डूबकर काम करते रहे।

इसका एक पक्ष यह भी है कि सितारा मॉस फिल्म करके अर्जित लोकप्रियता के सहारे अपनी 'क्लास' फिल्मों को लाभ पहुंचा सकता है। आमिर खान ने अपनी लोकप्रियता का लाभ अपनी 'तारे जमीं पर' को दिया, जिस कारण फिल्म का संदेश दूर तक पहुंचा। यही खेल कमोबेश राजनीति में होता है कि कुछ 'मॉस' के नेता होते हैं और कुछ 'क्लास' नेता होते हैं। चुनाव जीतना अधिकतम की पसंद कोप्राप्त करना है। कुछ नेता सुर्खियों में बने रहते हैं और कुछ सुर्ख होते हैं।