रणबीर कपूर और दीपिका की रेलयात्रा / जयप्रकाश चौकसे

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रणबीर कपूर और दीपिका की रेलयात्रा
प्रकाशन तिथि :24 नवम्बर 2015


इतवार की दोपहर रणबीर कपूर, दीपिका पादुकोण और इम्तियाज अली मुंबई से दिल्ली जाने वाली ट्रेन में सवार हुए और उनका उद्‌देश्य अपनी फिल्म 'तमाशा' का प्रचार करना है। अत: पूरी यात्रा के दौरान वे यात्रियों से मुलाकात करेंगे। ज्ञातव्य है कि इम्तियाज अली की फिल्मों के पात्र प्राय: यात्रा पर रहते हैं। उनकी 'जब वी मैट' के पात्र ट्रेन में ही मिले थे, बिछड़े थे और फिर मिले थे। उनकी 'रॉक स्टार' का नायक दिल्ली से डरबन, लद्‌दाख से लिस्बन इत्यादि यात्राओं में रहता है। फिल्म और ट्रेन में मिलना-बिछुड़ना और फिर मिलना प्रेम-कथाओं की तरह है। भारत की रेलगाड़ियों में हर समय उतने यात्री होते हैं, जितनी आबादी ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड को मिलाकर है गोयाकि चलती हुई रेलगाड़ियों में देश ही मौजूद होता है और भारत की विविधता का सच्चा प्रतीक रेल का डिब्बा है। इतना ही नहीं रेल का डिब्बा भारत की विशेषता का भी प्रतीक है कि यात्रा के प्रारंभ में लगता है कि इतने अधिक लोग कैसे बैठेंगे पर रेल के चलते ही सभी लोग एडजस्ट हो जाते हैं, यह एडजस्टेबिलिटी भारतीय समाज की विशेषता रही है। कभी-कभी निर्मम व्यवस्थाएं इसी गुण को तोड़ने का प्रयास करती हैं। हर ट्रेन में एक डिब्बा उन लोगों के लिए होता है, जिन्होंने आरक्षण नहीं कराया है। हमारे समाज की तरह ट्रेन में भी श्रेणियां है और बिना आरक्षण के बैठने वालों का डिब्बा भारत के अधिकांश भाग का प्रतीक है। आरक्षण सबको उपलब्ध नहीं है परंतु जीवन ही यात्रा है। पैसेंजर गाड़ियां हर छोटे स्टेशन पर रुकती है। इसमें अधिकांश डिब्बे आरक्षण मुक्त होते हैं। आम आदमी के सफर का सबसे सस्ता साधन रेले रही हैं परंतु अब इसे विशेष सुविधा प्राप्त लोगों की यात्रा का साधन बनाया जा रहा है। टिकिट दर बढ़ा दी गई है। रेलयात्रा को साफ-सुधरा और सुविधाजनक बनाए जाने के नाम पर आम आदमी को अपनी यात्रा के सुलभ साधन से दूर ले जाया जा रहा है। ये उसी साजिश का हिस्सा है कि भारत को श्रेष्ठि वर्ग का देश बनाया जाए और आम आदमी को हाशिये पर फेंक दिया जाए।

बहरहाल, कुछ समय पूर्व सलमान खान ने योजना बनाई थी कि सरकार एक डिब्बे में फिल्म प्रदर्शित करें जैसा वीडियो बस में होता है। यात्रा के साथ मनोरंजन को जोड़ने का यह प्रयास था। व्यवस्था इस तरह के विचारों को यह मानकर खारिज करती है कि मंत्री और सांसद ही देश को सारा मनोरंजन देते हैं। राजनीति से बड़ी कोई नौटंकी नहीं है। सिनेमा की खोज करने वाले लुमियर बंधु की पहली चलती-फिरती तस्वीरों की फिल्म में एक ट्रेन के प्लेटफॉर्म पर रुकने का दृश्य था। चलायमान चीज का बेहतरीन प्रतीक रेलगाड़ी ही है। जावेद अख्तर की एक नज़्म का अाशय है कि चलती हुई रेलगाड़ी में बैठे आदमी को वृक्ष भागते नज़र आते हैं। ठीक इसी तरह समय तो दरख्त के समान खड़ा है और हम अपने ही गतिमान होने के कारण समय को गतिमान मानते हैं।

भारतीय सिनेमा में रेलगाड़ी के दृश्य अनेक फिल्मों में रहे हैं। बिमल राय की देवदास में देवदास जैसे ही शराब पीता है, रेल ड्राइवर इंजिन की धधकती हुई भट्‌टी में कोयला डालता है। रेलयात्रा पर एक सार्थक फिल्म का नाम ही '27 डाउन' था। राज कपूर ने जोकर के पहले भाग में ट्रेन का दृश्य कविता की तरह गढ़ा है, जब स्टेशन की ओर धीमी गति से जाती हुई ट्रेन के छात्रों को उनका साथी दौड़ते हुए फूल देता है। उन्होंने अपनी 'राम तेरी गंगा मैली' मंे ट्रेन के डिब्बे में एक सामाजिक सौद्‌देश्यता का दृश्य यह रखा था कि एक महिला युवा नायिका को कहती है कि कुछ खाया-पिया हो तो ही बच्चे को दूध पिला सकेगी परंतु अपने गंगा जल से भरे पात्र से उसे एक बूंद पानी देने को तैयार नहीं है। इस दृश्य के साथ रेल की ताल पर सेट किया एक लघु गीत भी था, 'मैं जानूं मेरा राजदुलारा भूखा है, दूध कहां से लाऊं आंचल सूखा है, अपनी आंखों में आंसू लेकर कैसे कहूं, चुप हो जा मुन्ने, हो सके तो सोजा।'

भारतीय फिल्मकारों ने रेलगाड़ी का इस्तेमाल कई तरीके से किया है। सत्यजीत राय की महान 'पाथेर पंचाली' में बच्चे मीलों चलकर भागती ट्रेन को देखने जाते हैं और इसमें से एक युवा होने पर पात्र को कम किराये में रेल ट्रैक के पास ही कमरा लेना होता है और ेल को लेकर बचपन की जो कौतिकता थी, 'अपुर संसार' में उसी रेल की आवाजों से अब वह तंग हो जाता है। बलदेवराज चोपड़ा की हिमाकत थी कि उन्होंने अमेरिकन फिल्म 'टावरिंग इनफर्नो' को 'बर्निंग ट्रेन' के तौर पर बनाया था। बहरहाल, अशोक कुमार ने भारत का पहला रैप गीत 'छुक छुक गाड़ी, कानपुर, नागपुर.....' गाया था। एक फिल्म में तलाकशुदा पति-पत्नी को एक ही सरनेम के कारण दो यात्रियों वाला कूपा मिलता है और सफर में रिश्ता जुड़ जाता है। रेल यात्रा स्वयं एक अफसाना है और इसके किस्से अनगिनत हैं।