रणबीर का अवचेतन अौर "बॉम्बे वेलवेट' / जयप्रकाश चौकसे

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रणबीर का अवचेतन अौर "बॉम्बे वेलवेट"
प्रकाशन तिथि :28 मई 2015


अनुराग कश्यप की 'बॉम्बे वेलवेट' की भयावह असफलता से फॉक्स कंपनी को हानि होगी और भारतीय सिनेमा का भी इस मामले में नुकसान है कि अब फॉक्स कंपनी छाछ भी फूंककर पिएगी। अनेक सिनेमाघरों को भी हानि हुई है परंतु सबसे बड़ा सदमा नायक रणबीर कपूर को लगा है। उन्होंने 'सांवरिया' के बाद ही फिल्मों का चयन इस दृष्टि से किया कि फिल्म में उनके लिए अपना अभिनय मांझने के कितने अवसर हैं। वे कभी सलमान या शाहरुख नहीं बनना चाहते थे, अभिनय प्रतिभा निखारना उनका एकमात्र उद्‌देश्य था।

इसी कारण उन्होंने युवा अयान मुखर्जी की 'वेक अप सिड' की और अयान व्यावसायिक सफलता भी अर्जित कर सकता है इसे 'ये जवानी है दीवानी' द्वारा सिद्ध किया। रणबीर और अयान गहरे मित्र है और एक-दूसरे पर पूरा भरोसा करते हैं। अपने को मांझने की चाह में ही उन्होंने अनुराग बसु की 'बर्फी' की और 'जग्गा जासूस' के निर्माण में भागीदार भी हैं। इम्तियाज अली की 'रॉक स्टार' के लिए घोर परिश्रम किया और उनके असाधारण अभिनय तथा रहमान के संगीत के कारण अविश्वसनीय चरित्र चित्रण वाली 'रॉकस्टार' सफल रही। उस प्रेम कहानी का दार्शनिक पक्ष सामान्य तर्क के परे था और नरगिस फखरी की तरह सपाट भावविहीन नायिका के बावजूद अकेले रणबीर कपूर उसे सफल बना गए।

अभिनव कश्यप की फिल्म भी इसलिए स्वीकार की कि वे स्वयं को एक नितांत तर्कहीन फिल्म का अनुभव कराना चाहते थे। उस हादसे के बावजूद इम्तियाज अली की सिफारिश पर उन्होंने अनुराग कश्यप की कथा सुनी और सच तो यह है कि "बॉम्बे वेलवेट' की कहानी भारत में महानगर के विकास के पीछे के भ्रष्टाचार की उत्तम कथा है परंतु फूहड़ पटकथा और क्लासिक के दंभ का चश्मा पहने अनुराग अपने आप को मार्टिन स्कॉरसेज़ी सिद्ध करना चाहते थे। नायिक के घर बम ब्लास्ट के बाद उसे नायिका की बहन की तरह प्रस्तुत करने के खेल बुंदेलखंड फिल्म्स नामक कंपनी के अंसारी सदियों पहले खेल चुके थे। बहरहाल "बॉम्बे वेलवेट' के हादसे का रणबीर कपूर पर यह असर हुआ हो कि अब प्रयोग नहीं करना चाहिए। हम प्राय: सत्य दुर्घटना से गलत नतीजे निकालते हैं, इसी कारण दुर्घटनाएं होती रहती हैं। प्राय: मृत फिल्मों के पोस्टमार्टम के नतीजे गलत निकलते हैं। सुनंदा थरूर के पेट से निकले पदार्थ विदेशी प्रयोगशाला में घटना के एक वर्ष बाद भेजे जा रहे हैं। पति के राजनीतिक विश्वास के कारण सुनंदा मरकर भी मरी नहीं हंै। उन्हें न जानने वाले उसे जिंदा रख रहे हैं।

बहरहाल, संवेदनशील रणबीर कपूर को "बॉम्बे वेलवेट' के लिए किए गए श्रम के व्यर्थ जाने का दुख: अवश्य हुआ होगा, क्योंकि कलाकार चरित्र को आत्मसात करके अभिनय करता हैं और शूटिंग के बाद उसे स्वयं तक पहुंचने की प्रक्रिया से भी गुजरना पड़ता है। कई दौर में बनने वाली फिल्म के लिए यह कष्टप्रद प्रक्रिया से बार-बार गुजरना पड़ता है और कभी नींद में भी पात्र के संवाद मुंह से निकलने लगते हैं। पात्र उसके अवचेतन का एक अंश बन जाता है। रणवीर सिंह इतने समय बाद भी 'गोलियों की रासलीला' के पात्र से बाहर नहीं आ पाए हैं। हर समय अपनी मर्दानगी का परचम लिए घूमते रहते हैं। "बॉम्बे वेलवेट' के स्ट्रीट फाइटिंग में पिटते रहने की क्षमता के कारण पैसा कमाने वाला पात्र रणबीर कपूर के यथार्थ स्वरूप से भिन्न है। उसे 'पिटाई' का कोई पुरस्कार समालोचकों ने भी नहीं दिया। यह स्ट्रीट फाइटिंग हॉलीवुड की इजाद है, यह हिंसा अमेरिका की गलियों में भी घटित नहीं होती। भारत में यह सड़कों पर नहीं संसद व विधानसभाओं में कभी-कभी होती है और इसमें भी 'पिटाई' तो उन भवनों में अदृश्य से रहने वाले आम आदमी की ही होती है। मजनू को मार पड़ने पर उसके निशान लैला की पीठ पर उभर आते थे। भारतीय नेता और अवाम का रिश्ता भी ऐसा ही है कि नेता की छद्‌म पिटाई से अवाम की पीठ पर घाव बन जाते हैं। बहरहाल रणबीर कपूर उस परिवार से आए हैं जहां इस तरह के हादसों से उभरने की गौरवशाली परम्परा है जो कहती है 'जख्मों से भरा सीना है मेरा, हंसती है मगर ये मस्त नजर'।