रतिनाथ की चाची / नागार्जुन / पृष्ठ 1
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कथासार / समीक्षा: शिवानी चोपड़ा
बाबा नागार्जुन के सभी उपन्यासों को आत्मकथात्मक माना जाता है।
रतिनाथ की चाची नामक उनके उपन्यास से भी ऐसा ही आभास होता है। इसमें आठ-दस साल के मासूम रतिनाथ की चाची की करुण कथा कही गयी है। पर सिर्फ चाची का जीवन ही इस उपन्यास में अभिव्यक्त नहीं हुआ है, इसमें पूरे मिथिलांचल का ग्रामीण जीवन भी प्रतिबिंबित हुआ है। एक और बात जो उपन्यास को कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण बनाती है, वह यह कि उपन्यास की कथा रतिनाथ के माध्यम से व्यक्त हुई है। रतिनाथ ने अपने ग्रामीण परिवेश को जैसा अनुभूत किया, वही यथार्थ बनकर पाठक के सामने आया है। वह व्यक्ति के नज़रिये से ही सोचता है, पर अपने परिवेश से उसे गहरा मोह है। उसकी समझ, नासमझी, अपरिपक्वता और संस्कार पाठकों के समक्ष हैं, उनका व्यर्थ उदात्तीकरण नहीं किया गया है। ब्राह्मणत्व का अहंकार, संस्कार व दरिद्रता के साथ परिवेश की वास्तविकता को इसी संदर्भ में प्रस्तुत किया गया है।
सन 1946 में बाबा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बन गये थे। पर उनके लिए साहित्य तथा रचनात्मक स्तर पर प्रगतिशीलता के मायने पार्टी व संगठन की वैचारिकता से बढ़कर थे। सत्ता में बैठा वर्ग राष्ट्र के भाग्य का निर्णय कर रहा था जिसे सवालों के घेरे में लाकर उसे जवाबदेह बनाना ज़रूरी हो गया था। एक ओर आधुनिक व उभरते भारत के स्वप्न को निर्मित किया जा रहा था, दूसरी ओर भारतीय ग्रामीण परिवेश मानो सदियों पीछे छूट गया था।
1948 में रतिनाथ की चाची उपन्यास लिखा गया, जिसमें स्पष्ट तौर पर यह सच्चाई सामने आती है कि हिंदू धार्मिक संस्कार द्वारा किस तरह से जातीय भेदभाव व स्त्राी उत्पीड़न के मूल्यों की नींव पर आधुनिक राष्ट्र का मिथक निर्मित किया गया। कुछ आलोचकों का मानना है कि बाबा के उपन्यासों का फलक छोटा है पर आज जिन आलोचना दृष्टियों का साहित्य में उपयोग हो रहा है, उनकी मदद से देखें तो एक छोटे-से गांव में, एक विधवा स्त्राी की दारुण कथा पूरे राष्ट्र की पृष्ठभूमि पर घटित होती प्रतीत होती है। जातीय व स्त्राी विमर्श की दृष्टि से इस उपन्यास का पुनर्मूल्यांकन कर देना भी सरलीकरण होगा, क्योंकि भले ही ये विमर्श सत्ता की संरचना को समझने में मदद करते हैं पर इनकी अपनी सीमाएं हैं। विचारधारा व जीवन पद्धति के रूप में सैद्धांतिक तौर पर वे अपर्याप्त हैं। फिर भी व्यवस्था में शोषण के बारीक़ ताने-बाने के एक-एक तार को खोल देने में मदद अवश्य करते हैं। बाबा प्रगतिशील साहित्य को कम्युनिस्ट पार्टी की बपौती मान लेना ग़लत समझते थे।
रचनात्मक स्तर पर जीवन के अनुभवों से मूल्यों की तलाश करना व समाज की अमानवीय, शोषणकारी व दमनकारी परिस्थितियों को ढूंढना-पहचानना यही अर्थ था बाबा के लिए प्रगतिशीलता का।
सत्ता से अलग व स्वतंत्रा होकर ही प्रगतिशील साहित्य क्रांतिकारी विचारों को प्रेरित कर सकता है। अपनी इसी सोच के कारण बाबा किसी एक जगह से कहीं जुड़े नहीं और यात्राी व यायावर बन गये। प्रगति को परिभाषित करने की राजनीति के सवाल पर बाबा अपने एक साक्षात्कार में कहते हैंμ‘विकासवाद का हेगेलीय रूप, डार्विनीय जीव वैज्ञानिक रूप और मार्क्सवादी समाजशास्त्राीय रूप, ये सभी रूप प्रगति को अपने-अपने ढंग से व्याख्यायित करते हैं, पर समाज की गतिशीलता किसमें है? गतिशीलता और अग्रगति में सैद्धांतिक अंतर है।’ स्वाधीनता की चौखट पर आते ही भारत की आधुनिकता व गतिशीलता को जिसका सामना करना पड़ा, वे सदियों पुरानी जड़ताएं थीं। गुलामी का संस्कार, सामंतवाद, जातीयता, धार्मिक कट्टरता, लैंगिक विभाजन आदि लोकतंत्रा व प्रगतिशीलता के विरोधी थे। आधुनिक भारत के साथ आधुनिक भारतीय स्त्राी की छवि जुड़ी हुई है जिसे सबसे ज़्यादा बंगाल के नवजागरण के एक महत्वपूर्ण सवाल के रूप में देखा गया। उसे सुशिक्षित, हिंदू धार्मिक संस्कारों में पगी, कुशल गृहिणी, परिवार की देखरेख करने वाली, स्वाधीन स्त्राी, आदर्श स्त्राी, आधुनिक स्त्राी, भारतीय स्त्राी आदि विशेषणों से नवाज़ा गया। रतिनाथ की चाची जैसे इन सभी छवियों व मिथकों के आवरण को चीरते हुए स्त्राी जीवन के दर्द व पिछड़ेपन को दर्शाती है। यह केवल ग्रामीण समाज का ही पिछड़ापन नहीं बल्कि पूरी व्यवस्था की संरचना का चरित्रा है। 1948 में लिखा गया यह उपन्यास तीस-चालीस साल पूर्व की परिस्थितियों को अभिव्यक्त करता है।
उत्पीड़न, प्रतारणा, अशिक्षा, दुर्व्यवहार, सामाजिक दबावों को भाग्य का खेल व नियति स्वीकार कर चुकी ग्रामीण विधवा स्त्राीμगौरी चाचीμडिफेंसिव स्त्राी चरित्रा है। आक्रामक व विद्रोही चरित्रा की उसमें दूर-दूर तक संभावना भी नहीं थी। जयशंकर प्रसाद ने भी अपनी एक कहानी ‘ममता’ में हिंदू विधवा को दुनिया की सबसे निराश्रित प्राणी बताया था। हालांकि इस कहानी में विधवा जीवन की खामियां बताना उनका उद्देश्य न था, फिर भी वास्तविकता सामने आ गयी। गौरी चाची जैसे चरित्रा पितृसत्ता को चुनौती दें, विरोध करें, संघर्ष करें, उससे उबरने व व्यवस्था परिवर्तन करने के लिए कोई कदम उठायेंμइस तरह की स्थितियां समाज में न होने के कारण साहित्य में भी अकल्पनीय थीं। साहित्य इस रूप में यथार्थ को चुनौती देते हुए मिलता है कि इस तरह के पात्रों के सहने की क्षमता, प्रतिरोध व उत्पीड़न को सामने रखता है। मातृभूमि के लिए बलिदान करने को तत्पर समाज गौरी चाची जैसी स्त्रिायों के मां बनने पर वैध, अवैध नैतिकता जैसे सवाल उठाता है। समाज-परिवार उसके प्रति क्रूर है और दंड देने को तत्पर है। आठ साल का रतिनाथ अपने देश की व्याख्या करता है जो राष्ट्र के मिथक से अलग हैμमेरा गांव, मेरा परिवेश, उसकी स्त्रिायां। मेरी मां, जन्म देने वाली नहीं, पर ममत्व उड़ेलती, स्नेहपूर्ण, बचपन की छांहμचाची खुद को होम कर दर-दर की ठोंकरे खाती, विधवा जीवन के कष्ट उठाती, दरिद्रता और मां बनने के कलंक को झेलती है। यहां राष्ट्र और मातृभूमि दोनों के मिथक टूट जाते हैं। जहां नारों की आवाज़ पहुंची नहीं थी, आंदोलनों की आग की तपिश अभी छू नहीं पायी थी, वहां क्रांतिकारी परिवर्तनों की संभावना पैदा करना प्रगतिशील साहित्य का उद्देश्य था। इसलिए लेखन का सामाजिक दायित्व मानते हुए बाबा ने साक्षात्कार में कहा,
‘यह संघर्ष का रास्ता है, जो चलेगा उसे कबीर की तरह कहना पड़ेगा, जो घर फूंके आपना, सो चले हमारे साथ। जीवन में क्रांति की और सामाजिक सेवा की, ऊंचे-ऊंचे आदर्शों की बात करने वालों को उसके अनुरूप आचरण भी करना चाहिए। झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों की ज़िंदगी कैसी है, ठंड, बरसात व लू के थपेड़ों के बीच काम करने वाले किसानों का जीवन कितना कठिन है, इसे जाने बिना रचनाकार का दायित्व-बोध अधूरा है। जब तक पेट भूखा न हो, वह हड़ताल और संघर्ष का अर्थ नहीं समझ सकता है। जनता को अपना स्रोत बनाना ज़रूरी है।’
इसी प्रगतिशील सोच के कारण बाबा गौरी चाची जैसे चरित्रा के जीवन को समझ सके व उसकी संघर्ष गाथा को अभिव्यक्त कर सके। रतिनाथ की चाची में विधवा जीवन के अभिशाप और सामाजिक मान्यताओं के अनुसार अवैध रूप से बने संबंध के कारण कलंक की प्रताड़ना को झेलती स्त्राी का चित्राण है। कुंभीपाक उपन्यास में वेश्या की समस्या को उठाया गया है। सामाजिक रूढ़ियों, वर्जनाओं व दैहिक पवित्राता की परंपरागत धारणा को अभिव्यक्त किया गया है। इसी तरह दुखमोचन में स्वाधीनता के बाद की स्थितियों का चित्राण है जिसमें निम्न, दरिद्र, शोषित किसान वर्ग के संघर्ष व आंदोलन के स्वर हैं। पर जितने मार्मिक ढंग से चाची का चरित्रा स्त्राी जीवन को सामने लाता है, उग्रतारा की उगनी या वरुण के बेटे की माधुरी में उसकी केवल झलक ही मिल पाती है। उग्रतारा की उगनी विवाह संबंध तोडकर व पति का घर त्याग कर प्रेमी के पास चली जाती है। वरुण के बेटे की माधुरी के माध्यम से पता चलता है कि निम्न जातियों की स्त्रिायों की अपेक्षा उच्च वर्ग व जातियों की स्त्रिायों की स्थिति अधिक दारुण है। यही स्थिति गौरी चाची के संदर्भ में भी सच है।
विधवा जीवन की समस्या बाल विधवाओं में ज़्यादा विकट थी। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार निम्न जातियों में इस तरह की समस्या नहीं थी। यह समस्या उच्च वर्णों में ज़्यादा थी। इसका एक उदाहरण पंडिता रमाबाई की किताब द हाई कास्ट हिंदू विडो है जिसके माध्यम से ऐसे कई तथ्य सामने आते हैं। आधुनिक भारत में समाज सुधार आंदोलनों के प्रभाव से 1856 ई. में हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम बना। इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश राज में रूढ़ व परंपरागत हिंदू धार्मिक मान्यताओं को बदलने के प्रयास नहीं किये गये। समाज सुधारकों के अपने प्रयासों के चलते सरकार को मजबूरन ऐसे कानून बनाने पड़े जिसमें पंडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर की महत्वपूर्ण भूमिका थी। पर विधवा विवाह को कानूनी मान्यता मिलने के बावजूद समाज पर इस कानून का प्रभाव न के बराबर था। परिवर्तन की प्रक्रिया कितनी धीमी थी, यह इस तथ्य से भी स्पष्ट होता है कि विधवा पुनर्विवाह अधिनियम बनने के लगभग अस्सी साल बाद विधवा को 1937 में संपत्ति का अधिकार प्राप्त हुआ था।
इस तरह यह समझा जा सकता है कि राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में किन राजनीतिक मांगों को प्राथमिकता दी गयी और स्त्राी के सवाल पर किन मांगों व मुद्दों को सुधार के लिए आवश्यक माना गया, गौरी चाची जैसी विधवा स्त्राी उसका रचनात्मक दस्तावेज़/ है। उपन्यास में जहां-जहां चाची के अंतर्मन की बातें और संवाद आते हैं, वे एक अर्थ में चाची की ‘टेस्टेमनी’ हैं जो रतिनाथ के माध्यम से पाठकों के सामने आती हैं। उपन्यास का आरंभ औरतों की मंडली में हो रही बातचीत से होता है। ये औरतों का सार्वजनिक क्षेत्रा भी है जो कि वास्तव में उनका था ही नहीं। पूरी मंडली में एक न्याय करने वाली बूढ़ी स्त्राी भी बैठी है। क्या उसके पास स्वतंत्रा सोच है। समाज की किन मान्यताओं को वह ढो रही है। गांव की ये सारी स्त्रिायां उमानाथ की मां यानी गौरी चाची को कठघरे में खड़ा कर देती हैं और उससे सफ़ाई मांगती हैं, गर्भ कैसे ठहर गया? विधवा होकर यह अपराध कैसे कर सकती हो?
यह वह कलंक था जिसके लिए वह अपराधी न होते हुए भी दंडित की जा रही थी। तब 11 साल का रतिनाथ सहम गया था कि क्या चाची उसके पिता जयनाथ का नाम सबको बता देगी? नहीं भी बताएगी तो यह बात कब तक छिपी रह सकती है। समाज का क्रूर चेहरा तब सामने आता है जब जयनाथ को सार्वजनिक क्षमायाचना करने पर माफ़ किया जा सकता था, पर चाची किसी भी तरह इस कलंक से मुक्ति नहीं पा सकती थी। इसलिए उसे समाज से निष्कासित और बहिष्कृत ही किया जा सकता था। आजीवन चाची इस कलंक के बोझ तले जीती है। गौरी के दूसरे विवाह की बात जब दूर की एक भाभी ने छेड़ी तो रतिनाथ ने भाभी को फटकारते हुए जवाब दिया, पंडित की लड़की होकर तुम ऐसी बात करती हो? दूसरी या तीसरी शादी क्या कभी किसी विधवा या सधवा ब्राह्मणी ने की है? इस अबोध बालक की सोच समाज का यथार्थ था। दुःख और भय दोनों भाव एक साथ चाची को घेरे रहते। एक ओर प्रगाढ़ दुःख में याद आता अपना भरा-पूरा बचपन, तो दूसरी ओर भय सताता कि जब उसके पुत्रा उमानाथ को पता चलेगा कि उसकी विधवा मां गर्भवती हो गयी है तब क्या होगा? चाची डर रही थी कि इस बात की ख़बर अगर थाने में चली गयी तब भ्रूण हत्या के अपराध में उसे सजा दी जायेगी। चाची को उस समय सारी पुरुष जाति से घृणा हो रही थी। उपन्यास में संपन्न कुलीन ब्राह्मणों के परिवारों का दोगलापन भी दिखाया गया है।
‘बिकौआ’ प्रथा का भी उल्लेख मिलता है जिसमें अभिजात दरिद्र ब्राह्मण अपनी कुलीनता का सौदा करके जीविका चलाते थे। एक व्यक्ति बाइस-बाइस शादियां करता और उसका जीवन ससुराल में ही कट जाता। हास्यास्पद बात यह है कि इस तरह के लोगों की समाज में बड़ी इज़्ज़त भी होती थी। इस तरह के कई अन्य प्रसंग भी उपन्यास में आते हैं जिन्हें उपन्यासकार ने गौरी के तथाकथित कलंक के बरक्स रखा है। उच्चजाति के छलावे को तोड़ने का काम चमाइन करती है जो गौरी का गर्भ गिराने आती है। वह कहती है,
‘माफ़ करना! बड़ी जातवालों की तुम्हारी यह बिरादरी बड़ी म्लेच्छ और बड़ी निष्ठुर होती है। हमारी बिरादरी में किसी के पेट से 8-9 महीने का बच्चा निकालकर जंगल में फेंक आने का रिवाज नहीं है।’
दरिद्रता के बावजूद जातीय अहंकार और समाज बिरादरी में इज़्ज़त का सवाल ज्यादा अहम बन जाता है जिससे गौरी अपने को बचा नहीं पाती है। ये अहंकार और इज़्ज़त के सवाल ही उसे दंडित करते हैं। जो अपराध उसने किया नहीं उसे उसके व्यभिचार का प्रमाण माना जा रहा है। गौरी के पास अपनी सफ़ाई देने के लिए शब्द तक नहीं थे। घर की इज़्ज़त व रतिनाथ के प्रति मोह उसे बांध देते हैं। दम्मो फूफी, जयनाथ और उमानाथ को रतिनाथ लगभग खलनायक की भूमिका में देखता है जिन पर बीच-बीच में व्यंग्य भी किया गया है। यही खलनायक गौरी को पतिता, भ्रष्टा व व्यभिचारिणी बना देते हैं। कुछ स्त्राी पात्रों के नाम इसलिए गिनाये हैं जिससे गौरी का व्यभिचार कम हो सके। जैसे शकुंतला के पति की सात शादियां, जनकिशोरी के पति की सात शादियां। ये स्त्रिायां किसी स्त्राी विमर्श के दबाव के कारण कथा का हिस्सा नहीं हैं बल्कि शोषण के विरोध और मुक्ति की अवधारणा को सबल बनाने वाली वैचारिकता से उपजी हैं। गौरी की सज़ा तय थी जबकि जयनाथ अन्य कई संबंध बनाने के लिए स्वतंत्रा था। सुशीला नाम की विधवा जो उसे बनारस में मिलती है, अपनी इच्छा से संबंध बनाती है। चाची पर अपने आसपास के समाज का इतना दबाव है कि उसकी इच्छा-अनिच्छा मायने ही नहीं रखती। सुशीला के माध्यम से बाल विधवाओं की नियति की ओर संकेत किया गया है जिनके पास संपत्ति अधिकार व आत्मनिर्भरता के साधन न होने के कारण अपने शरीर के अलावा कुछ बचता ही नहीं। जेठानी-ननद के दुर्व्यवहार से तंग आकर, नैहर में भाभी से खटपट के प्रसंगों के बाद कटिया महाराज द्वारा इज़्ज़त लूटे जाने की घटना होती है। अंततः खत्राी दुकानदार के घर उसकी रखैल बनकर रहती है। यही थी उसकी नियति।
जयनाथ पुरुष व उच्चवर्ण का होने के सभी लाभ उठाता है। वह गैरज़िम्मेदार, अय्याश और स्वार्थी है। जातीय व धार्मिक संस्कारों से जुड़े पाखंडों पर उपन्यास में व्यंग्य किया गया है। ऐसे ही एक वैदिक आचार्य अच्युतानंद, जो शुभंकरपुर के ब्राह्मण हैं, कलकत्ते में रहते हैं। उनकी अच्युत नीति और चातुर्य की पहचान को दिखाया गया है जिनके चरित्रा की छानबीन करना समाज आवश्यक नहीं समझता है। लेकिन तकली कातकर आत्मनिर्भर बनने का दयनीय, अहिंसक व निरीह प्रयास करती हुई गौरी चाची जब गर्भ धारण कर लेती है तब उसके चरित्रा को दाग़दार बनाने के लिए पूरा गांव आगे आ जाता है। इसके बावजूद वह जयनाथ से घृणा नहीं करती है। उसके स्वभाव में डर, निरीहता, पराजय है। वह शांत व सौम्य स्त्राी है। चाची के साथ ग्राम समाज का पिछड़ापन व जातीय यथार्थ भी व्यक्त हुआ है। निम्न जाति का कुल्ली राउत रतिनाथ को बहुत ही चतुर, व्यवहारिक और ज्ञानी लगता है। वह सोचता है,
‘अगर यह भी ब्राह्मण के घर पैदा होता तो निश्चय ही इसके बदन पर फटे-पुराने कपड़े न होते। हमारा जूठन खाकर, हमारा पहिरन पहनकर इनके बच्चे पलते हैं। क्या मर्द, क्या औरत, इन लोगों का जीवन बड़ी जात वालों की मेहरबानी पर टिका है।’
साथ ही नागार्जुन यह भी लिखते हैं,
‘समाज उन्हीं को दबाता है जो ग़रीब होते हैं।’
जातीय आधार पर शोषण के साथ समाज व्यवस्था में तेजी से वर्गीय आधार उभर रहा था, जिससे पुरुष समाज की अपेक्षा स्त्राी समाज अधिक तेजी से प्रभावित होता है। दम्मो फूफी ‘चाची’ को कठघरे में खड़ा कर अपना फ़ैसला सुनाती हैं, ‘उस भ्रष्ट औरत से भगवान हमें बचाये। इन आंखों के सामने वह न आवे। देखना यह है कि पड़ोस के इस पाप का हमारे जीवन पर क्या असर पड़ता है।’ पुरुष समाज की बनायी व्यवस्था को बड़ी-बूढ़ी बनाये रखने में स्त्रिायां अपना हित देखती हैं। रूढ़-सामंती समाज में जहां औरतें आत्मनिर्भर नहीं थीं, वे पारिवारिक, धार्मिक संस्कारों को बनाये रखने की ज़िम्मेदारी उठाती हैं। इसलिए दम्मो फूफी के न्याय में जयनाथ दोषी होकर भी बच जाता है और गौरी चाची सज़ा भोगती है। वह कहती है
‘मर्दो का तो कोई ठिकाना है नहीं। अगर हम न रहें तो संसार से आचार-विचार हट जाये। छिनाल है, उससे हमें किसी प्रकार का संबंध नहीं रखना चाहिए। बोलचाल बंद। बात-विचार बंद। प्रत्येक व्यवहार बंद। हां, जयनाथ और रतिनाथ दोनों बाप-पूत यदि प्रायश्चित कर लें तो इस समाज में उनके लिए स्थान हो सकता है, परंतु उमानाथ की मां को समाज किसी हालत में क्षमा नहीं कर सकता है।’
बदनामी और लोगों की फब्तियों के अलावा यह सज़ा तय की गयी चाची के लिए। उसकी क्षमायाचना के सवाल पर कहा गया,
‘प्रायश्चित की बातें तो कोई पंडित ही बता सकता है। खाली प्रायश्चित किसी काम का नहीं। जाति-बिरादरी का दंड ही इस प्रकार के अपराधों को फिर न दोहराने की दवा का काम करता रहेगा।’
यह भी एक विडंबना और विरोधाभास है कि एक ओर मातृभूमि के रूप में देश को परिभाषित किया गया, राष्ट्र की कल्पना मां के रूप में की गयी लेकिन ग्रामीण परिवेश में एक विधवा के मां बनने पर उसे दंडित किया जा रहा है। साफ़ है कि मातृत्व की धारणा भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था की परंपरागत नैतिकता के मानदंडों पर आधारित थी। गौरी से गांव की सभी स्त्रिायों ने संपर्क न रखने का फ़ैसला किया। पर वे तब कुछ न कहती थीं जब भोला पंडित जैसे पुरुष पुत्रा की लालसा से पैंतालिस साल की उम्र में न केवल दूसरी शादी रचाते हैं बल्कि
‘गुस्सा चढ़ने पर अपनी स्त्राी का झोंटा पकडकर चार लात देता है।’
ये सभी पुरुष सामाजिक दंड व कलंक के घेरे से बाहर थे। इतना ही नहीं, ‘बिकौआ’ से ब्याही स्त्रिायों के पर पुरुषों से गुप्त स्नेह संबंधों का भी उपन्यास में उल्लेख मिलता है। जो गुप्त है, वह अपराध नहीं। यही था उस ग्रामीण परिवेश का न्याय। बहुविवाह व बाल-विवाह जैसी प्रथाएं आम थीं। भारतीय समाज का परिवेश एक समान नहीं है। शुभंकरपुर, तरकुलवा जैसे कई ग्रामीण अंचलों में सदियों पुरानी परम्परागत व्यवस्था जीवित थी, जहां हर दूसरे कुलीन घर की कहानी एक जैसी थी। दरिद्रता से निज़ात पाने के लिए बहुविवाह व बाल-विवाह जैसी प्रथाएं आम थीं। जयनाथ की बहन का ब्याह ‘भागलपुर से बाईस कोस दक्षिण में बड़हड़वा गांव के मेवालाल ठाकुर से, जो बड़ा काश्तकार था, पचास की उम्र में कुलीन कन्या का पाणि ग्रहण करना चाहता था। दो शादियां पहले हो चुकी थीं। दोनों औरतें मौजूद थीं। एक से चार और दूसरी से सात संतानें थीं। पुत्रा प्राप्ति की मंशा से पूजा पाठ के लिए ब्राह्मणों की आवभगत का भी उपन्यास में उल्लेख मिलता है। पुत्रा जनकर भी स्त्राी मुक्त न हुई। गौरी चाची के पति की वर्षी पर उसका पुत्रा उमानाथ जब घर आता है, तब अपनी मां के कलंक-कारनामे की अफ़वाहों से उसके कान भर जाते हैं।
‘उमानाथ फुफकारता हुआ अपने आंगन में आया और मां का झोटा पकड़ लिया। वह बेचारी इस आकस्मिक आक्रमण से चकित थी ही कि उसी वक्त लड़के ने उसकी पीठ पर आठ-दस लात जमा दिये।’
बजाय इसके कि वह अपनी मां की पीड़ा समझता, यह फल मिलता है उसे अपने एकमात्रा पुत्रा से।
‘चाची अपने आंसू, अपनी आह सब पी गयी।’
माना जाता था कि पारंपरिक गृहस्थ जीवन के कर्त्तव्यों को ठीक से न निबाहने व उनका पालन न करने के कारण स्त्राी के पति की मृत्यु हो जाती है और विधवाओं को उनके पापों के लिए दण्डित करना उचित माना जाता था। चाची के प्रति गांव के लोगों में बदलाव की लहर तब आती है जब ‘जयदेव मिश्र नाम के ज्योतिषी का लड़का बंगाली लड़की से ब्याह कर लेता है, जिसका बाप क्रिस्तान है और अण्डा खाता है। गिरजा घर जाता है।’ इसलिए अब चाची के कलंक को लोग भूलने लगे थे। अंतर्जातीय विवाह हिन्दू धार्मिक संस्कारों के अनुसार वर्जित था। उपाय पूछा गया इस अपराध से मुक्ति का, जिससे सारा गांव विधर्मी के सम्पर्क में आने से बच सके, वह था, ब्राह्मणों को भोजन, दान-दक्षिणा आदि दी जाये ताकि वे आशीर्वाद दें। चाची के जीवन के साथ गांव और देश के बदलते परिदृश्य को चित्रित किया गया है। जैसे ज़मींदारों का कांग्रेस पार्टी में बोलबाला, उसके विरोध में किसानों का संगठित होना, आंदोलन करना आदि। गांव से दो एक लीडर भी उभर आये जिनके प्रभाव में आंदोलन बढ़ने लगा, किसान अपनी ज़मीन छोडने को तैयार नहीं थे। जब इसके लिए गांव भर से मुठिया वसूल की जाने लगी तब चाची ने भी बढ़-चढ़ कर दान दिया। किसान आंदोलन की क्या दशा थी, उस संघर्ष को अवसरवादी नेताओं ने किस तरह से चौपट कर दियाμये सब घटनाएं चाची की ढलती उम्र के साथ बढ़ती हैं। देश और दुनिया की ख़बर रखने के लिए चाची ने ताराचरण का सहारा लिया जिसके माध्यम से वह अपने को बाहर की दुनिया से जोड़ती है। शायद नागार्जुन चाची को पूरी तरह से एक प्रगतिशील चरित्रा के रूप में गढ़ना चाहते थे, जो संघर्ष करती है, शोषण सहती है पर उसके भीतर सीखने-जानने की व दुनिया को बेहतर ढंग से समझने की ललक है।
चाची कम खाती है, कम सोती है, व्रत उपवास अधिक रखने लगी। दिन-रात चरखा चला कर अपने भर का पैसा कमाना-जोड़ना, यही उसकी जीवन चर्या बन गयी थी। सूत कातकर बेचने वाले मेहनताने में भी बेईमानी होने लगी थी। चाची की समझ में यह नहीं आया कि गांधी जी के चेले इस प्रकार की बेईमानी क्यों करते हैं? जितना ध्यान चाची घर खर्च पर देती थी, जयनाथ उतना ही लापरवाह था। वह अपने देवर को समझाती भी है पर वह मजाक में टाल देता है और इधर-उधर संबंध बनाता फिरता है। घर-गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों से बेफ़िक्र जयनाथ को जब गौरी अंतिम बार इतना ही कहती है,
‘किसी भी युग में स्त्राी को अमृत पीने का सुयोग नहीं मिला। पुरुष को अमृत पिला कर स्वयं वह विषपान ही करती आई है।’
उपन्यास की घटनाएं ग्रामीण अंचल की प्रकृति, परिवेश और मौसम व चैत, आषाढ़, वैसाख आदि महीनों के साथ बदलती है। यह इसके शिल्प की खूबसूरती है। बड़े संयुक्त परिवार, रिश्तेदारियां व संबंधों के बीच जिस तरह जात-बिरादरी के सवाल को उठाया गया है, उसके केन्द्र में स्त्राी-जीवन का सवाल महत्वपूर्ण बन गया है। आजीवन त्रासदियों को झेलने वाली पात्रा विधवा चाची की पीड़ा तब चरम सीमा पर पहुंच जाती है जब बुढ़ापे में भी उसका जवान बेटा उसे अपराधी व कलंकित मानता है। वह सूत कातकर पैसा जोड़ती है और अपने बेटे के सुंदर वैवाहिक जीवन का सपना देखती है कि शायद जीवन के अंत समय में सुख के दो क्षण मिल जायें। उमानाथ जो पढ़ने में और समझदारी में औसत दिमाग वाला था, ठीक से कुछ कर नहीं पाता फिर भी मां के नाते वह उस पर भरोसा करती है कि सब ठीक हो जाएगा। जिसे दुनिया वाले भूल गये उस कलंक को याद रख उमानाथ अपनी पत्नी को भी भड़का देता है। तब चाची की जीने की रही-सही इच्छा भी जाती रहती है और वह सोचती है,
‘इस जीवन से मृत्यु लाख गुना श्रेयस्कर है। अपमान और तिरस्कार को वह झेल नहीं पाती और धीरे-धीरे जीवन को समाप्त करने की ठान लेती है। तकली कात-कात कर उसके हाथों में गड्ढे पड़ गये थे। जो रुपया कमाया उमानाथ के विवाह में खर्च कर दिया और उसका पुरस्कार मिला कि नववधू की घृणा का पात्रा बनी। ग्रामीण समाजों को शासित करने वाली नैतिक संहिता, धार्मिक मूल्य, सिद्धांत, आचार-व्यवहार, विचार, सामाजिक धारणाएं और वैधानिक मान्यताएं व्यक्ति पर दबाव बनाती हैं और उन बातों की निंदा करती हैं जो परिवार, घर के मुखिया या पुरुष को अपमानित करें। यही संस्कार चाची पर भी दबाव डालता है जिसके चलते वह कभी अपने पर लगे कलंक के ज़िम्मेदार जयनाथ का नाम नहीं लेती। दूसरा प्रमुख कारण रतिनाथ के प्रति स्नेह व ममत्व था, सोचती है कि बेचारा रतिनाथ अपने बाप के व्यभिचार की बदनामी क्यों भुगते। वह एक घरेलु स्त्राी है फिर भी आत्मनिर्भरता के लिए सूत कातती है। पढ़ी-लिखी नहीं है, पर ताराचरण उसे देश-दुनिया की खबरें सुना जाता। हिटलर ने रूस पर हमला कर दिया था। इस अशुभ समाचार से चाची को खेद हुआ था। चाची कहती है,
मैं पढ़ी-लिखी नहीं हूं मगर इतना समझती हूं कि पच्चीस साल से रूस वालों ने अपने यहां जो नया संसार बसाया है उसके अंदर जाकर राक्षसों की बड़ी से बड़ी फौज भी मात खा जायेगी। नागार्जुन चाची के जीवन के विकल्प की ओर संकेत कर रहे थे कि पढ़-लिख कर स्त्रिायां केवल अपना जीवन ही नहीं सुधार पायेंगी बल्कि बेहतर समाज के निर्माण में उनकी सोच लाभदायक हो सकती है। चाची के अंत से पहले इस तरह की घटना का उल्लेख लेखक की अपनी प्रतिबद्धता का भी सूचक है। जिस समय यह उपन्यास रचा गया तब तक स्त्राी जीवन में अनेक संभावनाएं दिखायी देने लगी थीं। पर गांवों का पिछड़ापन, आधुनिकता, आज़ादी और विकास की संभावनाओं का उपहास उड़ाता था।
भारतीय राष्ट्र की परिकल्पना के साथ स्त्राी का सवाल महत्वपूर्ण बन गया था। स्वाधीनता के बाद हाशिये पर पड़ा पूरा भूगोल चित्रित हुआ है। देश-प्रेम क्या है? नागार्जुन के लिए वह मिथिलांचल की मिट्टी और प्रकृति है। जबकि दकियानूसी संस्कार, अशिक्षा, ग़रीबी, जातिवाद आदि आंतरिक उपनिवेशवाद की जड़ हैं। लैंगिक समीक्षा के अंतर्गत इस रचना को महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ के रूप में पढ़ा जाना चाहिए। आज जब स्त्राीवादी नज़रिये और इतिहासबोध को विकसित किया जा रहा है, उसका अभिप्राय स्त्राी का उल्लेख मात्रा करना या बद्ध-मूल छवि के रूप में उपस्थिति दर्ज करना नहीं है। मृणालिनी सिन्हा के अनुसार सवालों को पूछने की यह पद्धति इतिहास की पुनर्रचना करती है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था वर्ग और जाति के पहले या बाद में निर्मित नहीं हुई बल्कि यह इनमें पूरी तरह से समाहित व अंतर्निहित है।
इन अर्थों में नारीवादी दृष्टि यह मानती है कि यथार्थ के सभी पक्ष लैंगिकता से प्रभावित व ग्रस्त हैं और लैंगिक अनुभव भी नस्ल, वर्ग, जाति, राष्ट्र व यौनिकता के अनुसार बदलते रहते हैं (लेखμ‘उपनिवेशवाद और राष्ट्रवाद की लैंगिक समीक्षा’, वुमैन एंड सोशल रीफोर्म इन इंडिया , भाग-2, सुमित सरकार, तनिका सरकार, पृ. 211)। औपनिवेशिक समीक्षा में भारतीय पुरुष की स्त्रिायों के प्रति बर्बर, क्रूर व हिंसक छवि निर्मित की गयी, जिसके प्रतिपक्ष में आदर्श भारतीय स्त्राी की छवि गढ़ी गयी जो स्थूल अर्थ में योरोपीय आधुनिकता के भी विपरीत थी। सुसंस्कृत, शिक्षित, कुशल गृहिणी, अनुगामिनी आर्य स्त्राी की छवि को गढ़ा गया। परंतु विधवाएं व वेश्याओं को इस वर्ग में शामिल नहीं किया गया। उनके जीवन में सुधार की अपेक्षा करना आदर्श भारतीय स्त्राी की छवि को धूमिल करना था। भारतीय परम्पराओं को पुनर्जीवित-पुनर्परिभाषित करने के लिए आदर्श आर्य हिंदू महिला की छवि तैयार की गयी जिससे विधवा जीवन को एक अभिशाप, कलंक और पाप माना गया।
उल्लेखनीय है कि नागार्जुन की मैथिली कविता ‘विलाप’ हिंदू समाज और मिथिला के ब्राह्मण समाज में विधवाओं की दुर्दशा का यथार्थवादी चित्रांकन करती है। यह पूरी कविता मानो रतिनाथ की चाची की गाथा गा रही है, जिसे नागार्जुन ने बहुत क़रीब से देखा था। इसमें राष्ट्र क्या, जाति क्या, मातृ वंदना क्या, सब पुरुष सत्ता के ढकोसले बताये गये हैं जिसकी वजह से स्त्राी जीवन क्षत-विक्षत है। यह कविता व्यंग्य करती है उस आदर्श स्त्राी छवि पर जिसे पुरुष ने अपनी सुविधा के लिए गढ़ा-रचा। चाची के चरित्रा की तुलना में उग्रतारा उपन्यास की ‘उगनी’ ज्यादा साहसी है और अपने जीवन के बारे में अंतिम निर्णय स्वयं लेती है। उगनी गर्भवती है, शंकाओं से भरी और भयभीत है, लेकिन अंत में निर्णय लेती है कि उसी व्यक्ति के साथ रहेगी जिससे वह प्रेम करती है। अपने पति को पत्रा लिखती है,
‘मैंने अपना सब कुछ जिसे सौंप दिया था, उस आदमी का दिल बहुत बड़ा है। पराये गर्भ को ढोने वाली अपनी प्रेमिका को फिर से, बिना किसी हिचक के उसने स्वीकार कर लिया है। उसने मुझसे शादी कर ली है।।’
बच्चे पर वह पिता से ज्यादा अपना हक़ जताती है। उगनी के इस निर्णय में कामेश्वर, नर्मदेश्वर और उसकी भाभी सब मिलकर शाबाशी देते हैं। लेकिन कुम्भीपाक उपन्यास में औरतों के देह व्यापार और पुरुष हिंसा की कई घटनाएं सामने आती हैं। भुवनेश्वरी जो अपने पति को छोड़ने के बाद इस दलदल में फंसी हुई है, जिसकी सोलह साल की बेटी गर्भवती हो गयी थी इसलिए उसका ब्याह चालीस-पैंतालीस वर्ष के अधेड़ आदमी से उसका पिता जबरन कर देता है। वह पति जो अपनी पत्नी के प्रति क्रूर है, रोज़ उसकी कुटाई करता है, उससे बचकर भागी तो देह के बाज़ार के नरक में आ गिरी। चंपा भुवनेश्वरी को पत्रा लिखती है,
‘इस कुंभीपाक नरक से निकल कर नयी दुनिया के समझदार लोगों के बीच पहुंच गयी हो। वहां जहां के नर नारी मिलजुलकर आगे बढ़ते हैं, जहां कोई किसी का फ़ायदा नहीं उठाता, कोई किसी को चकमा नहीं देता, जहां पुरुष बल होगा तो स्त्राी बुद्धि होगी, स्त्राी शक्ति होगी तो पुरुष ज्ञान।’
नागार्जुन समाज की परिभाषा के अनुसार आदर्श स्त्रिायों से अलग उन हाशिये के स्त्राी पात्रों के जीवन को अभिव्यक्त कर रहे थे। स्त्राी-पुरुष के साझे संसार का स्वप्न ही मुक्ति की अवधारणा को रच सकता है व सार्थक कर सकता है।
कथासार / समीक्षा: शिवानी चोपड़ा
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