रद्दी तो रद्दी है / शशांक दुबे
रद्दी तो रद्दी है, जो रद्दी में डालने की चीज है, लेकिन अपने देश में मामला अलग है। यहाँ रद्दी की इतनी इज्जत है कि लोग अंग्रेजी अखबारों को महज इसलिए पसंद करते हैं, क्योंकि इनकी रद्दी हिंदी पेपरों के मुकाबले महँगी बिकती है। तभी तो तगड़ा डोनेशन देकर एमबीए की डिग्री हासिल करने वाले लड़के अंग्रेजी अखबारों की मार्केटिंग करते समय यही गणित समझाते हैं कि यदि उनके अखबार का एक साल का चार सौ निन्यानवे रुपए का चंदा भर दिया तो पाँच सौ रुपए का एक डिब्बा मुफ्त मिलेगा ही, साल भर में लगभग इत्ते ही रुपयों की रद्दी भी फ्री में मिल जाएगी। सुटेट-बुटेड लड़कों के मुँह से यह बातें सुनकर घर का वित्त मंत्रालय सक्रिय हो उठता है। लिहाजा जो डायनिंग टेबल कभी सुबह-सुबह अखबार की छीना-झपटी का केंद्र-स्थल हुआ करती थी, वहाँ सन्नाटा पसरा रहता है। चालीस पेज का अखबार, आखिर कितना पढ़ें, क्यों पढ़ें और कब तक पढ़ते रहें? कई पन्ने तो बिन खुले ही रह जाते हैं। दो घंटे बाद ही यह अखबार तीन महीनों के ढेर के ऊपर शान से विराजमान हो जाता है।
फिर आती है वह घड़ी, जब इसे रद्दी के हवाले करना होता है। जिस प्रकार समझदार लोग ठंड में फ्रिज और गरमी में छतरी खरीदकर ऑफ-सीजन डिस्काउंट का लाभ उठाते हैं, उसी तरह सयाने लोग अखबार की रद्दी भी दीपावली के आसपास न निकालकर होली के महीने भर पहले निकालते हैं, ताकि ऑफ सीजन एप्रिसिएशन का लाभ मिल सके। रद्दीवाले की आहट सुनते ही लोगों के अंदर का अन्ना या केजरीवाल जाग जाता है और इन्हें हर रद्दी खरीदनेवाले में नेताई दिखाई पड़ने लगती है। जिस घर में महिला की चलती है, वहाँ कमर पर हाथ रखकर महिला मोर्चा सँभालती है। जहाँ पति की चलती है, वहाँ पति महाशय सुपरविजन करते हैं। जहाँ पति-पत्नी दोनों क्रमशः 'रामपुर का लक्ष्मण' और 'सीतापुर की गीता' हों, वहाँ बच्चों को 'पांडु हवलदार' बनना पड़ता है।
सबसे पहले तो रद्दी का भाव पूछा जाता है। जब वह छह रुपए बताता है, तो सभी लोग एकसाथ हल्ला बोलते हैं, 'इतने कम क्यों? लोग तो सात में ले रहे हैं।' इसका जवाब बड़ा आसान है। भारत में बारह महीने पर्व-त्योहार चला करते हैं। वह हाल ही में गुजरे या गुजरने वाले त्योहार या मौसम की दुहाई देकर बताता है कि होली / दिवाली / दशहरा / क्रिसमस / ईद / बरसात में रद्दी के भाव कम हो जाते हैं। फिर पूछा जाता है, 'अच्छा तराजू तो दिखाओ'। वह गर्व के साथ खाली तराजू हवा में लहराता है, जिसे देखकर हम खिसिया जाते हैं। अब शुरू होता है, अखबार तौलने का सिलसिला। रद्दीवाले की सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि उसके पास मात्र एक किलो का बाट होता है। वह उस एक किलो के बाट से एक किलो रद्दी तौलता है और फिर उसी रद्दी को बाट के साथ रखकर दो किलो का धड़ा (वजन) बना लेता है। अब दो किलो के इस धड़े के सामने पूरी ताकत से जितने ज्यादा से ज्यादा अखबार ठूँस सकता है, ठूँसता है और फिर काँपते हाथों से एक अखबार कम करते हुए दो किलो की एक ढेरी बनाता है। ऐसी ही दो-दो किलो की दो ढेरियाँ और बनती हैं। इस प्रकार तीन ढेरियों के छह किलो और एक किलो धड़े वाली ढेरी के। इस प्रकार सात किलो के बयालीस रुपए। हम उसको घूर के देखते हैं, 'बस! सात किलो?' जवाब में वह उन तुले हुए अखबारों में से हमारे द्वारा चालाकी से ठूँसे गए कॉपी-किताब के पन्ने बाहर निकालते हुए मुस्कराता है।
फिर पूछता है, 'और कुछ है, बॉटल वगैरह?'
'क्या भाव?'
'एक रुपए की तीन।'
'एक रुपए की तीन?'
'हाँ साब, त्योहार का समय है ना?' हमारी निगाह सामने खिड़की से झाँक रही मिसेस शर्मा पर पड़ती है। क्या सोचेंगी वे, भाई साहब पीते हैं? 'छोड़ो यार बोतल-वोतल। मनी प्लांट लगा लेना।' लेकिन नहीं। भरी बोतल पर भले पतियों का हक चलता आया हो हो, खाली बोतल पर तो पत्नी का ही हक होता है। वह एक साथ बारह बोतलें उसके सामने पटक देती हैं। हम शर्मिंदा होते हैं, अरे इतने दिन में बारह बोतलें पी गया? एक रुपए की तीन बोतलों के दर से रद्दी वाला इनके चार रुपए लगाता है। जिन बोतलों के लिए कभी बेटी ने मुँह मनाया था, कभी पत्नी रूठी थी, कभी पिताजी की डाँट और माँ की नसीहत सुननी पड़ी थी, जो कई महफिलों में हँसी-ठहाकों-गप्पों-गोष्ठियों की साक्षी बनी थीं, उनका जुलूस चार रुपए में उठ जाता है। कुल हुए छियालीस रुपए। वह शान से बंडी में से पचास का नोट निकालकर चार रुपए वापस माँगता है। हम चिढ़कर पाँच का सिक्का उसके हाथ में रख देते हैं। उसके जाने के बाद घर में एक आपातकालीन बैठक होती है, जिसमें रद्दीवाले द्वारा ठगे जाने पर एक दूसरे के खिलाफ दोषारोपण होता है। अंततः सारा दोष उसकी तराजू के मत्थे मढ़ दिया जाता है।
अगली बार दूसरे विकल्प के रूप में इलेक्ट्रॉनिक तराजू वाले को रद्दी देने का फैसला लिया जाता है। रद्दी-विक्रेताओं के लिए खास तौर पर बनाई गई इस तराजू में रद्दी को एक रस्से में लपेट कर हुक से लटकाया जाता है और उस हुक के ऊपर लगा मीटर वजन प्रदर्शित करता है। इसकी विशेषता है कि रद्दी वाला इसमें पूरी रद्दी ठूँसने के बाद लगभग लड़खड़ाते कदमों से वजन सँभालता है और हमीं से वजन पूछता है। उस जंग लगे डिस्प्ले बोर्ड में हमें चश्मे को साफ-सूफ करने के बाद बड़ी मुश्किल से सात दिखता है, जिसे सुनते ही रद्दीवाला गट्ठर पटक कर बंडी में से दस-दस के चार पुराने नोट और दो का नया सिक्का निकाल देता है। यह फार्मूला भी फ्लॉप साबित होता है। इसी बीच किसी शाम को बरमुडे में घुमते-घामते पड़ोसी हमें यह सलाह देता है कि घर से रद्दी ले जानेवाले सभी चोर होते हैं, तुम तो दुकान पे खुद ही जाकर दे आया करो। पड़ोसी की इस सलाह का घर के लोग जबरदस्त समर्थन करते हैं और किसी रविवार की सुबह दस बजे, जब लोग घर में गर्मागर्म पोहे-जलेबी या सैंडविच का नाश्ता कर रहे होते हैं, टीवी पर कोई मैच देख रहे होते हैं या अलसाई मुद्रा में मित्रों से फोन पर बतिया रहे होते हैं, हम एक सहायक यानी पत्नी या किसी होशियार बच्चे को लेकर लोगों से नजरें बचाते हुए दो-तीन किस्तों में रद्दी उठा-उठाकर गाड़ी की डिक्की में डालकर दुकान की ओर कूच करते हैं। अपने को एक कुशल विक्रेता समझते हुए हम गाड़ी दुकान से जरा दूर पार्क करते हुए उसकी दुकान के आसपास ऐसे मँडराते हैं, जैसे हमें उससे कोई लेना-देना नहीं। हालाँकि यह हथकंडा उन नौसिखिए टूरिस्टों जैसा है जो नए शहर में पहुँचते ही मय माल-सामान के होटल पहुँचने की बजाय, पत्नी-बच्चों को बस अड्डे पर बिठाकर खाली हाथ होटलवाले से भाव पूछने चले जाते हैं। बहरहाल हम उससे रद्दी का भाव पूछते हैं, जो वह तीन रुपए किलो बताता है।
'इतनी सस्ती कैसे? घरों में तो छह रुपए किलो बिक रही है?'
'साब हम तराजू भी तो सही रखते हैं'।
'ठीक है चलो किसी को भेजकर, रद्दी उतरवा लो।'
'कहाँ साब, कोई है कहाँ? चलो ठीक है मैं ही उतरवा देता हूँ।'
तीन किस्तों में रद्दी ढोते-ढोते औपचारिक बातों का सिलसिला होता है। रद्दीवाला बताता है कि आजकल वह रियल एस्टेट का भी साइड बिजनेस करता है। किसी को मकान बेचना-खरीदना हो, किराए से देना-लेना हो, तो बताना साहब। उसके पास पाँच किलो का भी बाट है। वह पाँच-पाँच किलो की दो किश्तें तौलने के बाद चार किलो और तौलता है। कुल हुए चौदह किलो। तीन रुपए के हिसाब से बयालीस रुपए। वह ड्रावर में झाँकता है, पाँच सौ का नोट निकाल कर कहता है, 'साब, आप ही से बोहनी कर रहा हूँ। चार सौ अट्ठावन रूपये वापस कर दीजिए।' अब इतने पैसे पास होते तो रद्दी बेचने निकलते? हम इनकार में सर हिलाते हैं, वह कहता है, 'कोई बात नहीं साब, बयालीस रुपए ही तो हैं, आते जाते ले लेना।' जाते-जाते वह खिड़की का शीशा खुलवाता है। अपना कार्ड देता है। 'साब कोई प्रॉपर्टी का मामला हो तो बताना, कार्ड में जो छपे हुए तीन नंबर हैं, उन पर मत करना, नीचे जो हाथ से लिखा हुआ है, उस पर करना।' और हम 'अगली रद्दी कहाँ बेचेंगे।' इस उधेड़बुन में लग जाते हैं।