रफूजी / स्वदेश दीपक
नानी बिल्कुल अनपढ़। अस्सी के ऊपर आयु होगी, लेकिन अँग्रेजी के कुछ शब्द उसे आते हैं-जैसे कि रिफ्यूजी, जिसे वह रफूजी बोलती है। कुछ शब्द इतिहास की उपज होते हैं, जो प्रतिदिन की जिन्दगी का हिस्सा बन जाते हैं। ये शब्द राजा अथवा रानी की देन होते हैं। अँग्रेज़ जाते-जाते बँटवारा करा गये और विरासत में एक शब्द दे गये-रिफ्यूजी। जैसा कुछ वर्ष पहले हमारी महारानी मरी और विरासत में एक शब्द दे गयी-उग्रवादी।
सारा कस्बा उसे नानी कहकर बुलाता है। शायद परिवार के सदस्यों के अलावा किसी को भी असली नाम मालूम या याद नहीं। जिस्म के सारे हिस्से जिस्म का साथ छोड़ चुके हैं सिवा आवाज़ के। फटे ढोल की तरह की आवाज़-एकदम कानफाड़ और ऊँची।
बेटे तो बँटवारे की भेंट चढ़ गये, एक लडक़ी बची थी, इसलिए कि विभाजन से पहले वह जालन्धर में ब्याही गयी। अब यह भी नहीं। उसके बेटे, अपने दोहते के साथ नानी रहती है, इस कस्बे में। कलेमों में थोड़ी ज़मीन मिल गयी। मकान भी बनवा लिया। दोहता कॉलेज में पढ़ता है, लेकिन नानी उसे प्रोफेसर नहीं, मास्टर कहकर बुलाती है। उसकी समझ में सब पढ़ाने वाले मास्टर ही होते हैं। वह जालन्धर के कॉलेज में, जो यहाँ से दस किलोमीटर दूर है, रोज पढ़ाने जाता है, स्कूटर पर।
नानी आँगन में नीम के पेड़ के नीचे लेटी हुई। बच्चे स्कूल जा चुके हैं, अपनी माँ के साथ, जो उसी स्कूल में पढ़ाती है।
आँगन में कदमों की आवा$जें। नानी कमर पर हाथ रख चारपाई पर अध-उठ गयी। अध-अन्धी है। नज़र बाँधकर कदमों को, आवा$जों को, जिस्मों के साथ जोडऩे की कोशिश की, लेकिन कोशिश, नाकाम।
“कोण। किस नूँ मिलना है? घर कोई नईं। शाम नूँ आँणा।”
नानी की आवाज़ सुनकर नीम पर बैठे कव्वे ने गर्दन घुमाया। कहीं कोई खतरा नहीं। फिर भी एक टहनी से दूसरी टहनी पर फलाँग गया।
“नानी, तेरी तो आँखों भी गयीं। चल, फिकर न कर, आँखों के बैंक से किसी जवान कुड़ी की आँखें तुझे डलवा देंगे। मरने से पहले जहान तो देख लेगी।”
“जीते, तू मोया साठ का हो गया, लेकिन जबान अब भी कैंची की कैंची। मैं मरने वाली नहीं। तेरा संसकार करके ही जाऊँगी। खातिरजमा रख।”
“नानी, बैंक से आँखें ला दूँ? एकदम जवान हो जाएगी।”
“कौन, मल्कियत। नानी को जवान बनाएगा। मोया, फिर सात फेरे भी लेगा न। तेरी घरवाली तो कब की मर गयी, मुझे घर ले चलना। इस उमर में लुत्तर-लुत्तर तो बन्द होगी।”
सरपंज सुरजीत सिंह ने नीम के नीचे दूसरी चरपाई बिछायी, तहमद टखनों तक खींची और पसर गया। नानी को फिर छेड़ा, “नानी बैंक से आँखें...”
“चुप ओये मोया। जीभ में कीड़े पड़ेंगे कीड़े। मुझे बेवकूफ बनाता है। बंक में तेरे बाप रुपये देते हैं कि आँखें...? तू तो अपनी माँ को भी ऐसे ही छेड़ता था।”
नानी को अचानक याद आया कि मल्कियत सिंह बिलकुल चुप है। जरूर कोई बात होगी, वरना यह तो कैंची है, कैंची लगातार चकट-चकट करती हुई।
“मलकीते, तैनूँ साँप क्यों सूँघ गया है? बोलता क्यों नहीं? रात बोतल नहीं मिली क्या? ठहर, मैं लस्सी लाती हूँ।” नानी ने उठने की कोशिश की।
“तू बैठी रह नानी, अबकी उठी शाम तक अन्दर से वापस आएगी। तेरे लारे और ब्याहे भी क्वारे।”
“मरजाँणा, बस महवारे डालना तो कोई तुझसे सीखे। अच्छा यह सवेरे-सवेरे यहाँ चढ़ाई किसलिए कर दी?”
सुरजीत और मल्कियत ने एक-दूसरे की तरफ पूछती निगाहों से देखा था-नानी से बात कौन करे? नानी ने उसकी चुप्पी को सूँघ लिया। उसे पता है इस इलाके के लोगों का एकदम चुप होना किसी बुरी बात के खतरे की निशानी होती है। वह थोड़ा-सा डर गयी इसलिए और ऊँची आवाज़ में बोली-
“ओये मोये, जीभ तालू से क्यों चिपक गयी? कुछ बकते क्यों नहीं? मेरे मास्टर की कहीं टक्कर तो नहीं लग गयी?”
इस बार आवाज़ का धमाका इतना ऊँचा था कि कव्वे बिल्कुल डर गये। उडारी भरकर छत पर जा बैठे।
“नानी की बच्ची, मास्टर नहीं, प्रोफेसर कह। तुझे कितनी बार बताया है कि जो कॉलेज में पढ़ाये, उसे प्रोफेसर कहते हैं।”
“चुप्प ओये, बड़ा आया मुझे सीख देने वाला। पढ़ाता ही है न, चाहे कालेज-फालज में पढ़ाये, चाहे स्कूल में, मास्टर तो मास्टर होगा, थानेदार तो नहीं। अच्छा बताओ, की गल है?”
मल्कियत ने सुरजीत को कुहनी मारी कि तू ही बोल। “सुन नानी, प्रोफसर को समझा दे कि फालतू न बोला करे। आजकल ऐसी बातें करना ठीक नहीं।”
“क्या फालतू बोलता है, ज़रा मैं भी तो सुनूँ। सारा दिन तो किताबें चाटता रहता हैं। अभी से ऐनक चढ़ गयी, बुड्ढा हो गया।”
नानी के लिए नज़र की ऐनक नज़र की शुरुआत है। “नानी, उगरवादियों के ख़िलाफ़ सरेआम बोलता है। अपनी क्लासों में भी। गाँव के लडक़े जो कॉलेज में पढ़ते हैं, उन्होंने हमें बताया।”
“खलाफ बोलता है तो क्या बुरा करता है। अब सच बोलने पर करफ्र्यू लग गया है क्या?”
“नानी, लगता है तेरा दिमाग भी चल गया।” सुरजीत सिंह की आवाज़ सख्त हो गयी, “तुझे पता नहीं कि अब मुल्क में सच बोलने की मनाही है। बस दो टैम की रोटी खाओ, और जो दिन खैर-खरीयत से गुजर जाए, सच्चे पातशाह की किरपा समझो। लोगों के सिर पर खून सवार है। लेकिन तेरा पढ़ा-लिखा प्रोफेसर तो झल्ला हो गया है, बोलने से बाज नहीं आता। क्या सरकार ने उसे सच का नम्बरदार बना दिया?”
नानी के अतीत से अपने पेड़ जैसे तीन लडक़ों का अपनी आँखों के सामने कत्ल होने का दृश्य कूदा और उसकी अध-अन्धी आँखों में ठहर गया। उसने पूरा जोर लगाया और चारपाई पर गठरी बन गयी। आजकल जो कुछ हो रहा है, उसे वैसे भी समझ नहीं आता, लेकिन आतंक की बू को तो जानवरों तक की इन्द्रियाँ ग्रहण कर लेती हैं। नानी को बहुत-सी बातें सुनाई तो देती हैं, कारण समझ न आये। उसने याचना भरी आवाज़ में सलाह दी।
“मलकीयते, तू ही समझा मास्टर को। तुमसे तो दबता है। मैं कुछ कहूँ तो जवाब तक नहीं देता। उसकी घरवाली भी कोशिश करती है, लेकिन पता नहीं उसे अँग्रेजी में क्या कहता है कि वह भी चुप हो जाती है। मेरी तो आखिरी निशानी है मेरा इन्दर। उसे भी कुछ हो गया तो खानदान का बीज तक नाश हो जाएगा।” अब नानी बेआवाज़ रो रही है। चेहरे की गहरी झुर्रियों में आँसू गिरकर अटक गये।
“ओये नानो, उसे क्या होगा। हमारे गाँव में किसी हिन्दू को आज तक किसी ने छुआ है क्या? मलकीयते की दोनाली बन्दूक को सारा दुआबा जानता है, समझी। दो कत्ल कर चुका है, दो।” उसने इतना ऊँचा बोला की छत की मुँडेर पर बैठे कव्वों ने इस बार लम्बी उडारी भरी और मकान की हद से बाहर निकल गये।
“लेकिन नानी, बड़ा ख़राब वक्त चल रहा है। किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता। भाई को भाई शक्क की न$ज़रा से देखने लग पड़ा है। इस इन्दर को हम भी समझाएँगे, लेकिन तू बात जरूर करना। चौरासी में जब दिल्ली में दंगे हुए थे, तो इन्दर हिन्दुओं के ख़िलाफ़ सरेआम बोलता था न। तब भी हमने समझाया, लेकिन नहीं माना न। हिन्दुओं ने ही ईंट मारकर उसका सिर फोड़ दिया था। कितना खून चढ़ा, तब जाकर बचा। उसे बता कि आजकल झूठ का बोलबाला और सच का मुँह काला।” सुरजीत चारपाई से उठा, तहमद नीचे की। मल्कियत ने साफ देखा कि नानी के चेहरे पर से दहशत अभी नहीं हटी?
“नानी, तू खातरजमा रख, हमारे होते चिड़ी भी गाँव में नहीं फडक़ सकती। ऐसा सूरमा किसी माँ ने पैदा नहीं किया, जो हमारे गाँव में आकर उस पर हमला कर सके। लेकिन शहर से तो स्कूटर पर अकेला आता है न, कहीं रास्ते में...” मल्कियत ने अपनी बात पूरी करने की जरूरत नहीं समझी।
“अच्छा पुत्तरों, तुसी चलो, साईं रखे।”
दोनों ने आज पहली बार नानी को वहाँ से जाने से पहले छेड़ा नहीं।
कव्वे फिर नीम के पेड़ पर लौट आये। काँव-काँव, रोटी दे-रोटी दे की रट लगा दी। नानी ने उन्हें गाली दी, “मोये, मरे जाते हैं। थोड़-सा भी सबर नहीं।” चारपाई से उतरी। कमर पर हाथ रखे, लचीले बाँस का-सा दोहरा होकर मुड़ गया शरीर अब अन्दर की तरफ घिसटना शुरू हुआ। साथ-साथ यादें भी।
हाँ, दिल्ली के दंगों के बाद इन्दर का सिर हिन्दुओं ने फोड़ दिया था। वह सरे आम उन्हें गालियाँ जो देता था। यह बात तो नानी को कल की तरह याद हैं। अभी अतीत की धूल इन दृश्यों में जमी जो नहीं।
दिल्ली से सिखों के कुछ परिवार यहाँ के गुरुद्वारे में रफूजी बनकर आये थे। नानी भी गाँव की औरतों के साथ रोटियों की पोटली बनाकर वहीं गयी, उनसे मिलने। वह कहीं अतीत-वर्तमान के बीच जिन्दा है। सहमी बैठी औरतों से पूछा था।
“क्यों, पाकस्तान ने आये हो जी?”
लुट-पुटकर आयी एक बूढ़ी औरत का चेहरा तमतमाया, शायद कोई कड़ा जवाब देने लगी। गाँव की औरतों ने उसे सैनत की, अपने सिर को हाथों से छूकर इशारे से बताया कि नानी के दिमाग के पुर्जें ढीले हैं। एक ने समझाया, “नानी, एह लोग दिल्ली से आये ने।”
नानी ने अध-अन्धी आँखें फाड़-फाडक़र सबकी तरफ देखा। हथेली की छतरी आँखों के आगे हाथ से बनायी। कुछ बच्चों के सहमे हुए चेहरे दृष्टि-दायरे में आये। उसने फटे-ढोल की आवाज़ में अपने गाँव की औरत को डाँटा, दिल्ली तो आये ने? हाय रब्बा, यह दिल्ली में पाकस्तान कब बन गया। मुसलमानों ने मारा है।”
“न, नानी, हिन्दुओं ने घर फूँक दिये, मरदों को ज़िन्दा जला दिया।”
नानी ने एक बच्ची के सिर पर हाथ रखा। बच्ची सुबकना शुरू हो गयी।
“न पुत्तर, रोंदे नईं। देखना, कल जवाहरलाल आएगा। तुम सबको मकान देगा, राशन भी देगा। हम पाकस्तान बनने पर कुलछेतर आये थे, हाँ। हर महीने जवाहरलाल कम्प में आता था। एक साल में सबको फिर से बसा दिया। मेरी गल पल्ले बाँध लो। उसे पता चल गया होगा, कल ज़रूर आएगा।”
कुछ बच्चे हँस पड़े। एक ने दूसरे को इशारे से समझाया कि बुढिय़ा बिल्कुल पागल है। उस अधेड़ औरत ने नानी को बताया, “नानी, जवाहरलाल तो कब का मर गया, अब कहाँ से आएगा?”
“चुप्प नी, जवाहर ज़रूर आएगा। बड्डी आयी नानी नू बेवकूफ बनाणवाली।”
अपने गाँव की औरत ने याद दिलाया, “नानी, तेरे दिन पूरे हो गये लगते हैं। तुझे तो कुछ याद नहीं रहता। ट्रक में बैठकर दिल्ली गयी थी कि नहीं, जवाहरलाल के अन्तम दर्शन करने।”
नानी हक्की-बक्की। याददाश्त ने छोटी-सी छलाँग लगायी-”हाँ, दिल्ली तो गयी थी किसके मरने पर? मात्मा गाँधी मरे था, तब न। कुड़ी ठीक कहंदी होएगी। जवाहर भी मर गया होएगा।”
नानी ने अपने हाथों से पतीलों से सबको दाल परोसी। चुन्नी के किनारे में बँधी गाँठ खोली, हाथ से छूकर बच्चों को पैसे बाँटे, “जाओ पुत्तर, लाले की दुकान से चीजी खा लो। नानी रोज आएगी। अपने छोनो-मोनो को चीजों के पैसे देगी। खब्बरदार जे कोई रोया ते। कल जवाहर आएगा। हाँ, कुलछेतर आता था तो मु_ियाँ भर-भर बच्चों को पैसे देता था। तुहानूँ वी देगा।”
“चल नानी, बहुत गलाँ हो गइयाँ। इन लोगों के लिए रात को रोटी भी बनानी है।”
“न भेंणो, रहने दो। यहीं तो ईंटों का चूल्हा बनाकर काम चला लेंगे।” अधेड़ उमर की औरत ने सबकी तरफ से हाथ बाँधकर कहा।
नानी को गुस्सा आ गया, “चुप्प नी, बड़ी आयी चूल्हा बनाने वाली। रफूजी हो, पाकस्तानों आये हो। रोटी बणायोगे। न जी। हमारी गड्डी अम्बरसर रुकी थी। पन्दरा दिन उत्थे रहे। सरगार भरावाँ ने एक दिन चूल्हा नहीं बालने दिया। असी रोटी रोटी पुचाँवाँगे। देख लेना कल जवाहर आएगा जरूर-पर-जरूर। सब ठीक कर देगा...”
काँव-काँव, रोटी दे, रोटी दे। अतीत का दृश्य कट गया। मोये भूखे, ज़रा भी सबर नहीं। नानी घिसटती हुई बाहर आयी। कव्वे फुदककर नीम से नीचे। नानी उन्हें रोटी के टुकड़े डालने लगी।
बाहर के दरवाजे के पास $फौ$जी बूटों की आवा$जें। सी.पी.आर.एफ. वाले आ गये। नानी ने इन दिनों अँग्रेजी का एक और शब्द सीख लिया-सी.पी.आर.एफ. दे $फौ$जी।
नायक ने पैर ठौककर नानी को सैल्यूट दिया। उसके साथ के जवान हँस पड़े।
“नानी, तुम इधर से जाने का नहीं।” नायक दक्षिण भारत का है। नानी से उलटी-सीधी हिंदी बोलने में उसे मजा आता है।
“न पुत्तर, जाणा कहाँ है?”
“बिलकुल ठीक। इस गाँव के हिन्दू-सिख में बहोत प्यार है, फिर डरने का क्यों? तुम जाएगा तो हमारी बोत इज्जत खराब होगा।”
“न पुत्तर, पर जीता ते मल्कीयत सवेरे आये थे। कहते हैं इन्दर बहुत बकबक करता है। खतरा है।”
“हाँ नानी, तुम उसको थोड़ा समझाकर रखो। बोत बात करना अच्छा नहीं। अभी बुरे दिन खत्म नहीं हुआ। अच्छा, हम जाते।”
“चुप्प ओए हम जाते के पुत्तर, वोह जो लस्सी का घड़ा भरा रखा है, तेरा बाप आकर पीएगा। हम जाते। बड़ी अँग्रेजी मारता है। जा, अन्दर से उठा ला। सबको पिला। हाय, इतनी गरमी में बेचारे सारा दिन मारे-मारे फिरते हो। लस्सी पीके जाँणा।”
“नानी, तुम तो हमारे सी.ओ. साब से भी जादा गुस्सा करता। बहुत हुकूम मारता है!” नायक ने छेड़ा।
“बड़ा देखा तेरी सीओ-फिओ। मेरे सामने ला किसी दिन। वोह फटकार दूँ कि आगे से तुम पर गुस्सा नहीं करेगा। हाँ, बड्डा सीओ-फिओ। बच्चों को डाँटता है हाँ...!”
जवानों ने लस्सी पी, सबने पैर ठोककर नानी को सैल्यूट किया और हँसते हुए घर से बाहर चले गये।
नानी ने सिर उठाकर ऊपर देखा। गर्दनें पेट के साथ लगाये कव्वे ऊँघ रहे हैं। भर गया पेट। मोयों को शान्ति पड़ गयी। अब सो रहे हैं।
वह फिर चारपाई पर लेट गयी। धूप सीधी माथे पर आ बैठी, शिस्त लगाकर। नानी उठी। चारपाई को थोड़ा परे खींचा, धूप को गाली दी-”मोयी, हाथ धोकर पीछे पड़े रहती है।” उसने चुन्नी की गोली गठरी बनायी, सिर के नीचे रखी, आँखों बन्द कर लीं।
हम चाहे सो जाएँ, लेकिन स्मृतियाँ तो हमेशा जागती रहती हैं, इन्हें कभी नींद नहीं आती। नानी के सोये मन-माथे में उसके तीन जवान लडक़े उग गये। लगातार लम्बे होते हुए। बुरछे जैसे जवान। इतने बड़े हो गये, फिर भी उनके कानों के पीछे नानी काला टीका लगाती थी। बड़ा बहुत गुस्सैल था। एक बार माँ को टोका था, 'टीका-फीका मत लगाया कर, यार लोग मखौल उड़ाते हैं।” नानी ने गाली देकर उसे बताया था कि मरजाणे किसी की नज़र खा जाएगी। बड़े ने माँ को घूरा और सख्त आवाज़ में जो कहा, वह वाक्य अब भी नानी के दिल पर खुदा हुआ है।
“कोई माँ का जाएा नज़र उठाकर देखेगा, तब ही नज़र लगेगी न। है कोई बब्बर शेर जो मेरी तरफ देखने का हौसला करे।” उसने अपनी हथेली से कान के पीछे लगा टीका पोंछा और दनदनाता हुआ बाहर निकल गया था।
दूसरा दृश्य अँधेरी कोठरी से बाहर निकला। पहले बलवाइयों ने बड़े के टुकड़े-टुकड़े किये थे, फिर दो छोटे भाइयों के। उसे जिन्दा छोड़ दिया था, ताकि ताउम्र कलेजा जलता रहे। लेकिन बड़े की शक्ल क्यों बदल रही है। उसके कटे सिर की जगह अपने दोहते इन्दर का सिर क्योंकर लग रहा है। नानी की नींद एक झटके से खुली, बिना कमर पर हाथ रखे चारपाई पर उठ बैठी। हथेलियाँ मुँह पर फेरी। सारे दृश्य वापस अपनी गार में भाग गये। उसने खुद से कहा, “हे रब्बा, खैर रख। दिन को अपने आना तो चंगा नहीं होगा। मेरा इन्दर क्योंकर सपने में आया। कहीं टक्कर तो नहीं...”
सूरज ठीक सिर पर। इन्दर के लौटने का समय हो गया। आज तो घरवाली भी जल्दी लौटेगी। शनीचर को आधी छुट्टी सारी हो जाती है न।
नानी बाहर वाले दरवाजे पर खड़ी हो गयी। किसी आते-जाते से वक्त पूछेगा। सबके लिए गरम-गरम फुल्के जो उतारने हैं।
गली वीराना भी और चुप भी। नानी ने गाली दी, “सब मर गये क्या?”
बैलों के गले की घण्टियों की आवाज़।
“वे, कौन हैं?”
“नानी, मैं बख्तावर। जा, अन्दर बैठा। अभी सबके आने में देर है।”
“बख्ते, वकीलों की तरह बहस न किया कर। टैम बता, टैम? फुलके उतारने हैं।”
“ओए नानी दी बच्ची, स्कूल दो बजे बन्द होता है। अभी बच्चों के आने में देर है, अन्दर बैठ। धूप में क्यों सड़ रही है?”
“तू रहा खोता का खोता। आज शनीचरवार है। तेरे बाप स्कूल वाले आधी छुट्टी पूरी छुट्टी करते हैं। क्या टैम हो गया?”
“ओए नानी, टैम नहीं, टाइम कहते हैं।”
“अच्छा-अच्छा अँग्रेज दे बीज, टैम बता।”
बख्तावर दसवीं पास है। जाते-जाते नानी को छेड़ा, -”एलवेन फारटी हो गये, फुल्के उतारना शुरू कर दे।”
“ओए कंज़रा, ठीक से टैम बोल। यह फारटी तेरी माँ क्या होते हैं?”
बख्तावर हँसा। “ग्यारह-चालीस” कहकर आगे बढ़ गया।
नानी घिसटती हुई रसोई में आयी। उसे दिखाई नहीं देता, लेकिन छूकर सारी चीजें तलाश कर लेती है। सरक-सरककर स्टोव के पास आटा, तवा, चकला इक_ा किया। पहली माचिस की तीली बत्तियों वाले स्टोव के बाहर गिरी। उसे पता नहीं चला। थोड़ी देर बाद स्टोव के मुँह के पास हथेली की, आँच नहीं लगी। दूसरी तीली जलाई, गाली दी-मोया, कितनी तीलियाँ साड़ता है।
वह जब भी रसोई में काम करे, साथ-साथ आरती शुरू-ओम जय जगदीश...
आँगन में स्कूटर रुका। इन्दर दो बच्चों और बीवी को साथ ले आया है। दोनों बच्चों भागते हुए अन्दर आये। एक साथ बोले, “नानी, मुँह खोल, टॉफी खा।”
“फिर आ गये जूते समेत चौके में। निकलो बाहर। मैं नईं खाँणी टाफी फाफी।”
बच्चों ने एक-दूसरे की तरफ देखा, पति-पत्नी ने एक-दूसरे की तरफ देखा। आते ही नानी ने बच्चों को डाँट दिया, जरूर कोई बात होगी।
“दम्मो, चटाई यहीं रसोई में बिछा दे। गरम-गरम फुल्के खाओ।”
नानी आज तक सही नाम दमयन्ती नहीं बोल सकी। पहली बार नाम सुना तो गाली दी थी, “मोया कितना मुश्किल नाम है? मैं तो दम्मो बुलाऊँगी।”
सबने खाना शुरू किया।
“नानी, क्या बात है, कोई आया था क्या?”
“हाँ, जीता और मल्कीयत आये थे, तेरी शिकायत लेकर।”
“क्या शिकायत?” इन्दर ने ज़रा कड़ी आवाज़ में पूछा।
“और कौन-सी नई बात करेंगे। कहरे थे तूने उगरवादियों के खलाफ बोलना बन्द नहीं किया।”
“जो गल्त बात है, उसे खिलाफ तो बोलूँगा ही।”
“क्यों, सिर फट चुका है पहले भी, अक्कल नहीं आयी? हिन्दुओं के खलाफ बोलता था न! जब दिल्ली में पाकस्तान बना, फाड़ दिया न सिर अगलों ने?”
“शी इज राइट।” पत्नी ने समझाया।
“दम्मो, तुझे सौ बार कहा है मेरे सामने गिट-पिट मत मारो करो। अपनी बोली में कह, जो कहना है।”
इन्दर ने पत्नी को डाँटा, “तुम बीच में मत बोलो। पढ़ी-लिखी हो फिर भी इतनी समझ नहीं कि हमारे चुप रहने से जो गलत है, ठीक नहीं हो जाता।”
“इन्दर पुत्तर, पढ़-लिखकर तेरी मत्त मारी गयी है क्या? तू सच का नम्बरदार तो नहीं। पहले तो सिर फूटा था, अब मारा जाएगा, मारा। सच्चा होने से अक्लमन्द होना चंगा है। एक चुप सौ सुख।” वह चुप हो गया दोनों बच्चों ने ताली बजायी, “पापा को पनिशमेंट, पापा को पनिशमेंट।” नानी का मुँह उँगलियों से खोला, एक-एक टॉफी जीभ पर रखी। नानी ने लम्बी साँस अन्दर खींची? टॉफी का रस जीभ पर बिछला और वह हँस पड़ी।
“इन्दर, रेडिया सुणा। आज तो कोई नहीं मारा गया न?”
“नानी, पाँच मरे।” और वह खाना बीच में ही छोडक़र उठ गया।
न हालात बदले, न ही इन्दर बदला। आदमी-तो-आदमी, अब जानवर भी दिन ढलने से पहले घर लौट आते हैं, बिना मालिक गायें और सडक़ी कुत्ते दुकानों के गलियारों में दुबके हुए हैं। इन्होंने भी सब जगह व्याप्त खतरे को सूँघ लिया, पहचान लिया।
पहले नानी के नाम एक पोस्टकार्ड आया। चेतावनी दी गयी कि अपने इन्दर शर्मा को समझा ले, नहीं तो...गाँववालों ने नानी को समझाया कि किसी शरारती लडक़े ने लिख दिया होगा। लेकिन हमेशा गरजकर बोलने वाला मल्कियत सिंह यह ख़त पढक़र कुछ न बोला, सिर्फ लम्बी उसाँस भरकर पानी के आँगन से उठ गया। हाँ, आजकल वह अपनी दोनाली बन्दूक हर वक्त पास रखता है। सूरज ढलने के बाद सुरजीत सिंह के साथ प्रत्येक हिन्दू परिवार के घर से सामने से गुरजता है, उन्हें हौसला बँधाता हुआ। नानी के घर दोनों रात गये तक बैठते हैं।
रात का पहला पहर ढल चुका होगा। मोटर साइकिल की आवाज़ नानी के घर की तरफ बढ़ती हुई। सबसे पहली सुनी भी उसने। डर हमारी इन्द्रियों को सान कर चढ़ाकर चौकस कर देता है। उसने पूरे जोर से इन्दर को आवाज़ दी, “इन्दर, उठ। अन्दर भाग। आ गये वो लोग।” उसने भी मोटर साइकिल की आवाज़ सुनी। नानी की फटे ढोल की आवाज़ ने उसे झटके से जगा दिया।
“सो जा नानी। यहाँ कौन आएगा? कोई पिक्चर देखकर शहर से लौटा होगा।”
नानी की आँखों में अपने बड़े बेटे के कटे सिर की जगह इन्दर के सिर लगने का दृश्य फिर कूद आया। चीख-चीखकर 'बचाओ, ए लोगों बचाओ' आसमान सिर पर उठा लिया। नीम पर सोये परिन्दे जाने, इन्दर की बीवी और बच्चे जागे, आँगन में कुहराम मच गया।
मोटर साइकिल उनके घर के आगे रुकी। नानी और दमयन्ती इन्दर को आँगन से अन्दर की ओर घसीटती हुई। बाहर का दरवाजा किसी ने लात मारकर तोड़ दिया। मुँह पर कपड़ा लपेटे एक आदमी अन्दर आया। कँधे पर बन्दूक रखी।
मोटर साइकिल की आवाज़ मल्कियत सिंह ने भी सुनी। दौडक़र अपने मकान की छत पर चढ़ा। नानी का घर साफ दिखाई दिया। इतनी दूर से निशाना तो क्या लगेगा, लेकिन फायर करके डराया तो जा सकता है। पहली गोली उसने नीम के पेड़ की तरफ चलायी। मुँह पर कपड़ा बाँधे आदमी के कन्धे पर रखी बन्दूक गोली की आवाज़ से थोड़ा नीचे हो गयी। उसने भी फायर किया। गोली इन्दर की जाँघ पर लगी। मोटर साइकिल पर बैठे आदमी ने कुछ कहा। मल्कियत ने दूसरा फायर किया। वह आदमी आँगन में दौडक़र बाहर निकला। मोटर साइकिल के पीछे बैठा। दनदनाती 'बुलेट' गाँव से बाहर जाती सडक़ पर मुड़ गयी।
गोलियों की आवाज़ गाँव के सारे लोगों ने भी सुनी। आँगन में सो रहे लोग घरों के अन्दर भाग गये। दरवाजे मजबूती से बन्द कर लिये। सबसे पहले मल्कियत और सुरजीत नानी के घर पहुँचे। पास खड़ी इन्दर की पत्नी को सुरजीत ने डाँटा, “बीबी, अन्दर जा और बच्चों को चुपा करा। तू कहाँ की डाक्टर है?”
मल्कियत ने इन्दर की लुंगी खोली। जाँघ को छुआ, जो खून से लथ-पथ हो चुकी थी। सुरजीत ने टार्च जलायी। मल्कियत ने हाथ से ही जाँघ का खून पोंछा, घाव देखने के लिए। “नानी, बच गया। गोली पट्ट के मांस पर ही लगी है। बाहर निकल गयी। हड्डी बच गयी है। चार दिन में चंगा हो जाएेगा।”
मल्कियत का बड़ा लडक़ा गाँव की डिसपेंसरी के हिन्दू डाक्टर को साथ लेकर वहाँ पहुँचा। डाक्टर ने चौखट के सहारे बैठी नानी को गुस्से से देखा और जहरीली आवाज़ में क्या, “नानी, यह तेरा इन्दर गाँव के सारे हिन्दुओं को कत्ल करवाकर ही रहेगा।”
जवाब सुरजीत ने दिया, “भरावा। तू पहले इन्दर की पट्टी कर दे, फिर हिन्दू-सिक्ख का रोना रो लेना।”
“यह तो पुलिस-केस है। पहले रिपोर्ट दर्ज...”
“क्यों भाई डाक्टर साहब, बन्दूक बड़ी कि पुलिस?” मल्कियत सिंह ने अपनी बन्दूक कन्धे पर रखकर पूछा।
डाक्टर सहम गया। अपनी दवाइयों का बैग खोला।
इन्दर को सुबह तक होश आ गया। गाँव से बड़े-बूढ़े ने आपस में सलाह की कि पुलिस में रपट दर्ज कराने से कुछ न होगा। उलटा इन्दर की ज़िन्दगी बिल्कुल ख़तरे में पड़ जाएेगी। सुरजीत ने भरी आवाज़ में इन्दर और नानी को सलाह दी कि अब उन्हें यहाँ से चले जाना चाहिए। मल्कियत आँखें नीचे किये धरती को घूरता रहा। वह कह या कर भी क्या सकता है। इन्दर पर रास्ते में भी हमला हो सकता है। तब कौन बचाएगा?
“हाँ पुत्तरो, अब हम हिन्दुस्तान चले जाएँगे।” नानी की आवाज़ में न दम, न नोंक-झोंक।
मल्कियत ने समझाया, “नानी, झल्ली तो नहीं हो गयी? कौन-स हिन्दुस्तान जाएेगाी?”
“न हम हिन्दुस्तान चले जाएँगे।”
इन्दर को करनाल के एक कॉलेज में नौकरी मिल गयी। दीवाली से एक दिन पहले वहीं जाना तय हो गया। नानी ने गाँव की औरतों को बताया, “हम हिन्दुस्तान जा रहे हैं। कुलछेतर कम्प लगा है।”
“नानी, इन्दर को करनाल नौकरी मिली है, हम कुरुक्षेत्र नहीं जा रहे।” इन्दर की पत्नी ने समयाया।
लेकिन नानी तो पिछले महीने-भर से अतीत में जी रही है-विभाजन के दिनों ने गुफा से निकलकर उसके दिमाग के छोटे-से जाग्रत हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया है। अतीत हमेशा अपने को दोहराता है इसलिए हमेशा वर्तमान से जुड़ा हुआ।
“देखो दम्मो, मुझे झूठे दिलासे मत दे, हाँ। हम कुलछेतर कम्प में जा रहे हैं। मुझे सब पता है।”
ट्रक का प्रबन्ध सुरजीत ने कर दिया। सुबह मुँह अँधेरे सामान लाद दिया गया। नानी को उठाकर ट्रक में मल्कियत ने लिटाया और हौसला दिया, “नानी, मैं तुझे वापस लेने आऊँगा। यहाँ के मकान की फिकर न करना। रब्ब सब कुछ जल्दी ही ठीक कर देगा।”
“न पुत्तर मलकीते। हम तो अब कुलछेतर कम्प में ही रहेंगे।” नानी ने आँखें बन्द कर ली।
सुरजीत और मल्कियत अपनी जीप में इनके साथ जाएँगे, पंजाब की सीमा तक पहुँचाने।
आगे-आगे ट्रक, पीछे-पीछे जीप। हवा में ठंडका आ गया है। नानी ने मोटा खेस मुँह पर लपेटा और सो गयी। छोटे बच्चे और दम्मो की भी आँख लग गयी। इन्दर आगे ड्राइवर के पास बैठा है।
लगभग तीन घण्टे में ट्रक हरियाणा की सीमा में पहुँच गया। धूप में थोड़ी गर्मी। पुलिस चौकी वालों ने चेकिंग के लिए रोका। इन्दर ने उन्हें करनाल में नौकरी मिलने की बात बतायी। सच पुलिसवालों को भी पता है। उन्होंने चुपचाप, उदास चेहरों से ट्रक के अन्दर देखा और आगे जाने की आज्ञा दे दी।
मल्कियत ट्रक में चढ़ा। नानी के पैर छुए, ऊँची और छेड़ती आवाज़ में कहा-
“नानी उठ, तेरा हिन्दुस्तान आ गया।” लेकिन नानी ने कोई जवाब नहीं दिया।
सुरजीत ने नानी के मुँह से खेस हटाया। कान के पास जोर से बोला, “नानी उठ, अपना हिन्दुस्तान देख ले।”
लेकिन नानी न हिली, न डुली, बस पथरायी आँखों खुली-की-खुली। मल्कियत ने हथेली से उसकी मरी हुर्ईं आँखें बन्द कीं। नानी हिन्दुस्तान की सीमा के पार जा चुकी थी।