रमजन चाची / मुकेश मानस
हमारे पड़ोस में ही तो रहती हैं रमजन चाची। हमारे घर में बस दो घर छोड़कर तीसरा घर उनका है। शहर में जन्मे, पढ़े-लिखे और नौकरी-पेशा हुए लोगों के लिए दो घरों का फासला भी अधिक होता है मगर रमजन चाची के लिए यह दूरी कोई खास मायने नहीं रखती है। सुबह से लेकर शाम तक और शाम से रात सोने तक हमारे घर में उनका आना-जाना लगा ही रहता है। कभी कुछ मांगने आयेंगी तो कभी कुछ देने, और जब मांगने-देने को कुछ न बचे तो मां से बतियाने का उनका बहाना बहुत पुराना है। शाम को मां अक्सर बरामदे में बैठकर पिताजी का इंतजार करती है। रमजन चाची भी आ जाएंगी और मां के साथ बतियाना शुरू कर देंगी। रमजन चाची के बहाने मुहल्ले की कुछ और औरतें भी वहां आकर बैठ जाती हैं। यूं कहा जा सकता है कि प्रत्येक शाम हमारे बरामदे में मुहल्ले भर की औरतों की कान्फ्रेंस चलती है। मैं भी कभी-कभी जब कालेज से जल्दी लौट आता हूँ तो चाची की बगल में बैठकर मुहल्ले भर की औरतों की बातें सुनता हूँ।
यहाँ रमजन चाची का व्यक्तित्व बहुमुखी हो जाता है। वह सबके दु:ख-दर्द की साथी हैं। सब उन्हें अपना दुखड़ा सुनाते हैं और वह खामोशी से सुनती हैं, सुनकर एक माँ की तरह हर किसी को धैर्य बंधाती हैं, उनमें आस्था और विश्वास के बीज बोती हैं। वास्तव में उम्र भी एक अनुभव है मगर जिसके पास जिंदगी का अनुभव हो, उसका हृदय विशाल हो ही जाता है और वह अपने भीतर हर किसी का दु:ख-दर्द समेट लेता है। रमजन चाची एक सही सलाहकार होने के साथ-साथ घरेलू डाक्टर भी हैं। “किसी को खांसी हो गई है। क्या इलाज करना चाहिए?” रमजन चाची से पूछो। “कमल के पेट में दर्द है, रमजन चाची से सिरका मांग लाओ।“ मुझे लगता है हमारे मुहल्ले के लोगों को रमजन चाची की ही भूख है। जब तक चाची को देख नहीं लेंगे, चैन नहीं पड़ेगा। पूरे मुहल्ले में सबके रोगों का इलाज केवल रमजन चाची हैं। वही अकेली सबकी हमदर्द हैं।
अभी पिछले दिनों रमेश की पत्नी को बच्चा होने वाला था। रमेश और उसकी पत्नी के अलावा घर की देख-रेख करने वाला कोई और नहीं था। चाची ने सुना, वह सब काम छोड़कर रमेश के घर पहुँची, उसकी पत्नी के साथ अस्पताल में गयीं। घर में रमेश को तीनों टाइम खाना बनाकर खिलाती रहीं, उसके घर में झाड़ू-पोंछा करती रहीं। रमेश की पत्नी ने लौटकर उनके हाथ पर जबरदस्ती एक सूती धोती और एक सौ इक्यावन रुपये रख दिये। रमजन चाची ने रमेश की पत्नी को लाख दुआएं देकर रुपये और धोती लिये। दूसरे दिन पूरे मुहल्ले को धोती दिखाती फिरीं। हमारे घर भी आयीं, मां को धोती दिखाने लगीं। मैंने भी देखी तो बोल पड़ा – “चाची। इसे यूं ही हाथों में धरे-धरे घूमती रहोगी या कभी पहनोगी भी।“
“अब क्या उमर रह गई है रे! अब तो पहनने-खाने को मन ही नहीं करता।“ चाची ने भीतर कहीं गहरे में धीमे-से एक आह भरी, मगर आंखों में एकाएक छलक आए समुद्र को वह छिपा नहीं सकीं। पहनने-खाने से वैराग्य और इस आह की गहराई में छिपी अथाह वेदना के मर्म को मैं समझ सकता हूँ। मैं जब नगर-निगम के प्राथमिक स्कूल में जाता था, तब से आज तक मैंने चाची को न जाने कितने दु:ख और अनकही व्यथा झेलते देखा है। मगर एक बात है चाची में... उसकी दिलेरी की दाद देनी पड़ेगी। बहुत बुरे दिन देखे हैं उसने... बहुत मुसीबतें झेली हैं मगर कभी किसी के सामने उसने अपना दुखड़ा नहीं रोया। उसके पेट में दु:ख के न जाने कितने सागर हिलोरें खाते रहते हैं मगर आज तक मैंने उसके होंठों को कांपते और आंखों को डबडबाते नहीं देखा है।
2
रमजन चाची अब लगभग साठ की हो गई हैं। कहते हैं जवानी में बहुत ही चंचल और जिद्दी थीं। ज्यादा खूबसूरत नहीं थीं मगर नाक-नक्श अच्छे थे। मेरठ के किसी मुहल्ले में रह रहे एक भले मुस्लिम परिवार में उनके अब्बू ने निकाह की सभी रस्में अदा कर उन्हें भेज दिया था। सालिक चाचा ने उन्हें देखते ही पसंद कर लिया था। चाची शायद यह जान गई थीं तभी तो निकाही रस्म अदा करते वक्त जब मौलवी ने उनसे पूछा – “क्या तुम्हें सालिक शौहर के रूप में पसंद है?” बहुत देर तक खामोश बैठी रही थीं चाची। ये देख सालिक चाचा को पसीना आने लगा मगर शरारती चाची ने आखिरकार ‘हां’ कर दी। सारा वातावरण खुशी की गमक से भर उठा और चारों तरफ से उन पर ‘निकाह मुबारक हो’ की बौछार होने लगी।
शादी के बाद सालिक चाचा काम की तलाश में दिल्ली आए। कुछ दिन भटकते रहे। फिर एक दिन एक सड़क की फुटपाथ पर चाय की दुकान खोलकर बैठ गये। कुछ ही दिनों में उन्होंने सरकारी दुकान खरीद ली। चाचा का काम खूब चल निकला। तीन-चार साल के बाद ही उन्होंने हमारे पड़ोस में मकान खरीद लिया। दुकान पर दिन-रात का खटराग और अथक परिश्रम ने चाचा को बीमार कर दिया और बीमारी ऐसी लगी कि चाचा दो-तीन महीने तक चारपाई पकड़े रहे। तब दिलेर चाची ने एक ऐतिहासिक निर्णय लिया था। सुबह चाचा को नहलाकर डाक्टर के पास ले जातीं, दवा दिलातीं और घर छोड़कर दुकान पर जा बैठतीं। घर की आर्थिक स्थिति में कोई गिरावट नहीं आयी।
उनकी तिमारदारी और खुदा के फ़ज़ल से सालिक चाचा एकदम ठीक हो गये। चाची ने मुहल्ले भर में मिठाईयाँ बांटीं। मुझे याद है मेरे हिस्से में बरफी के तीन टुकड़े आये थे। खुशी-खुशी उन्होंने उस दिन चाचा को दुकान पर भेजा। उनकी सलामती की दुआ मनातीं पूरे दिन मेरेी माँ से बतियाती रहीं। दोपहर बीती, शाम आयी - रात भी आयी मगर चाचा उस दिन कुछ और ही बनकर आये थे। उनके कदम लड़खड़ा रहे थे - होंठ कंपकंपा रहे थे। रमजन चाची को खोजते-खोजते वह हमारे घरे आये। उन्हें नशे में देख रमजन चाची का दिल धक्क से रह गया। चाचा ने उनका हाथ पकड़कर उन्हें बाहर की ओर खींचा और गली में धक्का दिया... चाची खामोश ही रहीं। मेरी माँ भौचक्की-सी अभी भी यह सब देख रही थी। वह चिल्लाना तो दूर, चाची को चाचा की गिरफ़्त से निकालने का प्रयास तक नहीं कर पा रही थी... तब तक पूरा मुहल्ला हमारे घर के आगे इक्ट्ठा हो गया।
“..साली, मैं बीमार क्या हो गया... तूने अपने यार बना लिये...। उनके साथ हंसने-हंसाने लगी... जा, तेरे खरीदार तुझे बुला रहे हैं...।”
चाचा ने एक बड़ा-सा पत्थर उठाया और चाची की टांगों पर दे मारा। माँ की चीख निकल पड़ी और मैं आंखें बन्द कर माँ से लिपट गया। मगर रमजन चाची यूँ ही खामोश पड़ी रहीं। उनकी एक टांग में घाव हो गया था जहाँ से खून की धारा बह निकली थी। चाचा उन्हें धक्का देने लगे।
“..जा, जा। अब मेरे पास क्या है? अपने यारों के पास जा...।“
चाचा का नशा पूरे जोर पर था। उन्होंने कुछ पल कुछ सोचने का-सा अनुभव किया और बोले, “.जा, आज के बाद तेरा-मेरा कोई रिश्ता नहीं... ले तलाक... तलाक।”
चाचा ने हाथ नचाया। जैसे ही वह कुछ बोलने को हुए, चाची ने लपककर उनके पैर पकड़ लिये – “अल्लाह के लिए मुझ पर रहम करो। मेरे बच्चों की ज़िन्दगी का ख्याल करो...।”
मगर चाचा ने उन्हें जोर से ठोकर मारी और चिल्लाकर कहा – “ ले तलाक।”
अवाज दूर तक गूंज गयी। मुहल्ले भर की औरतें और बच्चे एक अजीब-सी खामोशी के साथ अपने होंठ बांधे खड़े थे। धर्म के आगे सब बेबस थे। आखिर आदमी ने अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिए ईश्वर के बनाये पवित्रा ग्रंथों का सहारा ले ही लिया। सब शांत खड़े थे - एकदम शांत, निस्तेज।
3
चाची अपने तीनों बच्चों के साथ मायके चली गयी और साथ में ले गई पूरे मुहल्ले की हंसी-खुशी। बाद में जब नशा उतरा तो चाचा हक्के-बक्के रह गये। तीन-चार दिन तक घर में गुमसुम पड़े रहे। उसके बाद उन्होंने मेरी माँ से आग्रह किया कि वह जाकर चाची को लिवा आये। माँ ने कई बार कोशिश की, मगर चाची अपनी ज़िद पर अड़ी रही। आखिर एक दिन मैंने रोते हुए चाची को चाचा के मरने की खबर दी। चाची सारे बंधन तोड़कर, बिना समाज की परवाह किए दौड़ी चली आयी थी और मां से लिपटकर खूब फूट-फूटकर रोयी थी।
रमजन चाची फिर वापस मेरठ चली गयीं। माँ के पास अक्सर उनके खत आते रहते। सभी खतों में एक बात होती – “देख बाबू की माँ। तेरा बाबू सोना है, उसका ख्याल रखियो। अरी, बच्चे तो माँ-बाप के पेड़ होते हैं... अब यह माँ-बाप पर है कि उन्हें कैसे फल चाहिए। अगर परवरिश अच्छी है, खाद अच्छा है तो पौधा निश्चय ही मीठा फल देगा वरना तो...। मेरा अकबर भी अब बारहवें दरजे में चढ़ा है। बिचली के निकाह की बात चल रही है। सोचती हूँ कि उसके हाथ पीले कर दूँ...।¸” और भी न जाने क्या-क्या लिखवाती थीं अकबर भैया से चाची।
मैं नौवी कक्षा में था। माँ की चिट्ठी-पत्री का सारा काम मैं ही करता था। मुहल्ले भर की औरतें अब बहुत कम एक साथ बैठतीं और जब बैठतीं तब चाची की बात जरूर होती - एक दिन माँ ने मुझसे लिखवाया – “चाची, अब बहुत हो गया, लौट आओ। चाचा का घर तुम्हारी राह ताकता है। पूरे मुहल्ले को तुम्हारा इन्तजार है।” बदले में माँ को चिट्ठी मिली जिसमें हम सबको बिचली दीदी के निकाह में शामिल होने की ताकीद की गई थी। माँ ने पिताजी को मनाया। जैसे-तैसे सब जाने को तैयार हो गये मगर ऐन वक्त पर मुझे बुखार हो गया। पूरा मुहल्ला गया, मगर माँ न जा सकी।
लगभग दस-ग्यारह दिन बाद माँ को चाची का खत मिला। उन्होंने लिखवाया था – “बाबू की माँ। तूने निकाह में शामिल न होकर मुझ पर जुल्म किया है। बिचली तो क्षण-क्षण मुझसे पूछती रही कि अम्मां चाची क्यों नहीं आयी। अकबर नये कुर्ते और पाजामें में बिल्कुल अपने बाप जैसा दिख रहा था। उसी ने सारी रस्में अदा की... बिचली गई तो ऐसा लगा मानो मुझसे मेरा जिगर जुदा हो गया। भगवान उसे खुश रखे। अब अकबर की बारी है। छेड़ती हूँ तो कहता है - अम्मा, जब तक मुझे कोई नौकरी नहीं मिलेगी, मैं शादी नहीं करवाउंगा। सोचती थी उपर जाने से पहले पोती-पोते देख लेती। मगर लगता है कि अकबर सही कहता है... खैर, बाबू कैसा है?...” और फिर वही सोने वाली बात चाची ने एक बार फिर दोहरा दी। चिट्ठी के उत्तर में माँ ने मुझसे चिट्ठी लिखवाई और चाची को भेज दी। उस चिट्ठी के करीब दो-तीन साल तक चाची की कोई चिट्ठी नहीं आयी। माँ अचंभे में थी। दो-चार बार पिताजी को कहा भी मगर पिताजी अपनी व्यस्तता के कारण नहीं जा सके।
4
इन दिनों मेरी एक अजीब-सी आदत थी। मैं कालेज से लौटते वक्त रोजाना चाचा के घर की चारदीवारी में खड़े लोहे के दरवाजे के ताले पर एक निगाह जरूर फैंकता था। बरामदे में झाड़-झंखाड़ उग आये थे। एक दिन देखा तो दरवाजा खुला था और ताला नदारद था। मैं ठिठका... दिल ने कहा - शायद चाची लौट आयी है... मगर फिर मन ने कहा - शायद चाची ने मकान किसी को बेच दिया होगा। मैं उहापोह में रहा। माँ रसोई में खाना बना रही थी। मैं वहीं थम गया... माँ से पूछा तो माँ चहककर बोली – “तेरी चाची वापस दिल्ली लौट आयी है...” माँ की आवाज में खुशी गहराई तक लगी। मैं अभी भी असमंजस में था- “जा, जाकर अपनी चाची से मिल आ... बरसों बाद लौटी हैं, अब यहीं रहेंगी ताउम्र... कहीं नहीं जाएंगी” माँ की आवाज कानों में गूंज रही थी।
मैं एकाएक मुस्कुरा उठा, तेजी से वापस जाने को मुड़ा तो सामने चाची को देखकर मेरे पेट में ठहरी प्रसन्नता होंठों से सरसराकर हवा की तरह निकली... “चाची...।” मैं चहककर चाची के पैर छूने को झुका। चाची ने मुझे गले लगा लिया। बरसों बाद चाची को देखा था मगर उसके चेहरे की चमक अभी तक वैसी ही थी। उसकी आंखों में वही सफेद रुई-सी ममता तैर रही थी। बरसों पहले पास के हास्पिटल की एक नर्स के कमरे में एक बूढ़ी नर्स की तस्वीर देखी थी... सफेद धोती में वह बूढ़ी नर्स एकदम मरियम-सी लगी थी मुझे। उसके चेहरे पर एक अजीब-सी रुहानी शांति थी। मैं उसको देखता ही रह गया था... आज बरसों बाद चाची को देख उसकी याद आ गयी थी...।
“चाची, अच्छा हुआ तू आ गई...।” मैं दौड़कर भीतर से कुर्सी उठा लाया –“लो चाची, अपने पढ़ाकू की कुर्सी पर बैठो, इस पर बैठोगी तो तुम भी मेरी तरह पढ़ाकू हो जाओगी...।”
चाची ने सुना और खूब जोर से हंसी। किसी ने ठीक कहा है कि एक शरारती दूसरे की शरारत को बड़ी आसानी से समझ लेता है। मैं भी चाची के साथ हंसा और खूब हंसा। माँ न जाने क्यों खामोश खड़ी रही थी। थोड़ी-सी देर में माँ चाय के प्याले थमा गई। मैं चाची को अपने दफ्तर के शाही चपरासियों, फैशनपरस्त लड़कियों और सड़क पर भविष्य बताने वालों की कहानियाँ सुनाता रहा। चाची हंसती रही मगर माँ एकदम खामोश थी। न जाने क्यों माँ का इस तरह खामोश रहना मुझे खटक रहा था।
“अच्छा बाबू, अब चलूँ” चाची ने कहा, उठीं और चलने लगीं। “चाची, मैं अभी आ रहा हूँ। मेरे राजमा-चावल तैयार रखना। आज मैं तुम्हारा मेहमान हूँ।अ” जाती हुई चाची को मैंने चिल्लाकर कहा।
चाची हंसकर बोली – “अरे, तू आ तो सही। तुझे सब तैयार मिलेगा।”
चाची के जाने के बाद मैं खुद को रोक नहीं पाया। मैंने माँ से पूछ ही लिया – “क्या बात है, माँ। तुम आज बड़ी खामोश हो, चाची से बोलीं-बतलाइ भी नहीं।¸” माँ ने कुछ जवाब नहीं दिया, बस फफक-फफक कर रोने लगीं। मैं सहमकर खड़ा हो गया।
“जिस चाची से तू इतना हंसी-मजाक कर रहा था, उसी से पूछ, क्या अकबर को मेरठ के दंगो में खोने के बाद भी उतनी ही मासूमियत से हंस सकती है... उसने बहुत सहा है, वह औरत अपने जिगर पर पत्थर रखकर जी रही है। उसकी खामोश आसमानी आंखों से पूंछ कि एकमात्र जवान बेटे को खो देने के बाद भी वह डबडबाई क्यों नहीं? अपने बेटे की लाश पर पीएसी के जवानों की ग्यारह गोलियाँ देखकर कितना छटपटाई होगी वह...।¸ माँ सुबकती रही और मैं अपने ज़ेहन में अकबर भाई की धुंधली पड़ती तस्वीर को साफ करने लगा था। माँ फिर बोल पड़ी। उसके भीतर कहीं ज्वाला-सी दहक रही थी... “बिचली के पति ने सिर्फ़ तीन शब्द कहकर उससे अपना रिश्ता तोड़ लिया... कितनी मेहनत और मशक्कत से चाची ने कुछ रुपये जुटाकर बिचली का निकाह किया था”
माँ रोती रही - बहुत देर तक रोती रही। मैं उसे चुप कराने की हिम्मत भी न कर सका। थोड़ी देर पहले जो चाची मेरे साथ हंस रही थी, उसी चाची की तस्वीर अब बहुत कारुणिक और दर्दीली हो रही थी। मैं रोना चाहता था... तभी दरवाजे पर चाची ने पुकारा – “अरे बाबू। आ जा बेटा, तेरी दावत तैयार है। जल्दी आ, नहीं तो सब ठंडा हो जायेगा...।” चाची चली गयी मगर मैं यूं ही बैठा अपने घर के दरवाजे को ताकता रहा।
5
करीब तीन-चार महीने बाद मुझे बिचली दीदी ने सब बता दिया कि कैसे उन्हें पता चला कि उनके पति के किसी लड़की के साथ अवैध संबंध हैं। उन्हें पति से धमकी मिली कि अगर उन्होंने किसी को बताया तो उन्हें तलाक दे दिया जायेगा। दीदी चुप रही मगर बात जल्दी ही खुल गयी। एक रात उनके पति ने उन्हें खूब मारा और ‘तलाक’ के तीन शब्द देकर उन्हें घर से बाहर निकाल दिया। रमजन चाची ने उन्हें भी प्यार से अपने आंचल में बिठा लिया। मैं भीतर-ही-भीतर सुलग रहा था। सोचता था कि भगवान इतना निष्ठुर नहीं हो सकता है...। रमजन चाची फिर पूरे मुहल्ले में चर्चित हो चुकी थीं। उनका मांगना-देना, आना-जाना फिर शुरू हो गया था। छुटकी दीदी अब समझदार हो गयी थीं। चाची ने उनकी बात चलायी। पहले तो दीदी शादी को तैयार ही नहीं हुई मगर चाची ने उन्हें समझा-बुझाकर मना लिया। शादी से एक दिन पहले मैं दीदी को एक नया सूट देकर आया था और ताकीद कर आया था – “दीदी, ये मैंने अपनी तनख्वाह में से खरीदा है...।” दीदी ने मुझे भर्राये गले से शुक्रिया कहा था। पूरी रात मुहल्ले भर की औरतें चाची के घर गाती-बजाती रहीं, मगर मुझे उस दिन चैन की नींद आयी। दूसरे दिन बड़ी खुशी के साथ उठा और तैयार होने लगा।
“...माँ। तुम दीदी को उनके निकाह पर क्या दे रही हो...?”
“कुछ नहीं।”
“क्यों”
“अब उसे कुछ भी देना बेकार है, बेटा।” माँ जोर-जोर से रोने लगी। मैं किसी आशंका से कांप उठा।
“...तेरी दीदी ने कल रात गले में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली।”
मैं भीतर तक सिसक उठा, एकदम संवेदनशून्य हो गया... भीतर कहीं गहरी पृष्ठभूमि में तीन लफ़्ज़ खिलखिला रहे थे - तलाक, तलाक, तलाक। 1990